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सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

मेरे सहचर मित्र (Mere sahchar mitra by Muktibodh)

मेरे सहचर मित्र
ज़िन्दगी के फूटे घुटनों से बहती 
रक्तधार का ज़िक्र न कर,
क्यों चढ़ा स्वयं के कन्धों पर 
यों खड़ा किया 
नभ को छूने, मुझको तुमने। 
अपने से दुगुना बड़ा किया 
मुझको क्योंकर ?
गम्भीर तुम्हारे वक्षस्थल में 
अनुभव-हिम-कन्या 
गंगा-यमुना के जल की 
पावन शक्तिमान् लहरें पी लेने दो। 
ओ मित्र, तुम्हारे वक्षस्थल के भीतर के 
अन्तस्तल का पूरा विप्लव जी लेने दो। 
उस विप्लव के निष्कर्षों के 
धागों से अब 
अपनी विदीर्ण जीवन-चादर सी लेने दो। ...


कवि - मुक्तिबोध 
संकलन - चाँद का मुँह टेढ़ा है 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2001 

सोमवार, 29 सितंबर 2014

मुझे क़दम-क़दम पर (Mujhe kadam-kadam par by Muktibodh)

मुझे क़दम-क़दम पर 
              चौराहे मिलते हैं 
              बाँहें !फैलाए !!

एक पैर रखता हूँ 
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ ;
बहुत अच्छे लगते हैं 
उनके तज़ुर्बे और अपने सपने … 
               सब सच्चे लगते हैं ;
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ ;
जाने क्या मिल जाए !!
…   …   … 



कवि - मुक्तिबोध 
किताब - छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध 
संपादक - राजेन्द्र मिश्र 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

उड़ गया है रंग (Uda gaya hai rang by Muktibodh)

उड़ गया है रंग 
प्राण दुकूल का, पर चढ़ रहा है ओज 
व्यक्ति-बबूल पर 
औ' तिक्त कड़ुए गोंद-सा 
कुछ व्यर्थ का साफल्य 
सूना सारहीन महत्त्व 
बहकर सूखकर एकत्र है 
औ' खुरदुरे काले तने की डालियाँ 
इस गोंद की 
कटु-कठिन गाँठों से 
सुशोभित हो 
प्रदर्शित कर रही हैं आत्म-वैभव 
आत्म-गरिमा 
रात-दिन 


[संभावित रचनाकाल 1945-1946. बनारस. हंस, जून 1946 में प्रकाशित]

कवि - मुक्तिबोध 
संकलन - मुक्तिबोध रचनावली, खंड 1 
संपादक - नेमिचंद्र जैन 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, तीसरी आवृत्ति, 2011 

आज के भाषण के संदर्भ में इस कविता को पढ़ें तो एक और कोण खुलता है !

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

एक सपना (Ek sapana by Muktibodh)


पता नहीं न जाने कब से डाल रक्खा है 
शिखरों के रुँधे हुए विवरों में 
आत्म-चेतन अँधेरे में 
              कोई मैला जाल रक्खा है 
नगरों का कचरा सब पाल रक्खा है l

