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बुधवार, 19 दिसंबर 2012

उस आँगन का चाँद (Us aangan ka chand by Ibne Insha


अंबर ने धरती पर फेंकी नूर की छींट उदास-उदास
आज की शब तो अंधी शब थी, आज किधर से निकला चाँद?
इंशा जी यह और नगर है, इस बस्ती की रीत यही
सबकी अपनी-अपनी आँखें, सबका अपना-अपना चाँद !
अपने सीने के मतला पर जो चमका वह चाँद हुआ
जिसने मन के अँधियारे में आन किया उजियारा,चाँद
चंचल मुस्काती-मुस्काती गोरी का मुखड़ा महताब
पतझड़ के पेड़ों में अटका पीला-सा इक पत्ता चाँद
दुख का दरिया, सुख का सागर इसके दम से देख लिए
हमको अपने साथ ही लेकर डूबा चाँद और उभरा चाँद 



शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

क़ुत्ब मुश्तरी (Kutb Mushtari by Mulla Vajahi)


जिसे बात के रब्त का फ़ाम नईं 
उसे शेर कहने सूँ कुछ काम नईं 
नको कर तू लई बोलने का हवस  
अगर ख़ूब बोले तो यक बैत बस  
हुनर है तो कुछ नाज़ुकी बरत याँ 
कि मोटाँ नईं बाँदते रंग कियाँ 

वो कुछ शेर के फ़न में मुश्किल अछे 
कि लफ़्ज़ होर माने यू सब मिल अछे 
उसी लफ़्ज़ को शेर में लियाएँ तूँ 
कि लिआया है उस्ताद जिस लफ़्ज़ कूँ 
अगर फ़ाम है शेर का तुज कूँ छन्द 
चुने लफ़्ज़ लिया होर मानी बुलन्द 
रखिया एक मानी अगर ज़ोर है 
वले भी मज़ा बात का होर है 
अगर ख़ूब महबूब जूँ सोर है 
सँवारे तो नूर अली नूर है 
अगर लाक ऐबाँ अछे नार में 
हुनर हो दिसे ख़ूब सिंगार में 


शायर - मुल्ला वजही 
किताब - उर्दू का आरम्भिक युग 

लेखक - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007 


अपनी 'उर्दू का आरम्भिक युग' किताब के 'सैद्धांतिक आलोचना और काव्यशास्त्र के उदय' शीर्षक अध्याय में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी  बताते हैं कि मुल्ला वजही ने अपनी मसनवी 'क़ुत्ब मुश्तरी' (1609-10) में भाषा की शुद्धता और मापदंड के बारे में खुलकर लिखा है। "वजही की दृष्टि में शेर में शब्दों का बुनियादी महत्त्व है" और "उस्ताद जो शब्द प्रयोग करे वह सही, और जिसे वह ग़लत कहे वो ग़लत। इस प्रकार वजही सामान्य प्रचलन से अधिक उस्ताद की बात को महत्त्व देते हैं। दूसरी बात यह कि वजही के यहाँ शैली और शब्दों के गुण को भी महत्त्वपूर्ण कहा गया है। यहाँ तक कि विषय मामूली भी हो, तो उसे सुन्दर शैली के द्वारा आकर्षक बनाया जा सकता है ...अंतिम महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वजही ने संस्कृत-साहित्य के अनुरूप सिद्धांत पेश किया है कि शब्द और अर्थ में पूरी समानता और सामंजस्य होना चाहिए।" 

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

माशूक़ (Mashooq by Wali Dakani)


तेरा मुख मशरिक़ी हुस्न अनवरी जलवा जमाली है 
नैन जामी जबीं फ़िरदौसी व आबरू हिलाली है 
तू ही है खुसरुओ रौशन ज़मीरो-साएबो-शौकत 
तेरे अबरू ये मुझ बेदिल कूँ तुग़राए विसाली है 
वली तुझ क़द-ओ-अबरू का हुआ है शौक़ी-ओ-माएल 
तू हर इक बैत आली होर, हर इक मिसरा ख़याली है 


शायर - वली दकनी
किताब - उर्दू का आरम्भिक युग 
लेखक - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007

