Translate

मंगलवार, 1 नवंबर 2022

रोज शाम को (Roj shaam ko by Ramgopal Sharma 'Rudra')

रोज शाम को मन थकान से भर जाता है !!

बस मरु ही मरु, आँख जहाँ तक जाए :

कोई छाँव नहीं कि जहाँ सुस्ताए :

उड़ता ही रह जाता है जो पंछी,

क्या लेकर अपने खोंते में आए !

रोज  शाम को मन उफान से भर जाता है !!


रोज-रोज  एक ही बात होती है - 

रोज पाँख से आँख मात होती है!

लेकिन, इतनी दूर निकल जाता हूँ -

आते-आते साँझ रात होती है !

रोज शाम को मन उड़ान से भर जाता है !

                                                       - 1955 


कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र'
किताब - रुद्र समग्र
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991

नानाजी के जन्मदिन पर उनको याद करते हुए उनकी कविताएँ पढ़ रही हूँ। लगभग 70-100 साल पुरानी रचनाओं के मूड को देखकर लग रहा है कि अभी का मूड है।  

बुधवार, 31 अगस्त 2022

ढलती हुई आधी रात (Dhalati hui aadhi raat by Firaq Gorakhpuri)


ये कैफ़ो-रंगे-नज़ारा, ये बिजलियों की लपक 
कि जैसे कृष्ण से राधा की आंख इशारे करे 
वो शोख इशारे कि रब्बानियत भी जाये झपक 
जमाल सर से क़दम तक तमाम शोअला है 
सुकूनो-जुंबिशो-रम तक तमाम शोअला है 
मगर वो शोअला कि आंखों में डाल दे ठंडक 


कैफ़ो-रंगे-नज़ारा - दृश्य की मादकता और रंग 
रब्बानियत - परमात्मा 
जमाल - सौंदर्य 
सुकूनो-जुंबिशो-रम - निश्चलता, गति और भाग-दौड़ 


शायर - फ़िराक़ गोरखपुरी
संकलन - उर्दू के लोकप्रिय शायर : फ़िराक़ गोरखपुरी
संपादक - प्रकाश पंडित
प्रकाशक - हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली, नवीन संस्करण 1994 

शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

धुरी पर (Dhuree par by Gyanendrapati)

धर्म की धुरी पर 

घूम रही है पृथ्वी 

मर्म की धुरी पर 

जीवन की परिक्रमा कर रहा है कवि। 


कवि - ज्ञानेन्द्रपति 

संग्रह - कविता भविता 

प्रकाशन - सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2020 

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

नारी ( Naari by Nagathihalli Ramesh translated from Kannada)

 नारी ... 

चुन लिया करती है बुरे से भले को 

वह सब कुछ नहीं निगलती 

जो भी मिलता है उसे तौलती है 

परखती है तराशती है 

लेकिन मर्द ? वह तो भोगी है 

सबकुछ चाटनेवाला 

किसी में न बाँटनेवाला 


मर्द की इन्हीं ऐयाशी [भरी] आदतों के कारण 

कई सभ्यताएँ उभरीं और डूब गयीं 

कई राजपाट बने और ढह गये 


दुनिया की छल-कपटों के बीच बैठी यह औरत 

तसल्ली देती है मर्द के भरम, सपने [सपनों], उसूलों को 

हाथ थामे रहती है अपनी आखरी [आखिरी] साँस तक 

साथ-साथ चलती है सभ्यताओं से सभ्यताओं तक ... 


कन्नड़ कवि - नागतिहल्ली रमेश 

संग्रह - सागर और बारिश 

हिन्दी अनुवाद - गिरीश जकापुरे 

प्रकाशन - सृष्टि प्रकाशन, बंगलोर, 2015 


काफी समय लगा इस कन्नड़ कवि की भाषा और लय को पकड़ने में। कई बार पढ़ा। बहुत अलग किस्म के अनुभव और अभिव्यक्तियाँ हैं। अनुवाद और किताब की सज्जा भी हिन्दी किताबों से भिन्न है। रसास्वादन के लिए रमना पड़ता है और मेहनत लगती है, यह इस बार भी महसूस हुआ। खोजकर और पढ़ना है नागतिहल्ली रमेश को तभी पूरा आनंद आएगा। अभी एक कविता इस संग्रह से जो सीधे सीधे अपनी बात कहती है और हम उत्तर भारतीयों के मन-मिजाज़ वाली भाषा में अनूदित है। 

सोमवार, 22 अगस्त 2022

मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib in Hindi)

दिलज़ ताबे बला बिगुज़ाद-ओ-खूं कुन 

ज़ि-दानिश का नक़शायद जुनूँ  कुन 


दिल को अपने 

मुश्किलों की 

आँच पर 

पिघला के तुम 

लोहू बना दो। 


व्यर्थ शंकाएँ 

कभी 

दिल में न लाओ। 


विवेक 

और बुद्धि से जब 

कुछ काम न निकले 

तो फिर 

दीवाने बन जाओ।   


शायर - मिर्ज़ा ग़ालिब 

मूल फ़ारसी से हिन्दी अनुवाद - सादिक़ 

संग्रह - चिराग़-ए-दैर, बनारस पर केन्द्रित कविताएँ 

प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2018 

रज़ा पुस्तक माला : कविता 


शनिवार, 20 अगस्त 2022

जो बचा रह गया (The Survivor by Tadeusz Różewicz In Hindi)


मैं चौबीस का हूँ
क़त्ल को ले जाया गया
मैं बच गया।

जो आगे दिए जा रहे हैं वे खाली (अर्थहीन) पर्यायवाची हैं:
मनुष्य और पशु
प्रेम और घृणा
मित्र और शत्रु
अंधकार और प्रकाश।

मनुष्यों और पशुओं को मारने का तरीक़ा एक ही है
मैंने यह देखा है:
ट्रक काट डाले गए आदमियों से ठुँसे हुए
जो बचाए नहीं जाएँगे।

विचार मात्र शब्द हैं:
भलाई और अपराध
सच और झूठ
सुंदरता और कुरूपता
साहस और कायरता।

भलाई और अपराध एक ही बराबर हैं
मैंने यह देखा है:
उस आदमी में जो दोनों ही था
अपराधी और भला।

मैं खोज रहा हूँ एक अध्यापक और गुरु
काश वह मेरी दृष्टि सुनने की ताक़त और वाणी बहाल कर दे वापस
काश वह फिर से नाम दे वस्तुओं और विचारों को
काश वह अलग करे अंधकार को प्रकाश से।

मैं चौबीस का हूँ
क़त्ल को ले जाया गया
मैं बच गया।



पोलिश कवि - तादयूश रुज़ेविच
संग्रह - 'होलोकास्ट पोएट्री'
संकलन और प्रस्तावना - हिल्डा शिफ़
पोलिश से अंग्रेज़ी अनुवाद - ऐडम ज़ेर्निआव्स्की
प्रकाशक - सेंट मार्टिन्स ग्रिफिन, 1995
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

तिरहुति लोकगीत में कृष्ण और राधा (Krishna and Radha in Tirhuti folksong)

साजि चललि सब सुन्दरि रे 

मटुकी शिर भारी 

धय मटुकी हरि रोकल रे 

जनि करिय वटमारी 

अलप वयस तन कोमल रे 

रीति करय न जानै 

धाए पड़लि हरि चरणहि रे 

हठ तेजह मुरारी 

निति दिन एहि विधि खेपह हे 

तोहे बड़ बुधिआरी 

आज अधर रस दय लेह हे 

पथ चलह झटकारी 

झाँखिय खुंखिय राधा वैसलि रे 

वैसलि हिय हारी 

नंदलाल निर्दय भेल रे 

हिरदय भेल भारी 

भनहिं 'कृष्ण' कवि गोचर करु रे 

सुनु गुनमंति नारी 

आज दिवस हरि संग रहु रे 

अवसर जनु छाँड़ी 


व्रजांगनाएँ शिर पर भारी गागर लिए सज-धज कर निकलीं। श्रीकृष्ण ने गागर पकड़ कर रास्ता रोक लिया। 

