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बुधवार, 20 नवंबर 2019

अली, काम का पक्का और बात का भी पक्का (Ali Electrician by Purwa Bharadwaj)



आज की शाम बड़ी बुरी थी. खबर मिली कि अली, हमारा इलेक्ट्रिशियन, मेरा मददगार नहीं रहा. उम्र मात्र 33 साल. खुशमिजाज़, काम का पक्का और बात का भी पक्का.

2009 में मैं जब दक्षिणी दिल्ली के शाहपुर जाट मोहल्ले से दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर के आवास में आई थी रहने तो खासी दिक्कत हुई थी. कोई कायदे का काम करने को नहीं मिलता था. न घरेलू काम के लिए न किसी और काम के लिए. मैं लगातार दक्षिणी दिल्ली और उत्तरी दिल्ली की तुलना करती रहती थी. (उसके पहले पटना और दिल्ली की तुलना किया करती थी) खीझती रहती थी कि उत्तरी दिल्लीवाले बेकार हैं. ऐसे में दो लोग ऐसे मिले जो भरोसे के निकले. काम में भी अच्छे थे और बात-व्यवहार में भी. एक था अली और दूसरा बॉबी जो कपड़े इस्त्री करने के साथ न केवल मेरे घर की, बल्कि पूरी कॉलोनी की चौकसी करता है.

अली था. अब है नहीं. केदारनाथ सिंह जैसी भाषा तो नहीं है मेरे पास, मगर कहना चाहती हूँ कि "जाना हिन्दी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है" तो "है" से "था" में बदलने की प्रक्रिया और भी मारक है. लगभग 10 साल से अली को देखती आ रही हूँ. चुस्त, हर तरह का काम जाननेवाला, जुगाड़ लगानेवाला. फोन करो तो फट से आ जाए. भले ही काम 50 रुपए का ही क्यों न हो. मोटरसाइकिल चलाता था. खुश रहता था. बिजली के काम के अलावा काँटी ठोंकने से लेकर वाशबेसिन का पाइप बदलने, नल की टोंटी ठीक करने, रसोई की नाली में जाली लगाने तक का सारा छोटा-बड़ा काम करता था.

मेरे घर में तो लगभग हर हफ्ते, नहीं तो कम से कम हर दस दिन पर अली की गुहार लगती थी. मैं हमेशा कहती थी कि "अली अली" जपती हूँ. उसके बिना मानो घर अटक जाता था. जब भी आता दुकेले. अकेले कभी नहीं. गफ्फार के साथ. वह उसका रिश्ते में ममेरा या फुफेरा भाई था. शोले फिल्म के जय और बीरू की तरह उनकी जोड़ी थी. सुबह-सबेरे, रात-बिरात दोनों साथ प्रकट होते. गफ्फार अली का असिस्टेंट जैसा था. थोड़ा खामोश सा. अली काम करता होता तो गफ्फार दौड़कर ज़रूरी सामान ले आता था पास के बाज़ार से. कई बार दो-दो चक्कर लगा आता बाज़ार का. दोनों इकट्ठे विजय नगर की एक छोटी सी बिजली की दूकान में काम करते थे. कभी कदाल वहीं खड़े हुए पान-गुटखा चुभलाते हुए दिख भी जाते थे. नज़र पड़े तो ज़रूर टोकता था. वो न टोके तो मैं टोक कर हालचाल पूछ लेती थी या कोई काम फरमा देती थी.

अली बहुत चाव से काम करता था. बहुत ट्रेनिंग या पढ़ाई नहीं थी उसकी. मगर काम जानता था. अभ्यास से. तसल्ली से कभी उसकी पृष्ठभूमि के बारे में पूछा नहीं मैंने. काम करवाते समय घर-वर के बारे में ज़रूर गपशप होती थी, मगर वह दर्ज नहीं है मेरे दिमाग में. अब लग रहा है कि शायद यह उपयोगितावादी रिश्ता भर ही था तभी तो अली के बारे में ठीक ठीक मुझे कुछ नहीं मालूम. आज मन मसोस रहा है. राज पटेल और जेसन मूर (Jason W. Moore) की किताब  History of the World in Seven Cheap Things: A Guide to Capitalism, Nature, and the Future of the Planet में जो पूँजीवादी जाल और सस्ती चीज़ों में शामिल सस्ते श्रम की बात है, वह याद आ रहा है. अली अक्सर मेरे घर बुलाया जाता था क्योंकि वह बहुत महँगा नहीं था. हिसाब को लेकर कभी उससे चख-चख नहीं हुई.