बकौल शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी इस "ग़ज़ल में उन्होंने 'माशूक़' की विशेषताएँ गिनाने में अपने पूर्ववर्ती कवियों के नाम अलंकृत रूप में खपाए हैं।" इस ग़ज़ल में आए कवि हैं - मशरिक़ी (मशहदी), अनवरी (अबीवर्दी), (शेख़) जमाली (कंबोह देहलवी), (अब्दुर्रहमान) जामी, फ़िरदौसी (तूसी), (शाह मुबारक) आबरू, हिलाली (चुग़ताई), (अमीर) खुसरो, (मीर हादी) रौशन, (मेरे रौशन) ज़मीर, साएब (तबरेज़ी), शौकत (बुखारी), (मिर्ज़ा) बेदिल, (मुल्ला) तुग़राविसाली (संभवतः देहलवी), (हसन) शौक़ी, (नवाब क़ुतुबुद्दीन) माइल (देहलवी), (नेमत खान) आली, ख़याली (काशी)


सोमवार, 3 दिसंबर 2012

मिरातुल-उरूस (Miratul-Uroos by Nazir Ahmad)



हम्द-ओ-नात के बाद वाज़ह हो कि हर चंद इस मुल्क में मस्तूरात के पढ़ाने-लिखाने का रिवाज नहीं, मगर फिर भी बड़े शहरों में ख़ास-ख़ास शरीफ़ खानदानों की बाज़ औरतें क़ुरान मजीद का तर्जुमा, मज़हबी मसायल और नसायाह के उर्दू रिसाले पढ़-पढ़ा लिया करती हैं. मैं ख़ुदा का शुक्र करता हूँ कि मैं भी देहली के एक ऐसे ही ख़ानदान का आदमी हूँ. ख़ानदान के दस्तूर के मुताबिक़ मेरी लड़कियों ने भी ‘क़ुरान शरीफ़’, उसके मानी और उर्दू के छोटे-छोटे रिसाले घर की बड़ी-बूढ़ियों से पढ़े. घर में रात-दिन पढ़ने-लिखने का चरचा तो रहता ही था. मैं देखता था कि हम मर्दों की देखा-देखी लड़कियों को भी इल्म की तरफ़ एक तरह की ख़ास रग़बत है. लेकिन इसके साथ ही मुझको यह भी मालूम होता था कि निरे मज़हबी ख़यालात बच्चों की हालत के मुनासिब नहीं. और जो मज़ामीन उनके पेशे-नज़र रहते हैं उनसे उनके दिल अफ़सुर्दा, उनकी तबीयतें मुन्कबिज़ और उनके ज़हन कुंद होते हैं. तब मुझको ऐसी किताब की जुस्तजू हुई जो इख़लाक़ ओ नसायह से भरी हुई हो और उन मामलात में जो औरतों की ज़िंदगी में पेश आते हैं और औरतें अपने तोहमात और जहालत और कजराई की वजह से हमेशा इनमें मुब्तिलाये-रंज ओ मुसीबत रहा करती हैं, उनके ख़यालात की इस्लाह और उनकी आदात की तहज़ीब करे और किसी दिलचस्प पैराये में हो जिससे उनका दिल न उकताए, तबीयत न घबराये. मगर तमाम किताबखाना छान मारा ऐसी किताब का पता न मिला, पर न मिला. तब मैंने इस क़िस्से का मंसूबा बाँधा.


लेखक - नज़ीर अहमद  
किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन 
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958

1869 में अपने छोटे-से नाविल 'मिरातुल-उरूस' की भूमिका (दीबाचा) में लिखी गई डिप्टी नज़ीर अहमद  की यह बात मार्के की है।  लड़कियों व स्त्रियों की शिक्षा में पुरुषों की पहलकदमी और उनके योगदान को बिना कम करके आँके हुए इस एक उद्धरण से स्त्री शिक्षा के लक्ष्य और उसमें घरेलू शिक्षा और धार्मिक शिक्षा की भूमिका को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है.