हे कृष्ण, राहजनी मत करो। मेरी उम्र थोड़ी है, और शरीर कोमल। मैं रीति का मर्म नहीं जानती। इस प्रकार वे सुन्दरियाँ श्रीकृष्ण के चरण पकड़ कर तरह-तरह से अनुनय-विनय करने लगीं। हे कृष्ण, तुम अपना यह हठ छोड़ दो। 

श्रीकृष्ण ने कहा - हे व्रजांगने, तुम नित्य इसी तरह टालमटोल करती हो। सचमुच तुम बड़ी चतुर हो। आज अपने अधर-रस का दान दो, और तब प्रसन्न होकर अपना रास्ता लो। 

राधा इस आकस्मिक विपत्ति से मुक्त होने के लिए इधर-उधर झाँक कर और खाँस कर अन्त में नाउम्मीद हो कर बैठ गई। 

हे सखी, श्रीकृष्ण कितने कठोर हैं। उनकी इस नाजायज़ हरकत से दुख होता है। 

कवि 'कृष्ण' कहते हैं - हे गुणवन्ती, सुनो। तुम आज श्रीकृष्ण के साथ प्रेमपूर्वक दिन बिताओ, और इस अवसर पर लाभ उठाने से मत चूको। 


यह तिरहुति लोकगीत है। राम इकबाल सिंह 'राकेश' के शब्दों में, "'झूमर' और 'सोहर' को यदि हम ग्राम-साहित्य-निर्झरिणी का मधुर कलकल नाद कहें, तो मिथिला के 'तिरहुति' नामक गीत को फागुन का अभिसार कहना पड़ेगा। स्वाभाविकता, सरलता, प्रेमपरता का सामंजस्य और उच्च भावों का स्पष्टीकरण - ये 'तिरहुति' की विशेषताएँ हैं। इसकी रचना पद्धति मुक्तक काव्य की तरह भावों की उन्मुक्त पृष्ठभूमि पर मर्यादित है।"


संग्रह - मैथिली लोकगीत
संग्रहकर्ता और संपादक - राम इकबाल सिंह 'राकेश'
भूमिका-लेखक - पंडित अमरनाथ झा 
प्रकाशक - हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग

   

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

दोस्ती (Dosti by Sudhanshu Firdaus)

औंधे पड़े आकाश ने 

सीधे मुँह लेटे आदमी से कहा :

'कितने अकेले हो तुम'


एक फुसफुसाहट हुई 

तुम भी तो !

फिर दोनों हँसने लगे 



कवि - सुधांशु फ़िरदौस 

संग्रह - अधूरे स्वाँगों के दरमियान 

प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2020 

सोमवार, 18 जुलाई 2022

मेरी नानी सीता सुंदर (My maternal grandmother Seeta Sundar by Purwa Bharadwaj)

आज 18 जुलाई है। नानी के जाने का दिन। 45 साल हो गए। यह तारीख टँगी रहती है किसी कोने में। मुझे बुद्ध कॉलोनी वाले घर के आँगन में उनकी अंतिम छवि का ध्यान है। लेकिन उससे ज़्यादा याद आती है आँगन की बगल में जो रसोई थी, छप्पर वाली लंबोतरी रसोई, उसमें काम करती नानी। मुझे नानी के हाथ के खाने का स्वाद याद है। मेरे पापा भी उनके खाने की बड़ी तारीफ करते थे। नानी से फ़रमाइश करके कई बार मैं माँड़-भात खाती थी। उसना चावल का। उसमें घी और निमकी, नमक में लिपटे सूखे नींबू वाली जो काली सी पड़ गई हो।


नानी का नाम था सीता सुंदर - सीता सुंदरी। सचमुच सुंदर और सौम्य। उनकी युवावस्था का अंदाजा तो नहीं मुझे, मगर एक 'स्टाइलिश' फ़ोटो याद है जिसमें नानी ने बिना बाजू के (स्लीवलेस) ब्लाउज़ के साथ सीधे पल्ले की साड़ी पहन रखी थी और गॉगल्स लगा रखा था। संभवतः अपनी सबसे छोटी बेटी का जो उन दिनों कॉलेज में थी। बाल खुले थे, सद्यःस्नाता नानी के। कभी कभी नानाजी (कविवर रामगोपाल शर्मा 'रुद्र') की कविताओं में उनको तलाशती हूँ। और कभी कभी यह भी सोचती हूँ कि हमलोग अपने घरों की औरतों को ही कितना कम जानते हैं। माँ के चेहरे में नानी दिखती है और मुझमें माँ की काफी झलक है। तो संतोष कर सकती हूँ कि नानी का कुछ तो लिया होगा मैंने।

नानी का घर था छपरा में इटवा महेशिया। माँ बताती है कि इटवा नदी थी जिसकी एक तरफ था महेशिया। बाबू हरिशंकर सिंह और शहदुल्लापुर गाँव की रूप कांता कुँवर की इकलौती संतान थी सीता सुंदर। 1912 का जन्म। जमींदार की बेटी। माँ जब सुनाती है कि उसके नाना की 42 गाँव की जमींदारी थी (जो तीन भाइयों में बँटी थी और 14 गाँव उसके नाना के हिस्से में थे) तो उसके स्वर में क्षण भर को ही सही रुआब आ जाता है। 

सीता सुंदर को स्कूल कभी नहीं भेजा गया, लेकिन घर पर कैथी लिखना-पढ़ना सिखाया गया। बहुत दुलारी थी। गंदुमी रंग वाली माँ की गोरी-चिट्टी बेटी। बहुत लंबी तो नहीं, मगर चौड़ी काठी होने से कद्दावर लगती थी। बाल खूब लंबे, इतने कि कुर्सी पर बैठाकर धोए जाते थे। 

सीता सुंदर की शादी लगी दाउदपुर शाहपुर, पटना में, मिलिट्री छावनी से आधा किलोमीटर दूर के घर में। बाबू सहदेव सिंह के बड़े बेटे रामगोपाल सिंह शर्मा से ('रुद्र' उपनाम बाद में आया और जब गया में थे तो रुद्र गयावी भी लिखते थे)। सीता सुंदर की भावी सास बड़ी कड़क थीं। दनाड़ा गाँव की जो नौबतपुर के तिसखोरा गाँव के पास है। वे बाबू सहदेव सिंह की दूसरी पत्नी थीं। उनकी पहली पत्नी दो बच्चों - रामगोविंद और सीता को जन्म देकर गुज़र गई थी। दूसरी पत्नी से चार बच्चे हुए - राधा, रामपरी, रामगोपाल और रामशंकर।  

रामगोपाल के लिए सीता सुंदर की जोड़ी ठीक रहेगी या नहीं, इसकी जाँच करने के लिए गंगा पार महेशिया औरत को भेजा गया था। उन दिनों स्टीमर से गंगा पार करना, फिर बैलगाड़ी या टमटम से महेशिया जाना खासा तरद्दुद था। फिर भी एक चतुर सुजान औरत महेशिया पहुँची। जमींदार का घर था, दूरा (मुख्य द्वार) खुला रहता था। सीता सुंदर आँगन में बैठी बाल सुखा रही थी। 13-14 की वय। होनेवाली दुल्हन तक पालक झपकते वो औरत आई और उसने सीधे किशोरी के गले में हाथ डाल दिया और हठात बोल पड़ी, "ए मैयो, कहाँ लड़की के घेघ हइई! लड़की तो एत्ता सुत्थर हइई!"  भोजपुरी प्रदेश में मगही में यह सुनते ही हल्ला पड़ गया। जब तक लोग समझते समझते वो औरत चंपत हो गई। लड़कीवालों को इतना तो भान हो गया कि कहाँ से और क्यों वो औरत आई होगी। 

