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रविवार, 30 सितंबर 2012

अपना ख़्याल रखना (Apna khayal rakhna by Istvan Arashi)



जब चीज़ें ऊपर को गिरने लगें, नीचे नहीं
सूरज गरमाई रख ले अपने वास्ते 
तब दुनिया का कगार पकड़े रहना प्यारी 
                                          अपना ख़्याल रखना l
शब्द अगर जा मिले शत्रु के पक्ष से
चोरी से बिजली के तार अगर काट दे
हिलना मत, ठहरना अँधेरे में
                                          अपना ख़्याल रखना l
जान-बूझकर मत बनना क्लियोपैट्रा
सुन्दर उरोजों से साँप को हटा देना
सपनों में साँप है, पागल है वासना
                                           अपना ख़्याल रखना l
यदि अपनी पलकें भी ओट नहीं कर सकें 
घुटनों के बल ऊसरों में भटकना हो
तो वर्जित छाँह में मेरी पड़ी रहना 
                                           अपना ख़्याल रखना l
मैं तुम्हारे खातिर कंबल पहन लूँगा
पहले की तरह साथ-साथ ताक पर पड़ा रह लूँगा
दुनिया को अपनी बहा दूँगा तुम मगर 
                                          अपना ख़्याल रखना l


हंगारी कवि - इश्तवान अर्शी 
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - रघुवीर सहाय
मूल - मिकलोश वायेदा द्वारा संपादित आधुनिक हंगारी कविता से 
किताब - रघुवीर सहाय रचनावली, खंड - 2
संपादक - सुरेश शर्मा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000

शनिवार, 29 सितंबर 2012

गिनती में दुख (Gintee mein dukh by Ashok Vajpeyi)



जब भी मैं कोई गिनती करता हूँ
दुख उसमें पता नहीं कैसे और कहाँ से जुड़ जाता है l
अपनी बस्ती में गिनता हूँ नीम के चार पेड़ तो पाँचवाँ पेड़ दुख का l
रखता हूँ कुँजड़े द्वारा तीन-चार थैलों में भर कर दी गईं चार-पाँच सब्ज़ियाँ
और पाता हूँ कि उसमें अतकारी हरी धनिया की तरह 
उसने अपना दुख भी रख दिया है l
मुझे कुछ घबराहट हुई
जब मैं गिन रहा था
अपने पोते की गुल्लक में भरे सिक्के :
मैंने उन्हें गिनना शुरू किया
- वह मुझे जल्दी गिनती पूरी करने के लिए तंग सा कर रहा था -
और पाया कि उन सिक्कों में से कुछ पर
घिसने के बावजूद दुख की चमक थी
जिसे मैं अपने पोते से छिपा गया l
मैं अपनी लायब्रेरी से उठाता हूँ 
अपने प्रिय फ़िलीस्तीनी कवि का नया संग्रह
और देखता हूँ कि उसमें बुकमार्क की तरह
रखा हुआ है पुराना बिसर गया दुख l

पानी के गिलास में धोने के बावजूद लगी रह गई राख सा दुख,
दाल में कंकड़ सा किरकिराता दुख,
रोटी पर हल्की घी की चुपड़न के नीचे कत्थई चिट्टे सा उभरा दुख,
पुरानी चप्पलों में एड़ियों में धीरे-धीरे गड़ता दुख,
खिड़की पर धूप में कीड़े की तरह रेंगता दुख l
कहानी में बताये जाते हैं सात कमरे -
जिनमें से आख़िरी को खोलना मना है ;
कोई नहीं बताता कि आठवाँ कमरा दुख का है
अदृश्य पर हमेशा खुला हुआ
बल्कि थोड़ा-थोड़ा हर कमरे में बसा हुआ l
मैं नहीं जानता था
कि हमारे समय में जीने के 
गणित और व्याकरण दोनों
दुख को जोड़े बिना संभव नहीं हैं,
जैसे कविता भी नहीं l


कवि - अशोक वाजपेयी (2003)
संग्रह - विवक्षा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

घास (Ghaas by Jeevananand Das)



नीबू के खिच्चे पत्तों सरीखे नरम आलोक से 
भर उठी है पृथ्वी इस भोर वेला में
कच्चे कागजी नीबू सरीखी हरित सुगंधा घास 
दाँतों से नोच रहे हैं हिरण
मेरा भी मन होता है
चषक भर-भर पी लूँ हरित मदिरा की तरह  
इस घास की यह गंध l
इस घास के तन को दुहकर 
मलूँ अपनी आँखों पर 
समा जाऊँ इस घास के डैनों में पंख बनकर
घास के अन्दर घास बन जन्म लूँ,
किसी निविड़ दूर्वा-माँ के शरीर के 
सुस्वादु तिमिर से उतरकर l


कवि - जीवनानंद दास 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - निर्मल कुमार चक्रवर्ती
संग्रह - वनलता सेन और अन्य कविताएँ  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006

बुधवार, 26 सितंबर 2012

कल रात (Kal raat by Apoorvanand)



कल रात 
          छींटे दे-दे चेहरा भिंगोती रही चाँदनी
कल रात 
          पूरी पृथ्वी पर झुकता रहा आसमान
कल रात 
          चाँद होंठ टेढ़े करके ठीक वैसे ही 
          हँसा
          जैसे मो ना लि सा 
बहुत कुछ हुआ 
          और भी 
          बहुत कुछ हुआ कल रात !

