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रविवार, 6 जुलाई 2014

चांद (Chand by Parveen Shakir)

पूरा दुख और आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद

दिन में वहशत बदल गयी थी
रात हुई और निकला चांद

किस मक़तल से गुज़रा होगा
इतना सहमा सहमा चांद

यादों की आबाद गली में
घूम रहा है तन्हा चांद

मेरी करवट पर जाग उठे
नींद का कितना कच्चा चांद

मेरे मुंह को किस हैरत से
देख रहा है भोला चांद

इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चांद

आंसू रोके नूर नहाए
दिल दरिया, तन सहरा चांद

इतने रौशन चेहरे पर भी
सूरज का है साया चांद

जब पानी में चेहरा देखा
तूने किसको सोचा चांद

बरगद की एक शाख़ हटा कर 
जाने किसको झांका चांद

बादल के रेशम झूले में 
भोर समय तक सोया चांद

रात के शानों पर सर रक्खे 
देख रहा है सपना चांद

सूखे पत्तों के झुरमुट में 
शबनम थी या नन्हां चांद

हाथ हिला कर रुख़सत होगा 
उसकी सूरत हिज्र का चांद

सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चांद

रात को शायद एक बजे हैं 
सोता होगा मेरा चांद !


शायरा - परवीन शाकिर
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1994

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

फिर (Phir by Parveen Shakir)


सुकूं भी ख़्वाब हुआ नींद भी है कम कम फिर 
क़रीब आने लगा दूरियों का मौसम फिर

बना रही है तेरी याद मुझको सलके-गुहर 
पिरो गयी मेरी पलकों में आज शबनम फिर 

वो नर्म लहजे में कुछ कह रहा है फिर मुझसे 
छिड़ा है प्यार के कोमल सुरों में मद्धम फिर 

तुझे मनाऊं कि अपनी अना की बात सुनूं 
उलझ रहा है मेरे फ़ैसलों का रेशम फिर 
 
न उसकी बात मैं समझूं न वो मेरी नज़रें 
मुआमलाते-ज़ुबां हो चले हैं मुबहम फिर 

ये आने वाला नया दुख भी उसके सर ही गया 
चटख़ गया मेरी अंगुश्तरी का नीलम फिर 
 
वो एक लम्हा कि जब सारे रंग एक हुए 
किसी बहार ने देखा न ऐसा संगम फिर 

बहुत अज़ीज़ हैं आंखें मेरी उसे लेकिन 
वो जाते जाते उन्हें कर गया है पुरनम फिर 
 
सलके-गुहर = मोतियों की लड़ी       
अना = स्वत्व 
मुआमलाते-ज़ुबां = बातचीत के मामले 
मुबहम = अस्पष्ट      अंगुश्तरी = अंगूठी 

शायरा - परवीन शाकिर 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली,1994
 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

प्यार (Pyar by Parveen Shakir)


अब्रे-बहार ने 
फूल का चेहरा 
अपने बनफ़शी हाथ में लेकर 
ऐसे चूमा 
फूल के सारे दुख 
ख़ुशबू बन कर बह निकले हैं 



शायरा - परवीन शाकिर 
संकलन - थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे 
संपादक - डॉ. विनोदानन्द झा 
प्रकाशक - किलकारी, बिहार बाल भवन, पटना, 2012

बुधवार, 19 जून 2013

नेग (Neg by Parveen Shakir)


सुब्ह विसाल की फूटती है
चारों ओर
मदमाती भोर की नीली ठंडक फैल रही है
शगुन का पहला परिन्द
मुंडेर पर आकर
अभी अभी बैठा है
सब्ज़ किवाड़ों के पीछे इक सुर्ख़ कली मुस्काई
पाज़ेबों की गूंज फ़ज़ा में लहराई
कच्चे रंगों की साड़ी में
गीले बाल छुपाये गोरी
घर का सारा बाजरा
आंगन में ले आयी 


शायरा - परवीन शाकिर 

संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ

प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली,1994
 

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

एक मुश्किल सवाल (Ek mushkil sawal by Parveen Shakir)



टाट के पर्दे के पीछे से 
एक बारह-तेरह साला चेहरा झाँका 
वह चेहरा 
बहार के पहले फूल की तरह ताजा था 
और आँखें 
पहली मोहब्बत की तरह शफ्फाक 
लेकिन उसके हाथ में 
तरकारी काटते रहने की लकीरें थीं 
और उन लकीरों में 
बर्तन माँजने की राख जमी थी 
उसके हाथ 
उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे l 



शायरा - परवीन शाकिर 
संकलन - थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे 
संपादक - डॉ. विनोदानन्द झा 
प्रकाशक - किलकारी, बिहार बाल भवन, पटना, 2012