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शनिवार, 19 अगस्त 2017

इतना तो बल दो (Itna to bal do by Trilochan)


यदि मैं तुम्हें बुलाऊँ तो तुम भले न आओ
                  मेरे पास, परन्तु मुझे इतना तो बल दो
                  समझ सकूँ यह, कहीं अकेले दो ही पल को
मुझको जब-तब लख लेती हो I नीरव गाओ


प्राणों के वे गीत जिन्हें मैं दुहराता हूँ I
                 सन्ध्या के गम्भीर क्षणों में शुक्र अकेला
                 बुझती लाली पर हँसता है I निशि का मेला
इसकी किरणों में छाया-कम्पित पाता हूँ


एकाकीपन हो तो जैसा इस तारे का
                 पाया जाता है वैसा हो I बास अनोखी
                 किसी फूल से उठती है, मादकता चोखी
भर जाती है, नीरव डण्ठल बेचारे का
                 पता किसे है, नामहीन किस जगह पड़ा है ?
                 आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है I


कवि - त्रिलोचन (20 अगस्त, 1917 - 9 दिसंबर2007) 

संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
संपादन - केदारनाथ सिंह 
प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, प्रथम संस्करण - 1985

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

हम साथी (Hum sathi by Trilochan)

चोंच में दबाए एक तिनका 
गोरैय्या 
मेरी खिड़की के खुले हुए 
पल्ले पर 
बैठ गयी 
और देखने लगी 
              मुझे और 
                    कमरे को l 
मैंने उल्लास से कहा 
                        तू आ 
                        घोंसला बना 
                   जहाँ पसन्द हो 
शरद के सुहावने दिनों से 
हम साथी हों l 


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ में 'धरती' से 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक्स, 1985

रविवार, 15 दिसंबर 2013

पास (Paas by Trilochan)

और, थोड़ा और, आओ पास 
मत कहो अपना कठिन इतिहास 
मत सुनो अनुरोध, बस चुप रहो 
कहेंगे सब कुछ तुम्हारे श्वास
 
कवि - त्रिलोचन 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ में 'धरती' से 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक्स, 1985

रविवार, 7 जुलाई 2013

इच्छा (Ichchha by Trilochan)

सर दर्द क्या है 

मुझे इच्छा थी 
तुम्हारे इन हाथों का स्पर्श 
कुछ और मिले 

और 
इन आँखों के 
करुण प्रकाश में 
नहाता रहूँ 

और 
साँसों की अधीरता भी 
                 कानों सुनूँ 

बिलकुल यही इच्छा थी 
सर दर्द क्या है .


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - चैती 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1987 

शुक्रवार, 10 मई 2013

लू (Loo by Trilochan)


पीपल के  पत्ते  ने ज्यों मुँह खोला खोला
त्यों चटाक से लगा तमाचा आ कर लू का,
झेल गया वह भी आखिर बच्चा था भू का l 
लेकिन जिस ने देखा उस का धीरज डोला,
बैठ कलेजा गया l तड़प कर कोकिल बोला 
कू  ऊ  कू  ऊ  मिले  भले  ही  आधा  टूका  
लेकिन ऐसा न हो l राह  चलते  जो  चूका 
उस को दुख ने अदल बदल कर फिर फिर तोला l 

सब को नहीं, नौनिहालों को अगर बचा दे 
तो लू  का डर  नहीं, जहाँ  चाहे  आ  जाए,
लू  लपटों  में  मिट्टी  पक्की  हो  जाती  है 
चाहे  जिस  तरंग से  जग  के खेल रचा दे 
क़सम जवानी  की  यदि  मैं ने पाँव हटाए 
छाती  हारों  के  प्रहार  सहती  जाती  है l 



कवि - त्रिलोचन 

संकलन - फूल नाम है एक 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1985

गुरुवार, 21 मार्च 2013

बधाई (Badhai by Trilochan)

ब्राह्म काल में पूर्वा आई, कहा, "बधाई
है कवि, तुमने सैंतीस वर्षों की प्रिय कड़ियाँ 
पूरी कीं l " पर मुझे लगा बस दो ही घड़ियाँ 
अभी गई होंगी l सम्मान से झुका l "आई 
हो कैसे, क्यों कष्ट किया l" - पूछा l मुसकाई 
वह कि सज गईं इधर उधर फूलों की छड़ियाँ,
टूटा चंद्रहार रजनी का, बिखरी लड़ियाँ 
तारों की दिन की श्री जगतीतल पर छाई l 

बोली, "जो रवि उदित हुआ था साथ तुम्हारे 
उस दिन, वही जगाने जगते ही आया है l 
दैवयोग से तुम ने दिव्य मित्र पाया है 
इस जीवन में l घर या बाहर जब तुम हारे 
तुम्हें दिया अवलंब, स्निग्ध कर सदा पसारे 
इस ने दिव्य ज्योति दी है, तुम ने गाया है l" 


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - फूल नाम है एक 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1985

सोमवार, 7 जनवरी 2013

हम दोनों हैं दुखी (Hum donon hain dukhi by Trilochan)

हम दोनों हैं दुखी। पास ही नीरव बैठें,
बोलें नहीं, न छुएँ। समय चुपचाप बिताएँ,
अपने अपने मन में भटक भटककर पैठें
उस दुख के सागर में जिसके तीर चिताएँ
अभिलाषाओं की जलती हैं धू धू धू धू।
मौन शिलाओं के नीचे दफ़ना दिये गये
हम, यों जान पड़ेगा। हमको छू छू छू छू
भूतल की उष्णता उठेगी, हैं किये गये
खेत हरे जिसकी साँसों से। यदि हम हारें
एकाकीपन से गूँगेपन से तो हम से
साँसें कहें, पास कोई है और निवारें
मन की गाँस-फाँस, हम ढूँढें कभी न भ्रम से।
गाढे दुख में कभी-कभी भाषा छलती है
संजीवनी भावमाला नीरव चलती है।


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - त्रिलोचन : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - केदारनाथ सिंह 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1985

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

एक लहर फैली अनन्त की (Ek lahar failee anant ki by Trilochan)


सीधी है भाषा वसन्त की 

कभी आँख ने समझी 
कभी कान ने पायी 
कभी रोम रोम से 
प्राणों में भर आयी 
और है कहानी दिगन्त की 

नीले आकाश में 
नयी ज्योति छा गयी 
कब से प्रतीक्षा थी 
वही बात आ गयी 
एक लहर फैली अनन्त की l 


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - त्रिलोचन : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - केदारनाथ सिंह 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1985

शनिवार, 15 सितंबर 2012

आज मैं अकेला हूँ (Aaj main akela hoon by Trilochan)



आज मैं अकेला हूँ
अकेले रहा नहीं जाता 

जी व न मि ला है य ह 
र त न मि ला है य ह 
धूल में
       कि 
          फूल में
मिला है 
         तो 
            मिला है यह
मो ल - तो ल इ स का
अ के ले क हा न हीं जा ता

सु ख आ ये दु ख आ ये 
दि न आ ये रा त आ ये
फूल में
        कि 
           धूल में
आये 
       जैसे 
             जब आये
सु ख दु ख ए क भी 
अ के ले स हा न हीं जा ता 

च र ण हैं च ल ता हूँ 
च ल ता हूँ च ल ता हूँ 
फूल में 
        कि
            धूल में
च ला ता 
          मन 
              चलता हूँ
ओ खी धा र दि न की 
अ के ले ब हा न हीं जा ता  


कवि - त्रिलोचन 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ में 'धरती' से 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक्स, 1985