अभी हाल में ही फोन करने पर भी जब लगातार अली हाथ नहीं आया तो मैंने Urban Clap से इलेक्ट्रिशियन बुलाया. पहली बार में अच्छा अनुभव हुआ, मगर अगली बार जो बंदा आया उसने मेरी किसी समस्या का समाधान नहीं किया और साढ़े चार सौ रुपए लेकर चलता बना. दुबारा मैंने अली को पकड़ने की कोशिश की. इस बार वह पकड़ में आ गया. अगले दो घंटे में मेरे दो पंखों और दो ट्यूबलाईट का इलाज उसने किया. एक पंखा बॉल बियरिंग बदलने के लिए ले गया. जाते-जाते रसोई में कप रखने का स्टैंड टांग गया जो एक तरफ से झूलने लगा था. एक नई पेंटिंग आई थी उसके लिए उपयुक्त जगह उसने सुझाई और फिर कहा कि घर के सारे लोगों को वो पसंद आए तब दुबारा आकर वह पेंटिंग लगा जाएगा. मैं एकदम निश्चिन्त हो गई थी अली के आने से. चुकता की गई रकम के लिहाज़ से भी Urban Clap से अली बेहतर था. लेकिन अली का सिर्फ सस्ता कारीगर होना उसको याद करने लायक नहीं बनाता. वह अच्छा इंसान था.

मैंने पहली बार दिवाली में बिजली के छोटे (सिरीज) बल्ब की झालर लगवाई थी. अली से. पहले दिया और मोमबत्ती ही दिवाली की खरीददारी में होते थे. फिर मसला आया आँगन के चारों ओर की चारदीवारी और छत की मुंडेर को सजाने का. अली ने कहा कि झालर लगवा लीजिए. मेरी पहुँच से बाहर था मामला. अपूर्व और मकरंद (भगिना) कर सकते थे, लेकिन उनके आलस्य और दिलचस्पी नहीं दिखाने के कारण अली का सुझाव मैंने मान लिया. तब तक बेटी छोटी थी तो उस पर भी दिवाली की सजावट का जिम्मा नहीं छोड़ सकती थी. आखिरकार आँगन के पेड़ से लेकर छत तक को अली और गफ्फार ने जगमगा दिया. अपनी दूकान से वह मेरी और बेटी की पसंद के झालर ले आया था. मैं खुश हो गई. उसमें दिया और मोमबत्ती के साथ बल्ब की झालर लगाने का समझौता घुल गया. शायद आँगन में बनी रँगोली ने मेरी उस कसक को संतुलित करने में भूमिका निभाई.
साल दर साल बीते. अली आता रहा. घर के सदस्य जैसा. कभी लगता बेटे जैसा है. उसके लिए कपडे, घर के सामान मैं निकालने लगी थी. हाँ, पुराने ही. इतनी उदारता मुझमें नहीं थी कि ख़ासकर नया उसके लिए कुछ लाती. वह भी माँग लेता. 2015 में जब मॉरिस नगर में ही हमने घर बदला तो आते समय पुरानी आलमारी, साइकिल वगैरह ले गया. नए घर में सारा बंदोबस्त उसी ने किया. वह मुझसे दुखी हुआ कि मैंने उससे नया एयरकंडीशनर फिट नहीं करवाया. जबकि वह हर गर्मी में पुराने एसी की सर्विसिंग कर देता था, लेकिन नए में मैंने उसकी जगह कंपनीवाले को बुला लिया. उसे लगा कि मैंने उसकी काबलियत पर संदेह किया. मुझे बाद में महसूस हुआ कि मैं नाहक ब्रांड और कंपनी के चक्कर में पड़ी. यह असंगठित क्षेत्र के श्रम और कौशल को नीचा दिखाना था. मगर मैंने अपना अफसोस ठीक से उसके सामने नहीं प्रकट किया.

उस साल भी दिवाली आई, मगर सड़क दुर्घटना में लाडो (अपूर्व की भतीजी) के चले जाने की वजह से रौशनी को लेकर उछाह नहीं था. अली को लगा कि मैं उससे काम नहीं करवाना चाहती हूँ. खैर उसने पंखे वगैरह की साफ़-सफाई की. बेटी की इच्छा के मुताबिक़ उसके कमरे में पीली लड़ी लगा दी. एलईडी बल्ब लगा दिया, पीली रौशनी वाले ट्यूब भी ले आया. अगले साल जब छत की कक्षा शुरू की तो उसी ने जुगाड़ लगाकर छत के कोने में बत्ती की व्यवस्था की. दिवाली में छत की झोंपड़ी को बल्ब की झालर से रंगीन कर दिया. हमें जो ज़रूरत होती उसे वह किसी न किसी तरह पूरा कर देता. मैं फोन करती कि ड्रिलिंग मशीन ले आओ तो पर्दे टाँगने से लेकर दीवार घड़ी में बैटरी डालने का काम कर देता. ऐसा था वह !

