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रविवार, 31 दिसंबर 2023

आख़िरी ट्रेन रुक गई है (Mahmoud Darwish translated into Hindi)


आख़िरी ट्रेन आख़िरी प्लेटफ़ॉर्म पर रुक गई है। वहाँ कोई नहीं है

गुलाबों को बचाने के लिए, कोई कबूतर नहीं शब्दों से तामीर की गई औरत पर उतरने के लिए।

वक्त ख़त्म हो चुका है। गाना बेहतर नहीं है झाग के मुक़ाबले।

हमारी ट्रेनों पर भरोसा मत करो, प्यारे। भीड़ में किसी का भी इंतज़ार मत करो।

आख़िरी ट्रेन रुक गई है आख़िरी प्लेटफ़ॉर्म पर। लेकिन कोई भी

नारसीसस की छाया नहीं डाल सकता वापस रात के आईनों में।

मैं कहाँ लिख सकता हूँ देह के अवतार का अपना सबसे ताज़ा वृत्तांत?

यह अंत है उसका जिसका अंत होना ही था। वह कहाँ है जिसका अंत होता है?

मैं कहाँ ख़ुद को अपनी देह में अपने वतन से आज़ाद कर सकता हूँ?

हमारी ट्रेनों पर भरोसा मत करो, प्यारे! आख़िरी कबूतर उड़ गया है।

आख़िरी ट्रेन आख़िरी प्लेटफार्म पर रुक गई है। और वहाँ कोई नहीं था।




फ़िलिस्तीनी कवि : ग़स्सान ज़क़तान

अरबी से अंग्रेज़ी: मुनुर अकाश और कैरोलिन फ़ॉश

हिंदी में : अपूर्वानंद

संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023











शनिवार, 30 दिसंबर 2023

रूमाल (Ghassan Zaqtan translated into Hindi)


हमारे बीच कहने को कुछ न बचा

सब उस ट्रेन में चला गया जिसने अपनी सीटी

उस धुएँ में छुपा ली जो बादल न बन सका

उस चले जाने में जिसने तुम्हारे हाथ पाँव बटोरा किए

कुछ भी नहीं बचा कहने को हमारे बीच

इसलिए रहने देते हैं तुम्हारी मौत को

चमकती चाँदी की गहरी कौंध

और रहने देते हैं उन शहरों के सूरज को

तुम्हारे कंधों पर रखे गुलाब

के अक्स में।




फ़िलिस्तीनी कवि : ग़स्सान ज़क़तान

अरबी से अंग्रेज़ी: फ़ादी जूदा

हिंदी में : निधीश त्यागी

संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023




गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

कविता का काम आँसू पोंछना नहीं है ('It is not poetry’s job to wipe away tears by Zakaria Mohammed Translated into Hindi)



वह रो रहा था, इसलिए उसे सँभालने के लिए मैंने उसका हाथ थामा और आँसू पोंछने के लिए

मैंने उसे कहा जब दुख से मेरा गला रुँध रहा था: मैं तुमसे वादा करता हूँ कि इंसाफ़

जीतेगा आख़िरकार, और अमन जल्दी ही क़ायम होगा।

ज़ाहिर है मैं उससे झूठ बोल रहा था। मुझे पता था कि इंसाफ़ नहीं मिलने वाला

और अमन जल्द नहीं आने वाला, पर मुझे उसके आँसू रोकने थे।

मेरी यह समझ ग़लत थी कि अगर हम किसी चमत्कार से

आँसुओं की नदी को रोक लें, तो सब कुछ ठीक ठाक तरह से चल निकलेगा।

फिर चीज़ों को हम वैसे ही मान लेंगे जैसी वे हैं। क्रूरता और इंसाफ़ एक साथ मैदान में

घास चरेंगे, ईश्वर शैतान का भाई निकलेगा, और शिकार हत्यारे का प्रेमी होगा।

पर आँसू रोकने का कोई तरीक़ा नहीं है। वे बाढ़ की तरह लगातार बहे जाते हैं और अमन की

