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शुक्रवार, 20 जून 2014

एक पुरबिहा का आत्मकथ्य (Ek purbiha ka aatmkathya by Kedarnath Singh)


पर्वतों में मैं 
अपने गाँव का टीला हूँ 
पक्षियों में कबूतर 
भाखा में पूरबी 
दिशाओं में उत्तर 

वृक्षों में बबूल हूँ 
अपने समय के बजट में 
एक दुखती हुई भूल 

नदियों में चम्बल हूँ 
सर्दियों में 
एक बुढ़िया का कम्बल 

इस समय यहाँ हूँ 
पर ठीक इसी समय 
बगदाद में जिस दिल को 
चीर गयी गोली 
वहाँ भी हूँ 

हर गिरा खून 
अपने अँगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूँ 
जहाँ भी हूँ। 
 

कवि - केदारनाथ सिंह    संकलन - सृष्टि पर पहरा  प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014

गुरुवार, 27 मार्च 2014

आँसू का वज़न (Aansoo ka vazan by Kedarnath Singh)


कितनी लाख चीख़ों 
कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद 
किसी आँख से टपकी 
एक बूँद को नाम मिला - 
आँसू 

कौन बताएगा 
बूँद से आँसू 
कितना भारी है 


कवि - केदारनाथ सिंह   
संकलन - सृष्टि पर पहरा 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

देवनागरी (Devnagri by Kedarnath Singh

यह जो सीधी-सी सरल-सी 
अपनी लिपि है देवनागरी
इतनी सरल है 
कि भूल गयी है अपना सारा अतीत 
पर मेरा खयाल है 
'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले 
नहीं आया था दुनिया में 
'च' पैदा हुआ होगा 
किसी शिशु के गाल पर 
माँ के चुम्बन से 

'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं 
कि फूट पड़े होंगे 
किसी पत्थर को फोड़कर 

'न' एक स्थायी प्रतिरोध है 
हर अन्याय का 

'म' एक पशु के रँभाने की आवाज़ 
जो किसी कंठ से छनकर 
बन गयी होगी 'माँ'

'स' के संगीत में 
संभव है एक हल्की-सी सिसकी 
सुनाई पड़े तुम्हें 
हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे 
किसी लिखते हुए हाथ की 
तकलीफ़ दबी हो 

कभी देखना ध्यान से 
किसी अक्षर में झाँककर 
वहाँ रोशनाई के तल में 
एक ज़रा-सी रोशनी 
तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी 

यह मेरे लोगों का उल्लास है 
जो ढल गया है मात्राओं में 
अनुस्वार में उतर आया है 
कोई कंठावरोध 

पर कौन कह सकता है 
इसके अंतिम वर्ण 'ह' में 
कितनी हँसी है 
कितना हाहाकार !


कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - सृष्टि पर पहरा 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014

रविवार, 18 अगस्त 2013

छाता (Chhata by Kedarnath Singh)

बीस बरस बाद 
छाता लगाये हुए 
पडरौना बाज़ार में मुझे दिख गये बंगाली बाबू 

बीस बरस बाद चिल्लाया 
बंगाली बाबू ! बंगाली बाबू !
कैसे हैं बंगाली बाबू !

वे मुड़े 
मुझे देखा
मुस्कुराये 
और 'ठीक हूँ' कहते हुए बढ़ गये आगे 

मैं समझ न सका 
बीस बरस बाद छाता लगाये हुए 
कितने सुखी 
या दुखी हैं बंगाली बाबू 

देखा बस इतना 
कि मेरी आँखों के आगे 
चला जा रहा है एक छाता 
सोचता हुआ 
मुस्कुराता हुआ 
ढाढ़स बँधाता हुआ 
बोलता-बतियाता हुआ छाता !