रामायण के न जाने कब के सड़े पत्ते 
गयी-गुज़री रोशनी के टूटे हुए कुछ स्विच 
रौबदार वसीलों से फूले हुए थीसिस 
मरी हुई परियों की
कुर्सियों के टूटे हुए हत्थे 
श्रृंगार-प्रसाधन का अटाला व जाँघिए
पीले पड़े प्रेमपत्र भरे हुए बैंक-बुक 
अँगड़ाई लेती हुई कलाओं की मेहराब 
अध-नंगे वाक़ए 
भिन्न-भिन्न पोज़ और भिन्न रूप-कोण लिए फ़ोटो
रौब-दाब, दाँव-पेंच छक्के-सत्ते
विदेशों के लिए सिये फ़ैशनेबल कपड़े-लत्ते
भूरे पड़े पासपोर्ट सड़े हुए पोर्टमेंटो
और इस सब शुची सामग्री की राशि पर 
भूतपूर्व ज्वालाओं के इन सब 
भवनों के अंदर
तहख़ाने तलघर 
जिनके गहरे सावधान अँधेरे में घनघोर 
मरी हुई परियों के मिले-जुले कमज़ोर 
नाज़ुक-नाज़ुक गलों से 
फूट पड़ता एकाएक 
कोई रोना नभ तक 
गूँजता है अब भी 
कहता है -सारी आग 
जाने कब की बुझ गयी;
गरम-गरम झरनों का झाग भी न बचा है 
सिर्फ़ देह पर रह गयी रह गयी आदतें 
हर चीज़ मुट्ठी में रखने की सिफ़तें 
बन गयी खूँख़ार
इसीलिए, बचा-खुचा जो भी रह गया है 
ब्याजं उसका, दर उसका बहुत बढ़ गया है !!

इतने में देखता मैं क्या हूँ कि 
उन्हीं ज्वालामुखियों के दल में से एक ने 
सीसे-जैसी लंबी-लंबी आसमानी हदों तक 
लंबी चुरुट सुलगायी
दाँतों से होठ दाब जाने किस तैश में 
चहरे की सलवटें और रौबदार कीं
गड़गड़ाते हुए वह कहने लगा - हे मूर्ख,
देख मुझे पहचान 
मुझे जान 
मैं मरा नहीं हूँ 
देखते नहीं हो क्या 
मेरी यह सिगरेट धुँआती है अब तक 
मेरी आग मुझमें है जल रही अब भी l 

इतने में मेरा सपना खुल गया 
                    उचट गयी मेरी नींद l 


कवि - मुक्तिबोध 
किताब - मुक्तिबोध रचनावली, भाग 2 
प्रकाशक - राजकमल, 

शनिवार, 24 नवंबर 2012

नूतन अहं (Nutan aham by Muktibodh)



कर सको घृणा 
क्या इतना 
रखते हो अखण्ड तुम प्रेम ?
जितनी अखण्ड हो सके घृणा 
उतना प्रचण्ड 
रखते क्या जीवन का व्रत-नेम ?
प्रेम करोगे सतत ? कि जिस से 
उस से उठ ऊपर बह लो 
ज्यों जल पृथ्वी के अन्तरंग 
में घूम निकल झरता निर्मल वैसे तुम ऊपर वह लो ?
क्या रखते अन्तर में तुम इतनी ग्लानि 
कि जिस से मरने और मारने को रह लो तुम तत्पर ?
क्या कभी उदासी गहिर रही 
सपनों पर, जीवन पर छायी 
जो पहना दे एकाकीपन का लौह वस्त्र, आत्मा के तन पर ?
है ख़त्म हो चुका स्नेह-कोष सब तेरा 
जो रखता था मन में कुछ गीलापन 
और रिक्त हो चुका सर्व-रोष 
जो चिर-विरोध में रखता था आत्मा में गर्मी, सहज भव्यता,
मधुर आत्म-विश्वास l 
है सूख चुकी वह ग्लानि 
जो आत्मा को बेचैन किये रखती थी अहोरात्र 
कि जिस से देह सदा अस्थिर थी, आँखें लाल, भाल पर 
तीन उग्र रेखाएँ, अरि के उर में तीन शलाकाएँ सुतीक्ष्ण,
किन्तु आज लघु स्वार्थों में घुल, क्रन्दन-विह्वल,
अन्तर्मन यह टार रोड के अन्दर नीचे बहाने वाली गटरों से भी 
है अस्वच्छ अधिक,
यह तेरी लघु विजय और लघु हार l 
तेरी इस दयनीय दशा का लघुतामय संसार 
अहंभाव उत्तुंग हुआ है तेरे मन में 
जैसे घूरे पर उट्ठा है 
धृष्ट कुकुरमुत्ता उन्मत्त l 


कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध 
संकलन - तार सप्तक 
संकलनकर्ता और संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण - 1963