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शनिवार, 9 मार्च 2019

मौसी (By Purwa Bharadwaj)

आज सुबह सुबह खबर आई कि मालती मौसी गुज़र गईं. अपूर्व की इकलौती मौसी थीं. अम्मी (मेरी सास) ही नहीं, दो भाई दो बहन में सबसे छोटी थीं. उम्र रही होगी 73-74 साल. दो बेटों का भरा-पूरा परिवार था. घर-बार भी ठीक-ठाक था. मगर बहुत सुखी कभी नहीं दिखीं मुझे. मानसिक रूप से परेशान और उलझी हुई मालती मौसी से कई बार मेरी मुलाकात हुई है. फिर भी मैं उनके जीवन को एकदम नहीं जानती हूँ. सिर्फ इतना मालूम है कि अपनी जवान बेटी की मौत को वे झेल नहीं पाई थीं और फिर मौसा का जाना उनको और अकेला कर गया था. अभी वे अपने छोटे बेटे के साथ रह रही थीं. हफ्ते भर पहले डायरिया के कारण अस्पताल में भर्ती हुई थीं, लेकिन चंगी होकर घर आ गई थीं. कल उन्होंने अपना बिस्तर खुद झाड़ा, खुद खाया हुआ बर्तन भी धोया. रात को सोईं और सुबह चली गईं. ठीक-ठीक समय भी मालूम नहीं. मैं सोचती रही कि कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था. और मालती मौसी की तरह दुनिया भर में हर पल न जाने कितनी औरतें चुपचाप इसी तरह चली जाती हैं, जिनके दुखों का हिसाब नहीं होता.

मुझे याद है कि मालती मौसी देवघर में अपूर्व का जो मामाघर है, वहाँ नियम से आती थीं. छोटे मामा के घर ज्यादा वक्त बिताती थीं, लेकिन बगल में बड़े मामा और फिर भायबाबू मामा की तरफ भी चक्कर लगा आती थीं. मुझे यह बड़ा अच्छा लगता था कि देवघर की बेटियाँ बेखटके अपने मायके आती-जाती हैं. मालती मौसी भी उसी ठस्से और दावे के साथ रोज़ मामाघर आती थीं. हर कोई उनका स्वागत करता. उनकी मनमर्ज़ी चलती थी वहाँ. यह भरोसा दिलानेवाली बात थी. आखिर औरतों की मनमर्जी कहाँ पूरी होती है !

[देवघर में पंडा समाज में शादियाँ अक्सर स्थानीय ही होती हैं. इसलिए लड़कियों का मायका-ससुराल आना-जाना लगा रहता है. ऐसी शादियों के सूत्र दरअसल जाति, वर्ग, जेंडर, यौनिकता आदि की महीन कताई में मिलेंगे जिनमें पवित्रता की माँग की भी भूमिका है. बहरहाल, मुझे इसे देखकर पहले बड़ा अजीब लगता था कि एक ही घर में बहन-बहन ही नहीं,  बुआ-भतीजी भी ब्याही हुई है. रिश्ता समझ में ही नहीं आता था. जैसे मेरी एक ननद की ननद उसके चचेरे चाचा से ब्याही है. खैर, किसका किससे रिश्ता है, इसकी फ़िक्र मैंने जल्दी ही छोड़ दी. एक घर में कई रिश्तेदारियाँ देखने की मैं आदी होती जा रही थी. कौन सा घर किसका मायका है और किसका ससुराल, इससे मुझे व्यक्तिगत रूप से फर्क नहीं पड़ता था. मैं ठहरी देवघर से बाहर की बहू. मुझे बस ढेर सारे लोगों से भरा घर अच्छा लगता था और उनके करीबी रिश्ते भले गाँठ से भरे होंगे, परंतु उनसे आत्मीयता छलकती रहती थी. अपूर्व के ददिहाल और ननिहाल हर जगह बड़े उत्साह से मेरा स्वागत होता. शाकाहारी होने के कारण मांस की जगह सूखी छाली, दही और छेने की स्वादिष्ट मिठाइयों से.]

पान खाती हुई मालती मौसी मस्त दिखती थीं. सुंदर नाक-नक्श, गोरी और सामान्य कद की. चूना के साथ तम्बाकू खाती हुई महिला. मालती मौसी का वैधव्य उनके व्यक्तित्व को कहीं संकुचित नहीं कर रहा था. मुझे यह देखकर इत्मीनान होता कि देवघर के पंडा घर की औरतें एक हद तक आज़ाद हैं. उनकी घरेलू भूमिकाएँ थीं, पर्दा भी था, फिर भी ऊपर से उनमें एक किस्म का खुलापन झलकता था. एक बार जब मामाघर पहुँची तो ऊँचे पलंग पर बैठी मामीजी के रुआब से ख़ासा प्रभावित हुई थी. समय गुज़रने के साथ उस रुआब के बनने, दिखने और घुलने की प्रक्रिया को मैंने समझा.