बहरहाल, शादी पक्की हो गई। साल था 1926 और लगन पड़ा वैशाख पूर्णिमा को। दूल्हा 14 साल का और दुल्हन भी 14 साल की। उम्र में लगभग बराबर, मुश्किल से कुछ दिन या महीने भर का अंतर रहा होगा। सीता सुंदर के ससुर बाबू सहदेव सिंह ने इस बड़े घर की बेटी की अगवानी में दानापुर की मुख्य सड़क के किनारे पक्का मकान बनवाया। वे स्टेशन मास्टर थे। पढ़े-लिखे और संगीतप्रेमी व्यक्ति। रामायण का पाठ करते थे, सितार बजाते थे और हारमोनियम भी। उन्होंने बहू के लिए घर में पक्का पाखाना भी बनवाया था। नहाना-धोना शायद इनरा पर ही होता था। पक्का, बीच में लोहे का पावट। बगल में पक्के का छोटा हौज जैसा बनवाया गया। नहाने के बाद उसका पानी सब्ज़ी के खेत में जाता था। वहीं दाहिनी तरफ गोशाला और बाईं तरफ बखार यानी अनाज का भंडार। ऐसा स्वागत हुआ सीता सुंदर का। 

ससुराल के बाकी रंग भी सीता सुंदर ने देखे। सास को पुकारती थी सरकार जी और ससुर को बाबू साहब। बड़ी ननदें थीं दीदी। लाड़-दुलार के साथ सास-ननद का शासन भरपूर झेला। उनकी एक ननद के तानों का किस्सा तो अगली दो पीढ़ी तक चला (और उसका विश्लेषण करते हुए यह भी सुनने में आया कि वे वैवाहिक सुख से वंचित रह जाने के कारण तिक्त हो गई थीं)। एक (सौतेली) जेठानी जो थीं वो भी उनको लुलुआती  रहती थीं। कभी कभी सास सीता सुंदर के कमरे की सिकड़ी (कुंडा) लगा देती थी यह कहकर कि इतनी सुंदर है पुतोह कि इनरा के पास ताड़ पर चढ़ा पासी उसको निहारेगा। 

सच कहा जाए तो लक्ष्मण रेखा के रूप अलग अलग हैं। कोई भी हो सीता, राम की या रामगोपाल की, उसको नियंत्रण करनेवाले चारों तरफ हैं - घर-बाहर सब।

1934 के भूकंप का किस्सा तो अजीब है। जलजला ऐसा था कि सबकुछ डोल गया था। दीवारें झूम रही थीं। उसी में घबरा कर सास ने सीता सुंदर के कमरे की सिकड़ी चढ़ा दी। अस्त व्यस्त होकर बहू इधर-उधर न भागे, इसकी चिंता थी। बंद किवाड़ के पल्ले से चिपकी हुई सीता सुंदर ने कैसे वह समय काटा होगा, कल्पना की जा सकती है। उसी में किसी ने गलत खबर दे दी कि रामगोपाल तो बेतिया में खतम हो गया। उन दिनों वे बेतिया के ख्रीस्त राजा -  के. आर. हाई स्कूल में पढ़ा रहे थे। यह नामी स्कूल 1927 में बेतिया के कैथोलिक चर्च के परिसर में स्थापित हुआ  था और 1930 में वर्तमान परिसर में स्थानांतरित हो गया था। भूकंप ने बेतिया में भयानक तबाही मचाई थी, इसलिए वहाँ जो लोग थे उनके परिजन बहुत डरे हुए थे। लेकिन सीता सुंदर को अपने सौभाग्य पर बड़ा भरोसा था। उसने अपनी सास को कहा, "सरकार जी, हम्मर किस्मत एतना छोट न है। अपने के बेटा नाच के अपने केआगु में आ खड़ा होएतन। अपने विश्वास करु।" 

सीता सुंदर का भरोसा सही साबित हुआ और घर में उनका कद बढ़ा। रामगोपाल सही सलामत बेतिया से शाहपुर, पटना आ गए। भूकंप में रेल, तार, बिजली सब तहस-नहस हो गया था, मगर जैसे-तैसे घर पहुँच ही गए। इसके बाद तानों का नया सिलसिला शुरू हुआ कि बहू को संतान नहीं हो रही है। शादी के 9 साल बाद सीता सुंदर गर्भवती हुई। 1935 में पहली संतान हुई - लड़की, जो आठ महीने में ही चल बसी। जम्हुआ से यानी टिटनेस से। सुनते हैं कि इसी धक्के ने सीता सुंदर के पिता बाबू हरिशंकर सिंह के प्राण हर लिए। अपनी इकलौती बेटी का दुख उनसे सहन नहीं हुया। 

1938 में सीता सुंदर पुत्रवती हुई। इस बार आठ दिन में ही टिटनेस ने पुत्रहीन कर दिया। फिर 1941 में एक बेटी (मेरी माँ) पैदा हुई, 1946 में दूसरी बेटी, 1948 में तीसरी बेटी और 1951 में बेटा। उसके बाद एक और बेटी हुई। बेटे के पहले और बाद में भी बेटियाँ ढेंगराने - जनने के लिए सीता सुंदर ने चुनिंदा गालियाँ खाईं। सास कहती कि "हम्मर बेटा के बेटी बिहअते बिहअते जुत्ता खिआ जाई"  तो ननद कहती कि "बेटी बिहअते बिहअते हम्मर भाई के पगड़ी बेचा जाई।" उस वक्त सीता सुंदर को न जमींदार की बेटी होने से कोई रियायत मिली न संभ्रांत ससुराल ने शिष्टता का परिचय दिया। ऐसा होता है पितृसत्तात्मक परिवार!

औरत धरती की तरह होनी चाहिए, परंपरा से चली आ रही इस सीख को सीता सुंदर ने गाँठ में बाँध रखा था। जब पति के पास नौकरी नहीं थी तो भी सीता सुंदर ने ससुराल में जली-कटी सुनी थी। पति ठहरे कवि, दीन-दुनिया से बहुत मतलब नहीं। खैर, मास्टरी की उन्होंने। सीता सुंदर ने हृदय से हर कदम पर अपने रामगोपाल का साथ निभाया। उनके बिना रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' वो नहीं होते जो हुए। 
उन्होंने कई नौकरियाँ बदलीं। मुस्तफ़ापुर गए, गया के ज़िला स्कूल में शिक्षक हुए। हिन्दी के शिक्षक थे, जिमनास्टिक के चैंपियन भी थे। पहलवानी का शौक भी था। मिलिट्री ट्रेनिंग भी किसी वक्त में की थी। साथ में कविताई। सुरीली आवाज़ में गायन। कवि सम्मेलनों की रौनक। मौज में आते तो घर में भी अपनी कविताओं का सस्वर पाठ करते। इन सब से निर्लिप्त सी रहते हुए भी सीता सुंदर उनके सरअंजाम में दिन-रात लगी रहती थी। खाने की थाली परोसकर पंखा झलने से लेकर गाय पोसने का काम किया ताकि पति और बच्चों को खालिस दूध मिल सके।  