                 
कवि - अपूर्वानंद  (1982 )

सोमवार, 24 सितंबर 2012

हवा चली (Hawa chalee by Ismail Merathi)



होनेको आयी सुबह तो ठण्डी  हवा चली, 
                क्या धीमी-धीमी चालसे यह खुश-अदा चली ll
लहरा दिया है खेतको हिलती हैं बालियाँ,
                पौधे  भी   झूमते   हैं   लचकती  हैं  डालियाँ ll
फुलवारियोंमें ताज़ा शिगूफ़ा खिला चली,
                सोया  हुआ  था  सब्ज़ा  उसे  तो  जगा चली ll
सरसब्ज़ हो दरख़्त न बाग़ोंमें तुझ बग़ैर,
                तेरे  ही  दमक़दमसे है  भायी  चमन  की सैर ll
पड़ जाय इस जहानमें तेरी अगर कमी,
                चौपाया   कोई  ज़िन्दा  बचे  औ  न  आदमी ll
चिड़ियोंको यह उड़ानकी ताक़त कहाँ रहे,
                फिर  'कायँ कायँ'  हो  न 'गुटरगूँ' न 'चहचहे' ll
बन्दोंको चाहिये कि करें बंदगी अदा,
                उसकी कि जिसके हुक्मसे चलती है यह हवा ll
             

कवि - इस्माइल मेरठी 
किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)
संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'  
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952

रविवार, 23 सितंबर 2012

चुम्बन (Chumban by Dinkar)



सब तुमने कह दिया, मगर, यह चुम्बन क्या है ?
"प्यार  तुम्हें  करता  हूँ  मैं," इसमें  जो  "मैं" है,
चुम्बन  उस  पर  मधुर, गुलाबी  अनुस्वार  है l
चुम्बन  है  वह गूढ़ भेद  मन  का, जिसको  मुख
श्रुतियों  से  बच कर  सीधे  मुख  से  कहता  है l


कवि - रामधारी सिंह दिनकर 
किताब - दिनकर रचनावली, खंड - 2 में 'नये सुभाषित', प्रथम संस्करण  से          
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011

शनिवार, 22 सितंबर 2012

किस्सा जनतंत्र (Kissa jantantra by Dhoomil)



करछुल -
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता 
चुपचाप जलता है और जलता रहता है 

औरत -
गवें गवें उठती है - गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है l
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती) 
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है 

बच्चे आँगन में -
आँगड़  बाँगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ 
कुछ भी नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं

एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ-साथ 
चलता है और चलता रहता 

बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबत्ती बालकिशुन आधे में आधा
कुल रोटी छै  
और तभी मुँहदुब्बर
दरबे में आता है - खाना तैयार है ?
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँहदुब्बर 
पेट भर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है 

और अब -
पौने दस बजे हैं -
कमरे की हर चीज़
एक रटी हुई रोजमर्रा धुन  
दुहराने लगती है 
वक्त घड़ी से निकलकर
अँगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दन्तटूटी कंघी 
बालों में गाने लगती है

दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टाटा कहते हैं
एक फटेहाल कलफ कालर - 
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढढ्ढा साइकिल 
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ 
दफ़्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब 
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को 
चूमना -
देखो, फिर भूल गया l'  


कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

इन दबी यादगारों से (In dabi yadgaron se by Vijay Dev Narayan Sahi)



इन दबी हुई यादगारों से खुशबू आती है 
और मैं पागल हो जाता हूँ
जैसे महामारी डसा चूहा
बिल से निकल कर खुले में नाचता है
फिर दम तोड़ देता है l

             न जाने कितनी बार 
             मैं नाच-नाच कर 
             दम तोड़ चुका हूँ
             और लोग सड़क पर पड़ी मेरी लाश से 
             कतरा कर चले गए हैं l

कवि - विजय देव नारायण साही 
संग्रह - साखी 
प्रकाशन - सातवाहन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1983

बुधवार, 19 सितंबर 2012

कालेज का बचुआ (College ka bachua by Nirala)



जब से  एफ. ए. फेल हुआ,
हमारा कालेज का बचुआ l 
                
                 नाक  दाबकर  सम्पुट साधै,
                 महादेवजी    को    आराधै,
                 भंग  छानकर रोज़ रात को
                             खाना मालपुआ l

                वाल्मीकि   को  बाबा  मानै,
                नाना   व्यासदेव  को   जानै,
                चाचा  महिषासुर  को, दुर्गा
                            जी को सगी बुआ l

                 हिन्दी का लिक्खाड़ बड़ा वह,
                 जब देखो  तब अड़ा पड़ा वह,
                 छायावाद    रहस्यवाद     के
                               भावों का बटुआ l

