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मंगलवार, 21 जून 2022

मुल्का (Mulka by Dhoomil)

 मुल्का मियाँइन हैं 

उम्र साठ-बासठ के बीच है 

ए बचवा! ई सब कहकूत है। 

न हिन्नू मरै न मुसल्मान  

दंगा फसाद पेट भरले का गलचऊर है। 

- असल बात अउर है। 

जे सच पूछा तो परान 

ई गरीबन कै जात है। 

मुल्का क जिनगी एकर सबूत है। 

बीस बरिस बीत गयल मुल्का के। 

कुक्कुर एस गाँव-गाँव, घरे-घरे घूमते 

लेकिन कभी केहू एनसे ना पुछलेस - 

कि ए मुल्का बुजरो !

का तुहऊँ इंसान है ?


लोग राजा से रंक और रंक से राजा भयेल 

लेकिन मुल्का के दुनिया 

ई दौरी में दुकान है । 

                          - 1969 


संकलन : धूमिल समग्र, खंड 1  

संकलन-संपादन : डॉ. रत्नशंकर पाण्डेय 

प्रकाशन : राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2021 

शुक्रवार, 2 मई 2014

रोटी और संसद (Roti aur Sansad by Dhoomil)


एक आदमी 
रोटी बेलता है 
एक आदमी रोटी खाता है 
एक तीसरा आदमी भी है 
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है 
वह सिर्फ रोटी से खेलता है 
मैं पूछता हूँ - 
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है l


कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

अन्तर (Antar by Dhoomil)

कोई पहाड़ 
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है। 
और कोई आँख 
छोटी नहीं है समुद्र से 
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अन्तर है -
जो कभी 
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है l


कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003

बुधवार, 29 जनवरी 2014

कल (Kal by Dhoomil)

देह के बसन्त में वापस लौटते हुए, कल तुम पाओगे 
अपनी नफ़रत के लिए कोई कविता ज़रूरी नहीं है 
अपने जालों के साथ लौट जाएँगे 
वे जो शरीरों की बिक्री में माहिर हैं l 

कल तुम ज़मीन पर पड़ी होगी और बसन्त पेड़ पर होगा 
नीमतल्ला, बेलियाघाट, जोड़ाबगान 
फूलों की मृत्यु से उदास फूलदान 
और उगलदान में कोई फ़र्क नहीं होगा l

कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003

सोमवार, 13 मई 2013

रणनीति (Ranniti by Dhoomil)


भाषा और हवा में एक नाटक चल रहा है 
सालों और दिनों से दूर  

लेकिन पहली बार 
भाषा का पलड़ा भारी पड़ रहा है 
आदमी ने अपने दाँत उसके साथ  
कर दिए हैं l 

मैं भागता नहीं, सिर्फ 
मैं अपना चेहरा बाहर निकाल कर 
हवा में, एक गोल दायरा छोड़ देता हूँ 
बन्द, हत्यारे की बन्दूक दगती है 

दीवार में एक चेहरा बन जाता है  
और आततायी चौंक पड़ता है 
सुनकर  ठीक अपने पीछे 
दीवार की दूसरी ओर से आता हुआ 
मेरा उद्दाम अट्टहास l 

सहसा दूसरी बार 
मैं एक खोमचे में चला जाता हूँ 
और आखिरी बार -
चोली में 
छिपा चला जा रहा हूँ l 

किताबों का झूठ खोल कर  
बैठी रहती हैं वहाँ लड़कियाँ 
उनके बालों में रात 
गिरती रहती है 

कुहरे और नींद से बाहर 
एक सपना कुतरता है 
दूसरे सपने का जिस्म,
भाषा की हदों से 
जुड़ा हुआ मौन 
पिछले किस्से सुनाता है l 



कवि - धूमिल 
संकलन - सुदामा पाँड़े का प्रजातंत्र 

संपादन एवं संकलन - रत्नशंकर 

प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001

मंगलवार, 5 मार्च 2013

कर्फ्यू में एक घन्टे की छूट (Curfew mein ek ghante ki chhoot by Dhoomil)

