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शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

बक्सा (Box by Purwa Bharadwaj)

मेरे पास कई बक्से हैं - लोहे और स्टील के चदरे वाले। सब माँ का दिया हुआ है या उसी का एक-दो मैं ले आई हूँ। उनमें जो बड़ा होता था उनको माँ ट्रंक कहती थी या कभी कभी मुहावरेदार प्रयोग करते हुए संदूक। बल्कि मामा (दादी) संदूक शब्द का अधिक इस्तेमाल करती थी। शब्दों के इस्तेमाल में वस्तु के स्वरूप के अलावा वक्ता की पहचान और रुतबे को भी देखना पड़ता है, इससे मैं वाकिफ़ हूँ। जब बक्स - बक्सा या अंग्रेज़ी के बॉक्स शब्द की व्युत्पत्ति (etymology) खोजने चली तो मैं लैटिन तक ही नहीं गई, भटककर क्रिया रूप बॉक्सिंग और उसके कर्त्ता बॉक्सर तक चली गई। यहाँ ठेठ आयताकार पेटी ही मेरी आँखों के सामने है। 

पिछले कई सालों से मैंने सारे बक्से-ट्रंक-संदूक को ऊपर दुछत्ती (या बॉक्स रूम) या जो अब 'Loft' अधिक कहलाता है, उसमें रख दिया था। धीरे-धीरे उसमें अब बड़े बड़े कार्टन, बड़े गत्ते, टूटी-फूटी चीज़ें और तत्काल इस्तेमाल में न आनेवाले बड़े बर्तन वगैरह रख दिए गए हैं। वह इतना ठसाठस भर गया कि मुझे बक्सों को हटाकर उनके लिए जगह बनानी पड़ी। चार-पाँच बक्सों में से दो छोटे बक्सों को मैंने नीचे उतार दिया। अब घर में उनके लिए जगह बनाना आसान नहीं था। आजकल घर में बक्सा कौन भलामानुस रखता है ? पतिदेव को तो अपनी लोहे की आलमारी भी पसंद नहीं थी, बक्सा कहाँ से रुचता ! 

हाँ तो मैं बात कर रही थी कि दुछत्ती से मेरे 2 बक्से ज़मीन पर आ गए। पहले वे नज़र से ओझल थे और अब साक्षात् सामने थे। रखूँ कहाँ ? ना-नुकुर को अनदेखा करके दावे के साथ मैंने अपने कमरे में ही रख लिया। नीचे एक पुरानी दरी बिछाई और एक के ऊपर एक बक्से को रखकर ऊपर से उसे एक नए मोटे गहरे रंग के सूती दुपट्टे से ढँक दिया। उसके ऊपर मेरे थैले, पर्स, कलम वगैरह के साथ एक शीशे का पेपरवेट भी है जो बिना इस्तेमाल के मारा-मारा फिर रहा था। बक्सों के कोने में गत्ते के खोल में दो बड़ी बड़ी तस्वीरें हैं। उपहारस्वरूप मिली ये तस्वीरें हमदोनों की हैं - कंप्यूटर से बनाई गई। बड़ी जीवंत हैं। अपने घर में यादगार छोटी-छोटी तस्वीर लगाना तो सजावट का हिस्सा है, लेकिन अपनी ही कैलेंडरनुमा तस्वीर टाँगना ज़रा अटपटा लग रहा है। बाद में उस पर माला चढ़ाने का मन होगा किसी को तब शायद काम आ जाएगी :) तत्काल बक्सों की ओट में वे सुरक्षित हैं।  

अगली बार घर में हवा के शुद्धीकरण के लिए 'एयर प्यूरीफ़ायर' आया और  ठंड में एक और 'ऑइल हीटर' आ गया तो मैंने उनके डब्बों को ऊपर दुछत्ती पर चढ़ा दिया। यह सोचकर कि जब कभी घर बदला जाएगा तो सामान ले जाने में काम आएगा। नतीजतन ऊपर से दो और बक्से विस्थापित हुए। इस बार उनको जगह मिली स्टडी में। रोज़ाना झाड़ू-पोंछा करने में दिक्कत न हो और बक्सों में नमी के कारण ज़ंग न लगे, इसलिए मैंने सोचा कि स्टील के बक्सों के नीचे चार ईंट लगा दूँ। माँ लोग यही करती थी। मुझे याद आ रहा है कि माँ कभी कभी ईंट के ऊपर पहले एक मज़बूत पटरा रख देती थी। उनपर चार-चार बक्से एक के ऊपर एक रखे जाते थे। एकदम संतुलित रहते थे। बक्सों को उतारना-चढ़ाना सब माँ अकेले करती थी। पापा या भैया ने कभी उसमें हाथ लगाया हो, मुझे याद नहीं। उम्र के साथ जब माँ अशक्त होने लगी तो उन बक्सों को खोलना-बंद करना भारी पड़ने लगा था। सहायिका-सहायक के बूते काम चलता रहा, नैपथलिन की गोलियाँ डलवाई जाती रहीं। माँ के आदेश का स्वर कब खुशामद में बदल गया, अंदाजा नहीं। पलटकर सोचती हूँ तो बक्सों की उस उपेक्षा में कहीं न कहीं हम माँ और उसके लगाव की उपेक्षा कर रहे थे।  

बदसूरत न लगे, इसलिए पहले लोग बक्सों के नीचे लगी ईंटों को अखबार में लपेट देते थे और साल-छह महीने में वह अखबार बदलकर नए अखबार में ईंटों को लपेट दिया जाता था। [औरतों का जिम्मा था यह या कम से कम उनकी देख-रेख में यह साज-सँभाल होता था। पितृसत्तात्मक घर के ढाँचे ने घर की 'रानी' को घर के भीतर का राज-पाट (वह भी पूरा नहीं, आंशिक) सौंप रखा है जिसमें बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है। माँ की तरह मैं भी अधिकतर वही भूमिका निभाती हूँ - चयन (Choice) की आज़ादी और एजेंसी के नाम पर!] लेकिन अब 'आउटडेटेड' बक्सों के लिए इतना तरद्दुद कौन करे और यह भी कि जब से ई-पेपर लिया जाने लगा है अखबार मिलता कहाँ है! कभी कोई सामान आ गया अखबार में और वह सही-सलामत साफ़-सुथरा हुआ तो उसे सहेज लिया, वरना तुड़ा-मुड़ा अखबार तो फेंक दिया। मुझे याद है कि एक बार मैं शताब्दी ट्रेन से एक अखबार उठाकर ले आई थी। अब तो ताखे भी खत्म हो गए हैं जिनपर पुताई के चूने से बचने के लिए अखबार बिछाते थे हमलोग। खैर, अब ताखा, पोचारा - चूने से दीवारों की पुताई और छपाई की स्याही की गंध वाले अखबार के लोप होते जाने का विलाप किसी और दिन!

फिलहाल मैंने बक्सों के पैर की तरह लगी ईंटों को अखबार में नहीं लपेटा है। वे नई ईंटें हैं, हालाँकि साबुत नहीं हैं। कॉलोनी में कहीं काम चल रहा था तो छँटी हुईं ईंटों के ढेर में से मेरी वर्तमान सहायिका सरोज चार ईंट उठा लाई थी। सिर पर रख कर ऊपर लाई क्योंकि तीन मंज़िल चार ईंट हाथ में उठाकर लाना आसान नहीं था। उन पर एक नहीं, दो बक्से जम गए हैं। वे डगमगा नहीं रहे। मैंने एक पुराना मेज़पोश - टेबलक्लॉथ डालकर बक्सों को ढँक दिया है।  उनके ऊपर बैठा जा सकता है, लेकिन मैंने किताबों की नई थाक रखने के लायक उसे बना दिया है। उस स्टडी में कोई बाहरी आने-जाने से रहा, सो फ़िलवक़्त वे बक्से इत्मीनान से हैं। मध्यमवर्गीय घरों की साज-सज्जा पर बनी किसी रील में वैसे ढँके-दुबके बक्सों को देख आप हँस सकते हैं, अन्यथा मेरे जैसों के लिए वह यादों का ज़खीरा है।  

बक्से के पैर से ध्यान आया कि इसका पूर्वज लकड़ी का 'चेस्ट' (Chest) भी चौपाया होता था। प्राचीन मिस्र देश में सदियों पहले जो 'चेस्ट' मिलता था उसमें भी पैर लगे होते थे। कपड़े, गहने, काग़ज़ात,  कीमती असबाब आदि रखने के लिए चेस्ट सर्वोत्तम फर्नीचर था। ढक्कन, ताला और उसे समेटने के लिए लोहे की पट्टी उसकी आरंभिक बनावट का अनिवार्य हिस्सा हैं। उसके बावजूद वह सादा सा था। प्राचीन राजमहलों, खज़ानों, यूरोपीय चर्चों आदि में उनके अवशेष मिल जाएँगे। ब्रिटैनिका के मुताबिक 13 वीं सदी में फ़्रांसीसी लोगों ने उसमें पच्चीकारी की शुरुआत की। दिलचस्प यह था कि इस काल के अन्य चेस्ट की बनावट पर Romanesque art (11 वीं-12 वीं सदी में यूरोप में विकसित कला जिसमें कई सभ्यताओं की कलाओं का मिश्रण था) और Gothic art (मध्य 12 वीं सदी से 16 वीं सदी के बीच यूरोप में विकसित कला) की छाप दिखती है। स्थापत्य कला का मूर्ति कला, चित्रकला से जुड़ाव स्वाभाविक रहा है और कला की विशेष शैली का प्रभाव हम अनेकानेक क्षेत्र में देखते आए हैँ। उसी तरह फ़र्नीचर बनाने के लिए Romanesque art एवं Gothic art से विचार (idea) लेना अजूबा नहीं है। यदि हम पुराने चेस्ट की तस्वीरें देखें तो उनका अर्धगोलाकार होना हमें मेहराबों की याद दिला देगा। संग्रहालयों में उसे देखा भी है। 'एंटीक' डिज़ाइन के रूप में आधुनिकतम फ़र्नीचर की वेबसाइट पर भी। 

चेस्ट खोलने-बंद करने में सहूलियत लाने और उसकी उपयोगिता को बढ़ाने के लिहाज से ही शायद ड्राअर का डिज़ाइन बना होगा। तभी तो 17 वीं सदी से कई ड्राअर वाले चेस्ट ही प्रचलित हो गए। इधर मध्य युग में ही कप और अन्य बर्तन रखने के लिहाज से cupboard - कबर्ड जैसी संरचना विकसित हो चुकी थी। उसमें जो अलग अलग खाने यानी ताक (shelves) बनने लगे थे, वे परंपरा से चले आ रहे थे। सामान रखने के लिए अलग अलग खानों की ज़रूरत सभ्यता के आरंभिक दौर में ही महसूस की गई थी। कहते हैं कि पाषाणकाल में खानाबदोश जीवन में गुफाओं-कंदराओं में प्राकृतिक रूप से बने गहरे गड्ढे ताक का काम कर रहे होंगे। धीरे-धीरे चेस्ट में भी खाने/ताक बनने लगे थे ताकि अलग अलग सामान का संग्रहण हो सके। आगे चलकर चेस्ट और कबर्ड के मकसद और उनकी बनावट में मेल-जोल हुआ। अब कबर्ड में पल्ला खुलता था सामने, न कि चेस्ट की तरह ऊपर। आजकल तो जगह की कमी ने पल्ला/दरवाज़ा/ढक्कन सबका स्लाइडिंग विकल्प दे दिया है। जब हमने तीन गहरे-गहरे ड्राअर वाला चेस्ट मुनिरका में फ़र्नीचर की दुकान से बनवाया था तब माँ को वह भाया था। उसे लगा था कि कई बक्सों की जगह ऐसा फ़र्नीचर ज़्यादा माकूल है। मेरा ध्यान गया कि सामान रखने वाला बक्सा फ़र्नीचर की कोटि में आराम से आएगा, पैकेजिंग वाला बॉक्स नहीं। 

चलिए बक्सा पुराण पर लौटते हैँ! मेरा एक बक्सा जो शादी में मौसी ने दिया था, वह ऊटी में एक आवासीय स्कूल में छूट गया। इसकी टीस गाहे बगाहे उठती रहती है। बिना स्कूल के पदाधिकारियों को बताए मैं बेटी को ऊटी से 22 दिन में ही लेकर भाग आई थी। कहा था कि हफ़्ते भर के लिए ले जा रही हूँ, मगर मुझे पक्का मालूम था कि वहाँ वापस नहीं लौटना था। इस चक्कर में ढेर सारे गर्म कपड़ों के साथ बक्सा वहीं रह गया। बहुत बाद में स्कूल वालों ने कुछ कपड़े किसी के हाथ भिजवाए, मगर रज़ाई-कोट आदि के साथ वो मेरी शादी वाला बक्सा वहीं रह गया। मैंने बहुत दुख मनाया, लेकिन एक बक्से को लाने के लिए उतनी दूरी की यात्रा मुमकिन नहीं थी। यात्रा व्यय की चिंता से अधिक मामला यह था कि मुझे भावनात्मक दबाव फिर नहीं झेलना था। लिहाजा बक्से का यह बिछोह सह गई!