रवायतों को तबाह कर देते हैं।

और इसलिए, आँसुओं की इस कसैली ज़िद की ख़ातिर, आइए, आँखों का अभिषेक करें

इस धरती के सबसे पवित्र संत के रूप में।

कविता का काम नहीं है आँसू पोंछना।

कविता को खाई खोदनी चाहिए जिसका बाँध वे तोड़ दें और इस ब्रह्मांड को डुबा दें।




फ़िलिस्तीनी कवि : ज़करिया मोहम्मद

अरबी से अंग्रेज़ी : लीना तुफ़्फ़ाहा

हिंदी अनुवाद : निधीश त्यागी और अपूर्वानंद

संकलन : कविता काम आँसू पोंछना नहीं

प्रकाशन : जिल्द प्रकाशन, दिल्ली, 2023

भजन (Mahmoud Darwish translated into Hindi)


जिस दिन मेरी कविताएँ मिट्टी से बनी थीं  

मैं अनाज का दोस्त था।


जब मेरी कविताएँ शहद हो गईं 

मक्खियाँ बस गईं 

मेरे होठों पर।



 

फ़िलिस्तीनी कवि : महमूद दरवेश

अरबी से अंग्रेज़ी:  अब्दुल्लाह अल-उज़री 

हिंदी अनुवाद  :  अशोक वाजपेयी

संकलन : 'कविता का काम आँसू पोंछना नहीं' में मूल मॉडर्न पोइट्री ऑफ़ द अरब वर्ल्ड, पेंगुइन बुक्स, 1986 से

प्रकाशन - जिल्द बुक्स, 2023


सोमवार, 25 दिसंबर 2023

अधूरे ड्राफ्ट (पूर्वा भारद्वाज)

 

आज अपने ब्लॉग को खोला तो अचानक निगाह गई इस साल के पोस्ट की संख्या पर। केवल 4 पोस्ट! अचरज नहीं हुआ, हुआ सिर्फ दुख। कितनी बार तय किया कि नियमित रूप से अपनी मनपसंद रचनाएँ चुनकर ब्लॉग पर डालूँगी, भले खुद कुछ लिखूँ या न लिखूँ, मगर नतीजा सिफ़र ही रहा। अपनी अधूरी किताब (रमाकथा) और 'तर्जनी' (ऑनलाइन पत्रिका) के अधूरे ड्राफ्ट की बात तो कभी और। फिलहाल अपने ब्लॉग पर सुप्तावस्था में पड़े अधूरे ड्राफ्ट पर एक निगाह। 

दिलचस्प यह लगा कि अभी फ़िलिस्तीनी कविताओं के अनुवाद के संकलन पर काम करते हुए साल बीत रहा है और 2023 की शुरुआत में ब्लॉग के ड्राफ्ट में फ़िलिस्तीनी कवि नाजवान दरवेश की कविता सहेजी हुई है। इसका हिन्दी में अनुवाद करके अपूर्वानंद ने 4 जनवरी की शाम सवा चार बजे मुझे भेजा था। उस दिन मुझे बुखार था और मैं अरबी से जो अंग्रेज़ी अनुवाद था उससे हिन्दी अनुवाद का मिलान नहीं कर पाई थी। इसलिए कविता ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं कर पाई। और उसी रात अम्मी के जाने की खबर ने तो कितना कुछ उल्टा पलटा कर दिया था! आज नाजवान दरवेश की वह कविता सामने ला रही हूँ - 

