Translate

कुमार अंबुज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कुमार अंबुज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 3 जून 2014

स्वांतः सुखाय (Swantah sukhay by Kumar Ambuj)


जो स्वांतः सुखाय था 
उसकी सबसे बड़ी कमी सिर्फ़ यह नहीं थी 
कि उसे दूसरों के सुख की कोई फ़िक्र न थी 

बल्कि यह थी कि वह अक्सर ही 
दूसरों के सुख को 
निगलता हुआ चला जाता था l


कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

कोशिश (Koshish by Kumar Ambuj)


कही जा सकती हैं बातें हज़ारों 
यह समय फिर भी न झलकेगा पूरा 
झाड़ झंखाड़ बहुत 
एक आदमी से न बुहारा जायेगा
इतना कूड़ा

क्या बुहारूँ 
क्या कहूँ, क्या न कहूँ ?
अच्छा है जितना झाड़ सकूँ, झाडूँ
जितना कह सकूँ, कहूँ

कम से कम चुप तो न रह सकूँ l


कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

आविष्कार (Avishkar by Kumar Ambuj)


[संध्या के लिये]

     हम धूल के बादलों को पीछे छोड़ आये हैं 
     तूफ़ानों से गुज़रने के निशान नश्वर देह पर हैं 
     हमारे आगे पाँच हज़ार साल हैं अभी 

     दरअसल, अब समय का कोई अर्थ नहीं रह गया है 

     हमारे पास आकाशगंगाएँ हैं 
     और साथ-साथ चलते आने से यह ज़मीन और यह हवा 
     अँधेरे में जब हम एक-दूसरे को छूते हैं 
     तो प्रकाश होता है

     हम चंद्रमा की तरफ़ उस निगाह से देखते हैं 
     जो दाग़ नहीं सुंदरता देखती है

     इस चाँदनी में यह जान लेना कितना अलौकिक है 
     कि तुम लौकिक हो 
     और मैं तुम्हें अनुभव कर सकता हूँ इंद्रियों से l 



कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

खाना बनातीं स्त्रियाँ (Khana banatin striyan by Kumar Ambuj)


जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ़ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँथा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़

आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर

वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ़ एक आलू एक प्याज़ से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से
दुखती कमर में, चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफ़ान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया

आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे - उफ़, इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो ज़मीन पर गिराने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में

कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुज़र गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ़ की

वे क्लर्क हुईं, अफ़सर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे धकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से, पीठ से
उनके अन्धेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है

उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पडा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकाने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है l


कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011