सोमवार, 26 नवंबर 2012

तज्दीद (Tajdeed by Kaifi Azmi)


तलातुम, वलवले, हैजान, अरमाँ
सब उसके साथ रुख़्सत हो चुके थे
यकीं था  अब न हँसना है न रोना
कुछ इतना हँस चुके थे, रो चुके थे

किसी ने आज इक अँगड़ाई लेकर
नज़र में  रेशमी  गिरहें  लगा दीं
तलातुम, वलवले, हैजान, अरमाँ
वही  चिंगारियाँ  फिर मुस्करा दीं 

तज्दीद = नवीनीकरण, नवीनता;    तलातुम = बाढ़, तूफ़ान, उद्वेग;

वलवले = उमंगें;    हैजान = बेचैनी, अशांति 
 
शायर - कैफ़ी आज़मी
किताब - कैफ़ियात (कुल्लियात-ए-कैफ़ी आज़मी, 1918-2002)
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2011

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

ग़ज़ल (Ghazal by Faiz Ahmad Faiz)



कब तक दिल की ख़ैर मनायें, कब तक  रह  दिखलाओगे 
कब तक चैन की मोहलत दोगे, कब तक  याद  न आओगे 

बीता दीद-उमीद का मौसम, ख़ाक  उड़ती  है आँखों  में 
कब   भेजोगे  दर्द   का  बादल, कब  बरखा  बरसाओगे 

अह्दे-वफ़ा  या  तर्के-मुहब्बत, जो  चाहो  सो  आप करो 
अपने बस की बात  ही  क्या  है, हमसे  क्या  मनवाओगे 

किसने वस्ल का सूरज देखा, किस पर हिज्र की रात ढली 
गेसुओंवाले  कौन  थे  क्या  थे,  उनको  क्या  जतलाओगे 

'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर  बसना भी,  लुट जाना भी 
तुम उस हुस्न के लुत्फ़ो-करम  पर कितने  दिन इतराओगे 

                                             - अक्टूबर,1968 

दीद-उमीद = देखने की आशा,  अह्दे-वफ़ा = वफ़ादारी का प्रण,  तर्के-मुहब्बत =  प्रेम- संबंध का विच्छेद,  गेसुओंवाले = जुल्फ़ोंवाले,  लुत्फ़ो-करम = कृपाओं 

शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - सारे सुख़न हमारे 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1987



मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

हाली के शेर (Couplets by Hali)



जहाँमें   हाली  किसीपै    अपने  सिवा  भरोसा   न  कीजियेगा l
यह भेद  है  अपनी ज़िन्दगीका  बस  इसकी चर्चा न कीजियेगा ll
हो  लाख  गैरोंका   ग़ैर  कोई  न  जानना  उसको  ग़ैर  हरगिज़ l
जो अपना साया भी हो तो उसको तसव्वुर अपना न कीजियेगा ll
लगाव  तुममें  न  लाग ज़ाहिद  न  दर्दे  उल्फ़तकी  आग  ज़ाहिद l
फिर और क्या कीजियेगा  आख़िर जो तर्के दुनिया न कीजियेगा ll


शायर - हाली 
किताब - सितारे (हिन्दुस्तानी पद्योंका सुन्दर चुनाव)

संकलनकर्ता - अमृतलाल नाणावटी, श्रीमननारायण अग्रवाल, घनश्याम 'सीमाब'  
प्रकाशक - हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, तीसरी बार, अप्रैल, 1952

रविवार, 12 अगस्त 2012

मिरातुल-उरूस (Miratul-Uroos by Nazir Ahmad)