घर बदलने के दौरान की एक दुर्घटना ने अली के प्रति मेरे रवैये को थोड़ा बदल दिया था. हुआ यह था कि बेटी का आई-पॉड गायब हो गया था. असावधानी मेरी थी. मूवर्स और पैकर्स के दस मजदूर मेरे घर पर लगे थे. मैंने उनके ठेकेदार और सरदार से एक बार पूछा, लेकिन वे इतने अच्छे और भरोसे के लगे मुझे कि दुबारा पूछना बेइज्जती करना होता. मुझे हिम्मत नहीं हुई. उस दिन घर पर अली और गफ्फार कई घंटे काम कर रहे थे. मेरा संदेह नहीं हुआ, मगर बाद में कुछ और लोगों ने जिस तरह के संकेत दिए उससे मुझे अली पर शक होने लगा. मैं अपने को टोकती थी कि यह तो वही बात हुई कि गरीब पर इल्जाम लगाना आसान है. मैंने मुँहामुँही घर में और कुछेक लोगों को अपने मन के चोर के बारे में भी बताया.

उन्हीं दिनों मैंने महसूस किया था कि अली शराब पीने लगा है. कभी-कभी दिन में भी वह काम करने आता तो उसके मुँह से शराब की गंध आती. वह होता होश में और काम भी ठीक करता. बातचीत ज़रूर कम करने लगा था. काम करते ही रफूचक्कर हो जाता. बैठकर या फरमाईश पर चाय नहीं बनवाता था. मैंने उसे शराब की लत के बारे में कहा नहीं. मगर धीरे-धीरे उसके आने की अवधि कम होती गई. फोन करो तो टालने लगा. आज का कल और कल का परसों होने लगा. धीरे धीरे उसका फोन उठाना भी कम होता गया. थककर और चिढ़कर अपने नए घर में मैंने नया इलेक्ट्रिशियन खोजना शुरू किया. एक-दो आए-गए. कोई दो महीने आया कोई छः महीने. लेकिन हर बार अली का नाम ज़बान पर रहता, मन में भी. बीच-बीच में जब कोई नहीं मिलता तो अली आ भी जाता. गरज रहती मेरी. फिर एकाध बार गफ्फार अकेला आया. मालूम हुआ कि उनकी जोड़ी टूट गई. अब दोनों अलग अलग काम करने लगे थे. किसी ने किसी की शिकायत नहीं की. वे दोनों किस तकलीफ से गुज़रे होंगे, मुझे नहीं मालूम, परंतु मुझे भीतर से बहुत बुरा लगा. कोई भी रिश्ता बिगड़े, चोट दूर से देखनेवालों को भी होती है.

पिछले साल की बात है. लगभग छः महीने बाद मजबूरी में मैंने अली को फोन किया और वह फौरन नमूदार हो गया. लेकिन यह क्या ? मुझे उसे देखकर धक्का लगा. वह जवान लड़का 45 साल का और बूढ़ा-सा लग रहा था. अली मोटा कभी नहीं था, न ही दोहरे बदन का था. दरम्याने कद-काठी का था, फुर्तीला और एकदम तंदुरुस्त. मगर बीमार और लगभग आधा रह गया था वो. पूछने पर मालूम हुआ कि डायबटीज़ ने यह हालत की है. मुझे विश्वास न हुआ. मैंने सीधे पूछा कि शराब पीते हो और किडनी-लीवर का क्या हाल है. उसने सीधे मान लिया, लेकिन कहा कि अब नहीं पी रहा है. यह सरासर झूठ था. आज गफ्फार ने बताया कि उसका शराब पीना बदस्तूर जारी था. कम भले ही हुआ हो. मैंने एकबार उससे कहा कि दवा का पुर्जा दिखाओ, मेरे जेठ डॉक्टर हैं और मैं कुछ मदद कर सकती हूँ. उसने कहा कि अब सब रास्ते पर है. लीवर में भी सुधार है. कई बार कहने पर एकबार पुर्जा दिखाया, मगर मेरी समझ में नहीं आया. मैंने भी गंभीरता नहीं दिखाई. सोचा कि सब ठीक चल रहा है तो ठीक ही है. 

