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सोमवार, 30 जुलाई 2012

सब कुछ की जड़ में (Sab kuchh ki jad mein by Deviprasad Chattopadhyay)


        बहुत पहले की बात है. लोगों की एक जमात थी. उनका पेशा मवेशी पालना था. रोहिताश्व ऐसी ही एक जमात का आदमी था. उसके पिता का नाम हरिश्चंद्र था. रोहिताश्व का मतलब लाल घोड़ा होता है. हरि के माने भी घोड़ा है. शायद साईं जमात ही अपना परिचय घोड़ा कहकर देती थी.
       ब्राह्मण बने इन्द्र ने रोहित को बार-बार नसीहत दी थी-काम में ही मंगल बसता है, सौन्दर्य रहता है. जो काम करता है, वही श्रेष्ठ है. काम से ही सुख मिलता है. इसलिए काम करो. जो काम करता है उसका शरीर और मन, दोनों बढ़ते हैं. मेहनत सारी कमियाँ दूर किए रहती है. इसलिए काम करो. काम करने से मधु, मीठे फल मिलते हैं. देखो, सूरज की रोशनी सदा चलती है, कभी नहीं सोती. इसलिए काम करो, काम करो.
       लेकिन इन्द्र ने पहले ही कहा तह, काम की यह महत्ता उनकी सुनी हुई है. इससे यह पता चलता है कि इन्द्र स्वयं परिश्रम नहीं करते थे. बहुत संभव है, वे उस ज़माने के एक दास-प्रभु थे. खुद मेहनत करने के बजाय दासों से मेहनत कराके वे अपार संपत्ति के मालिक बन बैठे थे. रोहिताश्व को पाने के लिए वे बहुत दिनों से सत्तू बाँधकर पीछे पड़े थे, जैसा कि चाय बागान की कुलीगिरी और लड़ाई के सिपाही की भर्ती के लिए दलाल तरह-तरह से फुसलाते हैं. यह भी शायद वैसा ही था.
       इन्द्र ने कहा था, चरैवेति, चरैवेति - काम करो, काम करो. लेकिन जो काम करेगा, वह अपनी मेहनत का पूरा फल पाएगा या नहीं, इस पर उन्होंने ख़ास कुछ नहीं कहा. दरअसल अगर काम का फल काम करने वालों को मिलता तो इन्द्र का वैसा महल बनकर नहीं खड़ा होता.
       बात चाहे अच्छी ही हो, पर वह किसके लाभ के लिए कही गई है, यही देख लेना ज़रूरी है. आज जब कुछ लोग स्वयं आराम करते हुए देश के बाकी लोगों की गर्दन तोड़ने के लिए उपदेश दिया करते हैं, तो वह सत्य नहीं जँचता, जाली हो जाता है. उसमें छन्द नहीं फन्द है. 


सम्पादक - देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय 


पुस्तक - जानने की बातें, भाग 5 , साहित्य और संस्कृति 
मूल - बांग्ला में प्रकाशित 'जानवर कथा' पुस्तकमाला का पंचम भाग 
अनुवादक - हंसकुमार तिवारी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

प्रख्यात दार्शनिक देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने बच्चों में समय, समाज और प्रकृति को देखने-परखने की वैज्ञानिकी समझ तथा ज्ञान के विकास के लिए विभिन्न विषयों के आधिकारिक विद्वानों के सहयोग से ग्यारह खंडों में इस महत्त्वपूर्ण पुस्तकमाला का संकलन-संयोजन-संपादन किया है. यह किसी बाल विश्वकोश से कम नहीं. खुशी-खुशी लक्ष्य की ओर बढ़ना ही छन्द है - इस तरह से छन्द को परिभाषित करते हुए वे चलते-चलाते रोहित की जो कहानी सुनाते हैं, वह पेश है.

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

कवि का स्कूल (Kavi ka school by Rabindranath Tagore)



मुझसे जो सवालात अकसर पूछे जाते हैं, उनसे ऐसा लगता है कि जनसमुदाय मुझसे, एक कवि से स्कूल खोलने का दु:साहस करने की वजह पूछता है. मैं इसे स्वीकार करता हूं कि रेशम का कीड़ा जो रेशम बुनता है और तितली जो यों ही उड़ती फिरती है, ये दोनों एक दूसरे के विपरीत अस्तित्व के दो प्रकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं. लगता है, प्रकृति के लेखाविभाग में रेशम का कीड़ा जितना उत्पादन करता है, उसके हिसाब से उसके काम का नकदी मूल्य नोट होता रहता है. लेकिन तितली गैरजिम्मेदार प्राणी है. इसका जो भी महत्त्व है, वह इसके नाते दो हलके पंखों के साथ उड़ता रहता है, उसमें न कोई भार है, न ही कोई मूल्य. संभवतः यह सूर्य की रोशनी में छिपे रंगों के कुबेर को खुश करती रहती है, जिनका लेखाविभाग से कोई लेना देना नहीं और जो लुटाने की महान कला में पूरी तरह माहिर है.
कवि की तुलना उसी बुद्धू तितली से की जा सकती है. वह भी सृष्टि के सभी उत्सवी रंगों को अपने छंदों की धड़कन में उतार देना चाहता है. तब वह कर्तव्यों की अनंत श्रृंखला में अपने आपको क्यों बांधे ? क्यों उससे कुछ अच्छे, ठोस और दर्शनीय परिणाम की आशा की जाए ? अपने बारे में निर्णय करने का अधिकार वह उन बुद्धिमान लोगों को क्यों दे जो उसकी रचना का गुण होने वाले फायदे की मात्रा से समझने की कोशिश करें.
इस कवि का उत्तर होगा कि जाड़े की खिली धूप में कुछ विस्तृत शाखाओं वाले मजबूत, सीधे और लंबे साल वृक्षों की छाया में जब एक दिन मैं कुछ बच्चों को लेकर आया तो मैंने शब्द के अतिरिक्त एक और माध्यम से कविता लिखनी शुरू की.