       4.1.23

कोई मुल्क नहीं मुझे लौटने को

और कोई मुल्क नहीं जिससे जलावतनी हो 

एक दरख़्त जिसकी जड़ें हैं

बहता दरिया

वह मर जाए अगर रुके 

वह मर जाए अगर  रुके।


गालों और बाँहों पर मौत के 

मैंने ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिन गुज़ारे 

और जो ज़मीन मैंने खोई हर रोज़

उसे हासिल किया रोज़ नए सिरे से 

लोगों के एक मुल्क हैं 

लेकिन मेरा ढेरों में बदल गया अपने  होने में 

ख़ुद को नया किया ग़ैरमौजूदगी में 

इसकी जड़ें 

मेरी तरह 

पानी हैं 

यह सूख जाएगा अगर थम जाए

मर जाएगा अगर थम जाए।

हम दोनों दौड़ रहे हैं

सूर्यकिरणों के स्तंभ की नदी के साथ 

एक नदी सोने के बुरादोंवाली 

जो उठती है प्राचीन ज़ख्मों से 

और हम कभी नहीं रुकते 

हम चलते रहते हैं 

कभी  सोचते हुए रुकने को 

ताकि हमारे दो रास्ते मिल सकें।

मेरा कोई मुल्क नहीं जिससे जलावतनी हो 

कोई मुल्क नहीं लौटने को 

मैं मर जाऊँगा अगर मैं रुकता हूँ

मैं मर जाऊँगा अगर मैं चलता रहा।                                                            

और फिर मैंने बाकी अधूरे ड्राफ्ट को पलटा। कितने पुराने पुराने ड्राफ्ट पड़े थे ! कोई दस वाक्य लिखकर छोड़ा हुआ, कोई एक या दो वाक्य भर और एक तो सिर्फ तीन शब्दों का। प्रायः बिना शीर्षक के और बिना पूरी जानकारी के। एक कविता के न कवि का नाम याद है न किस भाषा से अनुवाद है, इसकी स्मृति है। इतना ज़ेहन में है कि अपूर्वानंद का अनुवाद है। 2014 के ड्राफ्ट वाली वह कविता 11 अक्टूबर, 2013 के मेल में पड़ी है। ड्राफ्ट के अधूरेपन की वजह कई रही होगी - बात कहने में मुश्किल हुई, साफ-साफ लिखने में हिचकिचाहट महसूस हुई, तार नहीं जुड़े खयालों के, समय नहीं मिला, इतने दिन बीत गए कि भूल गई या अपने मनोभावों पर काबू न पा सकी तो अधूरा छोड़ना बेहतर लगा। 

अब जब पलटकर सोच रही हूँ तो ब्लॉग के अधूरे ड्राफ्ट की संख्या इतनी कम क्यों है, यह सवाल उभरा। इसका जवाब फ़ौरन मेरे सामने आ गया क्योंकि कई ड्राफ्ट मैंने सीधे हटा दिए थे। अक्सर ऐसा करती हूँ। नहीं तो ड्राफ्ट पर ड्राफ्ट, ड्राफ्ट पर ड्राफ्ट होते रहते हैं।  

हाँ, गिने-चुने अपने अधूरे ड्राफ्ट को देखकर उस समय की मनःस्थिति, जगह और काम को मैं सीधे देख पा रही हूँ। तो चलते चलते अपने अधूरे ड्राफ्ट को फिर से देखने का मेरा मन कर गया -

    29.4.23 

लिखना अक्सर बहुत मुश्किल काम लगता है. क्यों ?

आज मुझे लेखन की कार्यशाला में लड़कियों के साथ काम करते हुए एक नया अनुभव हुआ. ये लड़कियाँ कम उम्र की हैं, किशोरी हैं और लिखना सीखने को बेताब हैं. उन्होंने औपचारिक शिक्षा हिचकोले खाते हुए ली हैमगर कहीं कहीं अच्छे अच्छे लिक्खाड़ को मात देनेवाली हैं.

उन लड़कियों के साथ मैं तरह तरह की गतिविधियाँ करा रही थी. वैसी ही एक गतिविधि के दौरान मुझे लगा कि दरअसल लेखन को पारदर्शी होना चाहिए और मुश्किल वहीं आती है. हम पर्दादारी चाहते हैं. हम चाहते हैं कि कोई हमारे लिखे से हमारे अंदर न प्रवेश कर जाए. हम सामनेवाले को करीब तो लाना चाहते हैंमगर खुद अपने चारों तरफ लक्ष्मण रेखा खींचते हुए चलते हैं. एक सीमा के बाद कोई हमारे भीतर न झाँकने पाए. इस कशमकश के बीच लेखन चलता है. ऐसा मुझे लगता है कि कम से कम स्त्री लेखन तो ज़रूर.

हम क्या लिखेंकिसके बारे में लिखेंकब लिखेंकैसे लिखें और कितना लिखें - इसकी आज़ादी तो नहीं है. ऊपर से लिखें ही क्यों - यह सबसे बड़ा सवाल है. स्त्री लेखन को लेकर जितनी बातें होती हैं उनमें ज़्यादातर इन आपत्तियों के इर्द गिर्द घूमती हैं. उनकी बेबाकी समाज को जल्दी हजम नहीं होती. इस वजह से स्त्रियाँ प्रायः खुद को नियंत्रित करती रहती हैं. घर-परिवार वगैरह से बाहरी नियंत्रण उसके बाद आता है.