1845 में स्थापित गया के ज़िला स्कूल का डंका बजता था। पति इस नौकरी में टिके तो वहाँ पिता महेश्वर मोहल्ले में सीता सुंदर की अपनी गृहस्थी जमी। मेरी माँ अपने जन्मस्थान गया के बारे में लगाव से बात करती है। उस मोहल्ले मे शिव का जो विशाल प्राचीन मंदिर है वह अब भी माँ की धुँधली यादों से झाँकता है। फिर पूरा परिवार ज़िला स्कूल के क्वार्टर में आ गया। सीता सुंदर दूसरी बेटी की माँ बनी। अड़ोस-पड़ोस का साथ था, आपस में हेल-मेल था। समय सुख से गुज़र रहा था। घूमना-फिरना भी होता था। शिक्षक गण सपरिवार रामशिला और प्रेतशिला की पहाड़ियों पर पिकनिक मनाने जाते थे तो सीता सुंदर का परिवार भी होता।  

1948 में पटना आ गए सब। किराये के मकान में। भिकना पहाड़ी में जमुना बाबू के दो कमरे के मकान में सीता सुंदर बसीं। पटना कॉलेजियट में क्वार्टर कुछ महीनों बाद मिला। तीसरी बेटी का जन्मस्थान वही है। फिर बाकरगंज बजाजा के दोमंजिला मकान में बेटा हुया। घर पर ही। प्रसव पीड़ा उठी तो खोज शुरू हुई घर के सवांग की, जो यार-दोस्तों के बीच कहीं जमे बैठे थे। गोविंदमित्र रोड में जनता होटल था - मालिक थे जद्दु बाबू और मैनेजर थे नगीना बाबू। रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' वहीं पाए गए।  ब्रजकिशोर नारायण, अंजनी प्रसाद सिन्हा, नगेन्दर आदि की मंडली में। पता नहीं उस दिन सिर्फ कविताएँ सुनने-सुनाने का सिलसिला था या ताश की बैठकी भी थी, जो हो राम जी को बुलहटा मिला तो महफ़िल से उठे और पहुँचे सीता जी के पास। इस बीच जचगी के लिए दाई की भी खोज हो रही थी। लेकिन किसी के भी पहुँचने के पहले राघवेंद्र अवतरित हो गए। सीता सुंदर को सँभाला उनकी माँ रूप कांता कुँवर ने। 

प्रसूति गृह से सीता सुंदर जल्दी ही काम के मोर्चे पर आ गईं। चार बच्चों की भरी-पूरी गृहस्थी उन्हीं के कंधों पर टिकी थी। 5 साल के बाद 1956 में सीता सुंदर की सबसे छोटी बेटी का जन्म हुआ। मुख्तार टोली, कदम कुआँ के किराये के मकान में। खुश-खुश और संतुष्ट रहा सीतायन! मेरी माँ अपने बचपन के कई नाम बताती है - भीम भंटा राव, पॉम्चू, लु-लू-पुलु-पुशियान ... इससे खुशहाली ही तो टपकती है!

अपने पिता के जाने के बाद माँ का सहारा सीता सुंदर ही थीं। वे उन्हें ईआ कहती थीं और वे बेटी को बबुओ और दामाद को पाहुन पुकारती थीं। सबका महेशिया आना-जाना नियमित रूप से होता था। बच्चों ने अपने ननिहाल का भरपूर आनंद लिया है। गर्मी की छुट्टियों में तो ज़रूर जाना होता था। लंबे समय तक महेशिया छूटा नहीं। नाता-रिश्तेदारी चलती रही। अनाज-पानी भी वहाँ से काफी दिनों तक पटना आता रहा।  

बाद में ईआ अशक्त हुईं तो उसे सीता सुंदरअपने साथ ले आईं। गर्दनीबाग के क्वार्टर में, जो पुराने सचिवालय में अनुवादक के पद पर काम करने के नाते पति (नानाजी) को मिला था। बिना किसी उज्र के। यह कहना इसलिए ज़रूरी है कि औरत को अपने मायके की जिम्मेदारी उठाने की इजाज़त ही नहीं होती और संसाधन सीमित हों तब तो और मुश्किल। सीता सुंदर को राम गोपाल 

सीता सुंदर ने अपनी माँ की बड़ी सेवा की।  टिकिया सुलगाकर हुक्का - नारियल भरने का काम भी किया। नानी का नारियल भरना तो उनके सब बच्चों के लिए खेल जैसा ही था, लेकिन तीसरी बेटी अपनी नानी की सबसे ज़्यादा चहेती थी। बहुत मन से उनकी देखभाल की। 95 साल की उम्र में रूप कांता कुँवर विदा हुईं बेटी के घर से। लगता है कि कैंसर था। पूरे शरीर में काले-काले गोल धब्बे जैसे हो गए थे मानो किसी ने टिकिया से दाग दिया हो। पेट में छेद जैसा हो गया था जिससे पानी रिसता रहता था। मुझे गर्दनीबाग में कोनिया घर की बगल में भंडार में खाट पर गुड़ी-मुड़ी लेटी बड़की नानी याद हैं।  

अभी बात चली तो माँ ने जसीडीह का किस्सा सुनाया - 1963 का। पापा साइनस की भयंकर तकलीफ झेल रहे थे। 1962 में उन्होंने एम. ए. की परीक्षा छोड़ दी और तीन साल तक नहीं दे पाए। हर तरह का इलाज करवाया। होमियोपैथी की किताब पर किताब पढ़ गए। उपचार के लिए गोरखपुर में विट्ठल दास मोदी के प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र - आरोग्य भवन में महीना भर गुज़ारा। फिर अपने गाँव चाँदपुरा के एक व्यक्ति के सुझाव पर वे बाघमारा, जसीडीह प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र पहुँचे। वहाँ चिकित्सक थे महावीर प्रसाद पोद्दार। तब से जसीडीह हमारे घर की बातों में घूम-फिर कर आता ही रहा। रहन-सहन और खान-पान पर उसका ऐसा असर रहा कि हम बचपन में उस स्वास्थ्यप्रद सादगी से चिढ़ भी जाते थे। बहरहाल, लौटते हैं नानी से जुड़े जसीडीह के किस्से पर। हम भाई-बहन का जन्म नहीं हुआ था तब। माँ-पापा दो प्राणी अकेले पहुँचे थे जसीडीह। आमदनी नहीं थी। उन्होंने सोचा भी न था कि पहली ही बार में तीन महीने रुकना पड़ेगा। इलाज भी रसाहार और दूध कल्प जैसा महँगा। दूध कल्प का मतलब माँ ने बताया - हर आधे घंटे में एक पाव कच्चा गाय का दूध। धारोष्ण दूध ! प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र की गौशाला बाद के सालों में हमें भी याद है। माँ के पास केवल दो साड़ी थी जिसे बारी-बारी से धोती-पहनती थी। तीन महीने में दोनों साड़ियाँ छिर सी गई थीं। तभी नानी नाना के साथ जसीडीह आई थीं। अगले ही दिन वे रिक्शे से देवघर गईं और दो सूती साड़ी खरीद कर ले आईं। 

ऐसी ही थीं रागो माँ (साहित्यकार हंसकुमार तिवारी सीता सुंदर को मस्ती में कभी कभी यही पुकारते थे। ज्येष्ठ पुत्री रागिनी की माँ - रागो माँ)!   
 
                                                                                                                                                    किस्सा जारी ... 