रचनाकार - रवींद्रनाथ ठाकुर
किताब - रवींद्रनाथ का शिक्षादर्शन
अनुवादक - गोपाल प्रधान  
प्रकाशक - ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 1997

रविवार, 24 जून 2012

महिलाओं की अवनति (Mahilaon ki awanati by Rokeya Sakhawat Hossain)


महिला पाठको ! क्या आपने कभी अपने ग़मगीन हालात के बारे सोचा है? इस सभ्य बीसवीं सदी वाली दुनिया में हम क्या हैं? गुलामों से अधिक कुछ भी नहीं हैं हम ! कोई कहता है कि गुलामों की खरीद-फरोख्त का खात्मा हो गया है, लेकिन क्या हमलोग गुलामी से आज़ाद हैं? हम अब भी गुलाम क्यों बनी हुई हैं? इसकी कुछ वजहें हैं.
...दुनिया भर में हमारे हालात में आए पतन की वजह के बारे में क्या कोई भी बता सकता है? शायद मौकों की किल्लत अहम वजह रही है. महिलाओं को काफी मौके नहीं मिले और उन्होंने बुनियादी मसलों में शिरकत करना बंद कर दिया. जब पुरुषों को यह लगा कि महिलाएँ अयोग्य और असमर्थ हैं तो उन्होंने उनकी मदद करनी शुरू कर दी. धीरे-धीरे अधिक संख्या में पुरुषों ने महिलाओं की ओर मदद का हाथ बढ़ाया और उसके साथ ही महिलाएँ अधिक अक्षम बनती चली गईं. उस समय हमारी स्थिति की तुलना अपने देश के भिखारियों से की जा सकती थी. धनी परोपकारी लोग धार्मिक कारणों से जितना अधिक दान करते हैं, भिखारियों की संख्या उतनी ही बढ़ती हुई दिखाई देती है. धीरे-धीरे दान लेने में किसी तरह की शर्मिन्दगी का अहसास नहीं करनेवाले आलसी लोगों के लिए भीख माँगना एक अंशकालिक पेशा ही बन गया. 
इसी तरह हम भी आत्मसम्मान का भाव भुला देने के कारण दान की तरह मिली मदद को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाती हैं. इसीलिए हम आलसी और एक तरीके से पुरुषों की गुलाम बन गई हैं. समय के साथ हमारा दिमाग भी गुलाम हो गया है और लम्बे वक्त से गुलामों की तरह काम करते रहने के कारण हमें भी इस गुलामी की आदत सी हो गई है. इस तरह हमारी दिमागी काबिलियत खुद पर भरोसा अथवा साहस भी इस्तेमाल नहीं किए जाने के कारण बार-बार दम तोड़ने लगी और अब तो यह काबिलियत पैदा भी नहीं होती है.         
...जिस तरह हमारे सोनेवाले कमरों में सूरज की रोशनी नहीं जाती है, उसी तरह ज्ञान का प्रकाश भी हमारे दिमाग के दरवाज़े खोल कर अन्दर नहीं जा पाता. हमारे लिए स्कूल और कॉलेज लगभग नहीं के बराबर हैं. पुरुष चाहे जितना पढ़ाई कर सकते हैं, लेकिन ज्ञान की तिजोरी क्या कभी हमारे लिए भी खोली जाएगी? अगर कोई नेक और उदार शख्स आगे आकर मदद का हाथ भी बढ़ाता है तो हज़ारों लोग उस रास्ते में रुकावटें खड़ी करने के लिए आ खड़े होते हैं.
हज़ारों लोगों द्वारा खड़ी की गई रुकावटों को किनारे रखते हुए आगे बढ़ना किसी एक आदमी के बस का काम नहीं है. उम्मीद की इस टिमटिमाहट के लौ बनाने के पहले ही नाउम्मीदी के गहरे अँधेरे में ग़ुम हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है. अधिकतर लोग इस मसले पर इतने अन्धविश्वासी हैं कि जब भी वे 'महिला शिक्षा' जैसा कोई शब्द सुनते हैं, वे अपने दिमाग में 'महिला शिक्षा के बुरे असर' जैसी स्थिति की कल्पना करने लगते हैं और ज़ोर-ज़ोर से काँपने लगते हैं. समाज एक अनपढ़ महिला की सैंकड़ों गलतियों को खुशी-खुशी माफ़ कर देता है, लेकिन जब किसी थोड़ी-बहुत शिक्षित महिला से गलती हो जाती है तो समाज उसकी गलतियों को सौ गुना बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने लगता है और इस गलती के लिए उसकी 'शिक्षा' को ही दोषी ठहराया जाने लगता है, भले ही वह महिला दोषहीन क्यों न हो. उस समय सैंकड़ों लोग व्यंग्य भरे लहजे में एक सुर में कहने लगते हैं कि 'हम तो इस महिला शिक्षा के आगे अपना सर झुकाते हैं.'

      
        लेखिका - बेगम रुकैया सखावत हुसैन, 1921
        बांगला से अंग्रेज़ी अनुवाद - बरनीता बागची
        अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - रंजीत अभिज्ञान और योगेन्द्र दत्त 
        स्रोत - 'वीमेन इन कॉन्सर्ट'(प्रकाशन-स्त्री,कलकत्ता और
        'जेंडर और शिक्षा रीडर', भाग दो (प्रकाशन-निरंतर,दिल्ली)