अभी गाँधी को स्त्री लेखन के माध्यम से पेश करने के लिए जब मैं स्क्रिप्ट पर काम कर रही थी तो महादेवी वर्मा की रचना 'पुण्य स्मरणको मैंने कई दफ़ा पढ़ा. उसके शीर्षक पर बार-बार ध्यान जाता रहा. गाँधी को याद करते हुए उनके गुणों और कर्मों की असाधारणता पर सबका ध्यान जाता है. उनका धुर विरोधी भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। और ध्यान में आता है गाँधी का शरीर। महादेवी के शब्दों में उनकी ठुड्ढी, उनके होंठ, उनकी आँखें, उनके बड़े कान, उनका माथा, उनकी पिंडली …         

            6.5.22  

चिढ़ क्या एक भाव है ? या भावों की शृंखला है ? या सबका घोल ?

आज मैं रोई। फूट-फूट कर नहीं। चुपचाप भी नहीं। अकेले में भी नहीं। वजह साफ होते हुए भी बहुत देर तक अपने से सवाल करती रही कि आखिर इतना भी क्या है ! एक बात मन की नहीं हुईएक योजना पूरी नहीं हुईरुटीन में एक बदलाव आयाएक दिन अस्त-व्यस्त हुआ। बस !  इतना चिढ़ना क्यों !

फिर सोचने लगी कि मैं जो चिढ़ रही हूँउसमें क्या क्या है। उसमें छटपटाहट थीतकलीफ थीबेचारगी थीअफ़सोस थागुस्सा थाहताशा थीस्मृति का दंश थानिर्भरता थीअकेलापन थाथकान भी थी। लगने लगा कि क्या मैं दिमागी रूप से अस्थिर हूँ या एकदम नासमझ। 

     3.8.19 

नूह. हरियाणा का एक ज़िला और मेवात का हिस्सा. एक पैगंबर का नाम. उलझा हुआ इतिहास और वर्तमान भी. पिछड़ेपन के साथ खतरनाक होने का भी ठप्पा.

और इन सबके बीच नूह की कार्यशाला में मौजूद कुछ आँखों की चमक मुझे बार-बार परेशान कर रही है. पहली जोड़ी 

     2.3.19 

मैं जब न तब शब्दों के जाल में फँस जाती हूँ। पिछले कई दिनों से जो एक शब्द दिमाग में घूम रहा है वह है बित्ता। समझा ? वही बित्ता जिससे हम और आप अक्सर चीज़ों को नापते रहते हैं। जब हाथ की पाँचों उँगलियों को तानकर फैलाओ तो अँगूठे के ऊपरी छोर से लेकर कानी उँगली के अंतिम छोर तक की लंबाई। यह किसी अनपढ़ का नाप नहीं हैऔपचारिक शिक्षा हासिल करने में सफल व्यक्ति के लिए भी बित्ता सहज सुलभ नाप है।चलता-फिरता इंची टेप ! भले सबके हाथ का आकार-प्रकार एक न होमगर बित्ते से नापने का चलन है।

हाल ही में अपनी रसोई के लिए काठ की आलमारी खरीदने मैं गई थी। दुकान पर पहुँचते ही नाप का अंदाज होने का गुमान तुरत गायब हो गया। घर पर फोन मिलाया और बेटी को हाथ वाले गज (कोहनी से लेकर उँगलियों के छोर तक) से रसोई में अलमारी रखने की संभावित जगह नापने को मैंने कहा। फिर तुरत लगा कि बित्ता बेहतर नाप होता। बित्ते                                                                

          21.4 17  

 सैर के जूते …

     17.1.16 

"आज रंग है ऐ माँ. रंग है रीमेरे महबूब के घर रंग है री" कव्वाली के बोल याद आ रहे हैं। अमीर खुसरो की यह रचना 'रंगनाम से प्रसिद्ध है। -      

     18.6.14 

वह अपनी आँखों में लिए फिरता है

एक मोतीऔर दिनों के आखिरी सिरे से

और हवाओं से वह लेता है

एक चिंगारीऔर अपने हाथ से,

बारिश के जजीरों से

एक पहाड़और रचता है भोर.

मैं उसे जानता हूँ-वह अपनी आँखों में लिए फिरता है

समुन्दरों की भविष्यवाणी

उसने बताया मुझे इतिहास और कविता

जो किसी जगह को पाक करती है.