इसी से याद आया माँ की शादी वाला लाल बक्सा और उससे बड़ा काला टूटे कुंडे वाला ट्रंक जिसमें नानाजी और पापा की डायरी रखी रहती थी। माँ को नए-नए ब्रीफ़केस-सूटकेस की भीड़ में उन बक्सों को अपने जीते-जी नहीं हटाना था। लाल बक्से में अँखरा धोती, नई साड़ी, 2x2 रुबिया ब्लाउज़ पीस, पेटीकोट का पॉपलीन कपड़ा, शादी-ब्याह में मिला हुआ पैंट-शर्ट का कपड़ा (विमल, सियाराम या रेमण्ड्स का) साड़ी का नया फ़ॉल, नई चादर और बुनाई के काँटे वगैरह सँभाल कर रखे हुए थे। बुनाई की अलग अलग नंबर की सलाइयों को माँ ने बाद में बक्से से निकलवाकर अपने कमरे वाली आलमारी में रख लिया था। वह उन सलाइयों के लिए सुपात्र खोज रही थी जो उनका कदरदान हो, जिसे बुनाई का शऊर हो। मैंने बमुश्किल एक हाफ़ स्वेटर बनाया था और नमूने के तौर पर स्कूल में जमा करने के लिए कुछ छोटा-मोटा बनाया था। बेटी के लिए शौकिया एक नन्हा-सा स्वेटर बनाकर मैंने माँ और मौसी की बुनाई के हुनर के आगे हथियार डाल दिए थे। असल में मेरा मन ही नहीं लगता था। 

माँ की इच्छा थी कि उसकी शादी वाला बक्सा घर में ही रहे। मेरे लिए वह धरोहर होती, मगर उसके जाने के कुछ महीनों बाद जब घर खाली किया जा रहा था तब ठस्स बनकर हमने बहुत कुछ हटा दिया। सबकुछ तितर-बितर हो गया, जानते-बूझते। यह सोचकर संतोष किया कि माँ की देख-रेख करनेवाली मीरा-गौरी के जीते-जी उनके पास भी माँ की निशानी रहेगी। बाद में तो उनके बच्चे भी हमारी तरह इन बक्सों को हटा देंगे। मैं अपने पास रखे माँ के चंद बक्सों को देखकर अपना अपराध-बोध कम करने की नाकामयाब कोशिश करती हूँ। सोचती हूँ कि बरगद की तरह बक्सों की जड़ें मेरे दिल-दिमाग से लेकर मेरे रुँधे गले में अटकी हैं।  

बक्से का छोटा बक्सी जैसे संदूक़ का संदूक़ची (छोटा-नाजुक बनाने के लिए जो प्रत्यय लगते हैं अक्सर उनको भाषा एवं जेंडर की निगाह से देखना चाहिए) कहलाता है और एक बक्सी है मेरे पास। तकरीबन 45-46 साल से। यह उन दिनों की बात है जब स्कूल बैग की जगह थोड़े खाते-पीते घरों के बच्चों के पास अल्युमिनियम या स्टील के चदरे वाला छोटा बक्सी आने लगा था। बहुत कायदे का और खूबसूरत तो नहीं, मगर एक बक्सी मेरे पास भी आया। भैया के पास नहीं क्योंकि उस ज़माने में भी लड़के वैसी चिकनी-चमकती बक्सी नहीं ले जाते थे। यह मैं अपने सीमित अनुभव और याददाश्त से लिख रही हूँ, मुमकिन है कि दूसरी जगह लड़के ले जाते हों और तब गौर से उनकी बनावट में 'मर्दानगी' कैसे पिरोई गई थी, इसे परखना पड़ेगा। ज़रा रुकिए, अभी अभी मेरे एक देवर ने अल्युमिनियम वाला बक्सा (बक्सी) लेकर स्कूल जाने की बात बताई। उसमें मज़ेदार था मुझसे यह पूछना कि आप बक्सा लड़ाई खेली हैं या नहीं। उसके इस व्हाट्सएप संदेश में भी उसकी मुस्कुराहट छुप नहीं रही थी - "हमलोग दोस्तों के बक्से से अपना बक्सा लड़ाते थे और जिसका बक्सा पिचक जाता था वो हार जाता था।"

खैर, मैं वह बक्सी लेकर कभी स्कूल नहीं गई। मुझे उसका भोथरापन पसंद नहीं था, बावजूद इसके कि वह मेरे लिए कीमती था। मैंने उसमें क्या-क्या छिपाकर रखा, इसका खुलासा करने में अभी भी शर्मा रही हूँ। एक छुटका ताला खरीदा था, जिसकी चाभी 24 घंटे मेरे पास रहती थी। माँ-पापा बिना सिद्धांत बघारे बच्चों की निजता (प्राइवेसी) का खयाल रखते थे। भैया भले चिढ़ाता रहता था और खेल-खेल में धमकाता था कि बच्चू, तुम्हारी बक्सी मेरे हाथ लग जाए तब देखना। फिर सबके ध्यान से वह बक्सी उतर गई जो आज भी मेरे पास उसी रूप में सुरक्षित है। केवल कुंडा टूट गया है और ताला नहीं है, मगर अब उस गोपन की रक्षा की चिंता नहीं है। 

निजता, गोपनीयता, सम्मान कितना कुछ जुड़ा है बक्से से! माँ बताती थी कि जब शादी के बाद बिना उससे पूछे और बिना उसको बताए उसका बक्सा खोलकर ससुराल में सामान बाँट दिया गया था तब वो भौंचक्क रह गई थी। शहरी नववधू को यह गँवईपन लगा था, असभ्यता लगी थी (हालाँकि गँवईपन और असभ्यता अनिवार्य रूप से जुड़े नहीं हैं)। अधिकार की बात है इसमें। अधिकार-क्षेत्र का अधिक्रमण भी है। कौन किसका बक्सा कब और क्यों खोले, यह घर-परिवार में सबको मालूम रहता है और रस्म के नाम पर यह अभी भी बेरोक-टोक चल रहा है। मगर माँ को अपने अस्तित्व से इन्कार करना लगा था यह। अपना बक्सा अपने मुताबिक रखने की आज़ादी की ख्वाहिश में स्त्री का मन कौन पढ़ पाता है ? वह उसका जो करे, चाहे तो पूरा उकट कर रख दे।  

पिछले हफ़्ते सुधा भारद्वाज की किताब 'फाँसी यार्ड' में जब 'झाड़ती' के बारे में पढ़ रही थी तब मन काँप गया था। जेल में 'झाड़ती' शब्‍द का उपयोग नियमित रूप से की जानेवाली तमाम तरह की तलाशियों के लिए किया जाता है। पहला झटका जेल में दाखिल होते ही लगता है जब पूरा नंगा कर तलाशी ली जाती है। बेहिस्सपने की इंतहा देखिए कि उठक-बैठक करवा कर तलाशी ली जाती है कि किसी ने गुप्‍तांगों में तो कुछ नहीं छिपा रखा है। अचानक अभी मुझे 'झाड़ती' शब्द बक्से की तलाशी के किस्से के प्रसंग में कौंधा। इतना दुखदायी और अपमानजनक कि मैं उससे बचना चाहूँगी। कुछ बातें दफ़न रहें तो बेहतर है। वास्तव में एक बक्सा जब शक के नाम पर दूसरे द्वारा खोल दिया जाता है तो केवल भरोसा तार-तार नहीं होता, बल्कि रिश्ता तार-तार हो जाता है। 





 

मंगलवार, 19 अगस्त 2025

रौशनदान (Roshandaan by Purwa Bharadwaj)

हिन्दी की रचनाओं में यदा कदा रौशनदान शब्द मिल जाता है। उर्दू में थोड़ा ज़्यादा। फ़ारसी तो मूल ही है इसका।मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ 'मद्दाह'  के उर्दू हिन्दी शब्दकोश में इसका अर्थ दिया हुआ है "मकान में रौशनी आने का सूराख"। यह अर्थ सर्वज्ञात है। हाँ, मुझे इसके हिज्जे में हमेशा लगता है कि रोशनदान लिखूँ या रौशनदान। 'दान' प्रत्यय है, यह स्पष्ट है। इसकी तरह "गुलदान" जैसे शब्द आमफ़हम हैं। 

अक्सर लगता है कि रौशनदान जैसे शब्द ही नहीं, उनसे जुड़ी सारी संवेदनाएँ, सारे अनुभव अब धीरे धीरे मिटते जा रहे हैं। हाल ही में जब मैं नव उदारवाद, बाज़ारवाद आदि के बारे में पढ़ रही थी तो भाषा पर उसके प्रभाव का सवाल फिर से ज़ेहन में आया था। पिछले साल जब निरंतर के 'युवा, यौनिकता और अधिकार कोर्स' के एक सत्र के दौरान एक सहकर्मी ने संस्कृति के क्षेत्र में नव उदारवाद के व्यापक असर की बात की तो पता नहीं क्यों मेरा ध्यान उस सभा कक्ष की बनावट और उसमें भी रौशनदान न होने पर गया था। क्या स्थापत्य को भी बाज़ार ने जकड़ दिया है, क्या रौशनदान का भी इन व्यापक ढाँचों से रिश्ता है ?

रौशनदान नहीं है मेरे घर में। अभी वाले घर में जो कि तीन तल्ले पर है, उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियों ने रौशनदान की कमी को पूरा करने का काम किया है। उसके पहले जब हम बहुमंज़िली इमारत में नहीं रहते थे तब उन सारे घरों में रौशनदान ज़रूर हुआ करता था। 

लेकिन क्या रौशनदान का रिश्ता मकान कहाँ स्थित है यानी किस तल पर है - भूतल या प्रथम-द्वितीय-तृतीय आदि तल से है ? (यहाँ ग्राउंड फ्लोर की जगह भूतल लिखना ज़रा पराया सा शब्द लग रहा है, हालाँकि मैं हिन्दी के शब्दों के भरसक इस्तेमाल की हामी हूँ) असल में मकान की बनावट महत्त्वपूर्ण है। उसमें तल तो मायने रखता ही है, अलग अलग काम के लिए बनाए गए कमरों के आकार-प्रकार, लंबाई-चौड़ाई के साथ छतों की ऊँचाई की भी भूमिका होती है। पटना में ही माँ-पापा जब बुद्ध कॉलोनी के अपार्टमेंट में आ गए थे तब राजप्रिया अपार्टमेंट में रौशनदान नहीं है, इसे सबसे पहले माँ ने चिह्नित किया था। 

पटना के रानीघाट, गुलबीघाट, घाघा घाट के सारे घरों में रौशनदान था। वैसे वे सारे घर अलग अलग ऊँचाई पर थे। रानीघाट में सीढ़ी से ऊपर जाकर आँगन था फिर एक और तल था जहाँ पापा का कमरा, मेरा कमरा और सामने छत थी। पापा के कमरे की खिड़की के ऊपर जो रौशनदान था उससे जब बारिश के छींटे आते थे तो उनकी मेज़ पर रखी किताबों को बचाने के लिए हममें से कोई फटाफट नीचे से भागकर आता था। उस ज़हमत के बाद कभी किसी ने रौशनदान के होने को दोष नहीं दिया। उन दिनों रौशनदान घर का ज़रूरी हिस्सा होते थे। प्राकृतिक रौशनी और हवा आने-जाने का ऐसा ज़रिया जिसके बिना घर घर न लगे। 

रानीघाट में मेरे छोटे से कमरे में खिड़की से हटकर ठीक मेरे बिस्तर के ऊपर रौशनदान था जहाँ से कभी झाँको तो बगलवाले मकान की छत दिखती थी। वह बड़ा दिलचस्प था क्योंकि बगलवाले मकान की छत की ऊँचाई इतनी थी कि वहाँ कोई खड़ा हो तो मेरे रौशनदान से उसका घुटना ही दिखता था। अलग अलग समय में दोनों मकान बने होंगे तभी ऐसा हुआ होगा कि दोनों की सतह में इतना अंतर था। इतना तय है कि उस समय बस कौतूहल का सबब था वह रौशनदान। उस रौशनदान से मुझे दूर आसमान पर उड़ती पतंगों की झलक भी याद है। ऐसा नहीं था कि मेरे लिए खिड़की-दरवाज़े बंद थे। छत पर जाने की भी मनाही नहीं थी कि रौशनदान रौशनी का इकलौता ज़रिया हो। तब भी रौशनदान से बाहर झाँकना एक अलग किस्म की सनसनाहट पैदा करता था। 

गुलबीघाट की लखनचंद कोठी में हम जब आए तबतक मेरा बसेरा शादी हो जाने के कारण राजेंद्रनगर हो गया था। बहुत कम लखनचंद कोठी में रात बिताने का मौका मिला मुझे। जब कभी वहाँ माँ के कमरे में सोती थी तो अटपटा लगता था कि कोई रौशनदान नहीं था। जबकि ड्राइंग रूम में, पापा की स्टडी में और किनारे वाले भैया के कमरे में भी रौशनदान था। वजह घर की बनावट ही थी। बाकी कमरों की तरह माँ के कमरे में भी बडी बड़ी खिड़कियाँ ज़रूर थीं, फिर भी मुझे रौशनदान की कमी खटकती थी। माँ के कमरे में सामने एक बड़ी सी खिड़की थी और उसकी पिछली दीवार में दो बड़ी बड़ी खिड़कियाँ थी जो एक स्टोर रूम में खुलती थीं। उसमें पीछे एक बड़ा दरवाज़ा था जो सामने खुली जगह में खुलता था। माँ ने उसमें गोभी वगैरह की खूब खेती करवाई। जब जब वह पीछेवाला दरवाज़ा खुलता था माँ का कमरा और रौशन हो जाता था। मानो वह दरवाज़ा न होकर बड़ा सा रौशनदान हो!

माँ के कमरे में सामने की तरफ खिड़की-दरवाज़ा और आँगन था, इसलिए रौशनी की कमी नहीं थी वहाँ, लेकिन मुझे रौशनदान का न होना क्यों याद रह गया ? कहीं ऐसा तो नहीं कि शादी के बाद मेरा कोई कमरा उस घर में नहीं रह गया था और मैं उस कसक को रौशनदान की कमी में तलाशती रही ! नहीं नहीं, मैं भटक रही हूँ... 

साँस लेने का ज़रिया है रौशनदान, यह कहना क्या घिसा-पिटा वाक्य दोहराना है ? मुझे कुछ किस्से पता हैं जब रौशनदान से न केवल प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान होता रहा है, बल्कि प्रेमी-प्रेमिका ने जुगत लगाकर मुखड़ा भी देखा है। मुझे कोई फ़िल्मी दृश्य तो याद नहीं है, लेकिन खोजे ज़रूर मिल जाएगा। 

आम तौर पर पक्के मकान में दीवार के ऊँचाई वाले छोर पर और छत के करीब होता है रौशनदान। यानी उस तक पहुँचना कठिनाई भरा है। तब भी रौशनदान घर में सेंध लगाने का रास्ता रहा है। इसकी खबरों का दस्तावेजीकरण हुआ है। उनकी समाजशास्त्रीय व्याख्या मुमकिन है। 

पहले घरों में रौशनदान चौकोर या आयताकार खुले होते थे। धीरे-धीरे रौशनदान को सुरक्षा के लिहाज से देखा जाने लगा। उसमें सलाखें लगने लगीं, लकड़ी के पल्ले भी लगने लगे। इसी से याद आया दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित अपने पुराने क्वार्टर का। वह पुराने किस्म का क्वार्टर था जिसकी छत बहुत ऊँची थी। इतनी ऊँची कि आजकल के हिसाब से उसमें दो मंज़िल तो नहीं, मगर एक मंज़िल के बाद आधी मंज़िल तो बन ही जाए। उसमें बड़े बड़े रौशनदान थे और उनमें लकड़ी का पल्ला लगा था। बारिश के वक्त या आँधी के वक्त उसे नीचे गिराना होता था। अब यह आसान तो नहीं था, इसलिए उसमें रस्सी लटका दी गई थी ताकि ज़रूरत के हिसाब से रौशनदान का ढक्कन लगा दिया जाए। ऐसा मैंने पहली बार देखा था। एक बार जब रौशनदान से लटकती रस्सी टूटकर काफी ऊपर चली गई थी तो मैंने अपने इलेक्ट्रिशियन अली (जो अब नहीं रहा) से मदद ली थी। उसने नई मज़बूत रस्सी बाँधी थी ताकि रौशनदान का इस्तेमाल मनचाहे तरीके से हम कर सकें। 

इंसान के दिमाग की उपज है रौशनदान, इसलिए उस पर नियंत्रण रखना, उसे अपनी ज़रूरत के मुताबिक रंग-रूप, आकार-प्रकार देना इंसान करता रहा है। यदि अंग्रेज़ी में रौशनदान के समानार्थी Skylight के इतिहास पर जाएँ तो ईसा पूर्व प्राचीन रोमन वास्तुकला तक जाना होगा। धीरे धीरे खुले रौशनदान की जगह पारदर्शी या रंगीन शीशे और प्लास्टिक आदि से ढँके रौशनदान का चलन हुआ। उसमें कोण बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि रौशनदान में/से सूरज की किरण सीधे पड़ेगी या तिरछे इससे भवन का तापमान निर्धारित होता है। उससे जुड़ जाता है सौर ऊर्जा के संरक्षण का मामला और भवन को ठंडा-गर्म रखने का मामला। मतलब पूरा विज्ञान भी समाया है रौशनदान में!