उस समय मैंने घर के काम के लिए किसी नए व्यक्ति को रखा था जिसके लिए एक कमरे की व्यवस्था भी थी. अली से चर्चा चली तो वह बोलने लगा कि मुझे कोई कमरा दिला दो और मेरी बीवी घर में काम कर लेगी. उस समय बीमारी, काम की कमी, बढ़ता किराया, आर्थिक स्थिति, बाज़ार की मंदी, बड़े परिवार की मुश्किल और बाहरी मुसलमान-विरोधी माहौल पर सब पर उसने बात की. काफी दिनों तक फोन करके काम और कमरे के बारे में मुझसे दरयाफ्त करता रहा. काश मैं कुछ कर पाती!

फिर वह बात छूट गई. अली ने मान लिया कि मैं उसकी मददगार नहीं बन सकती. कुछ महीने पहले एक दिन वह अपने 15 साल के बेटे को लेकर आया. जल्दी शादी हो गई थी उसकी जिस वजह से बड़ा बेटा नौवीं में पहुँच गया था. उसको काम सिखाने में लगा था. मेरी बेटी को अजीब लगा. बाल श्रम गैर कानूनी है, यह बात दिमाग में घूम रही थी. उसने कहा कि अली भैया के बेटे को कुछ अलग से बख्शीश ज़रूर देना. फिर दिवाली आई. अली को फोन करती रही मैं और वो टालता रहा. मैं नाराज़ भी हुई. खैर, दिवाली के एक दिन पहले अली अपने बेटे के साथ आया. उसको यहाँ पंखे साफ़ करने के काम में लगाकर खुद वह दूसरी जगह चला गया. काम पूरा करके बच्चा थककर कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गया. हमारे लाख कहने पर भी उसने कुछ नहीं खाया. कई घंटे बाद अली आया. कुछ बारीक काम मैं अली से करवाना चाहती थी तो वह काम उसका इंतज़ार कर रहा था. उसे कोफ्त हुई. मगर उसने फ़टाफ़ट काम पूरा किया. मेहनताना लेकर बेटे के साथ मुस्कुराता हुआ चला गया. उसे बहुत जल्दी थी. बेटे को काम सिखाने की, कमाने की, दूसरों के घरों को रौशन करने का काम पूरा करने की, घर लौटने की और  ...!

शाम को दरवाजे की घंटी बजी. वही जिसे अली ने लगाया था. बल्कि इस घर में उसने कम से कम 4-5 घंटी लगाई होगी. तकनीकी गड़बड़ी के कारण बार बार घंटी जल जाती थी. अभी वाली घंटी लगाते हुए उसने कहा था कि यह पक्का चलेगी. तकरीबन साल भर से वह चल रही है, लेकिन अली चला गया. गफ्फार ने आकर बताया कि आगे से काम के लिए मुझे फोन करना. मैंने छूटते ही पूछा कि क्यों अली को क्या हुआ ! मुझे अंदेसा हुआ कि दोनों का झगड़ा बढ़ गया. लेकिन जो जवाब मिला उसने मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खिसका दी. उसने बताया कि शुगर का दौरा पड़ा. यह अजीब था. मैं पूछती गई. लीवर, किडनी सब खराब हो गया था. दिमाग का कैंसर भी डॉक्टर ने बता दिया. शायद पाँच साल पहले अली को दौरा सा पड़ा था. गफ्फार का अंदाजा है कि ब्रेन कैंसर का झटका था वह. उसने कहा कि अली जानता था कि वह जल्दी जाएगा.

13 नवम्बर को लगभग 9 दिन सरकारी अस्पतालों का चक्कर काटते हुए अली चला गया. प्राइवेट में बीस लाख का बजट बताया था, मगर उसमें भी गारंटी नहीं थी. एक शादी में अली गया था. खूब खा-पीकर वापस घर लौटा हमेशा के लिए जाने को. अस्पताल में बेसुध पड़े अली की तस्वीर दिखाई गफ्फार ने और मैंने अभी उसके नंबर पर जाकर व्हाट्सऐप की DP देखी जिसमें एक दिल के आकार के भीतर उसका शांत-गंभीर चेहरा झाँक रहा है और चमकदार बल्ब से लवकी जगह एक दिल है और यूलिखा हुआ है. ज़रूर बच्चों ने यह चित्र लगाया होगा. मैं अली के हरदम मुस्कुराते हुए चेहरे से उसका मिलान कर रही हूँ. सोच रही हूँ कि एक जवान जहान लड़का क्यों ऐसे चला गया ! अली दूसरों की ज़िंदगी को रौशन करता था, मगर उसके घर-परिवार का, गफ्फार का अँधेरा कौन दूर करेगा ? वह भी अभी के दौर में ? अली जैसे नाम जब लोगों को डराने लगे हैं तब उन्हें कौन बचाएगा ?


