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शनिवार, 18 जून 2022

पृथिवी-सूक्त (Prithivi Sukta translated by Mukund Lath)

 अपने-अपने घरों में 

अपनी भाषा 

अपने आचार । 


कितने अलग लोगों को 

पालती है पृथिवी 

शान्त, निश्चल धेनु की तरह। 


मुझे सहस्रधाराओं में 

उज्ज्वल धन देना। 


जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् । 

सहश्रं धरा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती ।। 45 ।।   


संकलन : पृथिवी-सूक्त 

अनुवाद : मुकुन्द लाठ 

प्रकाशन: सेतु प्रकाशन, रज़ा फ़ाउण्डेशन  


अथर्ववेद मुझे पसंद है। इसलिए नहीं कि मेरा शोध प्रबंध उस पर है, बल्कि उसमें प्रवाहित जीवन-रस के लिए। जिन दिनों मैं एम. ए. में पढ़ रही थी वेद में रुचि जग गई थी। श्री उमाशंकर शर्मा 'ऋषि' के पढ़ाने के रुचिकर तरीके की वजह से उसमें बढ़ोत्तरी हुई। कुछ साल जब मैंने बतौर शोधार्थी वैदिक व्याकरण पढ़ाया तो वैदिक संस्कृत में मज़ा भी आने लगा। अब लगता है कि अभ्यास एकदम से छूट गया है, मगर प्रयास है कि कम से कम उठाकर आनंद तो ले लूँ। अब जबकि ब्लॉग की तरफ़ फिर मन चला गया है, आज मुकुन्द लाठ जी का अनुवाद पूरा पढ़ गई। धीरे-धीरे कुछ मनके यहाँ पेश करूँगी। कितना सुंदर और सादा अनुवाद है !

रविवार, 18 सितंबर 2016

घरवाली (Gharwali in Sanskrit)

पोतानेतानपि गृहवति ग्रीष्ममासावसानं
यावन्निर्वाहयतु भवती येन वा केनचिद् वा l 
पश्चादम्भोधरजलपरीपातमासाद्य तुम्बी 
कूष्माण्डी छ प्रभवति तदा भूभुजः के वयं के ? ll


गर्मी के ये दिन बीत जायें बस
बच्चों को सँभाले रहो
ओ घरवाली,
जैसे भी बन पाये, वैसे
फिर आयेगी बरसात गिरेगा पानी
जिसको पाकर फल जायेगी कुम्हड़े और लौकी की बेलें
तब हम क्या
और राजा महाराजा क्या ?


क्षुत्क्षामाः शिशवः शवा इव तनुर्मन्दादरो बान्धवो 
लिप्ता जर्जरकर्करी जतुलवैर्नो मां तथा बाधते l 
गेहिन्या स्फुटितांशुकं घटयितुं कृत्वा सकाकुस्मितं 
कुप्यन्ती प्रतिवेशिनी प्रतिदिनं सूची यथा याचिता ll  


भूख से दुबलाये बच्चे मुर्दों की तरह हो गये हैं
कुछ ही बचे हैं रिश्तेदार
वे भी करते हैं तिरस्कार
जर्जर गगरी लाख से जिसे साधा गया है कितनी ही बार
ये सब नहीं सालते मन को उतना, जितना
घरवाली का फटा वस्त्र सीने को
सूई-धागा लेने पड़ोस में जाना
पड़ोसिन का मुँह बिचकाना, कुढ़ना, मुस्काना


कवि - अज्ञात 
मूलतः विद्याकर के सुभाषितरत्नकोश से संकलित (संपादन दामोदर धर्मानंद कौसांबी) 
पुस्तक - संस्कृत कविता में लोकजीवन 
चयन और अनुवाद - डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी 
प्रकाशन - यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 2010

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

मेरा घर (Mera ghar by unknown Sanskrit poet)



हस्तप्राप्यतृणोज्झिता: प्रतिपयोवृत्तिस्खलद्भित्तयो 
दूरालम्बितदारुदन्तुरमुखाः पर्यन्तवल्लीवृता: l    
वस्त्राभावविलीनसत्रपवधूदत्तार्गला निर्गिर-
स्त्यज्यन्ते चिर्शून्यविभ्रमभृतो भिक्षाचरैर्मद्गृहा: ll    

यह मेरा घर है
हाथ में आया तिनका भी
टिक नहीं पाता इसमें रहकर
हर बरसात में इसमें दीवारें ढहती जाती हैं
बहुत नीचे तक झुक आई बल्लियों से
दाँत निपोरता है मेरा घर l  
चारों ओर से इसे जकड़ रखा है बेलों ने l

भीतर ही भीतर डोलती है, दुबकी सी रहती है -
इस घर की बहू
तन पर कपड़ों की कमी के कारण
वह झट से चढ़ा देती है साँकल
जब भी मैं जाता हूँ इस घर से बाहर,
या आता हूँ बाहर से घर में l
बोलता नहीं है यह घर
गूँगा सा घर है मेरा l   
बहुत समय से बंद हैं इसकी किलकारियाँ
बहुत समय से पसरा है इसमें सूनापन 
बहुत दूर से इसे देख कर
आगे बढ़ जाते हैं भिखमंगे l    


कवि - अज्ञात

संग्रह - संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा  
चयन और संस्कृत से हिन्दी अनुवाद - डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी
प्रकाशक - रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा, मध्य प्रदेश, 2000

डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी के शब्दों में संस्कृत की लोकधर्मी काव्य परम्परा "राजसभा की सँकरी दुनिया के बाहर भारतीय जनता के विराट् संसार से उपजी थी. इसे वे अनाम और अनजाने कवि विकसित करते रहे, जिन्हें दरबारों में आश्रय नहीं मिला, प्रसिद्धि और सुरक्षा नहीं मिली. राजकीय लेखकों (लिपिकारों) द्वारा उनकी रचनाओं की पाण्डुलिपियाँ तैयार करवा कर ग्रन्थभण्डारों में नहीं रखी गयी. भौतिक सुरक्षा के अभाव में उनकी रचनाओं का बड़ा हिस्सा निश्चय ही कालकवलित हो गया, पर यह पूरी परम्परा अत्यंत प्राणवान और कालजयी थी, अपने सामर्थ्य से वह जीती रही. कालिदास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के समानान्तर रची जाती रही भारतीय जनसामान्य की कविता का कुछ थोड़ा सा अंश सुभाषित संग्रहों में संकलित मुक्तकों के माध्यम से बच पाया है. पर जितना बचा है, वह अभिजात-कविता से अलग अपनी प्रखरता और पहचान स्थापित करता है." प्रस्तुत पद्य लोकधर्मी परम्परा के प्रतिनिधि ग्रन्थ माने जानेवाले श्रीधर के 'सदुक्तिकर्णामृत' (1205 ई.) नामक सुभाषित संग्रह में संकलित है जिसके रचयिता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है.

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

कृमिभैषज्यकर्म सूक्त (A hymn for the destruction of parasitic worms from Atharvaveda)



अस्येन्द्र कुमारस्य क्रिमीन् धनपते जहि l
हता विश्वा अरातय उग्रेण वचसा मम ll2ll
यो अक्ष्यौ परिसर्पति यो नासे परिसर्पति l
दतां यो मध्यं गच्छति तं क्रिमिं जम्भयामसि ll3ll   
सरूपौ द्वौ विरूपौ द्वौ कृष्णौ द्वौ रोहितौ द्वौ l
बभ्रुश्च बभ्रुकर्णश्च गृध्रः कोकश्च ते हताः ll4ll     
ये क्रिमयः शितिकक्षा ये कृष्णाः शितिबाहवः l      
ये के च विश्वरूपास्तान् क्रिमीन् जम्भयामसि ll5ll
हतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिर्हतः l   
हतो हतमाता क्रिमिर्हतभ्राता हतस्वसा ll11ll 
हतासो अस्य वेशसो हतासः परिवेशसः l  
अथो ये क्षुल्लका इव सर्वे ते क्रिमयो हताः ll12ll 
सर्वेषां च क्रिमीणां सर्वासां च क्रिमीणाम् l
भिनद्म्यश्मना शिरो दहाम्यग्निना मुखम्  ll13ll


शिशुओं में विद्यमान कृमियों को दूर करने के मंत्र -


इस कुमार के कृमियों को तू धनपति इन्द्र, कर विनष्ट तुरत
मेरे उग्र  'वचस्' से ये सारे हैं हो गए निहत l
जो आँखों में रेंग रहा है, जो कि नाक में रेंगे दुष्ट
घूम रहा है जो दांतों में, उस कृमि को करते हम नष्ट l 
दो सरूप हैं, दो विरूप हैं, दो काले, दो हैं लोहित
भूरा, भूरे कानों वाला, गृध्र, कोक - सब हुए निहत l
जो कृमि श्वेत कांख वाले, जो काले, श्वेत बांह वाले 
विश्वरूप जो, उन सबको हम क्षण में यहाँ मार डालें l
हत कृमियों का राजा, इनका हत होकर सरदार गिरा  
हत भ्राता, हत है स्वसा, स्वयं हत कृमि गिरा पड़ा l 
इस कृमि के पास दूर के साथी, सभी हो गए हैं हत 
है जिनका आकार सूक्ष्म, वे सब कृमि हत हो गए तुरत l
सब नर मादा कृमियों का सर मैं हूँ फोड़ रहा पत्थर से 
और अग्नि से जला रहा मुख, (दूर रहें ये मेरे घर से) l


     अथर्ववेद (शौनकीय), पञ्चम काण्ड, पञ्चम अनुवाक, द्वितीय सूक्त
     मंत्र संख्या- 2,3,4,5,11,12,13
     मूल - सायण भाष्य सहित और विश्वबन्धु द्वारा संपादित 
     प्रकाशक - विश्वेरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1960
     पुस्तक - प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास
     हिंदी अनुवाद - विशिष्ट अनुवाद समिति 
     लेखक - एम. विंटरनिट्ज  
     प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1961 

गुरुवार, 21 जून 2012

दुर्दिन (Durdin by unknown Sanskrit poet)

देवे कुर्वति दुर्दिनव्यतिकरं नास्त्येव तन्मन्दिरं 
यत्राहारगवेषणाय बहुशो नासीद् गता वायसी ।
किन्तु प्राप न किञ्चन क्वचिदपि प्रस्वापहेतोस्तथा 
प्युद्भिन्नार्भकचञ्चुषु भ्रमयति स्वं रिक्त-चञ्चुपुटम् ।।

अर्थात्
कैसा दुर्दिन दिखाया देव ने 
पानी बरसता ही रहा लगातार 
कोई घर नहीं था जहाँ न गई हो कौवी 
दाना खोजने के लिये.
पर कहीं से कुछ न पा सकी.
चोंचें खोले हुए चूजों को सुलाने के लिये अब वह 
घुमा रही है अपनी खाली चोंच
उनकी चोंचों में.

                      कवि - अज्ञात 
                      अनुवाद - डा राधावल्लभ त्रिपाठी
                      संग्रह - संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा  
                      प्रकाशक - रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा, मध्य प्रदेश, 2000