     कवि - केदारनाथ सिंह
     संकलन - यहाँ से देखो
     प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

शनिवार, 3 अगस्त 2013

पोस्टकार्ड (Postcard by Kedarnath Singh)

यह खुला है 
इसलिए ख़तरनाक है 
ख़तरनाक है इसलिए सुंदर 

इसे कोई भी पढ़ सकता है 
वह भी जिसे पढ़ना नहीं 
सिर्फ़ छूना आता है 

इस पर लिखा जा सकता है कुछ भी 
बस, एक ही शर्त है 
कि जो भी लिखा जाय 
पोस्टकार्ड की अपनी स्वरलिपि में 
लिखा जाय 

पोस्टकार्ड की स्वरलिपि 
कबूतरों की स्वरलिपि है 
असल में यह कबूतरों की किसी भूली हुई 
प्रजाति का है 
उससे टूटकर गिरा हुआ 
एक पुरातन डैना 

इसका रंग 
तुम्हारी त्वचा के रंग से 
बहुत मिलता है 
पर नहीं 
तुम दावा नहीं कर सकते 
कि जो तुम्हें अभी-अभी देकर गया है डाकिया 
वह तुम्हारा 
और सिर्फ़ तुम्हारा पोस्टकार्ड है 

पोस्टकार्ड का नारा है - 
लिखना 
असल में दिखना है 
समूची दुनिया को 
जिसमें अंधे भी शामिल हैं 

एक कोरा पोस्टकार्ड 
ख़ुद एक संदेश है
मेरे समय का सबसे रोमांचक संदेश l


कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1995

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

दिल्ली में बबूल (Dilli mein babool by Kedarnath Singh)


वह जाड़ों की एक शाम थी 
मैं चला जा रहा था अकेला 
कि अचानक मेरी दृष्टि पड़ी -
धूल से ढँका 
और काँटों से लदा वह खड़ा था उदास 
आती-जाती बसों को 
एकटक देखता हुआ 

बबूल है - मैंने पहचाना 
जैसे भीड़ में कोई बचपन के दोस्त को पहचान ले 
और उसे देखकर ऐसा कुछ हुआ 
कि रख दिया प्रस्ताव 
चलो कनाट प्लेस चलें !

कनाट प्लेस जाने का 
मेरा कोई इरादा नहीं था 
वैसे भी टी-हाउस की चाय से 
मुझे एक चुक्कड़ की चाय से उठाती हुई भाप 
ज़्यादा आकृष्ट करती है 

पर सवाल एक उदास बबूल का था 
जिसे मैं बरसों से जानता था 
सोचा, हर्ज़ क्या है 
शायद इस तरह झर जाए उसकी कुछ उदासी 
और हो सकता है कनाट प्लेस भी हो जाए 
थोड़ा और समृद्ध !

पर अब सवाल था 
वह जाएगा कैसे ?
मैंने एक तिपहिया की ओर देखा 
और हो गया उदास 

लेकिन प्रस्ताव तो मैं रख चुका था 
और उधर बबूल था 
कि हवा में फेंके जा रहा था 
अपनी पुरानी पत्तियाँ  
जैसे चलने से पहले 
कपड़े बदल रहा हो !

मेरे अन्दर से आवाज़ आई -
सोचते क्या हो 
जाने दो बबूल को 
अगर जाता है कनाट प्लेस
हर बाज़ार में होना ही चाहिए काँटों से लदा 
एक बबूल का पेड़ 
बाज़ार के स्वास्थ्य के लिए !

और बबूल का स्वास्थ्य !

मेरे पास कोई उत्तर नहीं था 
शायद कोई उत्तर नहीं था 
किसी के पास भी 

सो, मैंने अपना प्रस्ताव वापस लिया 
और बबूल को छोड़ दिया वहीं 
जहाँ खड़ा था वह 
रास्ते-भर अपनी शर्म को छिपाता हुआ सोचता रहा मैं -
कितनी हास्यास्पद थी मेरी सारी सहानुभूति  
एक बबूल के सामने 
जो अपनी उदासी के बीच भी 
खड़ा था तनकर 

कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - तालस्ताय और साइकिल 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2005 





शनिवार, 30 मार्च 2013

बुनने का समय (Bunane ka samay by Kedarnath Singh)