उम्र बढ़ने के साथ मालती मौसी का मायके आना कम होता गया. पिछले तीन-चार सालों में यह काफी घट गया. उनकी ससुराल अलग थलग थी, सो घरवालों का उधर जाना कम होता था. मुझे याद है कि एक बार मैंने मालती मौसी की ससुराल की तरफ जाकर उनसे मिलने की इच्छा बताई थी तो सबने उत्साह पर पानी फेर दिया था. आज अपनी देवरानी बॉबी से पूछने पर मुझे मालूम हुआ कि मालती मौसी लगभग महीना भर पहले मामाघर आई थीं और फोड़नी चूड़ा (देवघर का प्रचलित और पसंदीदा नाश्ता जो दिल्ली की मेरी रसोई का भी अहम हिस्सा है और जिसे मेरी बिहारी, पहाड़ी, मराठी, बंगाली सारी मददगार औरतें बनाना सीख गई हैं.) बनवाकर अपने घर ले गई थीं. मायके के खाने का स्वाद आखिर है ही ऐसी चीज़ ! 

मेरी देवरानी अफ़सोस जता रही थी कि नना (देवघर में फुआ/बुआ को नना कहते हैं और फुआ सास होने के नाते मालती मौसी को वह नना ही पुकारती है.) ने गाढ़ा दूध पीने की इच्छा व्यक्त की थी, लेकिन वह सोचती ही रह गई और उनके घर गाढ़ा दूध पहुँचा नहीं पाई. अफसोस अलग अलग लोगों का अलग अलग बातों को लेकर है. अम्मी पिछले साल देवघर जाकर भी अपनी छोटी बहन मालती से मिल नहीं पाई थीं. अपूर्व को मलाल है कि मौसी का दुलार पाने का बहुत मौका नहीं मिला उन्हें. शायद पारे की तरह थीं मालती मौसी. उनकी तरह की औरतों के बारे में मैंने पढ़ा है जिनको पकड़ना आसान नहीं, वे फिसल फिसल जाती हैं. उनमें गति होती है, चमक होती है, लेकिन अपने को जानने-समझने का वे मौका नहीं देती हैं. एक बार सीवान और एक बार चंडीगढ़ के घर भी मालती मौसी गई हैं, मगर वैसे ही जैसे कोई भी जाए. अम्मी की बात अलग है, लेकिन घर के बाकी लोगों का कोई भावनात्मक रिश्ता उनसे बनता नज़र नहीं आया मुझे. कम से कम ज़ाहिर किसी ने नहीं किया. इस बात से मुझे बेचैनी हो रही है.

मैं मौसी से रिश्ते के बारे में सोचने लगी. और मुझे अपनी मौसियाँ याद आईं. तीन की तीनों याद आईं. सब रिश्ते में माँ से छोटी थीं. माँ बड़की दीदी थी और दबंग. बचपन से युवावस्था तक बहनों पर हुकुम चलानेवाली. लेकिन समय ने इन रिश्तों को एकदम अलग आयाम दे दिया. मालती मौसी को याद करते हुए मेरे सामने अपनी मँझली मौसी (मेरी तीन मौसियों में से बीचवाली) का चेहरा घूम गया. तभी हाथ आई यह तस्वीर. 2016 सितंबर की. माँ का 75वाँ जन्मदिन था. मेरी बेटी भी उस मौके पर पटना गई थी. उसको माँ और मौसी का लूडो खेलना बड़ा दिलचस्प लगा और उसने उसे दर्ज कर लिया. अपने पैर दर्द के कारण माँ पैर फैलाए हुए है (उसकी स्टिक बगल से झाँक रही है) और मौसी पैर मोड़े हुए हैं. दोनों का चेहरा शांत है, मगर मुझे दोनों की आँखें खाली लग रही हैं.


इन दिनों भाभी-भैया माँ-पापा को जहाँ ले आए हैं, वह माँ का मायके का इलाका है. बुद्ध कॉलोनी. 200 मीटर की दूरी पर नानाजी का घर है. नानाजी अब नहीं हैं. उस घर के एक हिस्से में मेरी मामी अपने बेटे के साथ रहती हैं तो दूसरे हिस्से में मेरी मौसी अपने बेटे के साथ रहती हैं. 1978 में मौसा चले गए और 1986 में मेरे इकलौते मामू दुर्घटना का शिकार हो गए. मौसी और मामी के वैधव्य ने दोनों की ज़िंदगी का रुख बदल दिया. नानाजी तब थे. मौसी की विपत्ति ने उनको पिता के घर में जगह दिलाने का आधार दे दिया था. यह है हमारा समाज ! विपत्ति में हो बेटी, विधवा या तलाकशुदा हो या पति और ससुरालवालों से तंग हो तभी मायके में जगह मिल पाती है. उसमें भी कृपा भाव रहता है, हक़ और हक़दारी कम रहती है.