 

सोमवार, 11 जुलाई 2022

यह क़ब्रिस्तान है (THIS IS A CEMETERY BY OLAF D. EYBE)

वह नन्हीं स्वीडिश लड़की

फूल चुन रही है

ऊँची घास में

बिरकेनाऊ कैम्प की

में उसे ऐसा करने से रोकना चाहता हूँ

यह क़ब्रिस्तान है

लेकिन मैं ख़ामोश रह जाता हूँ

यह क़ब्रिस्तान है

 

मैं क्या कहूँ उस अमरीकी से

जो अभी अभी पहुँचा है ऑश्वित्ज़ से

बिरकेनाऊ में और पूछ रहा है

क्या यह ऑश्वित्ज़ है?

मैं सोचता हूँ कि क्या उसे मालूम है

मित्र देशों को मालूम था एकदम शुरू में ही

लेकिन उन्होंने इसके बारे में कुछ नहीं किया

यह क़ब्रिस्तान है 


 

जर्मन कवि - OLAF D. EYBE (1963-2021)

जर्मन भाषा से अंग्रेज़ी अनुवाद - क्रिस्टोफ़र मुलर

अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

संग्रह  - The Auschwitz Poems 

संकलन और संपादन - Adam A. Zych

प्रकाशन - THE AUSCHWITZ-BIRKENAU STATE MUSEUM, 1999


द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी के नियंत्रण वाले पोलैंड में ऑश्वित्ज़ नाज़ियों का बनाया यातना शिविर और क़त्लगाह था। उसके अनेकानेक यातना शिविरों में से बिरकेनाऊ सबसे अधिक बड़ा और कुख्यात था। 

शनिवार, 2 जुलाई 2022

राजनीतिक करवटें, 1948 (Rajneetik karvatein, 1948 by Shamsherbahadur Singh)

(बतर्ज़ कव्वाली)

हाय लीडर दुरंगी न कम गुम हुए !!

बीच धारा अगम थी - गुड़म् गुम हुए !!


'इन्क़लाबी' हमारे न कम गुम हुए :

लेके साइकिल हमारी निगम गुम हुए !!


हमने देखा था उनको इसी मोड़ पर !

एकदम आए वो ! एकदम गुम हुए !!


ऐसे खो गए जाके आफ़िस में हम :

अपने कानों पर रक्खे क़लम गुम हुए !!


बोली बरसात में इन्क़लाबी दुल्हन :

'ले के छाता हमारा बलम गुम हुए !'


रक्खो एक् सौ चवालिस दफ़ा फूँक फूँक !

वर्ना रक्खा जो अगला कदम, गुम हुए !!


जैसे होश आज बंगाल सरकार के :

हम तो ऐसे, तुम्हारी क़सम, गुम हुए !!


ऐसी आँधी चले ... हम भी पूछें - कहाँ,

वो जो ढाते थे जुल्मों-सितम, गुम हुए ??


आ रहे हैं मसीह्-ओ-खिज़र झींकते :

हे ! अब इन्क़लाबों में हम गुम हुए !!


क्या गुरुजी मनुSजी को ले आयेंगे ?

हो गए, जिनको लाखों जनम गुम हुए !! 


अपनी किस्मत को यों रो रहे हैं चियांग - 

रह गए हम लँडूरे, सनम गुम हुए !!


किस एटम् गर से पूछे कि - इन्सान के 

हीरोशिमा में कितने अदम गुम हुए !?


हमने ज़ेरे-ज़मीं, की तरक़्क़ी पसन्द :

ले के शमशेर अपनी क़लम गुम हुए !!


आज - सन् 1948-49 के ज़माने में 

चियांग - चियांग-काई-शेक, जिन्हें फ़ारमूसा (ताइवान) में शरण लेनी पड़ी  

ज़ेरे-ज़मीं - 'अंडर ग्राउंड'


शायर - शमशेरबहादुर सिंह 

संकलन - सुकून की तलाश 

संपादन - रंजना  अरगड़े 

प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1998 




शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

उक्ति (Ukti by Siddhinath Mishra)

छक-छककर पी 

फिर भी, 

भरा न जी;

वह तृषा - 

          वही तो तृषा। 

रंग, तान, रस, गंध, स्पर्श से 

जुड़ा गए मन-प्राण;

वह तृप्ति - 

           वही तो तृप्ति। 

हटें न आँखें,

जनम-अवधि-भर 

चाहे जितनी बार निहारूँ;

वह रूप - 

           वही तो रूप। 

सुख-दुख में 

समरूप भाव-

मृत्यु-भय से ं डरे;

वह जीवन -

             वही तो जीवन। 

बार-बार की पढ़ी हुई 

तो भी 

फिर-फिर पढ़ने को मन खींचे;

वह कविता - 

             वही तो कविता। 



कवि - सिद्धिनाथ मिश्र
संग्रह - द्वाभा
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2010



गुरुवार, 30 जून 2022

मन (Mann by Bhawaniprasad Mishra)

मन 

हल्का करने वाले सुख 

चाहे पल या दो पल के हों 

पर उनका मिलना 

रोज जरूरी लगता है 

यह क्षणिक सुखों का जादू है 

जो बड़े-बड़े दुख ठगता है। 

                              - 7 जून, 1953 


कवि - भवानीप्रसाद मिश्र 

संकलन - भवानीप्रसाद मिश्र रचनावली 

संपादन - विजय बहादुर सिंह 

प्रकाशन - अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली 

                 प्रथम संस्करण, 2002 

सोमवार, 27 जून 2022

विदूषक (Clowns by Miroslav Holub translated in Hindi)


विदूषक कहाँ जाते हैं?

विदूषक कहाँ सोते हैं?

विदूषक क्या खाते हैं?

विदूषक क्या करते हैं
जब कोई नहीं
कोई नहीं क़तई
हँसता है अब और 

अम्माँ?

चेक कवि - मिरोस्लाव होलुब, 1961
संग्रह - पोएम्स : बिफोर एंड आफ्टर
चेक से अंग्रेज़ी अनुवाद - एवाल्ड (Ewald Osers)
प्रकाशन - ब्लडैक्स बुक्स, ग्रेट ब्रिटेन, 1990
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद

शनिवार, 25 जून 2022

उन्हें हड़प लो (Poem by Bhuchung D. Sonam translated in Hindi)

आपकी प्लेट में रखा बटर चिकेन 

कल तक वह मुर्गी था 

जिसके चूजे अंडों से निकले नहीं अभी 

आप स्वादिष्ट भोजन का आनन्द लीजिए 


पिछली गर्मियों [में] मैंने जिस ऊँट की सवारी की थी 

वह अब चमड़े का एक बैग बन चुका है 

सजा है एक आधुनिक शोरूम में 

कुबड़ा होना भी एक श्राप है 


उस पर बहुत फबता है मस्कारा 

पर उसकी आँखों तक आने से पहले 

वह कितने ही चूहों की आँखें फोड़ चुका होता है 

चूहे अब बिल्लियों से अधिक मसकारे से डरते हैं 


बुद्ध की प्राचीन मूर्ति की नकल 

उसके आलीशान स्नानगृह में खड़ी है 

जनमानस की सामूहिक आस्था का प्रतीक 

अब रोज़ उसे मूतते हुए घूरता है 


वह दहाड़ता हुआ गर्वीला बाघ 

जो बड़ी शान से बंगाल के जंगलों में 

चहलकदमी किया करता था 

अब तुम्हारी पोशाक का बॉर्डर है 

लेकिन 

उसे पहन कर भी तुम 

बस एक भीगा हुआ कुत्ता दिखते हो। 


तिब्बती कवि - भुचुंग डी. सोनम (जन्म 1972)

संग्रह - ल्हासा का लहू, निर्वासित तिब्बती कविता का प्रतिरोध 

संकल्पना एवं अनुवाद - अनुराधा सिंह 

प्रकाशन - वाणी प्रकाशन और रज़ा फ़ाउण्डेशन, प्रथम संस्करण, 2021 


निर्वासन में रह रहे तिब्बती कवि की यह बात कहाँ नहीं लागू होती है ! बस कवि से असहमति वहाँ है जहाँ हड़पनेवाले को भीगा हुआ कुत्ता कहा गया है क्योंकि यह कुत्ते के लिए अपमानजनक है। सवाल है कि सबको हड़पने-निगलने-मसलने में लगे हुओं को क्या कहा जाए !