अभी मुझे दिल्ली के शाहपुर जाट इलाके में बिताए अपने 9 साल याद आ रहे हैं। वहाँ कई तल्ले वाले मकान ऐसे थे जिनमें ऊपर सीढ़ी चढ़ते जाइए और बीच में जालीदार छत देखते जाइए। समझ में आया कि खिड़की न होने की कमी की वे भरपाई कर रहे हैं। और जब खिड़की नहीं है, बालकनी नहीं है, दालान या बारामदा नहीं है तो रौशनदान क्या खाक होगा ! मुझे लगा कि रौशनदान के विचार को ही जालीदार छत में पिरो दिया गया है ताकि घर अँधेरा न लगे। धूप-हवा की गैरहाज़िरी और उसके कारण सेहत की चिंता भाड़ में जाए, असल है बाज़ार! घर बिक जाए या उसमें किराया लग जाए, इसको सुनिश्चित करने में मददगार होती है रौशनदाननुमा जालीदार छत! 

यदि कहीं नए नए मकान में आपको गोलाकार रौशनदान जैसी खुली जगह दीवार में दिखे तो खुश मत होइए कि रौशनदान की घरवापसी हो रही है। वह exhaust fan के लिए बनाया गया है, रौशनदान के मकसद से नहीं। खासकर रसोई में और बाथरूम में ताकि धुआँ, खुशबू-बदबू पड़ोसी की नाक में दम न करे। घरवैया को भी सुकून दे। ताज़गी अब रौशनदान से नहीं, exhaust fan से मिलती है। कुछ महीनों पहले मेरी रसोई में जब exhaust fan बार-बार खराब हुआ तो चिढ़कर मैंने सोचा कि छोड़ ही दिया जाए और उस छेद को रौशनदान मानकर चला जाए तो सब हँसने लगे। तीसरी मंज़िल पर और कोई खतरा तो नहीं, मगर चूहों और गिलहरियों की आमद का बेधड़क रास्ता बन जाता वह। हारकर रौशनदान की योजना धरी की धरी रह गई और उस जगह एक नए exhaust fan की तैनाती कर दी गई।  

चिड़ियों का बसेरा बनता है रौशनदान, यह जानी हुई बात है। कई कहानियों में रौशनदान में बने घोंसलों, उसमें दिए गए अंडों और नवजात बच्चों का ज़िक्र मिलता है और इंसान की कशमकश का भी कि रौशनदान साफ़ करना अधिक ज़रूरी है या जीव रक्षा करना। कविताएँ भी लिखी गई हैं रौशनदान पर, मगर अभी कुछ याद नहीं। अलबत्ता गूगल बाबा ने गुलज़ार की एक फ़ालतू सी कविता दिखाई "मेरे रौशनदान में बैठा एक कबूतर"। लगता है कि AI ने गुलज़ार की शैली में लिख दिया है :) 

रौशनदान से छिटकती सूरज की किरणों को कवियों, चित्रकारों, नाटककारों सबने इतना दिखलाया है कि उसकी चमक अब उत्साह नहीं जगाती है। प्रकाश-व्यवस्था करनेवालों ने कैमरे के आगे-पीछे, मंच पर, कोने-कोने में वास्तविक रौशनदान और उसके रूपक का बहुविध इस्तेमाल किया है। 

कहना न होगा कि रौशनदान के किस्से अनगिनत हैं। और जब मैं किस्सा कह रही हूँ तो कल्पना से उपजे किस्सों से अधिक अनुभवजनित किस्से हैं। उनमें से हमारी करीबी (गुरुपुत्री) नीरजा दी' के लिए रौशनदान मृत्यु से पहले परिचय का माध्यम बना था। यह उनके बचपन की बात है यानी साठ का दशक रहा होगा। हुआ यों था कि वे सब गाँव गए थे। उनके पीछे वाले घर में किसी का देहांत हो गया था। वहाँ से रोने की आवाज़ें आ रही थीं, पर बच्चों को बाहर नहीं जाने दिया जा रहा था। उनकी उत्सुकता स्वाभाविक थी, मगर घर के बड़े तो दुख से बच्चों को दूर रखना चाहते हैं। बाहर की हलचल की वजह जानने का उपाय बच्चों को सूझ नहीं रहा था। एकमात्र संभावना का द्वार था रौशनदान, मगर वह खासा ऊपर था। आखिर में उन्होंने जुगत लगाई। नीरजा दी' और उनका भाई - दोनों बच्चे किसी तरह अपने कमरे में रखे लकड़ी के संदूक पर चढ़े। तब संदूक की बगल में जो लकड़ी की आलमारी थी उस पर चढ़ना आसान हो गया और रौशनदान उसी आलमारी के ऊपर था। अब रौशनदान से पीछे वाले घर का नज़ारा साफ़ साफ़ दिख रहा था। इतना साफ़ कि आज तक वह दृश्य नीरजा दी' की आँखों में कैद है! वह रौशनदान उन्हें भूलता नहीं है।

इसी से ध्यान आता है मकबरों, गुंबदों और तहखानों में बने रौशनदान का भी। देखा जाए तो एक तरफ़  रौशनदान रहस्य पैदा करता है तो रहस्य खोलता भी है। ताला है तो कुंजी भी है रौशनदान। 

इस प्रसंग में मुझे एक और किस्सा याद आता है रौशनदान से। किसी ने बताया था कि एक बार एक किशोर ने नाराज़ या शायद दुखी होकर अपना कमरा ऐसा बंद कर लिया था कि घरवाले परेशान हो गए थे। तब रौशनदान सहारा बना था और उसी रास्ते कोई उस किशोर तक पहुँच पाया था। ज़ाहिर है कि रौशनदान का आकार बड़ा था और घर की छत से होते हुए उस तक पहुँच पाने ने किशोर की सलामती को सुनिश्चित किया। 

अभी मैं ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और मानवाधिकार वकील सुधा भारद्वाज के जेल में बिताए गए समय के दौरान लिखी गई टिप्पणियों के संकलन 'फाँसी यार्ड' को दुबारा-तिबारा पढ़ रही थी तो एकदम अलग ढंग से रौशनदान का खयाल आया। उसमें दर्ज औरतों की ज़िंदगी में - फाँसी यार्ड में कहाँ है रौशनदान ? क्या रौशनदान की गुंजाइश सबके लिए होती है और सब जगह होती है ? फ़िलिस्तीनी लोगों के लिए कौन सा रौशनदान है ? 

कल मशहूर संस्कृति/कला समीक्षक सदानंद मेनन का एक भाषण सुना था, वह दिमाग में चक्कर काट रहा है (हालाँकि उन पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप की जानकारी ने मुझे हिला दिया है!) वर्तमान समय में पूरी दुनिया में हर जगह जो क्रूरता का घटाटोप है, उसमें क्या कहीं से रौशनी छनकर आ रही है ? क्या कोई रौशनदान खुलेगा ? आज सुबह अपूर्व बात करते रहे अंधकार, मौन, निस्तब्धता के इतना तीव्र हो जाने की कि कान फट जाए, कलेजे से लहू टपकने लगे और कहीं कोई तो हरकत हो। कैसे होगा ? रौशनदान का निर्माण किसके द्वारा और कैसे मुमकिन है ? शायद यही भाव उनको नानाजी - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' (जिनकी आज पुण्यतिथि है) की 1951 की लिखी इस 'आह्वान' कविता तक ले आया - 

कोड़ते चलो जमीन कोड़ते चलो! --
                         कोड़ते चलो !!

सड़ गई वहाँ बयार तक बँधी-बँधी :
वे सड़ाँध के तिलिस्म तोड़ते चलो !
                             कोड़ते चलो !!



 

बुधवार, 13 अगस्त 2025

बाबूजी : स्मृतिशेष छविशेष (Babujee by Purwa Bharadwaj)

चाचाजी - श्री गंगानंद झा से मेरा पहला परिचय 1980 का है। सीवान (बिहार) के डीएवी कॉलेज में वनस्पतिशास्त्र (बॉटनी) के प्रोफ़ेसर जो देवघर (झारखंड का बैद्यनाथ धाम) के पंडा समुदाय से थे। उनकी भाषा ने मुझे सबसे पहले आकर्षित किया था। मैं हिंदी साहित्य में सक्रिय कवि की नतनी और कवि-आलोचक पिता एवं साहित्यानुरागी माँ की बेटी थी। कवि अपूर्वानंद के पिता होने के नाते चाचाजी से परिचय धीरे धीरे प्रगाढ़ होता गया। साल में दो-चार बार वे बेटे से मिलने सीवान से पटना आते थे तो हमारे घर आते थे। हमारे ड्राइंग रूम में बैठकी होती थी और उसमें खूब साहित्यिक चर्चा होती थी। राजनीतिक मुद्दों पर भी बातचीत होती थी। हमारे यहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), प्रगतिशील लेखक संघ (PWA), भारतीय जननाट्य संघ (IPTA) और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISF) के नए-पुराने साथियों का अड्डा लगता ही रहता था। उन गहमागहमी वाली अनौपचारिक बैठकों से अलग स्वर होता था जब चाचाजी से पापा की गपशप होती थी। उसमें माँ की शिरकत स्वाभाविक रूप से होती थी जो चाचाजी की साहित्य में पैठ से बहुत प्रभावित थी। माँ-पापा-भैया शुरू से यह कहते थे कि अपूर्वानंद की साहित्य और राजनीति में दिलचस्पी का मूल स्रोत गंगा बाबू हैं। अभी पटना से हिंदी के प्रोफ़ेसर तरुण कुमार का शोक संदेश आया - "सम्माननीय गंगा बाबू को विनम्र श्रद्धांजलि" तब फिर से यह संबोधन कौंधा था गंगा बाबू!

कभी कभी मैं चाचाजी को चिट्ठी लिखने लगी थी। हालचाल और पटने का समाचार उन चिट्ठियों में होता था और कहीं हौले से उनके बेटे का समाचार भी। एक बार कोई छोटा सा आयोजन अपूर्वानंद ने अपने डेरे (पटना के मखनिया कुआँ रोड की एक गली में स्थित किराये के अपने कमरे) में किया था। मौका क्या था, ठीक ठीक याद नहीं है मुझे। लेकिन उसके बारे में बताते हुए जो चिट्ठी मैंने चाचाजी को लिखी थी उसकी जवाबी चिट्ठी की एक पंक्ति मेरे दिमाग में अटकी हुई है। उन्होंने लिखा था कि "अरे प्रकृति ने यह आयोजन मेरे बिना कर लिया!" यह शिकायत नहीं थी। स्नेह था और कहीं न कहीं बेटे को लेकर उनकी आश्वस्ति का उद्गार था। मेरे लिए यह इतना कवित्वपूर्ण था कि क्या कहूँ!

मैं कब चाचाजी से बाबूजी संबोधन पर आ गई, याद नहीं। वे अपनी चिट्ठी में नीचे "आशीर्वादक बाबूजी" लिखने लगे थे। बाबूजी के बाकी आत्मीय जन इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि वे चिट्ठी खूब लिखते थे। उनकी लिखावट देखने में थोड़ी उलझी लगती थी क्योंकि पार्किन्सन की वजह से शुरू से उनका हाथ काँपता था। उसमें सुलेख की तरह अक्षर नहीं होते थे, मगर वे इतने सुलिखित और स्पष्ट होते थे कि उसका सानी नहीं। उनकी हर चिट्ठी एकदम अलग तरीके से शुरू होती थी। उनके पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और मेल को पढ़ो तो शब्दों के प्राचुर्य और अलग अलग छवियों का पता चलता है। एकदम सही वर्तनी और वाक्य संरचना ऐसी कि हिंदी के शिक्षक भी उनसे सीखें। हिज्जे देखिए तो अधिकतर वैसा जैसा संस्कृतवाले/वाली लिखें – गङ्गानन्द। संयुक्ताक्षर में खासकर। आगे चलकर जब वे संस्मरण लिखते या विज्ञानसंबधी लेख लिखते तो भी हरेक का तेवर, हरेक की शैली अलग होती थी।

बाबूजी हिंदी, अंग्रेज़ी, बांग्ला के अच्छे जानकार थे। उनका बांग्ला किताबों से प्रेम कमरे में अहर्निश चलते बांग्ला टीवी चैनल तक में झलकता था। रवींद्र संगीत हो या बांग्ला में सुकान्त भट्टाचार्य या नज़रुल गीति हो, बाबूजी घंटों सुनते थे और उस पर बात करना पसंद करते थे। उनसे बांग्ला गीत सुन-सुनकर मेरी बेटी को भी कुछ गीत याद हो गए थे। छुटपन में एक बार उसकी शिक्षिका ने आश्चर्य जताया था तो उसका जवाब था कि “मेरे दादू बंगाली हैं।” बांग्ला के अलावा उर्दू और पंजाबी में भी उनका दखल था। कामलायक गुरुमुखी तो पढ़ ही लेते थे, भले पंजाबी धड़ल्ले से न बोलें। बांग्ला से हिंदी में और अंग्रेज़ी में उन्होंने अनुवाद भी किया है। मुझे याद है कि जब मैं एक पाठ्यपुस्तक अध्ययन (टेक्स्टबुक स्टडी) का हिस्सा थी तब उन्होंने आग्रह पर पश्चिम बंगाल की बांग्ला पाठ्यपुस्तक से कविता के अंश का अंग्रेज़ी में बहुत सुंदर अनुवाद किया था। हमारे मित्र सत्या शिवरमन ने बाबूजी को ऐसे याद किया -

“I have very fond memories of him from my interaction many years ago when he translated all those articles on health from Bangla to Hindi. A great loss for everyone.”