खैर, बहनों ने मौसी का साथ दिया और वे अपने किराए के मकान से नानाजी के घर में आ गईं. बँटे हुए घर में. तब तक माँ उस मोहल्ले में नहीं थी. 2011 में आई. लंबे समय तक उसका मन नहीं लगा. मौसी बगल में थीं, लेकिन माँ के मन से मायके का अहसास मिट-सा चुका था. वह अक्सर कहती है कि माँ-बाप तक ही है नैहर और अब तो भाई भी नहीं रहा. नाना-नानी और मामू के बाद वह घर पता नहीं मौसी को क्या महसूस कराता है ! पितृसत्तात्मक समाज के गठन की फाँस है यह. जिसे हर औरत अपने गले पर महसूस करती है. भले उसे इसका अहसास हो न हो उसे दर्द ज़रूर होता है. हाँ, किसी को कम होता है किसी को ज़्यादा. कोई झगड़ालू बन जाती है, कोई कुटिलता को ही जीवन की राह मानने लगती है, किसी का रोना आजीवन चलता रहता है, कोई विक्षिप्त हो जाती है, कोई घर-परिवार में डुबोकर अपने को बचाती है, कोई काम में गर्क होकर जीना चाहती है तो कोई खामाशी और एकांत को चुन लेती है. 

लूडो ने माँ और मौसी का मन बहलाने का ही काम नहीं किया, उनको करीब भी लाया. अपने लिए थोड़ा आनंद तलाशती दो औरतें एक जगह आईं. तन और मन की थकान को परे धकेलती हुईं. उन्होंने शायद ही आउटडोर गेम खेला होगा. हद से हद पिट्टो खेला होगा या शायद कभी बैडमिंटन. मालूम नहीं. कभी मैंने ज़िक्र सुना नहीं. हालाँकि मेरी माँ 50 के दशक में खुले मंच पर कत्थक करती थी, रेडियो पर कार्यक्रम पेश करती थी. एन सी सी में परेड करती थी, दिल्ली घूम आई थी और ट्रेन से जाते वक्त एक एक स्टेशन का नाम अभी तक उसे याद है. मौसी उससे अलग किस्म की औरत बनी. मध्यवर्गीय परिवार में चार बहन और एक भाई के बीच हमेशा अवांछित महसूस किया उन्होंने और शायद इसी ने उनको तिक्त बना दिया. बी.ए. तक की पढ़ाई और फिर मौसा की जगह अनुकंपा के आधार पर HCL में नौकरी ने उनको खड़ा रहने में मदद की. आपसी मनमुटाव ससुराल में तो था ही नैहर में भी था. उन्होंने कड़वाहट झेली तो बाकियों ने उनकी झेली. मैं उनको समझने की कोशिश करती हूँ तो बार-बार यह सवाल आता है कि जीवन-ज्वाला में तपी-झुलसी औरतों की आँच का क्या किया जाए ! वह कोई गैस चूल्हे का नॉब तो है नहीं जिसे नियंत्रित किया जा सके.

माँ-सी ही है मौसी यही दुनिया कहती है. बल्कि उससे भी बढ़कर है. हमारी तरफ की कहावत है "मारे माय जिलावे मौसी". इस मौसी को रिश्ते के रेशमी आवरण में मढ़कर हम छोड़ देते हैं और उसके नीचे जो औरत है उसको हम नहीं देखते हैं. इसीलिए जो तरह तरह की मौसियाँ हैं उनके बारे में सुनकर धक्का लगता है. फिल्मों में मौसी पात्र को देखिए या धारावाहिकों में. उपन्यासों और कहानी-कविताओं में खोजिए. मुझे याद है अपने यहाँ जो मुन्नी की माँ थी उसका किस्सा. मुनिया-चुनिया की तकलीफ गरीबी से बढ़कर यह थी कि उनकी मौसी माँ की सौत बन गई थी. अपने आसपास निगाह दौड़ाऊँ तो रंग-बिरंगी मौसियाँ मिल जाएँगी. मेरे घर में जो लड़की है, वह अपनी बहन के प्रसव के समय मदद करने के लिए कलकत्ता से दिल्ली आई थी. खुद 18 साल की है, मातृपितृविहीन, एक आँख जन्म से नहीं. छोटी बच्ची की देखभाल से लेकर मेरे घर की जिम्मेदारी सँभालती है. उसकी बहनबेटी जब उसे प्यार से "तान" पुकारती है तो यह मौसी उसपर निहाल नहीं हो पाती. मौसी पद का दायित्व भारी है. उसे खुशी खुशी निभाने के लिए उसे अपने जीवन में जो अवकाश चाहिए वह कहाँ है भला ! 

सोच रही हूँ कि मुझे मौसी शब्द उलझा रहा है या रिश्ता या अलग अलग किस्म की औरतों का जीवन !  फिलहाल रुकती हूँ. उस दिशा में जाने का मेरा इरादा नहीं है.