                  धीरे-धीरे   रगड़-रगड़   कर
                  श्रीगणेश से झगड़-झगड़ कर,
                  नत्थाराम  बन  गया  है अब
                               पहले का नथुआ l

                  हमारे  कालेज  का  बचुआ l



कवि - निराला
संग्रह - असंकलित कविताएँ : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला में 
रामविलास शर्मा की 'निराला की साहित्य साधना - 1' से 
संपादक - नन्दकिशोर नवल 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1981

किताब की भूमिका के मुताबिक डॉ. रामविलास शर्मा ने जो विवरण दिया है उससे लगता है कि 'कालेज का बचुआ' कविता " 'सुधा' में निकली थी, जब निराला उसमें काम करने लगे थे और वह आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पर निराला पर उनके द्वारा किये जानेवाले आक्षेपों के उत्तर में लिखी गयी थी. डॉ. शर्मा ने इस कविता का शीर्षक नहीं दिया है."

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

चंचला की करतूत (Chanchala ki kartoot by Harimohan Jha)



मुंशी नौरंगीलाल को शुरू से ही जासूसी का चसका लग गया. 'चंद्रकांता','भूतनाथ', 'दारोगा-दफ्तर' पढ़ते-पढ़ते उन्हें भी जासूस बनाने की सनक सवार हो गई. जब उन्होंने बी.ए. का तिलिस्म तोड़ा, तो संयोगवश नौकरी भी वैसी ही मिल गई, दारोगागिरी की....
दारोगाजी खुद तो तीस के ऊपर थे, मगर पत्नी थी षोडशी....बेहद शक्की थे. उनकी अनुपस्थिति में कोई महरी भी काम करने ऐ, यह उन्हें मंजूर न था....नववधू का नाम था चंचला. नामवाला गुण भी था....कुछ दिनों के लिए मुंशीजी की बहन सरयू आ गई. तब चंचला के जी में जी आया. ननद के साथ हँसती-बोलती और उसके बच्चे के साथ खेलती....पर आँगन में ऐसी रंगरेलियाँ दारोगाजी को गवारा नहीं हुईं. दस ही दिनों में उन्होंने अपनी बहन को विदा कर दिया.
अब फिर वही सुनसान, भूत का डेरा !...एक रात चंचला ने कहा, "यूँ जी नहीं लगता, बहनजी को फिर बुला लीजिए." 
दारोगाजी बोले, "हूँ !"
चंचला ने कहा, "आप नहीं बुलाइएगा तो मैं ही लिखे देती हूँ,"
दारोगाजी फिर बोले, "हूँ !"
चंचला की ज़िद देखकर दारोगाजी सशंकित हो उठे....न जाने, इसके पीछे क्या राज़ छिपा है !
एक रात चंचला बोली, "आपकी मूँछें बहुत बड़ी कड़ी हैं, कटा क्यों नहीं लेते ?"
दारोगाजी ने मूँछ पर ताव देते हुए कहा, 'यही मूँछ तो नौरंगीलाल की शान है ! यह तो उसी दिन कटेगी, जिस दिन नौरंगीलाल की जासूसी फेलकर जाएगी."
चंचला करवट बदलकर सो गई. मगर नौरंगीलाल को फिर शक हो गया. चंचला को ऐसी इच्छा हुई क्यों ?
दारोगाजी उस दिन से अधिक सावधान रहने लगे....और एक दिन सचमुच उनकी जासूसी कामयाब हो गई....अपने घर के पिछवाड़े...एक मोड़े हुए कागज़ पर उनकी नज़र पड़ी....
वह एक लम्बी-सी पुर्जी थी. चंचला की लिखावट थी...
                           परम प्रिय
             सप्रेम आलिंगन और
                   बारंबार चुंबन l
                मैं तुम्हारे आने की 
                     राह देखती हूँ l
              12 बजे रात के बाद
               तुम ज़रूर आ जाओ
               मैं बेचैन हो रही हूँ l
  अजीब नशा सवार रहता है l
          बदहवासी की हालत में 
                  रहती हूँ l जो बन
                 पर तुम्हारा हक़ है,
           मैं तुम्हें सब कुछ दूँगी l
               मैं तुम्हें अपने ह्रदय
                  में लगाने के लिए
                     कल से छटपटा
        रही हूँ l तुमसे मिलने को
               छाती धड़क रही है
   मैं लाज खोलकर लिखती हूँ
      तुम आकर प्राण बचाओ l
               मैं खिड़की पर बैठी
 मिलूँगी l विशेष भेंट होने पर
                      तुम्हारी प्यारी
                                चंचला
                                  14-3
दारोगाजी ने तुरत वह चिट्ठी चंचला के सामने फेंक दी और रौब के साथ मूँछों पर ताव फेरने लगे. जैसे कोई किला फतह कर लिया हो.
चंचला देवी एकाएक खिलखिला उठी. बोली, "यह चिट्ठी आपको कहाँ मिली ?"
दारोगा, "पिछवाड़े की नाली में."
चंचला बोली, "यह चिट्ठी तो मैंने ननदजी को भेजने के लिए लिखी थी. बाद में मैंने इसे फाड़कर फेंक दिया. वहीं देखी, शायद उसका दूसरा टुकड़ा मिल जाए."
जासूस साहब फिर टार्च लेकर ढूँढ़ने गए. वहाँ एक और वैसी ही पुर्जी मिली. चंचला ने दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया और दारोगाजी पढ़ने लगे-
                        परम प्रिय           ननद जी,
           सप्रेम आलिंगन और          चिरंजीवी मुन्ना को
                 बारंबार चुंबन l          तुम कब आओगी ?
             मैं  तुम्हारे आने की          हर दिन हर घड़ी 
                   राह देखती हूँ l         तुम्हारे भैया आजकल 
            12 बजे रात के बाद         घर लौटते हैं 
            तुम ज़रूर आ जाओ         तुम सब समझ जाओगी l
             मैं बेचैन हो रही हूँ l        तुम्हारे भैया की अक्ल मारी गई है 
अजीब नशा सवार रहता है l        रात-दिन शक के फेर में पड़कर 
      बदहवासी की हालत में          रहते हैं l  मैं भी उदास 
              रहती हूँ l जो बन           पड़े सो उपाय तुम्हें करना है 
       पर तुम्हारा पूरा हक़ है,         कि इस काम के लिए फीस लो 
         मैं तुम्हें सब कुछ दूँगी l         पर तुम जल्दी आओ भी तो !
             मैं तुम्हें अपने ह्रदय         की व्यथा कैसे समझाऊँ ? लिफाफे 
                में लगाने के लिए         टिकट नहीं था l इसलिए 
                   कल से छटपटा         रही थी l आज चिट्ठी लिख 
     रही हूँ l तुमसे मिलने को         व्याकुल हूँ l डर के मारे 
             छाती धड़क रही है         और कहूँ भी तो किससे ? 
 मैं लाज खोलकर लिखती हूँ          उन्हें मुझी पर संदेह है 
     तुम आकर प्राण बचाओ l         हर ट्रेन के वक्त 
             मैं खिड़की पर बैठी          रहती हूँ l जभी आओगी, तभी 
मिलूँगी l विशेष भेंट होने पर
                    तुम्हारी प्यारी         भाभी 
                              चंचला          देवी 
                               14 - 3         - 64
दारोगाजी...दबी ज़बान में बोले, "तो अब क्या होना चाहिए ?"
चंचला देवी...फुर्ती से उठी और दारोगा साहब की दराज से दाढ़ी बनाने का समान ले आई और तब साबुन के फेन में कूँची भिंगोकर धीरे-धीरे दारोगाजी की मूँछों पर रगड़ने लगी. फिर चुपचाप उस्तरा चलाने लग गई.