शनिवार, 9 मार्च 2019

मौसी (By Purwa Bharadwaj)

आज सुबह सुबह खबर आई कि मालती मौसी गुज़र गईं. अपूर्व की इकलौती मौसी थीं. अम्मी (मेरी सास) ही नहीं, दो भाई दो बहन में सबसे छोटी थीं. उम्र रही होगी 73-74 साल. दो बेटों का भरा-पूरा परिवार था. घर-बार भी ठीक-ठाक था. मगर बहुत सुखी कभी नहीं दिखीं मुझे. मानसिक रूप से परेशान और उलझी हुई मालती मौसी से कई बार मेरी मुलाकात हुई है. फिर भी मैं उनके जीवन को एकदम नहीं जानती हूँ. सिर्फ इतना मालूम है कि अपनी जवान बेटी की मौत को वे झेल नहीं पाई थीं और फिर मौसा का जाना उनको और अकेला कर गया था. अभी वे अपने छोटे बेटे के साथ रह रही थीं. हफ्ते भर पहले डायरिया के कारण अस्पताल में भर्ती हुई थीं, लेकिन चंगी होकर घर आ गई थीं. कल उन्होंने अपना बिस्तर खुद झाड़ा, खुद खाया हुआ बर्तन भी धोया. रात को सोईं और सुबह चली गईं. ठीक-ठीक समय भी मालूम नहीं. मैं सोचती रही कि कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था. और मालती मौसी की तरह दुनिया भर में हर पल न जाने कितनी औरतें चुपचाप इसी तरह चली जाती हैं, जिनके दुखों का हिसाब नहीं होता.

मुझे याद है कि मालती मौसी देवघर में अपूर्व का जो मामाघर है, वहाँ नियम से आती थीं. छोटे मामा के घर ज्यादा वक्त बिताती थीं, लेकिन बगल में बड़े मामा और फिर भायबाबू मामा की तरफ भी चक्कर लगा आती थीं. मुझे यह बड़ा अच्छा लगता था कि देवघर की बेटियाँ बेखटके अपने मायके आती-जाती हैं. मालती मौसी भी उसी ठस्से और दावे के साथ रोज़ मामाघर आती थीं. हर कोई उनका स्वागत करता. उनकी मनमर्ज़ी चलती थी वहाँ. यह भरोसा दिलानेवाली बात थी. आखिर औरतों की मनमर्जी कहाँ पूरी होती है !

[देवघर में पंडा समाज में शादियाँ अक्सर स्थानीय ही होती हैं. इसलिए लड़कियों का मायका-ससुराल आना-जाना लगा रहता है. ऐसी शादियों के सूत्र दरअसल जाति, वर्ग, जेंडर, यौनिकता आदि की महीन कताई में मिलेंगे जिनमें पवित्रता की माँग की भी भूमिका है. बहरहाल, मुझे इसे देखकर पहले बड़ा अजीब लगता था कि एक ही घर में बहन-बहन ही नहीं,  बुआ-भतीजी भी ब्याही हुई है. रिश्ता समझ में ही नहीं आता था. जैसे मेरी एक ननद की ननद उसके चचेरे चाचा से ब्याही है. खैर, किसका किससे रिश्ता है, इसकी फ़िक्र मैंने जल्दी ही छोड़ दी. एक घर में कई रिश्तेदारियाँ देखने की मैं आदी होती जा रही थी. कौन सा घर किसका मायका है और किसका ससुराल, इससे मुझे व्यक्तिगत रूप से फर्क नहीं पड़ता था. मैं ठहरी देवघर से बाहर की बहू. मुझे बस ढेर सारे लोगों से भरा घर अच्छा लगता था और उनके करीबी रिश्ते भले गाँठ से भरे होंगे, परंतु उनसे आत्मीयता छलकती रहती थी. अपूर्व के ददिहाल और ननिहाल हर जगह बड़े उत्साह से मेरा स्वागत होता. शाकाहारी होने के कारण मांस की जगह सूखी छाली, दही और छेने की स्वादिष्ट मिठाइयों से.]