फ़ेसबुक पर बाबूजी दुनिया जहान की किताबों से खूब उद्धरण देते थे और फिर उनपर अपना मंतव्य देते थे। वे सूक्ति से कम नहीं लगते थे और बड़ी संख्या में मौजूद बाबूजी के नौजवान मित्र उन विवेचनाओं से मुतास्सिर होते थे। उनका सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ हमेशा स्पष्ट रहता था। बाबूजी ने कभी उसे छिपाने का प्रयास नहीं किया। संयत और दृढ़ स्वर में वे अपनी बात रखते थे और मैंने कठहुज्जती या बदतमीजी करनेवाले बंदे को भी उनके सामने निरुत्तर होते देखा है।

विज्ञान की शोधपरक पत्रिका और एक-दो साहित्यिक पत्रिका में बाबूजी के चंद लेख छपे हैं, लेकिन वे अधिक सक्रिय रहे वेब पत्रिकाओं और पोर्टल पर। ट्विटर, इंस्टाग्राम पर भी उन्होंने खाता खोला था, मगर वे बाशिंदे थे फ़ेसबुक की दुनिया के ही। इससे ध्यान आता है उनका कंप्यूटर से रिश्ता। 1996 में चंडीगढ़ आने के बाद चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर से मित्रता ज़रिया बनी थी उनके कंप्यूटर ज्ञान का। बाबूजी के ही शब्दों में -

"चंडीगढ़ आने के बाद ... मेरे लिए सेवानिवृत्त जीवन के इस सर्वथा भिन्न परिवेश में अपने लिए प्रासंगिकता तथा परिचय गढ़ने की चुनौती थी। मेरे पास अवसर पर्याप्त था। कम्यूटर की उपलब्धता ने मुझे नया सीखने के आनन्द और उपलब्धि से प्राणवन्त किया। नए सम्पर्क सूत्र कायम हुए। मेरे परिचय में प्रासंगिकता जुड़ी। इसी बीच अपु [अपूर्वानंद] ने बांग्ला के कवि जय गोस्वामी की कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने को कहा। मैं जय गोस्वामी की कविताओं के विशिष्टता को समझना चाहता था। इसलिए अपने निकट के फ्लैट में रहनेवाली डॉक्टर सुष्मिता चक्रवर्ती से बात की। डॉ सुष्मिता को साहित्य से गहरा लगाव है। वे एक व्यक्ति के साथ एक दिन आई, और उनका परिचय देते हुए कहा कि जय गोस्वामी की विशिष्टता के बारे में आप इनसे जानिए। वे पंजाब विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग के प्रोफेसर हरजिन्दर सिंह लाल्टु थे। हिन्दी, बांग्ला, पंजाबी और अंगरेजी साहित्य में विचरण करनेवाले व्यक्ति। लाल्टु ने अपने सहकर्मी बौद्ध अध्ययन सह तिब्बती भाषा के प्राध्यापक डॉ विजय कुमार सिंह से परिचय कराया और उसके बाद डॉ वी.के सिंह के साथ नियमित सम्पर्क बन गया। इस सम्पर्क ने मुझे कम्प्यूटर में लिखने और इण्टरनेट का उपयोग करने में आत्मविश्वास दिया। इस तरह मैं अपनी लिखावट के अपाठ्य होने की असुविधा से मुक्त हो गया। अब तो मैं कलम पकड़ नहीं पाता, पर कम्प्यूटर के उपयोग से सुगमतापूर्वक पन्ने पर पन्ना लिखा करता हूँ।"

चंडीगढ़ प्रवास ने बाबूजी के लिए अलग झरोखा खोला था। वे अपनी सेवानिवृति के बाद अपने बड़े बेटे और बहू के पास सीवान से चंडीगढ़ आए थे। नौकरी से फुरसत पाकर वे देवघर रहना चाहते थे, लेकिन वहाँ अपने पैतृक घर में रहने की उनकी लालसा पूरी नहीं हुई। वहाँ अम्मी (मेरी सास) के बिना रोज़मर्रा की व्यवस्था उनसे संभव न थी और जिस आठ भाई बहन के भरे पूरे परिवार में वे पले बढ़े थे उसका ढाँचा बदल चुका था। अब चंडीगढ़ में दादूभाई (पोता) जीवन के केंद्र में था। मैंने देखा था कि अम्मी-बाबूजी ने अपने दोपहर के खाने का समय बढ़ा दिया था और दादूभाई के स्कूल से लौटने के बाद तीनों इकट्ठे खाना खाते थे।

उनकी रुटीन व्यवस्थित हो चली थी जिसमें लिखना-पढ़ना, कंप्यूटर-फ़ोन में व्यस्त रहने के साथ टहलना, गिने-चुने दोस्तों से मिलना-जुलना शामिल था। केवल पंजाब नहीं, वहाँ बसे हुए तमिलनाडु, गुजरात, केरल के लोगों से भी उन्होंने आगे बढ़कर अपने परिचय का दायरा भी बढ़ाया। बीच में ओल्ड एज होम के डे केयर सेंटर में बैठकी के लिए जाने लगे थे। उनकी रोशनी में वे महानगरीय जीवन का विश्लेषण वैसे ही करते थे जैसे कोई समाजशास्त्री करे।

2021 में मुझे मामाजी - डॉ. शंकरनाथ झा ने बाबूजी के लेखन को संकलित करते हुए उनकी जीवन यात्रा को किताब की शक्ल में लाने का जिम्मा दिया था। रिश्ते की नज़दीकी के कारण मैं घबराई थी, लेकिन फिर मैंने संकलन-संपादन को काम को निर्वैयक्तिक तरीके से करने का दायित्व लिया। बाबूजी के प्रिय शब्द ‘जय यात्रा’ को लेते हुए किताब का नामकरण किया - “मेरी जय यात्रा”। यह कोविड का दौर था, मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत उथल-पुथल से भरा हुआ दौर। उस दौरान बाबूजी के बिखरे हुए आत्मकथात्मक लेखन के टुकड़ों को पिरोते हुए मुझे लगा था कि मैं पिछले 30 सालों के साथ में उनके बारे में बहुत कुछ नहीं जानती थी। बाबूजी के इन शब्दों को किताब की भूमिका में सजाते हुए मैं अनमनी हो गई थी -

“अपने बारे में शैशव से ही एक तस्वीर थी कि बड़ा होकर विद्वान, आत्मभोला लेखक बनूँ, हर वक्त किताबों से घिरा रहूँ। हो नहीं पाया, इसलिए ललक बनी रही। फिर बड़ा हुआ तो सोचता रहा कि क्या कभी ऐसा लिख पाऊँगा जिसे लोग पढ़कर पसंद करेंगे।"


"चंडीगढ़ का निर्वासन लिखने की प्रचुर सुविधा के साथ मिला। सो लिखता रहा। संयोग मेरा ऐसा हुआ कि मुझे टाइप करने का अवसर तब भी मिलता रहा जब मेरे पास कहने को, लिखने को कुछ नहीं था। मेरा लिखा ‘भाजो का कुनबा’ में शामिल होकर मुझे प्रकाशित कर गया। अब मेरे लिखने को संजोने का आग्रह। मेरे लिए भावुकता से भरा अनुभव है। मुझे तो प्रस्तुत होना है। अब थकावट और असमर्थता छा गई है।”

आज मैं बाबूजी की पढ़ाई-लिखाई की तड़प को और शिद्दत से समझ पा रही हूँ -

“नौकरी से सेवानिवृत्ति के निकट पहुँच जाने के समय की बात है। सुबह सुबह सोच रहा था कि अगर अगला जनम होता हो और मुझे चुनने की सुविधा मिले तो क्या चाहूँगा। कौन सा काम जो करना चाहिए था, पर हो नहीं पाया? जवाब मिला - पढ़ना सीख पाऊँ, कैसे कुशलतापूर्वक पढ़ा जाता है?”

आगे वे लिखते हैं -

“सारी ज़िंदग़ी पढ़ाई से ही पहचान रहने के बावजूद मैं शिद्दत से महसूस करता रहा कि पढ़ने में दक्ष नहीं हो पाया। लोग कैसे इतनी किताबें पढ़ लेते हैं, उनका मर्म आत्मसात कर लेते हैं। मैं नहीं हो पाया। शायद इसीलिए जो लोग पढ़ने में दक्ष होते हैं, वे मुझे अच्छे लगते हैं।”

बाबूजी के लिए सही मायने में पढ़ाई-लिखाई का मतलब था इंसान बनना, अच्छी नौकरी पाना या सुविधासंपन्न होना नहीं। वे आजीवन ‘सफलता’ की दुनियावी कसौटी पर सवाल खड़ा करते रहे। इसे तबतक नहीं समझा जा सकता जबतक हम उनकी पृष्ठभूमि से न परिचित हों। बाबूजी के शब्दों में -

"बीसवीं सदी का चालीस का दशक, अतुलनीय रूप से उद्दीपनाओं तथा उत्तेजनाओं से भरा हुआ। देवघर के आकाश में हवाई जहाज का शोर सुनकर बालक-बड़े सब घरों से निकलकर ऊपर देखा करते, बच्चे चिल्लाते, “उड़ो जहाज, उड़ो जहाज।”। बड़ों से मालूम होता उन्हें कि दूर बहुत दूर अंग्रेजों के देश में लड़ाई लगी हुई है। ... द्वितीय विश्व-युद्ध की गूँज थी यह। जगह-जगह, सिनेमा के पर्दे पर, हैंडबिल्स में लिखा मिलता, “तन-मन-धन से ब्रिटिश सरकार की मदद कीजिए।” सड़कों पर नारे सुनाई देते, अंग्रेजो, भारत छोड़ो, स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” “गाँधी नेहरू, सुभाष”, “ब्रह्मा, विष्णु, महेश” की तर्ज पर त्रिदेव का दर्जा पाए हुए थे। क्रान्तिकारियों की कहानियाँ परी कथाओं की तरह हैरत तथा गर्मजोशी से कही-सुनी जाया करती थीं। ...सत्याग्रही और क्रान्तिकारी के बीच फर्क करने की मानसिकता नहीं बनी थी तब। अछूतोद्धार, “हिंदू-मुसलिम-सिख-ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई”, जैसी अवधारणाएँ देवघर की ठहरी हुई, बँधी-बँधाई चेतना को झकझोर रही थीं।

रूस मे सर्वहारा की सत्ता, जापान का शौर्य, जर्मनी में हिटलर का स्वस्तिक को सम्मान, आर्य़-जाति की अवधारणा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएँ। हिंदुत्व का प्रचार। और फिर सन् ‘43 में बंगाल का भीषण अकाल। मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों के द्वारा तस्करी से अनाज के बंगाल भेजे जाने के कारण देवघर भी भूखमरी की गिरफ़्त में था। कंट्रोल तथा व्लैक-मार्केटिंग से चावल खरीदने की आपाधापी में भी लोगों की दीक्षा का दौर था यह काल-खंड।

टॉमियों की एक टुकड़ी देवघर के आर. मित्रा. हाई स्कूल के परिसर में ठहरा हुई थी। वे लोग बीच-बीच में बाजार में निकला करते। आजाद हिन्द फौज का आविर्भाव। जय हिन्द के नारे। ढिल्लों, सहगल, शाहनवाज; इन्किलाब जिन्दाबाद की गूँज। लड़के-लड़कियों ने आजाद हिन्द फौज की वर्दियां सिलवाईं, पारस्परिक अभिनंदन जय हिन्द होने लग गया था।

चेचक की महामारी में एक-एक दिन में बीस-बाइस शिशुओं की मृत्यु का ताण्डव हुआ था। साथ-साथ कलकत्ते में बमबारी के बाद लोगों का पलायन कर आश्रय के लिए यहाँ भीड़ करना जैसे काफी नहीं था। सन 46 में भीषण सांप्रदायिक दंगों के बाद लाशों से भरी रेलें जसीडीह होते हुए गुजरती रही थीं। लोगों ने सुना था “बंगाल का बदला बिहार में लेंगे”।

14 अगस्त, सन 1947 की रात, बारह बजने की प्रतीक्षा। टावर घड़ी चौक पर राष्ट्रीय तिरंगे का ध्वजोत्तोलन एसडीओ साहब द्वारा। जो विदेशी सत्ता के प्रतिनिधि होकर स्वदेशी आंदोलनकारियों के प्रतिपक्ष की भूमिका में थे, वे अब उन्हीं के प्रतीक होने जा रहे थे। एक एक मिनट गिना जा रहा था, खड़े-खड़े हम गुलाम भारत से आजाद भारत की मिट्टी पर आ जाने वाले थे।

वैसे लोग भी थे जिनके लिए यह दिन आजादी नहीं, निःस्वता का था, वे शरणार्थी हो गए थे, रिफ्यूजी। उनका देश भारत था, पर वतन पाकिस्तान हो गया था। फिर 30 जनवरी सन् 1948 महात्मा गाँधी की हत्या। अविश्वसनीय, पर सत्य। सारी संवेदना को शून्य करने की क्षमता से लबालब।

हमारे होने के काल-खंड का अपना ही अनूठापन रहा है; चालीस के दशक ने हमें परिवेश के प्रति संवेदनशीलता दी; हमारी चेतना और हमारे मन की कूट-लिपि की रूपरेखा इसी अवधि में बनी थी। हमारी बाल्यावस्था और किशोरावस्था की अवधि इसी काल-खंड में थी। ... मेरी चेतना इसी में अंकुरित हुई है। उसके उद्दीपन एवं उत्तेजना की प्रचुरता ने मेरी राह तय की है और मुझे पाथेय जुगाया है। पथ पर मैं संबलहीन ही उतरा था, पड़ाव मिलते गए और ये पड़ाव ही मुझे पाथेय उपलब्ध कराते गए।”


आगे की पढ़ाई के लिए बाबूजी भागलपुर और पटना गए। उस बीच और स्नातकोत्तर के बाद की उनकी यात्रा के पड़ाव विविध थे - सबौर (भागलपुर) स्थित बिहार सरकार के एग्रिकल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट के प्लांट पैथॉलॉजी विभाग में कनीय अनुसन्धान-सहायक (जूनियर रिसर्च एसिस्टैंट), पटना विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में लैब़रैटरी एसिस्टैंट से लेकर देवघर (झारखंड), तुर्की (बिहार) और बराकर (प. बंगाल) के स्कूल से होते हुए सिलचर (असम) के जी. सी. कॉलेज और वापस सीवान के डीएवी कॉलेज में शिक्षक की भूमिका तक। इन छोटी-बड़ी यात्राओं ने उन्हें समृद्ध किया, मित्रताएँ अर्जित करने का अवसर दिया। जब वे सिलचर पहुँचे तो 1960-61 के भाषा आंदोलन का दौर था वह। उनकी मित्र-मंडली में अधिकतर लोग देश के बँटवारे के कारण बने पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित हुए समुदाय से थे। सिलचर में बिताए बीस महीने के तजुर्बे के बारे में उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक लिखा है -

“मुझे ऐसा लगता रहा है कि मेरे मन में आदमी के प्रति, मानवीय संवेदनाओं के प्रति आस्था और ललक को खुराक देने में इसका असरदार योगदान रहा है।”

सिलचर की ऊष्मा मुझे बाबूजी के सिलचर के परम मित्र श्री अनंत देव चौधरी के भतीजे श्री अमिताभ देव चौधरी के शोक संदेश में भी दिखी। उनको जब मैंने बाबूजी के चले जाने के बारे में सूचित किया तो उनका जवाब आया था -

“I am bereaved ! He was my uncle's one of the most intimate friends. I found in him a most affectionate father. After the death of his wife, he became somewhat detached.... Shall never forget him... He translated some of my write-ups and published the translations in a Hindi magazine. All these memories are crowding up. !!”