उठो मरे सोये हुए धागों 
उठो  
उठो कि दर्ज़ी की मशीन चलने लगी है 
उठो कि धोबी पहुँच गया है घाट पर 
उठो कि नंग-धडंग बच्चे 
जा रहे हैं स्कूल 
उठो मेरी सुबह के धागों 
और मेरी शाम के धागों, उठो 

उठो कि ताना कहीं फँस रहा है 
उठो कि भरनी में पड़ गयी हैं गाँठ   
उठो कि नावों के पाल में 
कुछ सूत कम पड़ रहे हैं 

उठो 
झाड़न में 
मोज़ों में 
टाट में 
दरियों में दबे हुए धागों उठो 
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है 
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा 
फिर से बुनना होगा 
उठो मेरे टूटे हुए धागों, उठो 
और मेरे उलझे हुए धागों, उठो 

उठो 
की बुनने का समय हो रहा है            
 
     कवि - केदारनाथ सिंह
     संकलन - यहाँ से देखो
     प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

रविवार, 10 मार्च 2013

जनहित का काम (Janhit ka kaam by Kedarnath Singh)

यह एक अद्भुत दृश्य था 

मेह बरसकर खुल चुका था 
खेत जुतने को तैयार थे 
एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था 
और एक चिड़िया बारबार-बारबार 
उसे अपनी चोंच से 
उठाने की कोशिश कर रही थी 

मैंने देखा 
और मैं लौट आया 
क्योंकि मुझे लगा, मेरा वहाँ होना 
जनहित के उस काम में 
दखल देना होगा 


कवि - केदारनाथ सिंह
संकलन - यहाँ से देखो
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

अमरूद (Amrood by Kedarnath Singh)

अमरुद फिर आ गए बाज़ार में 
और यद्यपि वहाँ जगह नहीं थी 
पर मैंने देखा छोटे-छोटे अमरूदों ने 
सबको ठेल-ठालकर 
फुटपाथ पर बना ही ली 
अपने लिए थोड़ी सी जगह 
और अब देखो तो किस तरह एक छोटी सी टोकरी में 
वे बैठे हैं शान से 
फुटपाथों के शहंशाह की तरह !

नहीं, मुझे नहीं चाहिए कोई चाकू 
नहीं, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए 
मैं नहीं चाहता मेरे दाँतों 
और अमरूद के बीच 
कोई तीसरा आए 

मैं बिना किसी मध्यस्थ के 
छिलकों और बीजों के बीच से होते हुए 
सीधे अमरूद के धड़कते हुए दिल तक पहुँचना चाहता हूँ 
जोकि उसका स्वाद है 

जीने का यही एक ढंग है 
सबसे अचूक 
और सबसे भरोसेमन्द 

यह मैंने एक दिन 
एक अमरुद से सीखा था 

कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - तालस्ताय और साइकिल 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2005

सोमवार, 21 जनवरी 2013

हस्ताक्षर (Hastakshar by Kedarnath Singh)


बालू पर हवा के 
असंख्य हस्ताक्षर थे 
और उन्हें देखकर हैरान था मैं 
कि मेरा हस्ताक्षर 
हवा के हस्ताक्षर से 
कितना मिलता है !

कैसे हुआ यह ? 
क्या मैंने हवा की 
नक़ल की है 
या हवा ने चुरा लिया है 
मेरा हस्ताक्षर ?

दोनों में से 
एक-न-एक को 
जाली ज़रूर होना चाहिए 
मैंने सोचा 

पर अब सवाल यह था 
कि तय कैसे हो 
और हो तो किस अदालत में 
कि कौन-सा हस्ताक्षर जाली है 

कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1995

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

अँधेरे में (Andhere mein by Shakti Chattopadhyay)


हाथ पर 
हाथ !
अँधेरे में अचानक 
यह किसने रख दिया 
मेरे हाथ पर हाथ !

कौन है यह ?
बताओ बताओ 

शब्द नहीं 
कोई भी शब्द नहीं 
शब्द नहीं 
कोई भी शब्द नहीं l

कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

ऊँचाई (Oonchai by Kedarnath Singh)


मैं वहाँ पहुँचा
और डर गया

मेरे शहर के लोगो
यह कितना भयानक है
कि शहर की सारी सीढ़ियाँ मिलकर
जिस महान ऊँचाई तक जाती हैं
वहाँ कोई नहीं रहता !