देखते-देखते दारोगाजी की मूँछ साफ़ हो गई.      


लेखक - हरिमोहन झा
संग्रह - रेल की बात
प्रकाशक - अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद
पहला पॉकेट बुक संस्करण - 1963
दूसरा पेपरबैक संस्करण - 2011

सोमवार, 17 सितंबर 2012

मूर्धन्य ष के लिए एक विदा-गीत (Moordhanya sha ke liye ek vida-geet by Gyanendrapati)



बेचारा मूर्धन्य ष 
जो ऋषि-महर्षि में ही बचा हुआ है
और राष्ट्र में षड्यन्त्र में और षट्कोण में
और ऐसी ही दो-चार अजीबोगरीब जगहों में 
बेचारा मूर्धन्य ष
जिसकी आकृति-भर बची है 
एक तपस्वी आकृति
लिपि में
लिखित भाषा में

बेचारा मूर्धन्य ष
जिह्वा से जो गिर गया रास्ते में
बोली से बिछड़ गया
टोली से फिसल गया
डूब गया अँधेरे में
लिपि की झाड़ी में फँसा टिमटिमाता
डूब जाने दो
टूटा तारा है एक
दुख न करो
डूब जाने दो
ध्वनि के पीछे उसकी आकृति
डूब जाने दो
भाषा के अतल में
भाषा के जल में 
विस्मरण नहीं
अनन्त आकृतियों की स्मृति 


कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004


मुझे विदा नहीं करना है, फिर भी...

शनिवार, 15 सितंबर 2012

आज मैं अकेला हूँ (Aaj main akela hoon by Trilochan)



आज मैं अकेला हूँ
अकेले रहा नहीं जाता 

जी व न मि ला है य ह 
र त न मि ला है य ह 
धूल में
       कि 
          फूल में
मिला है 
         तो 
            मिला है यह
मो ल - तो ल इ स का
अ के ले क हा न हीं जा ता

सु ख आ ये दु ख आ ये 
दि न आ ये रा त आ ये
फूल में
        कि 
           धूल में
आये 
       जैसे 
             जब आये
सु ख दु ख ए क भी 
अ के ले स हा न हीं जा ता 

च र ण हैं च ल ता हूँ 
च ल ता हूँ च ल ता हूँ 
फूल में 
        कि
            धूल में
च ला ता 
          मन 
              चलता हूँ
ओ खी धा र दि न की 
अ के ले ब हा न हीं जा ता  