वाकई स्मृतियाँ हमारी पूँजी हैं! 2012 में बाबूजी ने ही गर्भनाल पत्रिका से मेरा परिचय करवाया था। पहले पहल किसी हिंदीप्रेमी विदेशी व्यक्ति ने भाषासंबंधी जिज्ञासा व्यक्त की थी कि “सन् में हलन्त (हल् के साथ) क्यों लगाया जाता है” और उसे उन्होंने मुझे प्रेषित किया था। आज इस पत्रिका में उनके बारे में लिखते हुए अजीब लग रहा है!

92 साल की उम्र में 24 जून, 2025 को चंडीगढ़ के आवास में बाबूजी ने दुनिया से विदा ली। वे अंत अंत तक मानसिक रूप से सचेत थे। शारीरिक रूप से निढाल बहुत बाद में हुए। अपनी शर्तों पर उन्होंने जीवन जिया। वैज्ञानिक चेतना उनके जीवन जीने की शैली में गुँथी हुई थी। उन्होंने मृत्यु के उपरांत कोई कर्मकांड करने से मना कर दिया था और चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल को अध्ययन व शोध के लिए अपना शरीरदान कर देने की बात कह-लिख रखी थी। उनकी इच्छा का मान रखा गया और पूरे परिवार ने इकट्ठे उन्हें पीजीआई अस्पताल में विदा किया। और उनकी स्मृति में अस्पताल से दिए गए पौधे को हम सब घर ले आए, मानो बाबूजी नए रूप में साथ आए!


यह संस्मरण मैंने वेब पत्रिका 'गर्भनाल' के लिए लिखा था। बाबूजी लंबे समय तक 'गर्भनाल' से जुड़े थे। उन्होंने कई अंकों का संपादन भी किया था। उस पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद यहाँ डाल रही हूँ।

बाबूजी स्मृतिशेष छविशेष - Garbhanal

शनिवार, 31 अगस्त 2024

भहराना (Bhaharana by Purwa Bharadwaj)

5 दिनों के आवासीय कोर्स के बाद आज जब घर आई तो सीढ़ी चढ़ना भी मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। यह आवासीय कोर्स दिल्ली में ही आयोजित था, लेकिन मैं सुबह-शाम आना-जाना कर रही थी। हर दिन चुस्ती से बीता और मैं उदासी को पीछे ढकेलने में कामयाब रही। शायद आज अपने आपको बाँधे रखने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई, तभी तो टैक्सी में आते-आते भी मैं निढाल हो गई। गला सूख रहा था। लगा कि ग्लूकोज़ का स्तर घट गया हो, परंतु उसकी आशंका को मैंने परे धकेल दिया। आज दिन के खाने में एक गुलाब जामुन खा चुकी थी। नाश्ता-खाना भी समय पर हुआ था। तब भी पाँव झनझना रहा था। घर घुसते ही मैंने पानी पिया। लेटने जाने के पहले एसी का स्विच जलाने मैं झुकी और दीवार के उस कोने से प्रिंगल की गंध उठी। यह वही कोना था जहाँ उसकी साँस टूटी थी। बिस्तर तक आते आते मैं भहरा गई। 

रुलाई रोके नहीं रुकी। कितनी चीज़ें चक्कर खा रही थीं दिमाग में। 30 तारीख गुज़री है कल जो पापा के घर से विदा होने की तारीख के रूप में दिमाग पर छप चुकी है। दो दिन बाद उनका जन्मदिन है और मैं पटना जा नहीं रही हूँ। उनकी गैरहाज़िरी में माँ के साथ रहने का मन जो करता था अब उसका कोई मतलब नहीं। माँ पापा के पास है, यह मानना चाहती हूँ, लेकिन कमबख्त अपने दिमाग का क्या करूँ जो कहता है कि इस जीवन के बाद कुछ नहीं है। काश दिमाग को ताखे पर रखना मुमकिन होता ! मन की चलती ! माँ-पापा के साथ प्रिंगल होती! उनका दिल बहलता प्रिंगल से और प्रिंगल को उनसे भरपूर दुलार मिलता! 

बेटी दावे से कहती थी कि नानी तो पक्का प्रिंगल को गोद में ले लेगी और वह दुम हिलाते हुए, नाक से टहोका मारकर उनको अपने को प्यार करने पर मज़बूर कर देगी। वह भौंकेगी या झपटेगी, इसका खतरा नहीं था। उसकी भूँक कभी आक्रामक नहीं थी। पहली बार प्रिंगल चंडीगढ़ गई थी और अम्मी की कुर्सी के नीचे जाकर बैठी थी तो अम्मी ने प्यार से कहा कि इसे बिस्कुट दे दो। जबकि हमें लग रहा था कि पूजा-पाठ करनेवाली अम्मी कहीं प्रिंगल की मौजूदगी या उसके स्पर्श से परहेज़ न करें। ऐसी थी प्रिंगल। आज बाबूजी, पीसा बाबू, नन्ना, जेठू-जेठी, मामू-मामी, दादा-भैया लोग ही नहीं, सारे दोस्त और जाननेवाले प्रिंगल को याद कर रहे हैं।    

नाना-नानी से प्रिंगल मिली नहीं है, मगर वीडियो पर नाना-नानी इस नतनी को देखकर निहाल होते रहे हैं। हर बार प्रिंगल का हाल-चाल ज़रूर पूछते। उनको एक-दूसरे से मिलाने की चाह लिए मैं रह गई और वे सब चले गए। माँ-पापा अंतिम बार जुलाई, 2015 में दिल्ली आए थे। यानी प्रिंगल के घर आने से एक महीना पहले। उस समय पापा बीमार थे और गंगाराम अस्पताल में इलाज चला था। नींद न आने के लिए ढेर सारी दवाएँ खाने के वे आदी हो गए थे और उनसे छुटकारा चाहते थे। वैसे पेट की जलन (एसिडिटी) के अलावा उनको कोई बड़ी समस्या न थी।  लिखाई-पढ़ाई की गति में नींद न आने से जो व्यवधान पड़ता जा रहा था, उसने कई सालों में उनकी चिंता को गहरा कर दिया था। नाजुक वे ठहरे शुरू के, लेकिन धीरे धीरे शरीर से कमज़ोर होते जा रहे थे। बावजूद इसके मन की मज़बूती ने उनको भहराने नहीं दिया था। हम सब पापा पर नाराज़ होते थे कि आप बिना मतलब के परेशान रहते हैं। उनकी बेचैनी समझते हुए भी उसकी तीव्रता का हमें अहसास नहीं था। इतना ज़रूर था कि उसे सीधे सीधे वार्धक्य से उपजी चिंता मानकर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता था। 

माँ पापा की बेचैनी समझती थी। उसकी शारीरिक तकलीफ़ें जो दिनोदिन बढ़ती जा रही थीं उनमें निस्संदेह पापा का क्षीणकाय होते जाना एक कारण था। उसकी असुरक्षा मैं महसूस कर रही थी। उसकी बीमारी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी जिस अनुपात में पापा की दुष्चिन्ता। माँ का पाँव जवाब देने लगा था और उस कमज़ोरी ने समय पर बाथरूम तक पहुँच न पाने की असमर्थता को पेशाब पर नियंत्रण खत्म होने की बीमारी में तब्दील कर दिया था। बेटी के घर में अपनी असमर्थता पर काबू पाने की माँ की जद्दोजहद देखते हुए मैं उसको कहती थी कि तुम खुले विचारों की हो तो कब से और क्यों बेटी के घर को पराया मानने लगी। यह है ढाँचा! कोर्स में पितृसत्ता के ढाँचे और जेंडर-जाति आदि के ढाँचे पर तीन दिन पहले ही बात की थी, लेकिन अपने रोज़मर्रापन में, अपनी भावनाओं में उन सबको ठीक-ठीक पहचानने की ज़हमत हम नहीं उठाते। माँ का भहराता मन भी तो उस ढाँचे से ही जुड़ा था।

एक बार फिर गंगाराम अस्पताल के डॉक्टर से माँ का इलाज चला। बारी-बारी से माँ-पापा को अलग अलग डॉक्टर से दिखलाने के प्रयास ने रंग दिखाया। पापा को फ़ायदा हुआ और माँ को भी। हमें थोड़ी राहत मिली और मेरा पापा से झगड़ा भी थोड़ा कमा। वे दिल्ली में रहकर बेटा-बेटा करते थे तो मैं हत्थे से उखड़ जाती थी। असल में उनको चैन नहीं था और मैं उन्हीं पर झल्ला पड़ती थी। मानना होगा कि मैंने अपनी घबराहट माँ-पापा और भैया - सब पर उड़ेली है।  

यह कोई नया नहीं था। शुरू से ऐसा रहा है। जब मैं माँ-पापा पर चिल्लाती थी तो पापा धीरे से कहते थे कि पूरब थक गई है या परेशान है। शादी के बाद शुरू शुरू की बात है। होली थी। अपनी गृहस्थी का नया उत्साह था। खूब पकवान पकाए, मेहमानों का स्वागत किया। रात तक थककर चूर। अकेले इतना सब करने की आदत नहीं थी। अपूर्व साथ देते थे, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था। उसका जेंडर के नज़रिए से अब विश्लेषण भले कर लूँ, पर उस वक्त कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अकबकाहट क्यों हो रही है। सारा गुबार निकला रानीघाट जाकर। यह भहराना ही था। छोटा-मोटा ही सही। मेरे हिसाब से भहराना एक लंबी प्रक्रिया है। उसमें तनाव और थकान का अनुपात तय नहीं होता। इसका अंत कब कैसे और कहाँ किसके सामने होगा, यह दूसरों को ही नहीं, कई बार खुद को चौंका देता है।

आज सोच रही थी कि पहले के मुकाबले मेरा भहराना अब काफ़ी कम हो गया है। काम को आगे करके मैं अपने को समेटने की कोशिश करती हूँ। पापा जब गए थे तो माँ के हिसाब से सबकुछ व्यवस्थित करना हमारी प्राथमिकता थी। लेकिन मुझे 12 वें दिन ही माँ को छोड़कर दिल्ली आना पड़ा था। इसको लेकर मुझे तनाव हो रहा था, मगर मेरे सामने  विकल्प नहीं था। मैं उस तरह भहराई नहीं। भैया-भाभी और लावण्य माँ के आसपास थे। खुद माँ ने मुझे कहा कि तुम जाओ। पापा होते तो वो भी यही कहते। इसके बावजूद उस वक्त माँ के पास नहीं रह पाने का अपराध बोध आज तक गया नहीं है।

इधर दिल्ली में बड़ी हलचल थी। कोविड के आतंक के साये में लॉकडाउन में फँसे मज़दूरों के लिए सामुदायिक रसोई (कम्युनिटी किचेन) चलाने वाली टीम में हम शामिल थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में दिन के कई कई घंटे गुज़रते। प्याज़ छीलने-काटने, अदरक-लहसुन पीसने-कूटने के अलावा कभी कभार घटी-बढ़ी सब्ज़ी खरीदने वाली टोली में हम होते थे। धीरे धीरे यह मज़दूर ढाबा के रूप में पुकारा जाने लगा। उस टोली में भाँति भाँति के लोग थे। जब अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकी, उर्दू-हिंदी के प्रोफ़ेसर, शोध में लगे विद्यार्थी, कॉलेज में कदम रखने वाले नए विद्यार्थी, आंदोलनों से जुड़े लोग, फ़िल्मकार सब इकट्ठे बड़ी-सी देगची या परात के इर्द-गिर्द बैठकर आलू छीलते दिखते और पूरा राजनीतिक विश्लेषण कर रहे होते तो कितना स्वाभाविक लगता था!  

उस सामुदायिक रसोई में दो-तीन रसोइयों के द्वारा खाना तैयार करने के बाद छोटा सा समूह पैकेट बनाने में लगता था। हमारा ज़्यादा समय उसी में जाता। नाप से सब्ज़ी का पैकेट बनता और गिनकर पूड़ी रखी जाती। पोषण और स्वाद को ध्यान में रखकर मिली-जुली दाल, तहरी, आलू-लौकी पुलाव, अचारी पुलाव वगैरह बदल बदल कर बनता। उनके वितरण की योजना बनती, इलाके बँटते। बंद रास्तों से बचते-बचाते गली-कूचों में छोटी गाड़ियों में साथी निकल जाते अलग अलग इलाकों में मज़दूरों को खाना पहुँचाने। रसोइयों को लाने-पहुँचाने की ड्यूटी भी लगती। युवा साथी नेतृत्व में थे, पर प्रौढ़ साथी पीछे नहीं थे। जून में दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर से सामुदायिक रसोई दूसरी जगह चली गई। लॉकडाउन की मियाद बढ़ती जा रही थी और अलग अलग कोनों से ‘फूड पैकेट’ की माँग आने लगी थी। बहुत सारे साथी इस मुहिम को बहुत आगे तक ले गए। काम के विस्तार के साथ मुझे लगा कि हम सब बिखरने लगे थे। मगर यह मेरी नज़र से! निजी तौर पर बिखरने या भहराने को हम जैसे समझते हैं उससे अलग प्रक्रिया होती है किसी समूह या छोटे-बड़े आंदोलन के fragmentation की।

यहाँ तनिक थमूँ। यह बिखरना एकदम समानार्थी है भहराने का या कुछ बारीकियाँ हैं इसमें? शायद बिखरने के ठीक पहले का चरण है भहराना ? नहीं ! कई बार सबकुछ गुँथा हुआ होता है और एक के ऊपर चढ़ा हुआ। शब्दकोश पलटने के लिए मैं उठी, माँ की तरह। काठ की आलमारी के ऊपरी खाने में बृहत् हिन्दी कोश विराजमान है और खूब इस्तेमाल होने के कारण अब उसकी जिल्द टूट रही है। पटना होता तो जिल्दसाज़ कहीं न कहीं मिल ही जाता। पापा खोज निकालते  या माँ किसी न किसी को पकड़ लेती। हमारे घर में स्कूल की किताब, हमारा उपयोगी रजिस्टर, पत्रिका का अंक, पुरानी किताब, नानाजी का लिखा और अब खो चुका ‘चलित हिन्दी व्याकरण’ अनगिनत मढ़ी हुई किताबें थीं। जब किसी का पुट्ठा निकलने लगता, जिल्द भहराने को होती तो पापा जिल्दसाज़ के पास चल पड़ते। किताबों की देखभाल में माँ की उतनी ही भूमिका थी तो वह पहले ही पापा को चेता देती कि फलाना किताब का फ़र्मा ढीला पड़कर जिल्द से खिसकने वाला है और उसकी जुज़बंदी ज़रूरी है। आह ! कितने दिनों बाद इन शब्दों की गलियों से भी गुज़रना हो रहा है। माँ-पापा के साथ कितना कुछ चला गया!  