कवि - केदारनाथ सिंह
संकलन - यहाँ से देखो
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

रविवार, 25 नवंबर 2012

पुराना दुख, नया दुख (Purana dukh, naya dukh by Shakti Chattopadhyay)



वह जो अपना एक दुख है पुराना 
क्या उससे आज कहूँ कि आओ 
और थोड़ी देर बैठो मेरे पास 

यहाँ मैं हूँ 
वहाँ, मेरी परछाईं 
कितना अच्छा हो कि इसी बीच वह भी आ जाय 
और बैठ जाय मेरी बगल में 

तब मैं अपने नये दुख से कहूँगा 
जाओ 
थोड़ी देर घूम-फिर आओ 
झुलसा दो कहीं कोई और हरियाली 
झकझोर दो किसी और वृक्ष के फूल और पत्ते 
हाँ, जब थक जाना 
तब लौट आना 
पर अभी तो जाओ 
बस थोड़ी-सी जगह दो मेरे पुराने दुख के लिए 
वह आया है न जाने कितने पेड़ों 
और घरों को फलाँगता हुआ 
वह आया है 
और बैठ जाना चाहता है बिल्कुल मुझसे सटकर 

बस उसे कुछ देर सुस्ताने दो 
पाने दो कुछ देर उसे साथ और सुकून 
ओ मेरे नये दुख 
बस थोड़ी-सी जगह दो 
थोड़ा-सा अवकाश 
जाओ 
जाओ 
फिर आ जाना बाद में l 


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

शनिवार, 3 नवंबर 2012

सन् 47 को याद करते हुए (47 ko yaad karte huye by Kedarnath Singh)


तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह 
गेहुँए नूर मियाँ 
ठिगने नूर मियाँ 
रामगढ़ बाज़ार से सुर्मा बेचकर 
सबसे अन्त में लौटने वाले नूर मियाँ 
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह 

तुम्हें याद है मदरसा 
इमली का पेड़ 
इमामबाड़ा 
तुम्हें याद है शुरू से अख़ीर तक 
उन्नीस का पहाड़ा 
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर 
जोड़-घटाकर 
यह निकाल सकते हो 
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर 
क्यों चले गए थे नूर मियाँ 
क्या तुम्हें पता है 
इस समय वे कहाँ हैं 
ढाका
या मुल्तान में 
क्या तुम बता सकते हो 
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं
पाकिस्तान में  

तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह 
क्या तुम्हारा गणित कमज़ोर है 


कवि - केदारनाथ सिंह 
संकलन - यहाँ से देखो
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1983

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

चिट्ठी नहीं आयी (Chitthee nahin aayee by Shakti Chattopadhyay)


अभी सन्तरे के आने में देर है
वहाँ प्लेट में रखा है छुरी-काँटा
पनीर
मक्खन
सूप
काली मिर्च
और इन सबके साथ
खूब सिंका हुआ लाल टोस्ट 
जब मैं उसे काटता हूँ 
कच्ची लकड़ी की एक अजीब-सी गंध
भर जाती है मेरे नासा-पुटों में

चीनिया केले-सा 
वहाँ बैठा है चौखट पर
एक गुमसुम विडाल
बँगले की खिड़की से आती हुई हवा
ढकेल रही है धूप को
बँगले के बाहर
धूप वहाँ हिल रही है खिड़की पर
जैसे कोई झीना वस्त्र

सुन्दर 
चमकता हुआ स्क्वैश 
रखा है बरामदे में
अभी सन्तरे के आने में देर है
कोई दो हफ्ते बाद 
हल्दी के रंगवाला सुन्दर सन्तरा
शान से पाँव रखेगा
घरों की मेजों पर 

लेकिन अभी !
अभी तो देर है
अभी कोई चिट्ठी आयी नहीं उसकी l


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएं
अनुवाद - केदारनाथ सिंह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987