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ में 'धरती' से 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक्स, 1985


सोमवार, 10 सितंबर 2012

बिहारी सतसई (Bihari Satsai)




मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोई l
जा तन की झाईं परै श्यामु हरित दुति होई ll 1 ll 

भव-बाधा = संसार के कष्ट, जन्ममरण का दु:ख 
नागरि = सुचतुरा
झाईं = छाया 
हरित = हरी
दुति = द्युति, चमक 

वही चतुरी राधिका मेरी सांसारिक बाधाएँ हरें-नष्ट करें, जिनके (गोरे) शरीर की छाया पड़ने से (साँवले) कृष्ण की द्युति हरी हो जाती है l

नोट -  नीले और पीले रंग के संयोग से हरा रंग बनता है l कृष्ण के अंग का रंग नीला और राधिका का कांचन-वर्ण (पीला) - दोनों के मिलने से 'हरे' प्रफुल्लता की सृष्टि हुई. राधिका से मिलते ही श्रीकृष्ण खिल उठते थे l 

कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगौ इतौ उदोत l
बंक बकारी देत ज्यौं दामु रुपैया होत ll 37 ll  
                                                                                                                                                                                                               कुटिल = टेढ़ी
अलक = केश-गुच्छ, लट
उदोत = कान्ति, चमक
बंक = टेढ़ी 
दाम = दमड़ी
छुटि परत = बिखरकर झूलने लगता है 
बकारी = टेढ़ी लकीर जो किसी अंक के दाईं ओर उसके रुपया सूचित करने के लिए खींच दी जाती है l

मुख पर टेढ़ी लट के छुट पड़ने से (नायिका के मुख की) कान्ति वैसे ही बढ़ गई है, जैसे टेढ़ी लकीर (बकारी) देने से दाम का मोल बढ़कर रुपया हो जाता है l

नोट - दाम )1 यों लिखते हैं और रुपया 1 ) यों l अभिप्राय यह है कि यही बाल स्वाभाविक ढंग से पीछे रहने पर उतना आकर्षक नहीं होता जितना उलटकर मुख पर पड़ने से होता है l जैसे, बिकारी (बकारी) अंक के पीछे रहने पर दाम का सूचक है और आगे रहने पर रुपए का l

बेसरि मोती दुति-झलक परी ओठ पर आइ l
चूनौ होइ न चतुर तीय क्यों पट पोंछयो जाइ ll 88 ll

बेसरि = नाक की झुलनी, बुलाक
पट = कपड़ा

बेसर में लगे हुए मोती की आभा की (सफेद) परछाईं तुम्हारे ओठों पर पड़ी है l हे सुचतुरे! वह चूना नहीं है (तुमने जो पान खाया है, उसका चूना ओठों पर नहीं लगा है), फिर वह कपड़े से कैसे पोंछी जा सकती है ?

नोट - नायिका के लाल-लाल होठों पर नकबेसर के मोटी की उजली झलक आ पड़ी है, उसे वह भ्रमवश चूने का दाग समझकर बार-बार पोंछ रही है; किन्तु वह मिटे तो कैसे ?


कवि - बिहारी 
टीकाकार - रामवृक्ष बेनीपुरी 
किताब - बेनीपुरी ग्रंथावली
सामग्री संकलन - जितेन्द्र कुमार बेनीपुरी
संपादक - सुरेश शर्मा 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1998

रविवार, 9 सितंबर 2012

अधिनायक (Adhinayak by Raghuvir Sahay)



राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरिचरना गाता है l
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है l
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमग़े कौन लगाता है l
कौन-कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज़ बजाता है l


कवि - रघुवीर सहाय
किताब - रघुवीर सहाय रचनावली, खंड - 1 में 'आत्महत्या के विरुद्ध' से 
संपादक - सुरेश शर्मा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000

शनिवार, 8 सितंबर 2012

सूरज से चमकीला कौन (Sooraj se chamkeela kaun by Vytaute Zilinskaite)