लिखने को लोगों ने नाहक़ बदनाम कर रखा है कि मुश्किल है मुश्किल. कुछ भी मुश्किल नहीं है. लेकिन फ़र्ज़ करो कि पढ़ने की निस्बत लिखना कुछ मुश्किल है तो वैसी ही उसकी मुनफ़अतें भी हैं. जो शख़्स पढ़ना जानता है और लिखना नहीं जानता उसकी मिसाल उस गूँगे की सी है जो दुसरे की सुनता और अपनी नहीं कह सकता. अगर कोई शख़्स शुरू-शुरू में किसी किताब से ज़्यादा नहीं एक सतर दो सतर रोज़ नक़ल किया करे और इसी तरह अपने दिल से बनाकर लिखा करे और इस्लाह लिया करे और नक़ल करने और लिखने में झेंपे और झिझके नहीं तो ज़रूर चंद महीनों में लिखना सीख जायगा. खुशख़ती से मतलब नहीं. लिखना एक हुनर है जो ज़रूरत के वक्त बहुत काम आता है. अगर ग़लत हो या हर्फ़ बदसूरत और नादुरुस्त लिखे जायँ तो बेदिल होकर मश्क़ को मौकूफ़ मत करो. कोई काम हो इब्तदा में अच्छा नहीं हुआ करता. अगर किसी बड़े आलिम को एक टोपी कतरने और सीने को दो जिसको कभी ऐसा इत्तिफ़ाक़ न हुआ हो वो ज़रूर टोपी ख़राब करेगा. चलना-फिरना जो तुमको अब ऐसा आसान है कि बेतकल्लुफ़ दौड़ी-दौड़ी फिरती हो, तुमको शायद याद न रहा हो कि तुमने किस मुश्किल से सीखा. मगर तुम्हारे माँ-बाप और बुज़ुर्गों को बखूबी याद है कि पहले तुमको बेसहारे बैठना नहीं आता था. जब तुमको गोद से उतारकर नीचे बिठाते एक आदमी पकड़े रहता था. या तकिये का सहारा लगा देते थे. फिर तुमने गिर-पड़कर घुटनों चलना सीखा. फिर खड़ा होना लेकिन चारपाई पकड़कर. फिर जब तुम्हारे पाँव ज़्यादा मज़बूत हो गए रफ़्ता-रफ़्ता चलना आ गया मगर सदहा मर्तबा तुम्हारे चोट लगी और तुमको गिरते सुना. अब वही तुम हो कि खुदा के फ़ज़्ल से माशा-अल्लाह दौड़ी-दौड़ी फिरती हो. इसी तरह एक दिन लिखना भी आ जायगा. और फ़र्ज़ करो तुमको लड़कों की तरह अच्छा लिखना न भी आया तो बक़दरे ज़रूरत तो ज़रूर आ जायगा और यह मुश्किल तो नहीं रहेगी कि धोबन की धुलाई और पीसने वाली की पिसाई के वास्ते दीवार पर लकीरें खींचती फिरो. या कंकर-पत्थर जोड़कर रखो. घर का हिसाब ओ किताब लेना-देना ज़बानी याद रखना मुश्किल है. और बाज़ मर्दों की आदत होती है कि जो रुपया-पैसा घर में दिया करते हैं उसका हिसाब पूछा करते हैं. अगर ज़बानी याद नहीं है तो मर्द को शुबहा होता है कि यह रुपया कहाँ खर्च हुआ और आपस में नाहक़ बदगुमानी पैदा होती है. अगर औरतें इतना लिखना भी सीख लिया करें कि अपने समझने के वास्ते काफ़ी हो तो कैसी अच्छी बात है.


   लेखक - नज़ीर अहमद  
   किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
   हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन 
   प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958


'उर्दू भाषा की घरेलू जीवन की शिक्षा देने वाली अमर रचना' के रूप में   मशहूर डिप्टी नज़ीर अहमद का यह छोटा-सा नाविल मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण) वाकई महत्त्वपूर्ण है. इसे उन्होंने अपनी बेटी के पढ़ने के लिए लिखा था. आगे जाकर "यह किताब जिसके अरबी नाम को बदलकर लोगों ने 'अकबरी असग़री की कहानी' कर लिया था, न सिर्फ़ लड़कियों की बल्कि बड़ी उम्र के मर्दों और औरतों की भी सबसे महबूब किताबों में शुमार होती थी." इसमें क्या, अधिकांश जगह लड़कियों की तालीम के मकसद को लेकर बहस की जा सकती है, लेकिन इसके अंदाज़े बयान का जादू सब पर चलके रहता है. इस किताब का पहला बाब यानी अध्याय है - 'तमहीद के तौर पर औरतों के लिखने-पढ़ने की ज़रूरत और उनकी हालत के मुनासिब कुछ नसीहतें'. प्रस्तुत अंश उसी से है.      

शनिवार, 14 जुलाई 2012

क़ब्रिस्तान में औरतों की रूहें (Kabristan mein auraton ki roohein by Zahida Hina)