शुक्रवार, 24 जून 2022

गवाची लकीर (Sara Shagufta translated in Hindi)

 सारी चीज़ें खो गई हैं 

आसमान के पास भी काँटा तक नहीं रहा 

जभी तो मिट्टी में बोलने वाले बोलते नहीं 

गूँज भी गूँगी हो गई है

रब भी नहीं बोलता  

सारी चीज़ें खो गई हैं 

मेरे बर्तन 

मेरी हँसी  

मेरे आँसू 

मेरे मक्र 

सारी चीज़ें खाली हैं और खो गई हैं 

बच्चों के खिलौने 

और मेरे श्टापू का कोयला वक़्त लकीर गया है 

आँखों में कोई शक्ल नहीं रह गई है 

सारी चीज़ें खो गई हैं 

मेरे चेहरे 

मेरे रंग 

मेरे इन्साफ़ 

जाने कहाँ खो गए हैं 

दिल का चेहरा आँख हुआ जाता है 


मज़ाक पुराने हो गए हैं 

हँसी चारपाई कस रही है 

चाँद की रूनुमाई के लिए सूरज आया है 

तो आसमान खो गया है 

सुलूक भी खो गए हैं 

वो भी कभी नहीं आए 

जिनके लिए आँखें रखी थीं 

और दिल खत्म किए थे 

आँखों को रसूल  कहा था 

और दिल को रब कहा था 

सारी चीज़ें खो गई हैं 


मक्र = छल, बहाना 

रूनुमाई = मुँहदिखाई 


पाकिस्तानी शायरा - सारा शगुफ़्ता 

संग्रह - नींद का रंग 

लिप्यंतरण और संपादन - अर्जुमंद आरा 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2022  


कुछ रोज़ पहले मैंने भोपाल की यात्रा में इस किताब को उठाया। शीर्षक ने ही अपनी तरफ ध्यान खींचा था। तब तक मुझे सारा शगुफ़्ता के बारे में कुछ खास मालूम नहीं था। अर्जुमंद आरा ने जो परिचय दिया है उसने काफी उत्सुकता जगा दी। "पाकिस्तान में नारीवादी उर्दू शायरी की एक उत्कृष्ट लेकिन बहिष्कृत सारा शगुफ़्ता" यह पहला ही वाक्य पर्याप्त था संग्रह को पढ़ जाने के लिए। ईमानदारी की बात है कि एक साँस में यह छोटा-सा संग्रह नहीं पढ़ पाई। साँस टूटती रही कविताओं में से झाँकती सारा शगुफ़्ता की ज़िंदगी का अंदाजा लगाकर। भाषा की दिक्कत भी बीच बीच में आड़े आई। यात्रा से लौटकर हिन्दी और उर्दू के शब्दकोशों को पलटा तो भी कुछ अर्थ हाथ न आए, जैसे 'गवाची' या 'श्टापू' का। सारा खुद बहुत जगह उखड़ी उखड़ी नज़र आती हैं तो तारतम्यता खोजने का मेरा प्रयास भी व्यर्थ जा रहा था। बातों का सिरा कई बार पकड़ में नहीं आया मेरे, फिर भी जो कशिश है उनमें वह दूसरी शायरी से जुदा है। बानगी के तौर पर यह ! हाँ, एक बात जो बड़ी देर तक मेरे मन में चक्कर काटती रही, वह है आँखों को लेकर सारा शगुफ़्ता के प्रयोग। उनकी फ़ेहरिस्त बनाने का मन किया। वैसे अनोखे और अजीबोगरीब वाक्य देखकर सारा की तड़प ही नहीं, ताकत का भी पता चलता है। 

गुरुवार, 23 जून 2022

मुम्बई का तिब्बती (The Tibetan in Mumbai by Tenzin Tsundue)

वह जो  तिब्बती है मुम्बई में 

विदेशी नहीं 

चाइनीज होटल 

में रसोइया है 

लोग उसे 

बीजिंग से आया हुआ चीनी समझते हैं 


गर्मियों में परेल ब्रिज के नीचे 

स्वेटर बेचता है 

लोग सोचते हैं कि 

कोई रिटायर्ड 'बहादुर' है  


मुम्बई का तिब्बती 

ज़रा तिब्बती लहजे में 

मुम्बइया गाली दे लेता है 

भाषा का संकट आते ही 

तिब्बती बोलने लगता है 

पारसी उसकी इसी बात पर हँसते हैं 


मुम्बई के तिब्बती को 

मिड-डे पढ़ना पसन्द है 

एफएम उसका पसन्दीदा है 

यह जानते हुए भी कि इसमें 

कभी तिब्बती गाना नहीं बजेगा 


वह एक सिग्नल से बस पकड़ता 

चलती ट्रेन में चढ़ता 

एक लम्बी काली गली से गुज़रते हुए 

बहुत नाराज़ हो जाता है जब 

लोग 'चिंग-चौंग, पिंग-पौंग' कहकर 

उस पर हँसते हैं 


मुम्बई का तिब्बती 

बहुत थक गया है 

उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना 

कि 11 बजे की विरार फास्ट 

उसे हिमालय ले जाये 

और 8.05 की फास्ट लोकल 

वापस पहुँचा दे चर्चगेट  

फिर उसी महानगर के उसी नव साम्राज्य में। 


तिब्बती कवि - तेनज़ीं सुण्डु 

संग्रह - ल्हासा का लहू, निर्वासित तिब्बती कविता का प्रतिरोध 

संकल्पना एवं अनुवाद - अनुराधा सिंह 

प्रकाशन - वाणी प्रकाशन और रज़ा फ़ाउण्डेशन, प्रथम संस्करण, 2021 

बुधवार, 22 जून 2022

प्यारी (Poem by Bahadur Shah Zafar)

प्यारी तेरो प्यारो आयो प्यारी 

प्यारी बातें कर प्यारे को मनाइये । 

अनेक भाँतन कर प्यारे को रिझाइए

आली ऐसी प्यारो कहाँ घर बैठे पाइये ।। 

लाइए समुझाइए कौन भाँतन 

कर सुखदे बुलाइये । 

साह बहादुर तेरे रसबस भए 

अनरस कर कर सौतन हँसाइये ।। 


शायर - बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र 

संग्रह  - मुग़ल बादशाहों की हिन्दी कविता 

संकलन एवं संपादन - मैनेजर पाण्डेय 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2016  


यह अच्छा संकलन है। बस मुझे उलझन हो रही है हिज्जे को देखकर। कहीं 'पाइये' तो कहीं 'लाइए'। मुमकिन है कि मूल से हिन्दी में छपाई तक आते आते यह हुआ हो। अक्सर इतने हाथों से रचना गुज़रती है कि एकरूपता नहीं रह जाती है। हालाँकि हर जगह एकरूपता लाना या खोजना भी बहुत सही नहीं। 



मंगलवार, 21 जून 2022

मुल्का (Mulka by Dhoomil)

 मुल्का मियाँइन हैं 

उम्र साठ-बासठ के बीच है 

ए बचवा! ई सब कहकूत है। 

न हिन्नू मरै न मुसल्मान  

दंगा फसाद पेट भरले का गलचऊर है। 

- असल बात अउर है। 

जे सच पूछा तो परान 

ई गरीबन कै जात है। 

मुल्का क जिनगी एकर सबूत है। 

बीस बरिस बीत गयल मुल्का के। 

कुक्कुर एस गाँव-गाँव, घरे-घरे घूमते 

लेकिन कभी केहू एनसे ना पुछलेस - 

कि ए मुल्का बुजरो !