"सुनो, सुनो ! आज शाम को पुराने खुमी की छतरी तले एक विशाल सभा का आयोजन किया गया है. इस समारोह में मशहूर गायिका रइयां पधार रही हैं."...
गुबरैले ने ठूंठ की छाया देखकर अंदाज लगाया. छाया लम्बी नज़र आई. यानि कि शाम हो चली है. चल भाई, झट से तैयार हो जा. कहीं देर न हो जाए ! उसने नरम काई के एक नन्हे टुकड़े से अपने पंख चमकाकर साफ़ किए. वे शीशे की तरह चमचमाने लगे, कोई चाहे तो अपना मुंह तक देख ले. उसका उपनाम - चमकू - शायद अनुचित न था....
सभागार खचाखच भर चुका था. सैकड़ों पटकटनियां, वीर-बहूटियां, व्याधपतंग, घुन, छेउकी, कैप्रीकार्न बीटल आदि वहाँ पहुँच चुके थे. और तो और, कुछेक जलचर भी पासवाली झील से पैर घसीटकर मुश्किल से आ पहुंचे थे. उनकी टांगें तो पानी में तैरने की अभ्यस्त थीं, ज़मीन पर चलने की नहीं. घुन की जमात चीड़ की नुकीली पत्तियां ले आई और छेउकी का झुण्ड डाहलिया फूलों के साथ सभागार में पहुंचा - आखिर उन्हें कार्यक्रम के दौरान कुछ खाना-कुतरना जो था. कई एक मकड़े-मकड़ियां छत के नीचे अपने द्वारा बुने हुए झूले पर झूल रहे थे. एडमिरल मिस्टर तितला मिसेज़ तितली के साथ बलूत की सूखी पत्तियोंवाले एक बड़े-से बाक्स में विराजमान थे. चमकू भाई भला कब पीछे रहते. उसने भी पासवाले बाक्स पर कब्ज़ा कर लिया, जहां पिस्सुओं का परिवार बैठा हुआ था. चमकू ने उन्हें बेदखल करके आराम से अपनी टांगें फैलाईं और सीट पर पसरकर स्टेज की ओर देखने लगा.
तीसरी घंटी - कर्णघंटिका - घनघना उठी. जुगनुओं ने अपनी जगमगाती हुई बत्तियां बुझा दीं, नौ मकड़-जालों का बुना परदा खिसका ! उद्घोषिका मिसेज़ ततैया रंगमंच पर हाज़िर हुईं. उनकी धारीदार पोशाक कमर से ज़रा ज़्यादा कसकर बंधी थी - मानो सींक सलाई-सी कमर बस अभी कटकर गिर पड़ेगी.
"अब हमारा कार्यक्रम शुरू होने जा रहा है !" मिसेज़ ततैया ने भनभनाते हुए कहा. "चर्चित गायिका मिसेज़ रइयां मंच पर पधार रही हैं. 'सूर्य का गीत' उनकी एक अद्भुत रचना है. माननीय अतिथियों से निवेदन है कि वे कार्यक्रम के दौरान कुछ काटें-कुतरें नहीं."...
                "ओ सूरज, हम गीत तुम्हारे गाते हैं !
                 तुम उगते तो जीवन हम पा जाते हैं.
                 ओ सूरज, तुम एक अनोखी प्रतिमा हो.
                 जलकर हमको जीवन देते ऐसे भाग्य विधाता हो." 
और तब कोरस गायकों ने महीन, किन्तु खनकती आवाज़ में सुर मिलाया :
                 "विधाता हो...विधाता हो...विधाता हो..."
कोरस ख़त्म हुआ तो गायिका मिसेज़ रइयां  ने फिर गाया :
                  "चमके चमचम किरण तुम्हारी ओ सूरज !
                   शक्तिपुंज तुम प्यारे-प्यारे ओ सूरज !"
और इसके बाद कोरस गायकों ने स्वर मिलाया :
                   "ओ सूरज...ओ सूरज...ओ सूरज..."
समूह गायकों का स्वर थमा तो गायिका रइयां  ने फिर सुरीली आवाज़ में गाया :
                    "रहो चमकते, सूरज प्यारे !
                     जगत सहारे, प्राण अधारे.
                     पिता तुम्हीं हो, माता तुम हो !
                     भगिनी तुम हो, भ्राता तुम हो.
                     अच्छे-अच्छे, सबके प्यारे !
                     रहो चमकते, सूरज प्यारे !"
मिसेज़ रइयां का गीत खत्म होते ही तड़ातड़ तालियां बजने लगीं....पर चमकू मुंह फुलाए रहा....आगे बढ़कर भारी आवाज़ में बोला : " मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूं....आपने सूरज की प्रशंशा में इतना अच्छा गीत गाया...लेकिन ज़रा यह तो बताएं कि उस वक्त सूरज क्या कर रहा था ? वह चीड़ वृक्षों के पीछे छिप गया.... और उसने एक बार इधर झांका तक नहीं....अब ज़रा सूरज का कच्चा-चिट्ठा भी सुन लें....सर्द रातों में वह मुंह छुपाए रहता है. लगातार बारिश के दिनों में धोखा दे जाता है, हम उसे मनाते हैं, बुलाते हैं, पर वह बहरा बना रहा है....जाड़े भर वह अफ़्रीका पर मेहरबान रहता है और हमारी तरफ देखता तक नहीं....बात यह है कि सूरज कभी चमकता है, तो कभी गुम रहता है. लेकिन मुझको कहीं ढूँढना नहीं पड़ता. मैं रात-दिन चमकता हूं, जगमगाता हूं....हमेशा हर जगह हाजिरी देता हूं....मुझमें तमाम ऐसी खूबियां हैं, जो सूरज में नहीं हैं. निस्संदेह मेरी प्रशंसा के गीत गाए जाने चाहिए, मुझे ही वह आदर मिलना चाहिए."
"ठीक है," गायिका ने कहा, "तो वायदा रहा कि कल शाम मैं एक और संगीत समारोह आपके सम्मान में पेश करूँगी."
अगले दिन...एक अनोखे समारोह - पहेली सभा - का आयोजन किया गया...इंतज़ार की घड़ियां खत्म हुईं....नाजुक कमरवाली उद्घोषिका मिसेज़ ततैया ने भनभनाते हुए कहा : "अब हमारी मशहूर गायिका मिसेज़ रइयां अपना पहेली गीत प्रस्तुत करने जा रही हैं. गीत का शीर्षक है 'सूरज से चमकीला कौन ?' "
                             "सूरज से चमकीला कौन ?
                              सूरज से भड़कीला कौन ?
                              दुनिया में जो चमचम चमके -
                              ऐसा रहा रंगीला कौन ?
                              सूरज जिससे आंख चुराए -
                              ऐसा छैल-छबीला कौन ?
                              झट से बोलो - कौन ?
                              राज़ ये खोलो - कौन ?"
और उसके बाद कोरस गायकों ने अपना राग छेड़ दिया :
                              "चुप मत र-हि-ये !
                               कुछ तो क-हि-ये !
                               एक पहेली सबके आगे !
                               झटपट बूझो, आओ आगे !
                               बोलो : कौन ? कौन ? कौन ?"...
"मैं...हूं...मैं ! चमकू गुबरैला ! सूरज से चमकीला और यशस्वी !"