मैं उसे जानता हूँ-उसने बताया मुझे सैलाब 

अब रुकती हूँ। नींद आ रही है। आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित कर ही दूँ, वरना यह भी अधूरा ड्राफ्ट न बन जाए। वैसे अधूरापन इतना बुरा भी नहीं ! सच्चाई है। बस उसके कारणों की पड़ताल में फँसो तो उलझन होने लगती है। (फिर अम्मी वाला शब्द उलझन!) व्यर्थता का अहसास, असंतोष, खीझ, झल्लाहट, अवसाद और भी बहुत कुछ डराने लगता है। अपूर्व को इस अधूरेपन से बिना उत्तेजना के निपटते देखती हूँ तो ईर्ष्या होती है। उनके ईमेल में सैंकड़ों ड्राफ्ट पड़े हैं - लेख की शुरुआत के, चिट्ठी के मजमून के, पैम्फ्लेट या माँगपत्र के, गुस्से के इज़हार के, प्यार के भी दो बोल ! व्यक्तिगत बात तो वे शायद ही किसी से साझा करते हैं और ऐसे में अधूरे ड्राफ्ट उनके लिए संभवतः राहत हों। 

मुमकिन है कि हमारी बेटी के रजिस्टर, डायरी के पन्ने, स्केच बुक वगैरह पर दर्ज अधूरी शब्दाकृतियाँ - आकृतियाँ भी रास्ता खोलती हों, जिनके लिए मैं हमेशा चिंतित रही। 2013 में जब विनोद रैना गए थे तो उसने एक कविता लिखी थी, अंग्रेज़ी में। बहुत दिनों बाद उसने अपने बाबा को पढ़ाई थी। मैं आज तक प्रतीक्षारत हूँ क्योंकि उसने कहा था कि कविता पूरी करके पढ़ाएगी। वैसे वह बहाना था, उसे मुझे टालना था। यानी अधूरापन वैधता भी प्राप्त करता है - रोशनी में न लाने का वैध कारण ठहरता है। जैसे अदालत के फ़ैसले का अधूरा ड्राफ्ट या अधूरा प्रेमपत्र। 

अभी मेरे लैपटॉप की स्क्रीन पर आकाशगंगा का चित्र है। इसके पहले कुछ और था। आज जब मैंने लैपटॉप खोला तो इस चमचमाते चित्र को देखकर मूड बन गया और अपने अधूरेपन से भी किंचित् मोहग्रस्त हो गई।                                                                                     


-           

रविवार, 8 अक्तूबर 2023

काफ़ी है मेरे लिए (Enough for Me by Fadwa Tuqan, Hindi translation by Apoorvanand)

काफ़ी है मेरे लिए

काफ़ी है उसकी ज़मीन पर मरना

उसमें दफ़्न होना

घुलना और ग़ायब हो जाना उसकी मिट्टी में

और फिर खिल पड़ना एक फूल की शक्ल में

जिससे एक बच्चा खेले मेरे वतन का।

काफ़ी है मेरे लिए रहना

अपने मुल्क के आग़ोश में

उसमें रहना करीब मुट्ठी भर मिट्टी की तरह

घास के एक गुच्छे की तरह

एक फूल की तरह।




फ़िलिस्तीनी कवयित्री - फ़दवा तुक़ान (Fadwa Tuqan, 1917-2003)

स्रोत - https://www.milleworld.com/palestinian-poems-resistance/

अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

छकड़ा वाला और पानी वाला (By Purwa Bharadwaj)

अपनी व्यस्तता पसंद है मुझे। एक व्यस्त दिन के बाद अपनी वापसी की यात्रा को पलटकर देख रही हूँ तो थोड़ा मुस्कुरा रही हूँ और खीझ भी रही हूँ। 

उस रात गुजरात के शहर भुज से चली। दिन में शिक्षकों के साथ पाठ्यचर्या पर काम किया। तिपहर से शाम तक एक टीम के साथ जेंडर आधारित हिंसा पर बात की। फिर खाली हो गई। कहीं जाने को नहीं था। रहने की जगह से सुबह ही सरो सामान आ चुकी थी। देर रात भुज से अहमदाबाद तक की ट्रेन थी तो चार दुकान जाकर खरीदारी कर ली। मेरी सवारी थी एक बड़ा सा छकड़ा (ऑटो)। आकार में  'विक्रम' से थोड़ा छोटा। नया न था, लेकिन चमचमाता हुआ। आरामदेह सीट और इतनी जगह कि मेरा सूटकेस आराम से आ गया। 