पान खाती हुई मालती मौसी मस्त दिखती थीं. सुंदर नाक-नक्श, गोरी और सामान्य कद की. चूना के साथ तम्बाकू खाती हुई महिला. मालती मौसी का वैधव्य उनके व्यक्तित्व को कहीं संकुचित नहीं कर रहा था. मुझे यह देखकर इत्मीनान होता कि देवघर के पंडा घर की औरतें एक हद तक आज़ाद हैं. उनकी घरेलू भूमिकाएँ थीं, पर्दा भी था, फिर भी ऊपर से उनमें एक किस्म का खुलापन झलकता था. एक बार जब मामाघर पहुँची तो ऊँचे पलंग पर बैठी मामीजी के रुआब से ख़ासा प्रभावित हुई थी. समय गुज़रने के साथ उस रुआब के बनने, दिखने और घुलने की प्रक्रिया को मैंने समझा.

उम्र बढ़ने के साथ मालती मौसी का मायके आना कम होता गया. पिछले तीन-चार सालों में यह काफी घट गया. उनकी ससुराल अलग थलग थी, सो घरवालों का उधर जाना कम होता था. मुझे याद है कि एक बार मैंने मालती मौसी की ससुराल की तरफ जाकर उनसे मिलने की इच्छा बताई थी तो सबने उत्साह पर पानी फेर दिया था. आज अपनी देवरानी बॉबी से पूछने पर मुझे मालूम हुआ कि मालती मौसी लगभग महीना भर पहले मामाघर आई थीं और फोड़नी चूड़ा (देवघर का प्रचलित और पसंदीदा नाश्ता जो दिल्ली की मेरी रसोई का भी अहम हिस्सा है और जिसे मेरी बिहारी, पहाड़ी, मराठी, बंगाली सारी मददगार औरतें बनाना सीख गई हैं.) बनवाकर अपने घर ले गई थीं. मायके के खाने का स्वाद आखिर है ही ऐसी चीज़ ! 

मेरी देवरानी अफ़सोस जता रही थी कि नना (देवघर में फुआ/बुआ को नना कहते हैं और फुआ सास होने के नाते मालती मौसी को वह नना ही पुकारती है.) ने गाढ़ा दूध पीने की इच्छा व्यक्त की थी, लेकिन वह सोचती ही रह गई और उनके घर गाढ़ा दूध पहुँचा नहीं पाई. अफसोस अलग अलग लोगों का अलग अलग बातों को लेकर है. अम्मी पिछले साल देवघर जाकर भी अपनी छोटी बहन मालती से मिल नहीं पाई थीं. अपूर्व को मलाल है कि मौसी का दुलार पाने का बहुत मौका नहीं मिला उन्हें. शायद पारे की तरह थीं मालती मौसी. उनकी तरह की औरतों के बारे में मैंने पढ़ा है जिनको पकड़ना आसान नहीं, वे फिसल फिसल जाती हैं. उनमें गति होती है, चमक होती है, लेकिन अपने को जानने-समझने का वे मौका नहीं देती हैं. एक बार सीवान और एक बार चंडीगढ़ के घर भी मालती मौसी गई हैं, मगर वैसे ही जैसे कोई भी जाए. अम्मी की बात अलग है, लेकिन घर के बाकी लोगों का कोई भावनात्मक रिश्ता उनसे बनता नज़र नहीं आया मुझे. कम से कम ज़ाहिर किसी ने नहीं किया. इस बात से मुझे बेचैनी हो रही है.

मैं मौसी से रिश्ते के बारे में सोचने लगी. और मुझे अपनी मौसियाँ याद आईं. तीन की तीनों याद आईं. सब रिश्ते में माँ से छोटी थीं. माँ बड़की दीदी थी और दबंग. बचपन से युवावस्था तक बहनों पर हुकुम चलानेवाली. लेकिन समय ने इन रिश्तों को एकदम अलग आयाम दे दिया. मालती मौसी को याद करते हुए मेरे सामने अपनी मँझली मौसी (मेरी तीन मौसियों में से बीचवाली) का चेहरा घूम गया. तभी हाथ आई यह तस्वीर. 2016 सितंबर की. माँ का 75वाँ जन्मदिन था. मेरी बेटी भी उस मौके पर पटना गई थी. उसको माँ और मौसी का लूडो खेलना बड़ा दिलचस्प लगा और उसने उसे दर्ज कर लिया. अपने पैर दर्द के कारण माँ पैर फैलाए हुए है (उसकी स्टिक बगल से झाँक रही है) और मौसी पैर मोड़े हुए हैं. दोनों का चेहरा शांत है, मगर मुझे दोनों की आँखें खाली लग रही हैं.


