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शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

उक्ति (Ukti by Siddhinath Mishra)

छक-छककर पी 

फिर भी, 

भरा न जी;

वह तृषा - 

          वही तो तृषा। 

रंग, तान, रस, गंध, स्पर्श से 

जुड़ा गए मन-प्राण;

वह तृप्ति - 

           वही तो तृप्ति। 

हटें न आँखें,

जनम-अवधि-भर 

चाहे जितनी बार निहारूँ;

वह रूप - 

           वही तो रूप। 

सुख-दुख में 

समरूप भाव-

मृत्यु-भय से ं डरे;

वह जीवन -

             वही तो जीवन। 

बार-बार की पढ़ी हुई 

तो भी 

फिर-फिर पढ़ने को मन खींचे;

वह कविता - 

             वही तो कविता। 



कवि - सिद्धिनाथ मिश्र
संग्रह - द्वाभा
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2010



शनिवार, 12 जनवरी 2013

मकई का भूंजा (Makai ka bhoonja by Siddhinath Mishra)


स्वाद में घुलती हुई
सोंधी गरम गंध है
जीभ पर -

नवान्न की गंध,
पकती जमीन की गंध,
पके दानों की गंध,

तपे बालू की गंध,
और बालू पर से कभी की बह चुकी
किसी भरी-पूरी नदी की गंध।

तमाम गंध स्मृतियां
घुल-मिलकर
रच रही हैं जो स्वाद
जीभ पर -
नहीं आ पा रहा
उसका नाम।

उस नाम के लिए
मगज क्या मारना,
आप भी आइए
और चाव से चबाइए।

कवि - सिद्धिनाथ मिश्र 
संग्रह - द्वाभा 
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2010


मंगलवार, 3 जुलाई 2012

कच्छप-जन (Kachchhap-jan by Siddhinath Mishra)


बहुत सुखी, संतुष्ट, सफल सार्थक जीवन 
जीते हैं कच्छप-जन ये.
जब जो मरजी
कर ली जी की-
टहल लगाई जल में, थल में 
चल-बुल धाए,
चर-चुग आए,
क्या सुविधा है अहा !
जहां भी गए, लाद ले गए पीठ पर
घर
नितांत एकांत सुरक्षित.
चलते-चलते जब मन चाहा
घेंट निकाली
दुनिया देखी रंग-बिरंगी,
मुस्काए लख साथी-संगी,
चख ली प्यारी नरम हवाएं,
स्वादांतर के लिए 
कभी तो गरम हवाएं.
कोई खटका हुआ कि बस झटपट 
सिकोड़ ली गर्दन.

है महान् इतिहास,
इन्हीं के किसी पुरखे ने था
द्रुतधावी खरगोश हराया. 






                            कवि - सिद्धिनाथ मिश्र 
                            संग्रह - द्वाभा 
                            प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2012