Translate

बुधवार, 8 जुलाई 2020

रोटी, छड़ी और पापा (Roti, chhadi aur papa by Purwa Bharadwaj)

अभी दाल मखनी बनाई थी. रंग अच्छा आया. तुरत याद आया कि पापा कहते थे कि खाना चमकता हुआ होना चाहिए, एकदम माँ के हाथ के खाने की तरह. उन्होंने मुझे भी पास कर दिया था जब मैं कायदे की रोटी बनाने लगी थी. रोटी का किनारा माँ की तरह खड़ा करके खर सेंकने लगी थी तब. उनके लिए अच्छी रोटी, हल्की और खूब सिंकी हुई रोटी बनाना पाककला की कसौटी था. उसमें निपुण होने में मुझे थोड़ा वक्त लगा था. परथन अधिक लगा देने की वजह से भी पहले शायद मुझसे रोटी उतनी अच्छी नहीं बनती थी. भैया इन सब फ़िक्र से बेपरवाह था. उसे छुट्टी थी. हर घर की तरह.

आटा पिसाने के काम से भी भैया को छुट्टी थी. रानीघाट में अखिलेश बाबू के मकान में जब हम थे तो ठीक उसके सामने नीचे में आटा चक्की थी. रामदयाल जी के मकान में.  नहीं, असल में रामदयाल जी के चाचा फौजदार का मकान था वह. और उसी में रामदयाल जी की किराने की दुकान थी जहाँ से गेहूँ आता था. वहाँ खाता चलता था हमारे घर का और कई बार वे नगद उधार भी देते थे. पापा हमेशा कहते थे कि रामदयाल जी ने हमारी गाढ़े वक्त में बहुत मदद की है. उनके भांजे बासु की भी तारीफ करते थे जो आटा चक्की चलाता था. चक्की पर जमावड़ा लगा रहता था. मर्द और किशोर और छोटे बच्चे भी. समय लगता था आटा पीसने में. हम बच्चों के लिए कौतूहल का विषय था चक्की में पीछे जाकर हाथ डालकर आटे को हिलाना और पहले गेहूँ और फिर आटा तौलना.

माँ गेहूँ धोकर, सुखा कर अपने सामने आटा पिसवाती थी. पापा की पसंद के मुताबिक. थोड़ा मोटा और दरदरा. पापा को मैदे जैसा महीन आटा नहीं पसंद था क्योंकि उसकी रोटी चिमड़ी सी हो जाती थी. सो वो भी माँ का जिम्मा था. घर में गेहूँ की गुणवत्ता, आटे की पिसाई और उन सबका रोटी पर जो असर पड़ता है, यह गपशप के साथ खटपट का भी मुद्दा बनता था. हमलोग पापा महीन खवैया हैं, इतना कहकर सिर्फ आनंदित नहीं होते थे. कभी कभी खुद भी परेशान होते थे और उनको भी परेशान करते थे. लेकिन उनको झाँसा देना इतना आसान नहीं था. डालडा को घी कहकर कई बार हमने उनको धोखे से कुछ कुछ खिलाया है, लेकिन किसमें अदरख है किसमें मेथी किसमें अजवाइन यह वे पहले कौर में पकड़ लेते थे. मेरी बेटी इस मामले में एकदम अपने नाना पर गई है.

खैर, रोटी और कटोरी में कड़कड़ाया हुआ घी पापा की थाली में लंबे समय तक हमने देखा है. वे घी में रोटी बोर-बोर कर खाते थे. गुड़ ज़रूरी नहीं था कि हो ही. यह विलास माँ के दम पर ही था. जी हाँ, विलास ही कहना चाहिए. पापा क्लास जाने की तैयारी में जब नहाने जाते थे तो माँ का तवा चढ़ जाता था. उसी तरह रात में घूम-घामकर, गोष्ठी-मीटिंग करके जब पापा आते थे तब माँ दिन भर की थकान के बावजूद गरमागरम रोटी बनाकर परोसती थी.  यह सिलसिला बरसो बरस चला. रूटीन की तरह. यदा कदा माँ की खीझ देखकर पापा को टोका जाता था, लेकिन कभी गंभीरता से किसी ने नहीं लिया इसे. एक समय आया जब रात की रोटी बनाने का जिम्मा मेरा हुआ. तब पापा ने गरम रोटी की ख्वाहिश छोड़ दी. मुझे राजेंद्रनगर अपने घर भागना होता था. 

रानीघाट, गुलबी घाट और घघा घाट के बाद जब माँ-पापा को भैया बुद्ध कॉलोनी ले आया तो आटा पिसवाकर खाना सपना हो गया. चक्की इधर भी थी, मगर माँ अशक्त होती जा रही थी. अब पैकेट वाले आटे पर उतरना ही पड़ा. उसमें ब्रांड कौन सा होगा, यह पापा की पसंद पर निर्भर था और बीच बीच में बदलता भी था. फिर संजू-गुड़िया और मीरा के हाथ की रोटी पापा खाने लगे थे. मन से. कभी-कभी ही टोकते कि आज रोटी का किनारा कच्चा रह गया है थोड़ा या सींझने में कसर रह गई है. दिन की बनी रोटी ही रात को खा लेते थे. माइक्रोवेव घर में नहीं है तो नॉन स्टिक तवे पर गर्म करके. बिना घी के. या ठंडी रूखी रोटी गर्म की गई सब्ज़ी के साथ. परोसना माँ का काम था. 