...ख़बर कुछ यूँ है कि कराची से पाँच सौ किलोमीटर के फ़ासले पर ताल्लुक़ा हेडक्वार्टर ढरकी से सत्तर किमी.दूर यूनियन कौंसिल बरुथा में चार कब्रिस्तानों का पता चला है, जिनमें लगभग दो सौ औरतें दफ़न हैं, इन कब्रिस्तानों में आम लोग और बस्ती वाले दाख़िल नहीं हो सकते. यहाँ सिर्फ़ वही लोग आते हैं, जो यहाँ किसी औरत को लाकर क़त्ल करते हैं और फिर यहीं दफ़न कर देते हैं. इन क़ब्रिस्तानों की कोई चारदीवारी नहीं है और इनमें हर तरफ़ झाड़ियाँ उगी हुई हैं. आसपास के आठ-दस गाँव ख़ाली हो चुके हैं, क्योंकि इन गाँव वालों का कहना है कि रात में उन्हें क़त्ल होने वाली औरतों की रूहें नज़र आती हैं और उनके रोने की आवाजें सुनाई देती हैं.
   21 वीं सदी में हमारे यहाँ की बेशुमार गरीब और पिछड़ी हुई औरतों का यह मुक़द्दर है. उनके अंजाम पर उदास होते हुए मुझे भोपाल की रियासत याद आती है, जहाँ एक सदी से ज्यादा सिर्फ़ औरतों ने हुकूमत की. प्रिंसेस आबिदा सुल्तान याद आती हैं, जिनकी खुद-नविश्त (आत्मकथा)  उनकी मौत से कुछ दिन पहले 'मेमोरीज़ ऑफ़ अ रीबेल प्रिंसेस' के नाम से आई है. भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान ने अगर एक बाग़ी शहज़ादी की ज़िंदगी गुज़ारी तो इस बारे में हैरान नहीं होना चाहिए. फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेज़ी उन्हें बचपन से पढ़ाई गई. लकड़ी का काम और जस्त के बरतन बनाना सिखाया गया.वह कमाल की निशानेबाज़ और घुड़सवार थीं. घुड़सवारी उन्होंने उस उम्र में सीखी, जब उन्होंने चलना भी नहीं शुरू किया था. वह हॉकी और क्रिकेट खेलतीं, मौसिक़ी की शौक़ीन थीं. हारमोनियम बजातीं और हर एडवेंचर में आगे-आगे रहतीं. कार चलातीं, तो उसकी रफ़्तार से साथ बैठने वालों की चीख़ें निकल जातीं. मुहिमजूई (एडवेंचर) उनके मिज़ाज का हिस्सा थी. ऐसे में साबिक़ (पूर्व) बेगम भोपाल, सुल्तान जहाँ बेगम की निगरानी में कड़े परदे की पाबंदी करना उनके लिए एक सज़ा थी. बारह बरस की उम्र में जाकब वह वाली अहद (उत्तराधिकारी) नामज़द की गईं, तो शाही जुलूस में वह इस हुलिए में शामिल थीं कि उनका पूरा वजूद एक काले बुरके में लिपटा हुआ था और सियाह बुरके की टोपी पर ताज जगमगा रहा था. 
   यह सब कुछ आबिदा सुल्तान के लिए अज़ाब से कम न था. आख़िरकार उन्होंने रस्सियाँ तुड़ाईं, कमर से नीचे आने वाले बाल काटकर फेंके. पर्दा तर्क किया (छोड़ा) और भोपाल की सड़कों पर मोटरसाइकिल दौडाने लगीं. एक मर्तबा घर से फ़रार हुईं और भेस बदलकर हवाई जहाज़ उड़ाना सीखती रहीं. उधर भोपाल के नवाब उनकी तलाश में हिंदुस्तान भर की ख़ाक छानते रहे. शादी हुई, एक बेटा पैदा हुआ. शहज़ादी की शादी को नाकाम होना था, सो हो गई...
   प्रिंसेस आबिदा सुल्तान की खुद-नविश्त हिन्दुस्तानी अशराफिया (खानदानी लोग) की एक ऐसी औरत की कहानी है, जिसने बग़ावत के रास्ते पर क़दम रखा और अपने बाद आने वालियों के लिए नयी राहें खोलीं. यह खुद-नविश्त हमारे सामने भोपाल के महलात से मलीर (कराची) के मज़ाफात (ग्रामीण क्षेत्र) और मुल्क चीन से अमेरिका तक ज़िंदगी गुज़ारने वाली ऐसी लडकी का किस्सा है, जिसने उस अहद (ज़माने) की लड़कियों और औरतों की आँखों में ख़्वाबों के जाने कितने चिराग़ जलाए. लेकिन मुझे घोटकी (ढरकी ?) के क़ब्रिस्तान में दफ़न वे कारी औरतें याद आती हैं, जिनके लिए किसी आँख से आँसू नहीं गिरते और जिनकी क़ब्र पर कोई चिराग़ नहीं जलता . 
                                                                                           14 अगस्त, 2005

                               
                    लेखिका  - जाहिदा हिना
                    संकलन - पाकिस्तान डायरी
                    प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006