छकड़ा चालक प्यारा सा ट्रांस व्यक्ति है जिसने मुझे चार साल पहले उस शहर का दर्शन कराया था। पुराने किले और सरोवर के पास फोटो खींची थी। मेरे फोन में अब वो फोटो नहीं है, लेकिन चार साल पुराना उसका नंबर दर्ज था। उसके मुताबिक यह नंबर लगभग 15 साल से उसके पास है क्योंकि बिजनेस के लिए बार-बार नंबर बदलना ठीक नहीं। उसका स्टाइल भी नहीं बदला है -  कटोरा कट बाल के साथ थोड़ी जुल्फ़ी, पैंट-शर्ट। इस बार उसके साथ आइसक्रीम खाते हुए मैंने उसकी प्रेम कहानी सुनी। वह जिस लड़की को पसंद करता है उससे कानूनन शादी मुमकिन है या नहीं, यह फ़िक्र उसे है। उसके घर में उसकी मर्जी चलती है और उसकी मोहब्बत जगजाहिर है, मगर हिंदू-मुसलमान के रिश्तों को लेकर आजकल के माहौल ने उसे चिंतित कर रखा है। उसका समाधान तो मेरे पास नहीं है, लेकिन कुछ जानकारी उसके लिए इकट्ठा कर सकती हूँ। मैंने बैठे-बैठे क्वीयर अधिकारों पर काम करनेवाली एक दोस्त से जानकारी माँगी। उसने एक नंबर दिया जिस पर मुझे संपर्क करना बाकी है। 

... बानो से बदलकर एक लड़के के नाम का कागज़ बनवाने, छकड़ा चलाते हुए अपना दबदबा कायम करने का उसका किस्सा मैंने पहली मुलाकात में सुना था। पिछले साल बीच में जब चंद मिनटों की भेंट हुई थी तो वह खैल के मैदान में कुर्सी पर बैठा था। हार्मोन थेरेपी और ऑपरेशन करवाने की  बात उसने बताई थी। इस बार छकड़ा चलाते हुए उसने बताया कि कानून पर चल रही बहसों को वह ध्यान से देखता-सुनता है। अलग अलग जेंडर पहचान वालों से उसकी दोस्ती है। दोस्ती का बढ़ता दायरा ही उसका 'सपोर्ट सिस्टम' है। उसी ने मुझे स्टेशन छोड़ा। बीच में वह अपनी बहन को कहीं से लाने की जिम्मेदारी निभाने के लिए गायब हुआ था, मगर उस दौरान मेरे पास उसकी प्रेमिका अपना छकड़ा लेकर आ गई थी। मैं जब एक दुकान में लगभग 45 मिनट गुज़ारकर एक बड़ा सा थैला लेकर बाहर निकली तो कुछ मिनटों के लिए परेशान हुई कि मेरे सूटकेस सहित छकड़ा कहाँ गया। तभी एक दुबली-पतली लड़की ने पुकारा जो छकड़े की आगेवाली सीट पर बैठी थी। मेरा सामान उसी के पास था। उसने अपने छकड़े में मुझे एक अच्छे से शाकाहारी होटल में पहुँचा दिया और चली गई। वहाँ मैं इत्मीनान से कुछ देर सामान सहित बैठ सकती थी। जब तक मैंने खाना खाया छकड़ा लेकर वह वापस आ गया। होटल की लॉबी में उसने कई सेल्फ़ी ली और मुझे भी एक-दो में शामिल कर लिया। 

अभी भी वक्त था। हमने छकड़े में शहर के मशहूर स्वामी नारायण मंदिर का चक्कर लगाया। उसका उत्सव चल रहा था तो बड़े से इलाके में इतनी सजावट थी कि मुझे छठ के दिनों का पटना याद आ गया। पिछली बार मंदिर के भीतर जाकर देख चुकी थी तो भीड़-भाड़ में अभी जाने का मन नहीं किया। मैंने मंदिर में जाने के प्रस्ताव को किनारे कर दिया तो उसने कुछ कहा नहीं। हाँ, शायद थोड़ा हैरान जरूर हुआ। बहरहाल, हम शहर की रौनक पर, G 20 के कारण नए-नए भवनों के निर्माण पर और राजनेताओं के दौरे के नाम पर होनेवाले रंग-रोगन पर बात करते हुए आगे बढ़ गए। स्टेशन का रास्ता थोड़ी ऊँचाई वाला था। वहाँ से शहर की जगमगाहट देखकर पहली बार मुझे उसके विस्तार का अंदाज हुआ। उसकी जगमगाहट चुभ नहीं रही थी न चौंधिया रही थी, बल्कि बसाहट के इत्मीनान से भरी हुई फैली थी। वाकई शांत सा शहर है यह। गुजरात ने जो ज़हर हर जगह घोल दिया है उससे दूर दिखता है।  स्टेशन पर विदा लेते हुए उस चार घंटे के साथी ने "बाय मैम" कहा तो मुझे बुरा लगा। अब उसकी पीठ मेरे सामने थी और मुझे दिख रहा था उसके गले में लहराता सफेद रुमाल! 

