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गुरुवार, 22 मई 2014

डर (Dar by Manmohan)

कभी अपने आप से 
हम डर जाते हैं 
जब अपनी ही ताकत 
देख लेते हैं 

तब लगता है 
हमें सज़ा मिलेगी 

हम रटी हुई बोली में 
जल्दी-जल्दी दुहराते हैं 
कोई पाठ 

और सर्वव्यापी पिता की शीतल छाया में 
आकर खड़े हो जाते हैं


कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

हत्यारे (Hatyare by Manmohan)

हत्यारे अक्सर आते हैं 

वे दाएँ बाएँ रहते हैं 
जाने पहचाने लगते हैं 

वे सुबह-शाम "कुछ काम धाम तो नहीं"
पूछने आते हैं 
बिना बात हो मेहरबान वे बिगड़े काम बनाते हैं 
 
जब-जब हम चौंक के जगते हैं  
या जी धक् से रह जाता है 
कुछ आगे का दिख जाता है 
 
जब भी यूँ व्याकुल होते हैं 
झटपट चौकस हो जाते हैं 
और खड़े कान सरपट दौड़े 
वे सीधे हम तक आते हैं 
 
वे बहुत दिलासा देते हैं 
और बहुत उपाय सुझाते हैं 
 
कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

फ़ोड़े का गीत (Fode ka geet by Manmohan)

फ़ोड़ा मेरा यार यही है 
मेरा सच्चा प्यार यही है 

जब जब मैंने धोखा खाया 
इस फ़ोड़े ने मुझे बचाया 

मैंने इसको कभी न टोका 
मनमर्ज़ी से कभी न रोका 

जिसने इसको हाथ लगाया 
मैंने उसको मार भगाया 

सब दुनिया से इसे छिपाया 
पाल पोस मुटमर्द बनाया 

जब-जब ये सूखा मुर्झाया 
तब-तब मैं सहमा घबराया 

जब-जब मैं कुछ करके आया 
इसने मेरा जिगर बढ़ाया 

दुनिया मुझको समझ न पाई 
इस फ़ोड़े ने जान बचाई 

बाकी घपला यही सही है 
ढाल यही तलवार यही है 

मेरा सच्चा प्यार यही है


कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

सोमवार, 28 जनवरी 2013

ज़िल्लत की रोटी (Zillat ki roti by Manmohan)


पहले किल्लत की रोटी थी 
अब ज़िल्लत की रोटी है 

किल्लत की रोटी ठंडी थी 
ज़िल्लत की रोटी गर्म है 
बस उस पर रखी थोड़ी शर्म है 

थोड़ी नफ़रत 
थोड़ा खून लगा है 
इतना नामालूम कि कौन कहेगा कि खून लगा है 

हर कोई यही कहता है 
कितनी स्वादिष्ट कितनी नर्म कितनी खुशबूदार होती है 
यह ज़िल्लत की रोटी 

कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006