का तुहऊँ इंसान है ?


लोग राजा से रंक और रंक से राजा भयेल 

लेकिन मुल्का के दुनिया 

ई दौरी में दुकान है । 

                          - 1969 


संकलन : धूमिल समग्र, खंड 1  

संकलन-संपादन : डॉ. रत्नशंकर पाण्डेय 

प्रकाशन : राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2021 

सोमवार, 20 जून 2022

लुकाछिपी (Hide-And-seek by Vasko Popa translated in Hindi)


कोई किसी और से छिपता है
छिपता है अपनी जीभ के नीचे
और दूसरा खोजता है उसे ज़मीन के नीचे

वह अपने ललाट में छिपता है
वह दूसरा खोजता है उसे आसमान में

वह छिपता है अपनी विस्मृति में
वह दूसरा खोजता है उसे घास में

खोजता है उसे खोजता है
कोई जगह नहीं जहाँ वह उसे नहीं खोजता
और खोजते हुए ख़ुद को खो देता है



सर्बियाई कवि वास्को पोपा (29.6.22 - 5.6.91)
स्रोत : https://mypoeticside.com/poets/vasko-popa-poems
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद : अपूर्वानंद 


मैक्सिको के नामी कवि ऑक्टोवियो पाज़ ने पोपा के बारे में कहा था - कवियों के पास हुनर है कि वे दूसरों के लिए बोलते हैं, मगर पोपा की नायाब खासियत यह है कि वे दूसरों की सुनते हैं। 

रविवार, 19 जून 2022

जीना 2 (On Living by Nazim Hikmet, translated In Hindi)


मान लें कि हम सख़्त बीमार हैं, हमें ज़रूरत है सर्जरी की -

जिसका मतलब यह है कि मुमकिन है कि हम उतर न पाएँ

                                 उस उजली मेज़ से।

हालाँकि नामुमकिन है उदासी न महसूस करना

                   सोचकर कुछ जल्दी जाने के ख़याल से,

फिर भी हम हँसेंगे चुटकुलों पर,

हम खिड़की के बाहर देखेंगे जानने को कि बारिश हो रही है -

और बेचैनी से इंतज़ार करेंगे

                   सबसे ताज़ा ख़बर का .. .

मान लें कि हम मोर्चे पर हैं -

         ऐसी जंग के लिए जो लड़ने लायक है और मान लो

वहाँ, उस पहले हमले में, पहले ही दिन

         हम अपने मुँह के बल गिर पड़ें, मृत।

हम इसे जानेंगे एक विचित्र क्रोध के साथ,

         फिर भी हम फ़िक्र में मरते रहेंगे

         जंग के नतीजों को लेकर, जो हो सकता है सालो साल चले।

मान लें कि हम जेल में हैं

और पचास के क़रीब हैं

और मान लो हमारे पास हैं और अठारह साल ,

          इसके पहले कि लोहे के फाटक खुलें,

फिर भी हम रहेंगे उस बाहर के साथ,

उसके लोगों और जानवरों, जद्दोजहद

और हवा के साथ

          मेरा मतलब है बाहर के साथ दीवारों के पार 

मेरा मतलब है जैसे भी और जहाँ भी हम हैं

          हमें जीना ही चाहिए मानो कि हम कभी नहीं मरेंगे।

 

तुर्की कवि नाज़िम हिकमत (1902-1963)

स्रोत : /poets.org/poem/living

मूल संकलन : Poems of Nazim Hikmet

तुर्की से अंग्रेज़ी अनुवाद : Randy Blasing and Mutlu Konuk

प्रकाशन : Persea Books

अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद : अपूर्वानंद



आज पूरे 10 साल हुए मनमाफ़िक शुरू किए हुए। 19 जून की दोपहर अनाड़ी की तरह ब्लॉग शुरू किया था अपने दोस्त कब्बू से पूछ-पूछ कर। पहले दो दिन तो ब्लॉग सिर्फ मुझे दिख रहा था। कब्बू से अपनी परेशानी बताई तो उसने सेटिंग में जाकर सर्च इंजन के सामने ला दिया था। उसके बाद मज़ा दुगुना-तिगुना-चौगुना बढ़ता गया। नशे-सा। फिर बीच में मेरा उत्साह जाता रहा कई वजहों से। मनमाफ़िक न कविता मिलती थी, न मन था। इसके बावजूद ब्लॉग ने ही मुझे कुछ-कुछ लिखने की जगह दी जो न कविता है न कहानी।

अब ब्लॉग पर वापस आई हूँ और उम्मीद कर रही हूँ कि इसकी रफ़्तार बनाए रखूँ। आज चंडीगढ़ से आते हुए ट्रेन में अपूर्वानंद ने मनमाफ़िक के लिए अनुवाद किया। इंटरनेट की गति के कारण मुश्किल पेश आई तो अनुवाद की फ़ोटो भेजी और तब उसे टाइप किया मैंने। फ़ॉण्ट और फ़ॉर्मैटिंग की समस्या ने उलझा रखा था, मगर कविता इतनी प्यारी है कि मन आनंदित है।

शनिवार, 18 जून 2022

पृथिवी-सूक्त (Prithivi Sukta translated by Mukund Lath)

 अपने-अपने घरों में 

अपनी भाषा 

अपने आचार । 


कितने अलग लोगों को 

पालती है पृथिवी 

शान्त, निश्चल धेनु की तरह। 


मुझे सहस्रधाराओं में 

उज्ज्वल धन देना। 


जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् । 

सहश्रं धरा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती ।। 45 ।।   


संकलन : पृथिवी-सूक्त 

अनुवाद : मुकुन्द लाठ 

प्रकाशन: सेतु प्रकाशन, रज़ा फ़ाउण्डेशन  


अथर्ववेद मुझे पसंद है। इसलिए नहीं कि मेरा शोध प्रबंध उस पर है, बल्कि उसमें प्रवाहित जीवन-रस के लिए। जिन दिनों मैं एम. ए. में पढ़ रही थी वेद में रुचि जग गई थी। श्री उमाशंकर शर्मा 'ऋषि' के पढ़ाने के रुचिकर तरीके की वजह से उसमें बढ़ोत्तरी हुई। कुछ साल जब मैंने बतौर शोधार्थी वैदिक व्याकरण पढ़ाया तो वैदिक संस्कृत में मज़ा भी आने लगा। अब लगता है कि अभ्यास एकदम से छूट गया है, मगर प्रयास है कि कम से कम उठाकर आनंद तो ले लूँ। अब जबकि ब्लॉग की तरफ़ फिर मन चला गया है, आज मुकुन्द लाठ जी का अनुवाद पूरा पढ़ गई। धीरे-धीरे कुछ मनके यहाँ पेश करूँगी। कितना सुंदर और सादा अनुवाद है !