बहरहाल, शब्दकोश ने भहराने को अरबी भाषा का बताया और लिखा यकबारगी गिरना, टूट पड़ना। यानी भहराने में एक झटका लगता है, कुछ अप्रत्याशित होता है, अनायास। ऐसा ही तो बिखरने में भी होता है, है न ? सहसा बिखर जाता है कुछ (रिश्ता, विश्वास और न जाने क्या क्या...) मगर बिखरना धीरे-धीरे भी हो सकता है और जानी-बूझी प्रक्रिया भी। उसका अंतिम बिंदु है विघटित हो जाना। शायद भहराने में एक संभावना छुपी है कि उसे वापस खड़ा किया जाए। टूटना शायद भहराने का आंशिक पहलू है। वाकई उलझ गई मैं।

सिर्फ़ मानसिक स्तर की प्रक्रिया नहीं है भहराना। ठोस भौतिक-दैहिक रूप है इसका। इस 19 अगस्त की सुबह सुबह अपूर्व की आँखों के सामने जब बेचैन खड़ी प्रिंगल भहराने लगी थी और कमरे के किनारे शायद दीवार के सहारे उसका शरीर नीचे की तरफ़ झुकने लगा था तब उनको लग गया था कि यह भहराना अब फिर कभी नहीं उठने के लिए है। कारण हम सबको पता था – कैंसर। आज उसी कोने से उठी प्रिंगल की गंध ने मुझे भहरा दिया, लेकिन मैं तो दुबारा उठ गई और लिख रही हूँ। प्रिंगल की गंध में माँ-पापा की गंध घुल-मिल गई है।

भहराने के दूसरे छोर पर है उबरना, समेटना। उसमें जुटे हैं हम सब। बेटी को थोड़ा ज़्यादा वक्त लगेगा। मुझे इसे मनोरोग बनने की हद तक नहीं जाने देना है।

 


मंगलवार, 20 अगस्त 2024

आखिरी साँस (Last breath by Purwa Bharadwaj)

कल यानी 17 अगस्त, 2024 को हम सपरिवार नेहरू पार्क गए थे - हमदोनों, बेटी और प्रिंगल। प्रिंगल को घर आए 9 साल पूरे हुए थे। 17 अगस्त, 2015 को वह हमारे मौरिस नगर के D 12 वाले घर में आई थी। तब तीन महीने की थी। रानी लुधियाना से आई थी। हम कभी कभी उसे प्रिंगल लुधियानवी कहते। ग्राउंड फ़्लोर के पहलेवाले घर से हम दस दिन बाद ही उसी कॉलोनी में तीन मंज़िल वाले घर में आ गए थे। 

यह मैंने 18 अगस्त की देर रात लिखना शुरू किया था। थकान और बगल में खड़ी प्रिंगल की बेचैनी देखकर लिखने का मन नहीं किया। क्या पता था कि पहले ही वाक्य का यह जो 'था' है वह इतना आसन्न है! अगली ही सुबह प्रिंगल वाकई भूतकाल में बदल गई। 

प्रिंगल के मुँह का ट्यूमर खिसक खिसक कर गले तक आ गया था और कैंसर ने उसका फेफड़ा जकड़ लिया था। डॉ. प्रभाकरन पिछले 10 महीनों से हर महीने उसका पूरा scan करवाते थे। 12 जुलाई के एक्सरे में जाकर दिख गया था कि अब फेफड़ा भी जा रहा है। उसके पहले तक उसके vitals कैंसर की ज़द में नहीं आए थे। पिछले नवंबर में अल्ट्रा साउंड में हल्का सा तिल्ली (spleen) में जो असर दिखा था वह अंत तक उतना ही रहा। फैला नहीं। हम प्रिंगल के साथ चल रहे थे क्योंकि वह पूरी ताकत से कैंसर का मुकाबला कर रही थी।

बीच बीच में प्रिंगल बहुत उत्साह में आकर भौंकती थी तो उसके मुँह से खून आने लगता था। इसने हमारी रुटीन को बदला। मेरी अनियमित सैर तो ठप्प ही हो गई क्योंकि प्रिंगल के बिना सैर पर जाना उससे दगा करना होता। अब प्रिंगल की सैर तभी होती जब डॉक्टर के यहाँ हम जाते। वह भी गाड़ी से। खिड़की से झाँक झाँक कर दुनिया को अपनी नज़रों में कैद करती थी। इधर जब प्रिंगल के मुँह से ज़्यादा खून आने लगा तो डॉक्टर डेढ़ या सवा महीने पर बुलाने लगे। उसकी बाहर जाने की तत्परता बरकरार रही, लेकिन क्लिनिक पहुँच कर अड़ने लगी कि अब जाँच के नाम पर मुझे तंग करने के लिए चौखट के अंदर मत ले जाओ।

हमारी बच्ची को बाहर जाना भला क्यों न पसंद हो ! हम पुराने बदनाम हैं कि घर में पैर टिकता नहीं। जब न देखो तब हम निकल पड़ते थे। प्रिंगल कपड़े सूँघती थी कि मम्मा-बाबा के घर के कपड़े हैं या बाहर के। फिर जाकर वह अपना पट्टा (लीश) खोजती कि मुझे तैयार करो और साथ ले चलो। ऐसा कम होता था कि हम इकट्ठे जाएँ। बीच में हमने सपरिवार नेहरू पार्क के दो चक्कर लगाए थे। उसकी खुशी देखते बनती थी, लेकिन बाबा की पूँछ ऐसी कि उसको मूँगफली लाने जाता देखकर हल्ला मचा दिया था। बेटी उसके साथ दौड़ती रही थी और मैडम कनखी से हमदोनों पर नज़र रखे हुए थीं कि नालायक माँ-बाप खिसक न जाएँ। यह family time वाकई नायाब था और इसके लिए बेटी को जितनी शिकायत हमसे है उतनी ही प्रिंगल को भी रही होगी। आज सोच रही थी कि बेटी ने प्रिंगल को लाकर हमें कितना अनमोल मौका दिया। 

बीमारी के बाद एक बार हम चारों सुंदर नर्सरी भी गए थे और उल्टे पाँव वापस आ गए थे। कारण, उस दिन प्रिंगल का उत्साह चरम पर था और अधिक भौंकने के कारण उसका मुँह खून से तरबतर हो गया था। हमें अपराधबोध हुआ कि नाहक उसे लेकर बाहर निकले। वैसे यह समस्या हमारी थी, कुछ ऐसा ही प्रिंगल रानी जतलाती थीं। वह बेपरवाह थी और ऊर्जा से लबरेज़। 

अभी तीन दिन पहले जब हम नेहरू पार्क जाने के लिए तैयार होने लगे तो प्रिंगल चौकन्नी हो गई। अपूर्व जब सीढ़ी के सामने गाड़ी लाने के लिए पहले निकलने लगे (पिछले दिनों प्रिंगल का ट्यूमर उसके खुजला देने के कारण फटकर रिसने लगा था और उसे पट्टा पहनाना मुश्किल हो गया था। ऐसे में अपनी सीढ़ी पर विराजमान प्रिंगल की सजातीय और कॉलोनी के अन्य सजातीयों से उसे बचाने के लिहाज से गाड़ी ठीक सीढ़ी के सामने लाई जाती थी और सीढ़ी उतरकर गाड़ी तक उसे गोद में हम ले जाते थे।) तो दरवाज़े की फाँक में उसने सिर घुसा दिया। धर-पकड़ में हम दो जन लगे तब जाकर उसकी मुंडी भीतर हुई। अगले 5 मिनट में जबतक हम घर की चाभी उठाते, जूता पहनते, तबतक बच्चू खामोश नहीं हुई। फिर मैं दो तल्ले पर गई और बेटी को कहा कि अब प्रिंगल को भेज दो। उसके वेग पर ब्रेक लगाने के लिए मैं बीच सीढ़ी पर थी। उसे थामो नहीं तो हमेशा तीर की तरह छूटती थी। उस रोज़ उस समय कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि यह लड़की इतनी बीमार है, वज़न 5-6 किलो घट गया है और डेढ़ दिन बाद लुप्त हो जाएगी।

इस 17 अगस्त की शाम खुशी खुशी हम नेहरू पार्क के लिए रवाना हुए थे। लगभग 45 मिनट प्रिंगल घूमती रही। एक बार भी थककर बैठी नहीं। दौड़ वाला खेल बेटी ने नहीं खेला ताकि उसको थकान न हो। हम दूरी बनाए रखते हुए घेरा डाले हुए थे ताकि अगल-बगल से कोई बंधु-बांधव न आ जाए। मैडम मिलनसार इतनी थीं और अकड़ फूँ भी इतनी कि बिना हाय-हैलो किए किसी को अपने करीब से गुज़रने नहीं देती थीं। उससे मैंने जाना था कि शांतिप्रिय जीव होने का मतलब बेआवाज़ होना नहीं है। 

वापसी में प्रिंगल ने रास्ते में पानी पिया और केवल दो छोटा गाजर वाला बिस्कुट खाया। हम उसके साथ होने का जश्न मना रहे थे क्योंकि वह जाने की राह पर है, इसका हमें बखूबी अंदाजा था। हमने रास्ते में अपने लिए खाना बँधवाया और गाड़ी में ही बैठकर खाया। प्रिंगल ज़रा भी मचली नहीं। इन दिनों उसकी खाने से रुचि घट गई थी और मात्रा भी। घर आकर उसने marie gold बिस्कुट खाया जो वापस हम देने लगे थे। डॉक्टर ने ग्लूटन और चावल पर जो रोक लगाई थी उसे किनारे कर दिया था। कहा था कि अब जो चाहे वह दीजिए क्योंकि हाथ में अब गिनती के दिन बचे हैं।  

गिनती क्या होती है ? क्या सचमुच इसको हम जानते हैं और किसी प्राणी की ज़िंदगी की गिनती, साँसों की गिनती क्या है ? हमको क्या पता था countdown शुरू हो चुका है। अगली सुबह यानी 18 अगस्त अजीब थी। पूरे घर में सुबह सुबह प्रिंगल की खोजाई शुरू हुई। हमने सारे कोने छान मारे, बिस्तर के नीचे, मेज़ के नीचे, सोफ़े के पीछे, स्टडी में – कहीं नहीं थी। सदर दरवाज़ा बंद था और उसके बाहर बाँस का बना छोटा फाटक भी। फिर गई कहाँ ? पाया कि प्रिंगल जाकर बाथरूम में गीली ज़मीन पर बैठी है। मैंने उसे नहलाया-धुलाया। अंतिम बार। दोपहर में खाना-पीना कम हुआ, मगर हुआ। शाम को कई बार उसने marie gold बिस्कुट खाया। अंडा भी खाया। लेकिन उसकी साँस अधिक तेज़ चल रही थी। वह इधर से उधर छटपट कर रही थी। रात को सोने गई, लेकिन बार-बार खड़ी हो जाए। मैंने 9 का घंटा जाने दिया जो उसके खाने का नियत समय था। साढ़े दस बजे वह रसोई के पास आई, माने कि भूख लगी उसे। हल्दी डालकर मुर्गा उबला हुआ था। उसका लगभग सवा दो टुकड़ा उसने खाया। शुरू में मुँह फेर लिया था, मगर फिर चाव से खा गई। बेटी ने भी खुश होकर देखा कि कैसे वह मेरे हाथ पर लपक रही थी। मैं संतोष से भरी हुई थी। 

रात भारी रही। कभी प्रिंगल बैठने की कोशिश करे, कभी टहले, कभी एक जगह खड़ी रहे। मैंने देखा कि मेरे सिरहाने लैम्प के पास आकर वह लेटी। तार हिला तो लैम्प भकभुक करने लगा। मैंने सोचा कि उसका तार दूसरे सॉकेट में लगा दूँ, पर प्रिंगल को छेड़ने का मन नहीं हुआ। एक्रेलिक फ़ाइबर शीट से ढँके फ़र्श से चार अंगुल ऊपर जो दीवार का उभार है वह प्रिंगल को सिर टिकाने का मौका देता था। कई बार हमने उसके लिए कुशन जैसा रखने की कोशिश की थी, मगर मैडम के लिए अपने बिस्तर का किनारा, कुर्सी के नीचे का डंडा या अपूर्व की चप्पल या पैर अधिक आरामदेह रहता था। कभी सिर टिकाती तो कभी ठुड्डी। अनमनापन और उदासी या नाराज़गी दिखानी हो तो उसकी यह मुद्रा हमारे लिए संकेत थी। वैसे इत्मीनान और आराम फरमाने के लिए भी ऐसे लेटती थी। हमारी देह पर अपना सिर या पैर रखे तो हम निहाल हो जाते थे। कृतज्ञता और नाज़ के भाव से ओत-प्रोत! ज़रा कभी अपूर्व से पूछिए, प्रिंगल के बारे में बात करते समय उनका स्वर कितना स्निग्ध हो जाता है! बेटी से प्रतियोगिता सी भी चलती रहती थी क्योंकि उससे प्रिंगल का जो रिश्ता था हम उसके पासंग नहीं थे।

उस रात तीन बजे भोर में बेटी ने सिरदर्द के लिए क्रॉसिन दवा माँगी। मैं नींद में उठी और यह बताकर ढह गई कि दवा की टोकरी में देख लो। अगले दिन बेटी ने बताया कि प्रिंगल दरवाज़े के पास खड़ी थी तो उसे लगा कि शायद प्रिंगल को पेशाब करने ऊपर जाना है। हमारी छत के सामने वाली खाली पड़ी विशालकाय छत प्रिंगल का शौचालय था जिसकी हम नियमित सफ़ाई कराते हैं। सीढ़ी चढ़ने में कठिनाई देखकर बेटी ने प्रिंगल को गोद में ले जाने की सोची, मगर वह धीरे-धीरे खुद ऊपर गई और फ़ारिग होकर जल्दी से वापस आ गई। फिर हमारे कमरे में आ गई।

अपूर्व के भोर की साथी है प्रिंगल। दोनों बिना दखलंदाजी के एक-दूसरे के साथ घंटों बैठते हैं। पहले प्रिंगल को भोर में रोटी-ब्रेड चलता था और आजकल बिस्कुट। 19 अगस्त को हस्बेमामूल उसने दो बिस्कुट खाया। लेकिन बेचैन रही। इधर से उधर करती रही। मैं देर से सात बजे के करीब उठी तो वही बेचैनी देखी। हालाँकि जब अपूर्व मुझे जगाकर थायरायड की गोली खिलाने आए थे तब वह बिस्तर के नीचे मेरी तरफ़ लेटी हुई थी। नींद पूरी खुली तो बाहर आकर प्रिंगल का हाल-चाल पूछा। सामने पूँछ हिलाती वह मौजूद थी, मगर तनिक  ज़्यादा अस्थिर थी। समझ में नहीं आया। थोड़ी देर में वह फिर बाथरूम में जाकर खड़ी हो गई। मैं गोद में उठाकर लाई। उसको दुलार-मलार किया, मगर गोद में उसे अनकुस लग रहा था। मैंने उतार दिया। गले के घाव की ड्रेसिंग की। वह मेरे पास खिसककर आई। और करीब बुलाया तो भली बच्ची की तरह बात मानकर और करीब आई। ड्रेसिंग के दौरान ठुड्डी उठाई, दवा लगवाई। फिर पास बैठ गई। पिछले कुछ महीनों से शायद grip नहीं बनता था तो पीछे पीछे खिसकने लगती थी। डॉक्टर ने कहा कि डर भी एक वजह हो सकती है। इसका उपाय प्रिंगल ने निकाला था कि तब वह लेट जाती थी। आज उसे उसमें भी आराम नहीं मिल रहा था।