मैं चिड़ियाघर से वापस आ रहा था 
और तुम लौट रहे थे खेल के मैदान से 
जब मैंने अपने छोटे भाई के गायब होने की खबर 
तुम्हें दी l 

हम कि जो प्यारे दोस्त थे l 
घबराने की कोई बात नहीं l 
गोलीकान्ड के बाद 
लड़कों का गायब होना नई बात नहीं है 
यह शान्ति का मसला है 
लेकिन खबरों के मलबों के नीचे 
सच्चाई का पता कब चला है ?
घबराने की कोई बात नहीं और 
यह खतरनाक भी नहीं 
जितना किसी लडकी का पीछा करना l 
देह के जलाशय में 
तैरना न जानते हुए भी 
कूल्हों के कशर कूद, भरना l 

आखिरकार लड़का अन्तिम बार 
कहाँ देखा गया l 
संसद की ओर जाने वाली सड़क पर
हरी कमीज़ पहने हुए,
और यह अच्छी बात है कि 
उसने लाल स्कार्फ को 
झण्डे की तरह तान लिया था 
जिसे सुबह उसने पीछा करके 
पड़ोस की लड़की से छीना था 

यौवन ऐसा सिक्का है 
जिसके एक ओर प्यार 
और दूसरी  तरफ गुस्सा छापा है l 
कम-से-कम यह एक सबूत है 
उसके जिन्दा रहने का 
कि वह 'लोकसभा-भवन' की ओर जा रहा था l 
महज लाल स्कार्फ के साथ 
जिसे उसने झण्डे की तरह उठा रखा था l 

और अभी उसके 
अपने 'मतदान' के खिलाफ 
होने का सवाल ही उठता नहीं था 
क्योंकि वह एक साथ चुन लेना चाहता है -
तितलियाँ, स्कार्फ, होंठ और फूलों 
के जादुई रंग l 

पेट और प्रजातन्त्र के बीच का सम्बन्ध 
उसके पाठ्यक्रम में नहीं है l 

वह एक दुधमुँही दिलचस्पी है 
कुलबुल जिज्ञासा है 
जिसे मारने के लिए इस पृथ्वी पर 
अभी कोई गोली नहीं बनी l 
(घनी-घनी उसकी बरौनियों के बीच की 
हवापट्टी पर दिवास्वप्नों की गूँजें 
उतरती हैं l )

और कर्फ्यू में शान्त ठण्डी सड़क पर 
सैनिक दस्तों के जूतों से 
कितनी सफेद और मार्मिक ध्वनि 
निकल रही है ...
जनतन्त्र...जनतन्त्र...जनतन्त्र...जनतन्त्र 

कवि - धूमिल 
संकलन - सुदामा पाँड़े का प्रजातंत्र 
संपादन एवं संकलन - रत्नशंकर 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001

शनिवार, 22 सितंबर 2012

किस्सा जनतंत्र (Kissa jantantra by Dhoomil)



करछुल -
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता 
चुपचाप जलता है और जलता रहता है 

औरत -
गवें गवें उठती है - गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है l
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती) 
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है 

बच्चे आँगन में -
आँगड़  बाँगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ 
कुछ भी नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं

एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ-साथ 
चलता है और चलता रहता 

बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबत्ती बालकिशुन आधे में आधा
कुल रोटी छै  
और तभी मुँहदुब्बर
दरबे में आता है - खाना तैयार है ?
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँहदुब्बर 
पेट भर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है 

और अब -
पौने दस बजे हैं -
कमरे की हर चीज़
एक रटी हुई रोजमर्रा धुन  
दुहराने लगती है 
वक्त घड़ी से निकलकर
अँगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दन्तटूटी कंघी 
बालों में गाने लगती है

दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टाटा कहते हैं
एक फटेहाल कलफ कालर - 
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढढ्ढा साइकिल 
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ 
दफ़्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब 
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को 
चूमना -
देखो, फिर भूल गया l'  


कवि - धूमिल
संकलन - कल सुनना मुझे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003