शुक्रवार, 17 जून 2022

जीना 1 (On Living by Nazim Hikmet, translated In Hindi)

 

1.   जीना कोई हँसी-खेल नहीं

    तुम्हें पूरी गंभीरता से जीना चाहिए

        उदाहरण के लिए, एक गिलहरी की तरह

मेरा मतलब है जीने के आगे और ऊपर किसी चीज़ की उम्मीद के बग़ैर,

     मेरा मतलब है जीना ही तुम्हारा पूरा काम होना चाहिए

 

जीना कोई हँसी-खेल नहीं

     तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए,

         इतना और इतनी हद तक कि

जैसे तुम्हारे हाथ बँधे हों तुम्हारी पीठ के पीछे,

                        और तुम्हारी पीठ लगी हो दीवार से

या फिर किसी प्रयोगशाला में,

  अपने सफ़ेद कोट और सुरक्षा कवच में

  तुम मर सकते हो लोगों के लिए -

यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिनके चेहरे तुमने कभी नहीं देखे

हालाँकि तुम जानते हो कि जीना

सबसे असल, सबसे सुंदर चीज़ है।

 

मेरा मतलब है तुम्हें जीने को इतनी गंभीरता से लेना चाहिए

  कि सत्तर की उम्र में भी, उदाहरण के लिए, तुम ज़ैतून के दरख़्त लगाओगे

  अपने बच्चों के लिए नहीं क़तई

बल्कि इसलिए कि हालाँकि तुम डरते हो मृत्यु से तुम उसपर यक़ीन नहीं करते

क्योंकि जीना, मेरा मतलब है अधिक वज़नी ठहरता है।


तुर्की कवि नाज़िम हिकमत (1902-1963) 

स्रोत : /poets.org/poem/living

मूल संकलन : Poems of Nazim Hikmet

तुर्की से अंग्रेज़ी अनुवाद : Randy Blasing and Mutlu Konuk

प्रकाशन : Persea Books


अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद : अपूर्वानंद




इस खूबसूरत कविता के एक अंश का अनुवाद करके थोड़ी देर पहले अपूर्व ने चंडीगढ़ से भेजा। यात्रा और दसियों काम के बाद देर रात इस कविता ने कितना सुकून दिया होगा, इसका अंदाजा लगा सकती हूँ। मारने-मरने, उजाड़ने की खबरों के बीच,  रोज़ाना की आपाधापी, निराशा और उदासी के बीच यह ज़िंदगी में लौटने का न्यौता है।  
और मुझे याद आई पटना के दिनों की। 1983-85 के दौरान कितनी बार हम कई दोस्त लोग रात-रात भर कविता-पोस्टर बनाया करते थे। अधिकतर प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम के लिए। उन्हीं दिनों नाज़िम हिकमत, महमूद दरवेश, ब्रेख्त, नेरुदा, काजी नजरुल इस्लाम,मायकोव्स्की आदि के साहित्य से परिचय हुआ था। उस कतार में कवयित्रियाँ बाद में आईं। इस पर ध्यान भी काफी बाद में गया।

 

अजनबी (Ajnabi by Noman Shauq)

 क्यों बोयी गयी है 

हमारे खमीर में इतनी वहशत 

कि हम इन्तजार भी नहीं कर सकते 

फलसफों के पकने का 


यहाँ क्यों उगती है 

सिर्फ शक की नागफनी ही 

दिलों के दरमियां


कौन बो देता है  

हमारी जरखेज मिट्टी में 

रोज एक नया जहर !


यकीन के अलबेले मौसम 

तू मेरे शहर में क्यों नहीं आता !



संकलन : रात और विषकन्या 

प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 

                 दूसरा संस्करण , 2010 

इस संकलन में कवि के नाम को छोड़कर शायद ही कहीं नुक़्ता लगाया गया है। 

मंगलवार, 14 जून 2022

धरती (Earth Poem by Mahmoud Darwish, translated in Hindi)

उदास शाम एक उजड़े हुए गाँव में 
आँखें अधनींदी 
मैं याद करता हूँ तीस साल 
और पाँच युद्ध 
उम्मीद करता हूँ कि मुस्तकबिल रखेगा महफ़ूज़ 
मेरी मक्के की बालियाँ 
और गायक गुनगुनाएगा 
आग और कुछ अजनबियों के बारे में 
और शाम बस किसी और शाम की तरह होगी 
और गायक गुनगुनाएगा 


और उन्होंने उससे पूछा : 
तुम क्यों गाते हो 
और उसने जवाब दिया 
मैं गाता हूँ क्योंकि मैं गाता हूँ ... 


और उन्होंने उसका सीना टटोला 
लेकिन उसमें पा सके सिर्फ उसका दिल 
और उन्होंने उसका दिल टटोला 
लेकिन पा सके सिर्फ उसके लोग 
और उन्होंने उसका स्वर टटोला 
लेकिन पा सके सिर्फ उसकी वेदना 
और उन्होंने उसकी वेदना टटोली 
लेकिन पा सके सिर्फ उसकी जेल 
और उन्होंने उसकी जेल टटोली 
लेकिन देख सके वहाँ खुद को ही जंजीरों में बँधा हुआ 


फ़िलिस्तीनी कवि - महमूद दरवेश 
स्रोत - https://www.poemhunter.com/poem/earth-poem-3/
हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

सोमवार, 13 जून 2022

घात लगाए हुए बिल्ली ( Cat Lying in Wait by Shakila Azizzada)

अच्छा शगुन नहीं हैं

ये अल्फ़ाज़।


मुझे मत बतलाओ कि

स्वर्ग का दरवाज़ा

खुलता है मेरे होठों के बीच  से।

 

मेरी छातियों के बीच की दरार में

खुदा खुद लड़खड़ा जाता है।


मैं आऊँगी


और फिर

तुम्हारी साँस

मेरे भीतर साँस लेगी,

तुम्हारे फेफड़े भर जाएँगे

मेरी खुशबू से

तुम्हारी जीभ

बरसेगी, बरसेगी

बरसेगी फिर से मेरी त्वचा पर।

 

और मैं हथियार डाल दूँगी।


और इस बार

जब तुम आओगे तुम्हारी आँखों में उस चमक के साथ

मुझे चीर डालने को आमादा, तुम होगे ही

 

बिना किसी शक


उस काली बिल्ली की तरह

जो घात से अचानक छलाँग लगाती हो,

मेरा रास्ता अभी काटते हुए

तुम्हारे दरवाज़े पर उस गौरैया का शिकार करते हुए

जब तक कि वह गिर न गई

अचंभित और बंधक।

 

रसचक्र के लिए 'अफ़ग़ानी दूख्तरान' की स्क्रिप्ट पर काम करते हुए ढेर सारी रचनाओं से गुज़री मैं। उनमें से अनेकानेक को स्क्रिप्ट में शामिल नहीं कर पाई थी। उनमें से कुछ के लिए मन बहुत छटपटाया क्योंकि वे अफ़ग़ानी औरतों की खास आवाज़ थीं। ऐसी ही हैं शकीला अज़ीज़ज़ादा।

1964 में काबुल में जन्मी शकीला अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही कहानियाँ और कविताएँ लिखने लगी थीं। पत्र-पत्रिकाओं में वे छपीं भी। अंतरंगता और औरत की चाहत को लेकर उन्होंने खुलकर लिखा है। काबुल विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करने के बाद शकीला अज़ीज़ज़ादा ने नीदरलैंड के Utrecht विश्वविद्यालय में प्राच्य भाषाएँ एवं संस्कृति की पढ़ाई की। और अब वे वहीं रहती हैं। वे खूब लिखती हैं और कई विधाओं में उनको महारत हासिल है।

Herinnering aan niets (Memories About Nothing) नाम से उनका कविता संग्रह दरी और डच भाषा में छपा है। उन्होंने देश-विदेश में अपनी कविताओं का मंचन भी किया है। उनकी कई कविताओं का Mimi Khalvati और Zuzanna Olszewska.ने दरी भाषा से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। उनमें से एक कविता का हिन्दी अनुवाद यहाँ पेश है। अनुवादक हैं अपूर्वानंद।

स्रोत - https://www.poetrytranslation.org/poets/shakila-azizzada