ड्रेसिंग के बाद मैं ड्राइंग रूम में मोढ़े से उठकर सोफ़े की कुर्सी पर आ गई तो प्रिंगल उसके नीचे आ गई। अपनी पसंदीदा जगहों में से एक। लेकिन अब तो बमुश्किल 10-15 मिनट बचे थे उसके पास। वह बेटी के कमरे तक गई। उसका कई चक्कर लगाया। क्या पता था कि उसे दीदी से मिलना था! हमें लगा कि तकलीफ़ तो है ही, सो अपने को व्यस्त रख रही है। अपूर्व 10 मिनट का nap लेने गए तो हमारे सोने वाले कमरे में गई। फिर उन्होंने पुकारा कि देखो प्रिंगल बाहर जाना चाहती है। मैं थोड़ा अलसा गई थी। पिछले हफ़्ते सरोज (मेरी मददगार) के भाई की मृत्यु हुई थी तो उसके बारे में उससे बात करने लगी थी। मैंने अपनी दूसरी मददगार सुनीता को कहा कि ज़रा प्रिंगल को देख लो। अब इसके लिए अपने को कोस रही हूँ कि मैं क्यों नहीं उठी। 

आखिरी बार प्रिंगल कमरे से निकलकर फिर बाथरूम के दरवाज़े पर खड़ी हो गई थी जो मेरी नज़र से ओझल था। मैं ड्राइंग रूम के दूसरी तरफ़ बैठी थी जहाँ से बाथरूम का दरवाज़ा ओट में था। अब अपना सिर धुन रही हूँ कि मैं उस तरफ़ क्यों नहीं बैठी जहाँ से प्रिंगल दिखती। मैंने दरवाज़ा बंद रखने की हिदायत दे रखी थी। सुनीता ने उसे वापस कमरे में भेज दिया। ज़रा भी यह बात दिमाग में नहीं आई कि dogs अक्सर अपनी तकलीफ़ के क्षण में एकांत खोजते हैं। यह पढ़ा था और प्रिंगल की हरकतों से इस प्रवृत्ति का जब तब मिलान भी करती थी। लेकिन यह बाथरूम में बार-बार जाना उसके आखिरी क्षणों की घंटी है, यह खयाल ही नहीं आया।   

इस बीच मैं नामुराद फ़ोन बैंकिंग के एक कॉल में लग गई। 5 मिनट भी न गया होगा कि अपूर्व ने उठकर मुझे आवाज़ दी। मैं फ़ौरन उठी, हालाँकि प्रिंगल को लेकर कोई दुष्चिन्ता नहीं थी। अपूर्व ने कहा कि “she is going”। अवाक् थे सब। आवाज़ के साथ उल्टी साँस चल रही थी। फिर शांत। लपककर अपूर्व ने बेटी को बुलाया। एक मिनट भी नहीं गया होगा। बेटी के आने पर प्रिंगल ने आखिरी दो साँस ली। दीदी को विदा कहे बिना उसकी monkey कैसे जाती ! मेरी दोस्त अंजु ने ठीक कहा कि उसे दीदी के बिना नहीं जाना था। तब भी दौड़कर शहद लेकर आई क्योंकि जून में चंडीगढ़ में निश्चेष्ट हुई थी तो डॉक्टर ने शहद चटाने को कहा था। मामला डिहाइड्रेशन का तो था नहीं। शहद जिस तरह उसके मुँह में डाला वह काफ़ी था यह बताने के लिए वह अब नहीं है। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई हरकत नहीं। 

फिर सिलसिला शुरू हुआ विदाई का। प्रिंगल को उसकी चादर में लपेटकर पिता-पुत्री ड्राइंग रूम में ले आए। सुनीता और सरोज को मैंने कमरा सँभालने और पोंछने को कहा तो उन्होंने पूरा धो ही दिया। इधर घर के लोगों और प्रिंगल के प्रिय जनों को हमने सूचित करना शुरू किया। उसको प्यार करनेवाले बहुत लोग थे। हमारा फ़र्ज़ था कि उनको प्रिंगल के जाने के बारे में बता दें। जैसा कि पहले सोचा था, इलेक्ट्रिक क्रेमोटोरियम तय करके हम छतरपुर के Paws to heaven गए। बेटी ने ही गाड़ी चलाई। उसका दोस्त फ़ौरन आ गया था। हमारी गाड़ी के साथ साथ टैक्सी से वह प्रिंगल के साथ चला। छतरपुर भाभी और माणिक भी पहुँचे। पूरे परिवार के सामने प्रिंगल को कर्मचारियों को सौंप दिया गया। गंगाजल और अगरबत्ती के बाद स्टील के दाह बॉक्स में। हम खाली हाथ लौट आए। खाली घर में। खाली मन लेकर।     

यह सब घटा कल। आज सुबह मैंने प्रिंगल का बिस्तर वगैरह छत पर रखवाया। जान रही थी कि वह खाली जगह और सवाल करेगी हमसे, मगर यह करना ही था। लेकिन कहाँ कहाँ से और क्या क्या हटाऊँ ? कहीं कान बाँधने की चोटी पड़ी है, कहीं खिलौना लुढ़का पड़ा है। कल सुबह का तौलिया बालकनी में बारिश से गीला हो गया है। पीने के बर्तन में लबालब पानी भरा है ताकि उसे सहूलियत हो। गहरे बर्तन में मुँह नहीं डाल पाती थी अब क्योंकि ट्यूमर आड़े आता था। खाने के बर्तन पर भी एक स्टील की तश्तरी रख दी थी मैंने। कई बार पानी और खाने को बदलना पड़ता था क्योंकि खून मुँह और गले से टपक पड़ता था।  बहुत बार हाथ से खिलाती थी, हथेली में रखकर।   

बेटी ने प्रिंगल का सारा सरअंजाम किया था – खाने का बर्तन, स्टैंड, डिजाइनदार स्वेटर, शैम्पू, सुंदर लीश, हेयर ब्रश, नेलकटर, आरामदेह बिस्तर, खिलौने, गाड़ी की सीट के लिए शीट और न जाने क्या क्या। हमने तो उसके बताने पर ही ब्रांड जाना या pet के रहन-सहन के बारे में जानकारी ली। Cocker Spaniel नस्ल की खासियतों, उनकी बारीकियों, उसमें भी English Cocker Spaniel के मन-मिजाज़ के बारे में जाना। कैंसर के निदान के लिए जब डॉक्टर ने प्रिंगल का ग्लूटन बंद किया तो जो स्नैक्स आता था उसकी कीमत देखकर मैं कुनमुनाऊँ तो बेटी इसपर चकित हो जाती थी कि मैं कैसी माँ हूँ। बच्चे के खर्च पर मेरा ध्यान देना या उसका ज़िक्र कर देना बेटी के गले नहीं उतरता था। और कहना न होगा कि मैं भी शर्मिंदा हो जाती थी।  

प्रिंगल को कष्ट से मुक्ति मिली, यही सोच रही हूँ। जैसे माँ को जाना ही था, पापा को जाना ही था, वैसे ही प्रिंगल को रोकना उसके लिए और कष्टदायक होता। बच्ची हिम्मतवर थी, खुशमिजाज़ थी और चलते-फिरते गई। ट्यूमर के बढ़ते आकार ने उसे पस्त किया था, मगर उसकी जिजीविषा को पछाड़ा नहीं था। खूँ आलूदा वह हुई, मगर गंदगी में लिथड़ी नहीं। एक वक्त आया था जब डॉक्टर और प्रियजन हमें कह रहे थे कि कष्ट से मुक्ति का उपाय है सूई लगवा देना। हम लाचार होकर एक क्षण के लिए तैयार हो गए थे। 16 जुलाई को जब उसके ट्यूमर से तेज़ी से खून रिसने लगा था तो उस रात ढले डॉक्टर की सलाह पर 18 जुलाई को तिथि निश्चित हुई थी। मैंने डॉक्टर के कहे मुताबिक घर के लोगों को msg कर दिया था कि 18 की सुबह शायद vet के पास जाएँगे। दिक्कत यह भी थी कि अगली सुबह 17 जुलाई को मुझे देहरादून जाना था। महीनों पहले से यह कार्यक्रम तय था। कई दिनों का काम था, लेकिन मैं भोर में निकलकर देहरादून में दिन भर ट्रेनिंग करके उसी रात दिल्ली लौट आई। दरवाज़े पर मेरे स्वागत में प्रिंगल आई, लेकिन सिर झुकाए हुए। उसकी चहक गायब थी, लेकिन हम सब खुश थे एक-दूसरे का साथ पाकर।  

17 जुलाई की वह रात आँखों में कटी। अगली सुबह फिर बेटी ने एक दिन की मोहलत माँगी। अपूर्व ने कहा कि वह फिर से थोड़ा खा-पी रही है, उसकी हरकतें बढ़ी हैं तो हम यह निर्णय नहीं ले सकते। मेरा दिल तो यों भी धुकधुक कर रहा था। मेरा भैया, भाभी, भतीजा सब इसके खिलाफ़ थे। माँ-पापा रहते तो यह खयाल भी मन में लाने के लिए मुझे फटकारते। नैतिक दुविधा थी, मगर उससे उबारा प्रिंगल ने ही। उसकी जिजीविषा के आगे हम कौन होते थे फ़ैसला लेनेवाले।

अगला एक महीना डर में कटा। मैं चंडीगढ़ गई, गुजरात गई, उत्तराखंड गई। उन कामों को टालना मुमकिन नहीं था। फ्रीलांस काम का अपना व्याकरण है। डरते-डरते अपूर्व एक दिन के लिए कलकत्ता गए। प्रिंगल और बेटी - दोनों बच्चे अकेले थे और चिंतित भी। राम-राम करके हमारी यात्राएँ सकुशल संपन्न हो गईं। प्रिंगल के आसपास ही हम थे। और आखिर अंतिम घड़ी आ गई। 19 अगस्त की रात अभी तक नानाजी के जाने की तारीख थी। अब वह सुबह प्रिंगल से जुड़ गई।     

समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें। रुटीन प्रिंगल के इर्द गिर्द थी। धीरे धीरे उसकी अनुपस्थिति के भी हम अभ्यस्त हो जाएँगे, लेकिन जो खालीपन है वह ताउम्र रहेगा। मित्र तरुण गुहा नियोगी ने सही कहा कि एक रिक्तता दूसरी रिक्तताओं को भी जगा देती है। हमें बेटी की चिंता सता रही है। बाबूजी और झुमकी दी बार बार बेटी का हाल पूछ रहे हैं। उसकी तो हर वक्त की साथी थी प्रिंगल। उसने खूब तस्वीरें सहेजी हैं। प्रिंगल की तस्वीर और वीडियो देखकर हम सब पुराने दिन की खुशी को याद कर रहे हैं। लेकिन खुशी की याद तो खुशी नहीं है न !

सच पूछो तो अब मैं सारे बंदोबस्त को नए सिरे से करने से रही। मुझे प्रिंगल की चुनींदा चीज़ें सजाकर या मढ़वाकर भी नहीं रखनी हैं। बस प्रिंगल का जहाँ जो है रहेगा। उसका खाने का बर्तन एकदम सामने है। दवाई और बैंडेज की टोकरी बगल में। वाशिंग मशीन के ऊपर टिशू पेपर का बड़ा गोला और ताख पर दर्दनिवारक cbd oil की नन्हीं शीशी है। मोडम जहाँ रखा है उसकी बगल में ओकोक्सीन (रक्त प्रवाह रोकने के लिए) और सरबोलिन (भूख जगाने के लिए) की बोतल रखी है। सुनीता ने उनपर धूल पड़ने नहीं दी है। तब भी मन लरज़ रहा है यह सोचकर कि शायद ऐसा समय आएगा कि घर के ताखो, दराजों, कोनों से धीरे धीरे उसका सामान हट जाए या धूल खाने लगे। इतना तय है कि उसकी स्मृति हमेशा ताज़ा रहेगी। 

सिर्फ़ हम नहीं, हर वह व्यक्ति जिससे प्रिंगल की मुलाकात हुई वह ग़मज़दा है। अभी अविनाश ने बताया कि एक बार उसकी बहन और भांजी भी प्रिंगल से मिले हैं और उनको उसका मिलनसार स्वभाव आजतक याद है। भैया को 2016 मार्च में घर आने पर अपने स्वागत में प्रिंगल का घूमर नृत्य याद है। फिरकी की तरह नाचने लगी थी वह। तब बच्ची भी थी। मगर उम्र ने उसकी खुशमिजाज़ी को कम नहीं किया था। भारतेन्दु बाबू, गोल्डी सब उसकी ज़िंदादिली को याद कर रहे हैं। शोक संवादनाओं का ताँता लगा हुआ है। अंजु से रोज़ बात हो रही है। अलका, पूर्णिमा, स्वाती, लीना, दिप्ता, वीनू जी, जया, सिम्मी, डेज़ी सबको मैं प्रिंगल के आखिरी पल का ब्योरा दे रही हूँ। क्यों ? मालूम नहीं। क्यों लिख रही हूँ ? मालूम नहीं।  

 


चार साल पहले प्रिंगल पर जो लिखा था उसे दुबारा पढ़ते समय लगा कि वर्तमान से अतीत की दूरी कितनी मारक है  https://www.satyahindi.com/opinion/relations-love-lifestyle-amid-coronavirus-lockdown-quarantine-109684.html


गुरुवार, 15 अगस्त 2024

पुकार (Pukaar by Purwa Bharadwaj)

अपने लिए पुरवैय्या और कभी कभी छौंड़ी सुनना कितना सहज था। पापा ऐसे नहीं बोलते थे, यह माँ ही बोलती थी। पापा का प्रिय संबोधन था पूरब। उसका भी वे एक किस्सा सुनाते थे। मेरे घर में एक जो काम करनेवाली थीं (शायद लगनी ही नाम था। 'शायद' इसलिए कि मुझे ठीक से याद नहीं और माँ है नहीं जो उससे तस्दीक करूँ।) वे मुझे 'पुरुब' बुलाती थीं और मुझे उस पर थोड़ी बालसुलभ आपत्ति थी  - पापा यह सुनाकर खि खि करके हँसते थे। साथ में ताली बजाते हुए और उनकी उँगली में चमकती मून स्टोन की अँगूठी झिलमिलाती थी ऐसे मानो वह भी मुस्कुरा रही है! पापा की वैसी हँसी का हमलोग – माँ और हम दोनों भाई-बहन बाद में खूब आनंद लेते थे। कहाँ लुप्त हो गया सब !