लिथुआनियाई  लेखिका - विताउते जिलिन्स्काइते
किताब - रोबोट और तितली कथाएं 
हिन्दी अनुवाद - संगमलाल मालवीय 
मूल -विलनियूस प्रकाशन, 1984
हिन्दी संस्करण के प्रकाशक - रादुगा प्रकाशन, मास्को, 1988

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

सूरज का ब्याह (Sooraj ka byaah by Dinkar)



उड़ी एक अफवाह, सूर्य की शादी होनेवाली है,
वर के विमल मौर में मोती उषा पिरोनेवाली है l

मोर करेंगे नाच, गीत कोयल सुहाग के गायेगी ;
लता विटप मंडप-वितान से वन्दनवार सजाएगी l

जीव-जन्तु भर गए खुशी से, वन की पाँत-पाँत डोली,
इतने में जल के भीतर से एक वृद्ध मछली बोली -

"सावधान जलचरो, खुशी में सबके साथ नहीं फूलो,
ब्याह सूर्य का ठीक, मगर तुम इतनी बात नहीं भूलो -

"एक सूर्य के ही मारे हम विपद कौन कम सहते हैं,
गर्मी भर सारे जलवासी छटपट करते रहते हैं ! 

"अगर सूर्य ने ब्याह किया, दस-पाँच पुत्र जन्मायेगा,
सोचो, तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पायेगा ?

"अच्छा है, सूरज क्वाँरा है, वंशविहीन, अकेला है,
इस प्रचंड का ब्याह जगत् की खातिर बड़ा झमेला है l"



कवि - रामधारी सिंह दिनकर (1908 -1974)
किताब - दिनकर रचनावली, खंड-2
संपादक - नन्दकिशोर नवल, तरुण कुमार 
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011


गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मेरा जीवन (Autobiography by Helen Keller)



1890 के वसंत में मैंने बोलना सीखा. मेरे अन्दर हमेशा यह इच्छा उमड़ती रहती थी कि मैं श्रव्य ध्वनियाँ मुँह से निकाल सकूँ. मैं एक हाथ अपने गले पर रख कर शोर किया करती थी और दूसरे हाथ से अपने होंठों का चलना महसूस करती थी. मुझे शोर करनेवाली हर चीज पसंद थी और बिल्ली का घुरघुराना तथा कुत्ते का भौंकना मुझे अच्छा लगता था. मुझे अपना एक हाथ गायक के गले पर रखना या बजते हुए पियानो पर रखना भी अच्छा लगता था. अपनी दृष्टि और श्रवण-शक्ति खोने से पहले, मैं बात करना जल्दी सीखने लगी थी, लेकिन मेरी बीमारी के बाद यह पता चला कि मेरा बोलना इसलिए बंद हो गया क्योंकि मैं सुन नहीं सकती थी. मैं सारे-सारे दिन अपनी माँ की गोद में बैठी रहती थी और अपना हाथ माँ के चेहरे पर रखे रहती थी, क्योंकि उसके होंठों की क्रिया को महसूस करने में मुझे मजा आता था, और मैं अपने होंठ भी हिलाती थी, हालाँकि मैं भूल चुकी थी कि बात करना क्या होता है. मेरे मित्र कहते हैं कि मैं स्वाभाविक ढंग से हँसती और रोती थी और कुछ समय तक तो मैं अनेक ध्वनियाँ एवं शब्दांश निकाला करती थी. इसलिए नहीं कि वे संप्रेषण के उपाय थे, बल्कि इसलिए कि मेरी स्वरतन्त्रियों का अभ्यास जरूरी था. तथापि एक शब्द ऐसा था जिसका मतलब मुझे अभी तक याद है. वह शब्द था-वॉटर. मैं इसे 'वॉ-वॉ' उच्चारित करती थी. यह उच्चारण भी कम से कमतर बोधगम्य हो गया, जब तक कि मिस सुलिवॉन ने आकर मुझे सिखाना शुरू नहीं किया. मैंने इसका प्रयोग करना तभी बंद किया, जब मैंने शब्दों का उच्चारण अपनी उँगलियों पर करना सीख लिया था.     