खैर, ईद के बाद अपने अपने कामों पर लोग लौट रहे थे। सपरिवार। लौटती बारात जैसा दृश्य था स्टेशन पर। साफ-सुथरा स्टेशन। अजनबियत में भी परिचित सा लगा मुझे। एक बुजुर्ग महिला ने गुजराती में मुझसे मेरे कोच का नंबर पूछा। मैंने हिन्दी में जवाब दिया और सोचा कि गुजराती का वाक्यांश तो बोल ही सकती थी तो भला मैं क्यों सकुचा गई। पिछले सालों में दसियों प्रशिक्षणों (ट्रेनिंग) और कार्यशालाओं में मैंने इतनी गुजराती और कच्छी भाषा सुनी है कि 50 क्या 60 प्रतिशत आराम से समझ लेती हूँ। अब थोड़ा थोड़ा बोलने का अभ्यास करना चाहिए। "केम छो" और "मजा मा" से शुरुआत कर ही देनी चाहिए। 

यात्रियों में मुसलमानों की तादाद सबसे अधिक थी। उनकी खुशदिली से मैं ईद की रौनक का अंदाजा लगा रही थी। वही ईद जो शायद अपनी याद में पहली बार काम करते हुए कटी और बिना सेवई के। आयोजक मिठाई ले आए थे क्योंकि 20 लोगों के लिए सेवई के इंतज़ाम के लिए फौरन दूध का जुगाड़ मुश्किल था। मगर सेवई की भरपाई मिठाई से कहाँ ! अगले दिन की मीटिंग में मैंने अपना मलाल जाहिर किया। उसके अगले दिन चलते समय प्यार से मुझे एक किशोरी ने "साटा"  का डिब्बा पकड़ाया। उसने कहा कि घर पर ईद की सेवई थी, मगर सेवई लाना मुश्किल था और बातचीत में "साटा" का ज़िक्र चला था सो आपके लिए ले आई। मैंने उत्सुकता से डिब्बा खोला और एक टुकड़ा चखा। बेसाख्ता मेरे मुँह से निकला कि अरे यह तो हमारी बालूशाही जैसा है। वाकई वह बालूशाही ही है, चीनी में पगी और उससे सजी हुई कच्छी मिठाई। 

ट्रेन की ठीक सामने की सीट पर एक बुजुर्ग सज्जन थे - कृष्ण भक्त। इस्कॉन वालों की धज में। बैग के अलावा कई छोटे-बड़े थैले थे उनके पास। उम्र देखकर मैंने उनका सामान सहेजने और जगह बनाने में मदद के लिए हाथ बढ़ाया तो उन्होंने रोक दिया। रुखाई से नहीं, किंचित् स्वाभिमानी स्वर में। खासे चुस्त थे। खुद से सब ठीक ठाक किया और बिस्तर बिछाया। सोने के पहले उन्होंने फोन पर किसी से बात की, संभवतः सिंधी ज़ुबान में। उसमें गुजराती मिली हुई सी लगी, पर खासी अलग थी। मुझे कुछ अंदाजा नहीं लगा सिवा इसके कि उन्होंने अगले को अपनी खैरियत दी। फिर बिना पूछे सीधे बत्ती बुझा दी। मैंने सिर उठाकर देखा तो बोले "लाइट बंद कर रहा हूँ।" मैं कुछ कह नहीं पाई। नींद आ नहीं रही थी। सोचा था कि लैपटॉप पर कुछ काम कर लूँगी, परंतु वह भी रह गया। 