इन दिनों भाभी-भैया माँ-पापा को जहाँ ले आए हैं, वह माँ का मायके का इलाका है. बुद्ध कॉलोनी. 200 मीटर की दूरी पर नानाजी का घर है. नानाजी अब नहीं हैं. उस घर के एक हिस्से में मेरी मामी अपने बेटे के साथ रहती हैं तो दूसरे हिस्से में मेरी मौसी अपने बेटे के साथ रहती हैं. 1978 में मौसा चले गए और 1986 में मेरे इकलौते मामू दुर्घटना का शिकार हो गए. मौसी और मामी के वैधव्य ने दोनों की ज़िंदगी का रुख बदल दिया. नानाजी तब थे. मौसी की विपत्ति ने उनको पिता के घर में जगह दिलाने का आधार दे दिया था. यह है हमारा समाज ! विपत्ति में हो बेटी, विधवा या तलाकशुदा हो या पति और ससुरालवालों से तंग हो तभी मायके में जगह मिल पाती है. उसमें भी कृपा भाव रहता है, हक़ और हक़दारी कम रहती है.

खैर, बहनों ने मौसी का साथ दिया और वे अपने किराए के मकान से नानाजी के घर में आ गईं. बँटे हुए घर में. तब तक माँ उस मोहल्ले में नहीं थी. 2011 में आई. लंबे समय तक उसका मन नहीं लगा. मौसी बगल में थीं, लेकिन माँ के मन से मायके का अहसास मिट-सा चुका था. वह अक्सर कहती है कि माँ-बाप तक ही है नैहर और अब तो भाई भी नहीं रहा. नाना-नानी और मामू के बाद वह घर पता नहीं मौसी को क्या महसूस कराता है ! पितृसत्तात्मक समाज के गठन की फाँस है यह. जिसे हर औरत अपने गले पर महसूस करती है. भले उसे इसका अहसास हो न हो उसे दर्द ज़रूर होता है. हाँ, किसी को कम होता है किसी को ज़्यादा. कोई झगड़ालू बन जाती है, कोई कुटिलता को ही जीवन की राह मानने लगती है, किसी का रोना आजीवन चलता रहता है, कोई विक्षिप्त हो जाती है, कोई घर-परिवार में डुबोकर अपने को बचाती है, कोई काम में गर्क होकर जीना चाहती है तो कोई खामाशी और एकांत को चुन लेती है. 

लूडो ने माँ और मौसी का मन बहलाने का ही काम नहीं किया, उनको करीब भी लाया. अपने लिए थोड़ा आनंद तलाशती दो औरतें एक जगह आईं. तन और मन की थकान को परे धकेलती हुईं. उन्होंने शायद ही आउटडोर गेम खेला होगा. हद से हद पिट्टो खेला होगा या शायद कभी बैडमिंटन. मालूम नहीं. कभी मैंने ज़िक्र सुना नहीं. हालाँकि मेरी माँ 50 के दशक में खुले मंच पर कत्थक करती थी, रेडियो पर कार्यक्रम पेश करती थी. एन सी सी में परेड करती थी, दिल्ली घूम आई थी और ट्रेन से जाते वक्त एक एक स्टेशन का नाम अभी तक उसे याद है. मौसी उससे अलग किस्म की औरत बनी. मध्यवर्गीय परिवार में चार बहन और एक भाई के बीच हमेशा अवांछित महसूस किया उन्होंने और शायद इसी ने उनको तिक्त बना दिया. बी.ए. तक की पढ़ाई और फिर मौसा की जगह अनुकंपा के आधार पर HCL में नौकरी ने उनको खड़ा रहने में मदद की. आपसी मनमुटाव ससुराल में तो था ही नैहर में भी था. उन्होंने कड़वाहट झेली तो बाकियों ने उनकी झेली. मैं उनको समझने की कोशिश करती हूँ तो बार-बार यह सवाल आता है कि जीवन-ज्वाला में तपी-झुलसी औरतों की आँच का क्या किया जाए ! वह कोई गैस चूल्हे का नॉब तो है नहीं जिसे नियंत्रित किया जा सके.