पुकार का नाम यानी डाक नाम (बांग्ला भाषा में और अभी अभी मित्र सुतनु पाणिग्रही ने बताया कि उड़िया भाषा में भी डाक नाम ही कहते हैं) बच्चों के लिए तरह तरह का रखा जाता है। आत्मीयता से भरपूर और अक्सर स्वर वर्णों की मदद से खूब गोल-गोल, दीर्घाकार! कभी कभी किसी शब्द के एक हिस्से को लेकर जोड़-तोड़ करके डाक नाम होता है या ध्वनि साम्य के आधार पर कुछ गढ़ लिया जाता है। घर-परिवार में स्थिति और संस्कृति की झलक तो उससे मिलती ही है। कभी कभी सिर्फ़ दुलार-मलार या विवक्षा यानी कहनेवाले की इच्छा होती है डाक नाम के केंद्र में। स्वाती ‘सुरबत्तो’ हो गई, लीना ‘लीनचू’ हो गई, सुमंद्र मलखान सिंह और उसका भाई रसखान सिंह हो गया – कब कैसे क्यों, पता नहीं। हाँ, एक से अधिक डाक नाम होना प्यार और स्नेह का प्रमाण माना जाता है। सुतनु का ही देखिए – बापी, बापलू, कुनी यानी छोटा भाई। पसंदीदा ध्वनि का दोहराव और ऊटपटाँग होना भी एक तरीका था डाक नाम रखने का। भाषा वैज्ञानिक नियमों के मुताबिक उनका विश्लेषण किया जा सकता है और जेंडर व भाषा के intersection का भी। भाषा के खेल और मस्ती, तुकबंदी और हँसी-मज़ाक का पुट तो उसमें ज़ाहिरा तौर पर होता है। बहुत बार डाक नाम ऐसा ऐसा होता है कि बच्चे शर्माने लगते हैं और दूसरों से छुपाने लगते हैं। खासकर वयस्क होने पर डाक नाम से पीछा छुड़ाने की कोशिश भी होती है। मैंने एक लेख में यह चित्र देखा था –



स्रोत : इंटरनेट https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/voices/whats-in-a-name-forget-shakespeare-just-ask-a-bengali/

बांग्ला भाषा में डाक नाम का उलट होता है भालो नाम। हिन्दी में भी पुकार के नाम के साथ अच्छा नाम पूछा जाता है यानी वह नाम जो आधिकारिक दस्तावेजों (आज के समय में आधार कार्ड मान लीजिए 😊) में है। या असली नाम पूछा जाता है (वैसे में भी डाक नाम असली का विपरीत यानी नकली नाम नहीं होता)। भालो नाम औपचारिक पहचान है। उसके सामने डाक नाम व्यक्ति की अनौपचारिक पहचान है। इसके लिए अंग्रेज़ी में है ‘निकनेम’। ब्रिटेनिका के मुताबिक अंग्रेज़ी भाषा की विकास यात्रा के मध्य में यानी Middle English में ‘eke name’ का शाब्दिक अर्थ था ‘also-name’ और शारीरिक बनावट, रंग-रूप आदि पर ‘निकनेम’ रखे जाते थे। यह अतिरिक्त नाम है या इसे वैकल्पिक नाम कहें। इंसान के अलावा हम जगह, इमारत, टीम, निर्जीव वस्तु आदि के लिए भी पुकार का नाम, डाक नाम रख देते हैं और बहुत बार वह नाम औपचारिक ‘भालो नाम’ से अधिक लोकप्रिय हो जाता है।

मुझे याद है कि बहुत छुटपन में पापा कभी कभी मुझे 'भुटुक' कहते थे या 'भुटकुंइयाँ'। शायद छोटी होने के कारण। जहाँ तक ध्यान है 'भुटकुंइयाँ' एक जंगली फूल हुआ करता था। छोटा, कई दलों वाला, कई रंगों वाला और गंधहीन। उसके पत्ते रुखड़े-से होते थे, काँटेदार नहीं। पटना में रानीघाट मोहल्ले में हमारा घर हुआ करता था। रानीघाट में गंगा किनारे या लॉ कॉलेज और पी. जी. के हॉस्टल के पीछे जाकर गंगा के पास जो चारदीवारी थी उसके पास भुटकुंइयाँ का पौधा दिखा करता था। बाद में भी बहुत जगह दिखा। 

अभी अभी अंजु ने भुला दिए गए भुटकुंइयाँ के फल का ब्योरा दिया – बंबई से। उसका फल भी होता है – गोलमिर्च (कालीमिर्च) की तरह गोल गोल, छोटा छोटा। बस उसमें गोलमिर्च की तरह दरार नहीं होती, बल्कि अंजु के शब्दों में वह मकोय (रसबेरी) की तरह चिकना होता है। शुरू में  भुटकुंइयाँ के फल हरे होते थे और बाद में पककर बैंगनी हो जाते थे। अंजु 5-6 साल की उम्र से उसकी स्पेशलिस्ट थी और खाया करती थी। जब घर में उसकी किसी ने शिकायत की तब पिताजी ने उसके ज़हरीले होने की बात बताकर तंबीह की। आखिरकार अंजु लाल ने उसे खाना छोड़ा, इसलिए नहीं कि भुटकुंइयाँ के ज़हरीला होने के कारण वह डर गई थी, बल्कि उसके पापा को लाड़ली के लिए डर लगा था, इसका खयाल करके। डाक नाम की चर्चा उसे वापस रानीघाट की छूट गई गलियों में, अंकल की स्मृतियों में ले गई। उसके साथ मेरा भी गला रुँध गया।

वैसे मुझे बड़ी होने के बाद भुटुक, भुटकुंइयाँ नाम प्यारा ही लगने लगा था, मगर पहले तो लाज आती थी। वैसे पापा मुझे भुटुक पुकारते नहीं थे, बस कभी कभी नाम लेते थे। भैया को याद हो तो बता सकता है, वरना अब सब किस्सा बन गया है।  

माँ जब मस्ती में होती थी तब मुझे पुरवैय्या बोलती थीपुकारती भी थी कभी कभी।पुरवैय्या का मतलब पूर्व दिशा से चलनेवाली हवा। पुरवैय्या हवा कितनी कष्टदायक है और कैसे पुराने दर्द को हरा कर देती है, जाड़े में हाड़ तोड़ देती है - इस मान्यता पर मैं हँसती थी कि मैं भी वही हूँ। पुरवैय्या से दो हाथ दूर रहना ही शायद फ़ायदेमंद है :)। इस प्रसंग में अपने प्राइमरी स्कूल - रानीघाट के मोड़ पर स्थित बुनियादी अभ्यासशाला के साथियों का  "पूर्वा सुहानी आई रे" कहकर चिढ़ाना कौंध गया। 'पूरब और पश्चिम' (हालाँकि इसके पोस्टर पर अंग्रेज़ी में 'पूरब और पच्छिम' लिखा है) फ़िल्म 1970 में आई थी और एक-दो साल बाद भी मेरे प्राइमरी स्कूल के सालों में यह सुपरहिट गाना सबकी ज़बान पर था। यदा कदा लड़के ही नहीं, लड़कियाँ भी इसे मेरा नाम सुनते ही दुहरा देते थे। वहीं 1967 की फ़िल्म 'मिलन' के मशहूर गाने का यह अंतरा सुनते हुए मैं इठलाती थी - 

रामा गजब ढाए, ये पुरवइया

नइया सम्भालो, कित खोए हो खिवइया

पुरवइया के आगे, चले ना कोई ज़ोर
जियरा रे झूमे ऐसे ...

सावन का महीना पवन करे सोर

उच्चारण भेद से पुरवैय्या लिखिए या पुरवइया, फ़र्क नहीं पड़ता। अन्यथा माँ पूरब ही कहती थी। बाद में करीबी दोस्त भी यही कहने लगे। पटना में लगभग सब यही पुकारते हैं। उनमें से किसी के मुँह से पूर्वा सुनना अटपटा और अजनबी लगता है। बहुत बाद में दिल्ली में भी कुछ दोस्त पूरब कहने लगे और उसमें मुझे संकोच महसूस हुआ। अजीब सा अहसास है यह ! डाक नाम से पुकारने का अधिकार भी हम अपने हाथ में रखना चाहते हैं। 

माँ मुझसे कभी कभार चिढ़े तो उसका 'लड़की' कहना याद है। आम तौर पर वो मुझसे दुखी भले हो जाए, तंग हो जाए, मगर नाराज़ कम होती थी। यह कब हुआ ? किशोरावस्था में मैं माँ के गुस्से और अनुशासनपसंदगी से त्रस्त रहती थी। मेरी कुछ पुरानी चिट्ठियों में यह भाव मिल जाएगा। बचपन में माँ से डरना तो भूलता नहीं है क्योंकि माँ ही थी जो सब पर शासन करती थी। वह भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी और  इसके नाते मौसी-मामू भी अपनी 'बड़की दी' के शासन करने के गवाह रहे। मेरी शादी के बाद हमारा रिश्ता एकदम बदल गया, ऐसा मुझे लगता है। मुझे समझ आ गया था कि माँ और मायका क्या होता है। उस भौतिक अलगाव ने मुझे माँ के करीब ला दिया था। आगे चलकर लड़की की ज़िंदगी पर निगाह जाने लगी, पढ़ाई-लिखाई और दीन-दुनिया के अनुभव ने gendered life की परतों से परिचित कराया। जब बाकायदा जेंडर पर काम करने लगी तब अनुभव को जेंडर लेंस से देखने की सलाहियत आने लगी। 

हमदोनों खूब बात करने लगे थे। उपन्यास की नायिकाओं से लेकर आस-पड़ोस के लोगों के बारे में माँ से गप्प होता था। बाद में टीवी के धारावाहिकों के पात्रों पर भी। उसमें जब उसकी याददाश्त धोखा देने लगी थी और वो धारावाहिकों में काम करनेवाले पुराने ज़माने के अभिनेता-अभिनेत्रियों के नाम भूलने लगी थी तब फ़ोन करके उनको पहचानने में मदद करने को कहती थी। मैं जानती होती थी तब तो फ़ौरन बता देती थी, अन्यथा गूगल करके बताती थी। ऐसे सवाल  वह कई लोगों से करती थी और धीरे-धीरे लोग झल्लाने लगे थे। मैंने उसको कह दिया था कि तुमको जो पूछना हो मुझसे पूछ लो - रात-बिरात कभी भी। 

लेकिन कभी कभी ऐसा होता था कि मैं किसी काम में डूबी हूँ और माँ किसी फ़िल्म में, किसी गाने में या किसी धारावाहिक में पात्रों के नाम पर अटकी है और तब मैं चिल्ला पड़ी उस पर कि माँ, नाम बाद में बताऊँगी। इतना ही नहीं, जब मेरा टीवी देखना छूट गया और फ़िल्म देखना भी कम होता गया तब मैं अभिनेता-अभिनेत्रियों को नहीं पहचान पाती थी। माँ की सुई पुराने ज़माने पर नहीं अटकी हुई थी। उसको नए से नए अभिनेता-अभिनेत्रियों के बारे में भी  जानना होता था। 'जोधा अकबर' में जोधा कौन है, और अकबर जो रजत टोकस है वह किस राज्य का होगा ? ऐसे सवालों के जवाब में बेटू के स्कूल जाने के रास्ते में दिखनेवाले दक्षिणी दिल्ली के टोकस मार्ग के हवाले से मेरा माँ को टोकस उपनाम के बारे में बताना - यह सब क्या था ? कभी कभी एक नगण्य से लगनेवाले पात्र को पहचानने के क्रम में माँ धारावाहिक या फ़िल्म की कहानी सुना जाती थी ताकि मैं उसका नाम पता कर सकूँ। 

माँ खूब पढ़ती थी और उसके बिस्तर पर या सामने के स्टूल पर (मेरे चिल्लाने पर) किताबों का थाक रहने लगा था। पापा जब तक थे बिस्तर पर दवाएँ (अधिकतर होमियोपैथी दवाएँ और थायरायड, ब्लड प्रेशर सहित विटामिन की गोलियाँ भी) रहती थीं, सिंदूर का डिब्बा (बाल में लगानेवाले रंगबिरंगे बैंड, साड़ी पिन, कंघी सहित), पापा को देने के लिए बिस्कुट और छोटी-बड़ी एक-दो डिक्शनरी भी। 

अंजु बरसों बाद जब दो-तीन साल पहले माँ से मिलने गई थी तो स्टूल पर रखी किताबों और माँ के हाथ में ‘रेत समाधि’ ने उसे अपनी किशोरावस्था की याद दिला दी थी। जब हम हाई स्कूल में थे और पड़ोस में रहते थे तो हमारा एक-दूसरे के घर खूब आना-जाना होता था। उस वक्त माँ की जो छवि उसके मन पर अंकित हुई थी, वह बरकरार रही। दशकों बाद उम्र और असमर्थता की चोट ने माँ का किताबों के प्रति चाव खत्म नहीं किया था, बल्कि ज्यों का त्यों बनाए रखा था। उसने अभी बताया कि लिखना-पढ़ना आंटी (माँ) का व्यक्तित्व था या यह कहना बेहतर होगा कि वह उनके जीने का संबल था। वह उनका विश्वास था, जैसे किसी का भगवान पर होता है, वैसे ही उनका पढ़ने-लिखने पर विश्वास था। वही उनकी सच्चाई थी, चट्टान की तरह ठोस और अडिग।

माँ के बिस्तर पर खाने-पीने के सामान देखकर या उसी कमरे में सबकुछ रखा देखकर मैं कितना नाराज़ होती थी, यह माँ-पापा को पता है या मुझे। गुड़िया, मीरा, गौरी और सोनू भी जानते थे जो माँ की तीमारदारी में रहते थे। चलने में असमर्थ होते जाने के कारण उपजी माँ की असुरक्षा की भावना से अनजान नहीं थी मैं, मगर उसको इतना लाचार देखना और कमरे को अस्त व्यस्त देखना माँ की गरिमा के अनुरूप नहीं था। जब माँ के कमरे से मैंने पापा का दीवान हटवाकर बगल के कमरे में रखवाने पर ज़ोर दिया था तब जानती हूँ कि वह कितना घुट रही थी। मैंने ब्रह्मास्त्र चलाया था कि तुम्हारे पास भैया, सुनीता, लावण्य आते हैं तो बैठने की जगह नहीं होती। उसका व्हील चेयर भी दीवान की वजह से आ-जा नहीं सकता था। माँ बेबस थी और मान गई। मैंने जानते-समझते ज़्यादती की, लेकिन मुझे लगा कि थोड़ी तो व्यवस्था बदले। माँ ने पापा के बाद अस्पताल जाने के सिवा कभी उस कमरे को नहीं छोड़ा। उसने ठान लिया था कि कहीं नहीं जाना है। उसको मन बदलने के लिए दिल्ली चलने को कहना भी मैंने छोड़ दिया था। अंतिम दिनों में माँ के साथ मैंने भी हार मान ली थी। 

आज माँ को गए पाँच महीने हो गए हैं और मन अटका है उसकी पुकार पर।