मेरे सहयात्री के पास पानी की दो छोटी-बड़ी बोतल थी जिसमें से बड़ी वाली तुरत लुढ़क गई। उसे उठाने के लिए मैं झुकी तो उन्होंने मना कर दिया और वह कब तक नीचे पड़ी रही मुझे पता नहीं। मेरा ध्यान उसी पर अटका रहा क्योंकि प्लेटफॉर्म पर कोई दुकान दिखी नहीं थी और मैं पानी की बोतल की तलाश में थी। कूपे में कोई बेचने भी नहीं आया। रात के 11 बजने को आए थे। अमूमन बहुत प्यास मुझे नहीं लगती, मगर तब गला सूखे जा रहा था। बहुत मन किया कि पानी माँग लूँ, मगर हो न सका। कीमत देकर लेने का प्रस्ताव असभ्य होता तो वह भी नहीं हुआ। किसी तरह सो गई और अपने अलार्म के बजने के पहले ही उठ भी गई। सुबह पाँच बजे अहमदाबाद स्टेशन उतरी। ओला टैक्सी बुलाकर भागी हवाई अड्डे पर। वहाँ घुसते ही महँगी सी पानी की बोतल खरीदनी पड़ी ताकि गला तर कर सकूँ और थायरायड वाली दवा खा सकूँ। उस समय ट्रेन की सीट के नीचे पड़ी पानी की बोतल कौंधी। और गुलाबी-नारंगी कपड़ों में पानीवाले कृष्ण भक्त भी।  

रविवार, 19 मार्च 2023

चीज़ें और हम (by Mahmoud Darwish, translated into Hindi)

हम चीज़ों के मेहमान थे, उनमें से ज़्यादातर को 
हमसे कम परवाह है जब हम उन्हें छोड़ते हैं 

एक मुसाफ़िर विलाप करता है,और नदी उस पर हँसती है 
गुज़र जाओ, क्योंकि कोई नदी तक़रीबन वैसी ही होती है आरंभ में जैसी वह अंत में होती है 

कुछ भी इंतज़ार नहीं करता, चीज़ें उदासीन हैं 
हमारे प्रति, हम उनका अभिनंदन करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञ होते हैं 

लेकिन चूँकि हम उन्हें कहते हैं अपनी भावना 
हम नाम में यक़ीन करते हैं। क्या उनकी असलियत है उनके नाम में? 

हम चीज़ों के मेहमान हैं, हममें से अधिकतर 
अपनी शुरुआती भावनाएँ भूल जाते हैं, और उनसे इन्कार करते हैं। 


फ़िलिस्तीनी कवि - महमूद दरवेश 
संकलन - A River Dies Of Thirst 
अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद - कैथरीन कॉबम (Katherine Cobham) 
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद

मंगलवार, 3 जनवरी 2023

यात्रा (The Journey by Mary Oliver translated from English)

एक दिन आख़िरकार तुम जान ही गए कि तुम्हें क्या करना है 

और तुमने शुरू किया

हालाँकि तुम्हारे चारों ओर

चीखती हुई आवाज़ें देती रहीं बदसलाह 

पूरा घर 

डगमगाने लगा

और तुमने कुहनियों पर महसूस की पहचानी हुई टहोक

“मेरी ज़िंदगी को ठीक करो”

हर आवाज़ चीखती रही।

लेकिन तुम नहीं रुके।

तुम्हें मालूम था कि तुम्हें क्या करना है 

हालाँकि हवाएँ अपनी सख़्त उँगलियों से 

बुनियाद टटोल रही थीं

हालाँकि भीषण था उनका विषाद 

पहले ही काफ़ी देर हो चुकी थी, और तूफ़ानी रात थी 

और सड़क गिरी हुई शाखाओं और पत्थरों से अटी

लेकिन धीरे धीरे जैसे तुमने उनकी आवाज़ों को पीछे छोड़ा

तारे बादलों के पर्दों के पीछे से 

प्रज्ज्वलित होने लगे 

और एक नई आवाज़ 

जिसे तुमने धीरे धीरे अपनी पहचाना अपनी आवाज़ 

जिसने तुम्हारा साथ दिया 

जैसे जैसे तुम गहरे और गहरे 

उतरते गए इस दुनिया में 

वह करने को बज़िद 

जो तुम ही कर सकते थे 

बज़िद बचाने को वह एक जान 

जो तुम ही बचा सकते थे।


अमेरिकी कवयित्री - मेरी ओलिवर (10.9.1935 – 17.1.2019) 

अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अपूर्वानंद 

स्रोत - http://www.phys.unm.edu/~tw/fas/yits/archive/oliver_thejourney.html

http://thepracticelondon.org/poetry/poems-of-transformation-the-journey-by-mary-oliver/#:~:text=%E2%80%93Mary%20Oliver,reflection%20of%20your%20own%20story.