माँ-सी ही है मौसी यही दुनिया कहती है. बल्कि उससे भी बढ़कर है. हमारी तरफ की कहावत है "मारे माय जिलावे मौसी". इस मौसी को रिश्ते के रेशमी आवरण में मढ़कर हम छोड़ देते हैं और उसके नीचे जो औरत है उसको हम नहीं देखते हैं. इसीलिए जो तरह तरह की मौसियाँ हैं उनके बारे में सुनकर धक्का लगता है. फिल्मों में मौसी पात्र को देखिए या धारावाहिकों में. उपन्यासों और कहानी-कविताओं में खोजिए. मुझे याद है अपने यहाँ जो मुन्नी की माँ थी उसका किस्सा. मुनिया-चुनिया की तकलीफ गरीबी से बढ़कर यह थी कि उनकी मौसी माँ की सौत बन गई थी. अपने आसपास निगाह दौड़ाऊँ तो रंग-बिरंगी मौसियाँ मिल जाएँगी. मेरे घर में जो लड़की है, वह अपनी बहन के प्रसव के समय मदद करने के लिए कलकत्ता से दिल्ली आई थी. खुद 18 साल की है, मातृपितृविहीन, एक आँख जन्म से नहीं. छोटी बच्ची की देखभाल से लेकर मेरे घर की जिम्मेदारी सँभालती है. उसकी बहनबेटी जब उसे प्यार से "तान" पुकारती है तो यह मौसी उसपर निहाल नहीं हो पाती. मौसी पद का दायित्व भारी है. उसे खुशी खुशी निभाने के लिए उसे अपने जीवन में जो अवकाश चाहिए वह कहाँ है भला ! 

सोच रही हूँ कि मुझे मौसी शब्द उलझा रहा है या रिश्ता या अलग अलग किस्म की औरतों का जीवन !  फिलहाल रुकती हूँ. उस दिशा में जाने का मेरा इरादा नहीं है.

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

पहाड़ी ढलान (By Nina Cassian)



कितने तुच्छ हैं हम
और कितने उतावले
और कितना कड़वा बोलते हैं हम

जबकि सिर्फ़ एक मकड़ा
पूरी रात टंगा रहा उसी एक जगह,
गुसलखाने के एक कोने में

हे आठ टांगों वाले धैर्यवान !
ख़ामोश गवाह
‘गुड मोर्निंग’

हम गिरते हैं
और खिरते हैं,
जब भी कोई शिखर प्रतिमान होता है भ्रष्ट I


कवि – निना कास्सिआन
संकलन- सच लेता है आकार, समकालीन रोमानियाई कविता
संपादन – आन्दीआ देलेतान्त, ब्रेंडा वाकर
हिंदी अनुवाद – रणजीत साहा
प्रकाशन – साहित्य आकादमी, 2002

शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

जब मौत आए (When death comes by Mary Oliver)

जब मौत आए
पतझड़ के भूखे भालू की तरह;

जब मौत आए
और अपने बटुए से
सारे चमकीले सिक्के निकाल ले
मुझे खरीदने के लिए, और चट
अपना बटुआ बंद कर दे;

जब मौत आए
चेचक की तरह

जब मौत आए
हिमखंड की तरह
कंधे की हड्डियों (पंखुड़ों) के बीच,

मैं उस दरवाज़े से गुजरना चाहती हूँ भरी हुई
कौतूहल से, सोचती हुई
आखिर कैसी होगी वह कुटिया
अँधेरे की?

और इसीलिए मैं हर चीज़ को देखती हूँ
भाईचारे और बहनापे की तरह,

और मेरे लिए वक्त
एक ख्याल से अधिक कुछ नहीं,

और मैं अनंत को
एक और संभावना मानती हूँ,

और मैं हर ज़िंदगी को
एक फूल की देखती हूँ, उतनी ही आम
जितनी मैदान की वह डेज़ी, और उतनी ही
एकल

और हर नाम
होठों पर एक आरामदेह गीत
सहलाता हुआ, जैसा हर संगीत करता है, खामोशी की तरफ,

और हर शरीर
बहादुर शेर, और
इस ज़मीन के लिए कीमती.

जब यह खत्म हो जाएगा, मैं चाहती हूँ
कहना कि तमाम ज़िंदगी
मैं दुल्हन रही अचरज की.
मैं दूल्हा थी
दुनिया को अपनी बाँहों में लेती हुई.

जब यह खत्म हो जाएगा, मैं नहीं चाहती सोचना
कि क्या मैंने अपनी ज़िंदगी को कुछ ख़ास बनाया, और हक़ीक़ी।
मैं नहीं चाहती खुद को देखना आहें भरते
और भयभीत।

मैं नहीं चाहती
खत्म होना ऐसे शख्स की तरह जो
इस दुनिया में सिर्फ आया.



निधीश त्यागी के सौजन्य से
18 जनवरी, 2019
अनुवाद - अपूर्वानंद