लेखिका - हेलन कीलर(1880 -1968)
किताब - मेरा जीवन
प्रकाशक - विद्या विहार, दिल्ली, 2011

बुधवार, 5 सितंबर 2012

लीडर का निर्माता (Leader ka nirmata by Shakunt Mathur)


सजा है
रेशम के पर्दों से ड्राइंग रूम
सोडे से, फिनील से,
और गरम पानी से
धुल रहे बाथरूम l 

टावेल रूँए का हाथ में
लाण्ड्री-धुला, गोरा -  
कोठी से निकल रहा बैरा l

चपरासी कसे बेल्ट,
सेक्रेटरी लिये डायरी,
गेट पर कार खड़ी,
लोगों को इन्तज़ार -
         कौन आ रहा ?
         लीडर आ रहा !

कौन है जा रहा ?
सड़ी है गली टपरे-सी
टपरा सड़ा है घूरे-सा,
बम्बा है पानी का 
घर से बहुत दूर ;
टूटे घड़े हाथ में 
काई चढ़े l  

निकल रही छिपकली-सी
लड़की दरवाज़े-से ;
गली का पिल्ला बन
फिर रहा बच्चा
लिये खाली बोतल
मट्टी के तेल (किरासिन) की l 

कूड़े से भरी गाड़ी
खड़ी है गली के बीच
भंगी का इन्तज़ार
गन्दगी का संसार l

जिस में है बोल रहा
मौत के सिगनल-सा
भोंपू दूर मील का l
भूखा ही
        कौन है जा रहा ?
       लीडर का निर्माता !


कवयित्री - शकुन्त माथुर 
संकलन - दूसरा सप्तक
संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पहला संस्करण - 1949
किताब में दिए गए अपने वक्तव्य में शकुन्त माथुर कहती हैं, " नारी का सुख केवल उस की घर-गृहस्थी तक ही सीमित है, यह मैं नहीं मानती. गृहस्थी के साज-सँवार के बाद भी वह पूरा संतोष नहीं कर पाती, उसे लगता है जैसे वह अपूर्ण है. उस की सांसारिक और व्यावहारिक सुख-साधना की पूर्ति होने पर भी वह एक सामाजिक अभाव महसूस करती है और वह है मानसिक विकास का. घर में रह कर वह अपनी प्रत्येक इच्छा पूर्ति करती है, किन्तु फिर भी मानसिक क्षेत्र में पैर फैलाने का अवसर उसे घर की चारदीवारी में प्राप्त नहीं होता. इसी लिए सब प्रकार का सुख होते हुए भी इस अभाव की पूर्ति मुझे काव्य में मिली....मैंने जब भी कुछ लिखा, उसे मन की एक मौज समझ कर छोड़ दिया और मेरे पति ने भी उसे सदा हँसी में टाल दिया. इस के अतिरिक्त जब भी मैं कविता लिखती, इन की कोई न कोई रचना सामने आ कर खड़ी हो जाती और मेरी कविता शर्मिन्दा हो जाती. अभी कुछ समय पूर्व इन  के प्रतिष्ठित साहित्यिक मित्रों ने मेरी रचनाएँ देखीं और उन्हें प्रकाश में लाने को बाध्य किया. इस कारण इन रचनाओं को कविता कहने का श्रेय हम दोनों का नहीं, मित्रों का है." 

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

हवा के झरोखे से झोंका आया (Hawa ke jharokhe se jhonka aaya by Vinod Kumar Shukla)



हवा के झरोखे से झोंका आया
ढूँढ़कर आया l

आँधी में खो गया झोंका
कितनी बयार, पुरवाई से होकर
पछ्वाकर, हवा की सड़क पर
हवा का रिक्शा 
हवा ने चलाया
रिक्शे में बैठ झोंका आया l

घंटी बजाकर नहीं
हवा की हेंडिल पर घंटी की जगह
उड़ता पपीहा
पियू ! पियू ! से 
दूरी को सामने से हटाता
थोड़ा सा स्पर्श आया l


कवि -  विनोदकुमार शुक्ल
संकलन - अतिरिक्त नहीं
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000

सोमवार, 3 सितंबर 2012

बेदर्द (Bedard by Bhawani Prasad Mishra)



मैंने निचोड़कर दर्द
मन को 
मानो सूखने के ख़याल से
रस्सी पर डाल दिया है

और मन
सूख रहा है

बचा-खुचा दर्द
जब उड़ जायेगा
तब फिर पहन लूँगा मैं उसे

माँग जो रहा है मेरा 
बेवकूफ़ तन
बिना दर्द का मन !


कवि - भवानीप्रसाद मिश्र
संचयन - मन एक मैली कमीज़ है
संपादक - नन्दकिशोर आचार्य 
प्रकाशक -  वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 1998