धीरे-धीरे माँ की मांसपेशियों की तकलीफ बढ़ती गई और उसका चलना मुहाल हुआ तो वह सारा खाना गर्म करके थाली सजा देती थी और पापा खुद से अपनी थाली ले जाते थे. बाद में पापा न केवल अपना खाना गर्म करने लगे, बल्कि माँ की थाली भी लगाने लगे. यह बड़ा फर्क था जो कि अच्छा था. माँ को ग्लानि सी महसूस होती थी कि ऐसी नौबत आ गई कि पापा को मेरा काम करना पड़ता है. मैं उसको समझाती थी कि ठीक है जीवन भर तुमने पापा का किया है अब उनको करने दो. जेंडर, पितृसत्ता वगैरह वगैरह के साथ सामाजिक ढाँचे की बात करती थी. सोदाहरण. हालाँकि माँ-पापा को मालूम था सब.

लॉकडाउन में मीरा अहले सुबह आकर तीनों-चारों वक्त की रोटी बना जाती थी. पापा सुबह-शाम दो या एक रोटी का नाश्ता भी करने लगे थे. सुबह मीरा खिलाती उनको, दिन में गुड़िया, शाम को नंदन और रात को सोनू. एकाध दिन मैं मौजूद रहती तो भी उन्हीं से परोसने को कहते थे पापा. कोई न रहे तो ही मुझको परोसने देते थे क्योंकि उनको लगता था कि मैं उनका हिसाब किताब नहीं जानती हूँ. दिल्ली आ जाने के बाद वाकई महीनों बाद कुछ शाम घर में बिताने पर भला मुझे कैसे अंदाजा होता कि उनकी थाली में सब्ज़ी कितनी रखी जाएगी और दाल पहलवाली कटोरी में देनी है या दूसरी किसी कटोरी में. वह भी अधिक गर्म नहीं, बल्कि सुसुम ताकि रोटी डुबो कर आराम से वे खा सकें. बेटी का पराया हो जाना कितना परतदार होता है और कहाँ कहाँ चुभता है, यह शायद पापा को नहीं बताया मैंने. केवल झल्लाती थी उनपर.

मुझे चिढ़ होती थी कि जब देखो तो रोटी-रोटी. उन्होंने बाकी कुछ भी खाना धीरे-धीरे छोड़ दिया था. 29 अप्रैल की रात तीन रोटी और सब्ज़ी उनका घर का अंतिम खाना था. फिर ICU से निकलने के बाद अस्पताल के कमरे में 7 मई को उन्होंने सुनीता (भाभी) के हाथ की खिचड़ी 3-4 चम्मच खाई. दवाओं के अलावा अस्पताल में एकाध बार सत्तू घोलकर दिया, थोड़ा दूध दिया. बाकी पता नहीं कुछ दिया या नहीं! 7 मई को ही पापा ने कहा था कि दवा बंद होते ही घर चलेंगे. हम सोच रहे थे कि पापा कुछ ठोस खाएँगे-पीएँगे, घर की बनी रोटी-सब्ज़ी खाएँगे तो जल्दी ताकत लौटेगी. 

लेकिन ताकत न पापा की लौटी और न हमारी. 8 मई की दोपहर पापा दुबारा ICU में चले गए. मैं दिल्ली से चली. आज शाम दाल मखनी बनाते हुए मैं उस शाम को याद कर रही थी. बात-बात पर चीज़ें याद आती हैं. एक दिन संपादन का काम कर रही थी तो शब्द सामने आया “छड”. होना था छड़. दुरुस्त करते समय कई विकल्प आए जिनमें अंतिम विकल्प था छड़ी. उससे कौंधा पापा की छड़ी. खूबसूरत लकड़ी की छड़ी जो अरशद अजमल साहब ने खरीदकर मेरे घर पहुँचवाई थी. अगली लड़ी में याद आया कि पापा ने नहीं से नहीं ली छड़ी और आखिर गिर ही गए. वैसे गिरे तो अनगिनत बार. कभी हाथ में चोट लगती, कभी कंधे में. सर भी फूटा, उँगली भी कटी, मगर हर बार बचते रहे. एक केयरटेकर जबसे साथ रहने लगा राहत मिली, भरोसा बढ़ा. छड़ी न लेने का एक बहाना भी मिल गया उनको. आखिर 30 अप्रैल को ऐसा गिरे कि चले ही गए. क्यों पापा ? इतनी ज़िद ! छड़ी ले लेते तो शायद यह गिरना तो टल जाता! 

टलना और टालना एक अजीब शब्द है. एक में कई बाहरी कारक होते हैं और दूसरे में व्यक्ति विशेष की सक्रिय भूमिका. फिर भी अख्तियार से बाहर! और अब याद आ रहा है पापा का शब्दों से लगाव. वे कितनी बारीकी से शब्दों के प्रयोग पर बात करते थे. अभी होते तो शायद रोटी पर ही हम घंटों उनके मुँह से तरह तरह के किस्से सुन रहे होते. उनको अपनी बड़की चाची के हाथ की मकई की रोटी और लौकी की सब्ज़ी का नायाब जायका याद आता और फिर उसका विस्तृत बखान होता. या दाल मखनी पर पापा कहते कि मुझे न राजमा पचता है और न छिलके वाली उड़द की दाल. और इसे खाना भी हो तो भात के साथ खाओ, रोटी के साथ नहीं! 




शनिवार, 4 जुलाई 2020

लॉकडाउन में मितुल (Mitul in lockdown by Purwa Bharadwaj)


एक बच्चा है. कहिए कि नौजवान है. 22 साल का. नाम है मितुल मल्होत्रा. पश्चिमी दिल्ली में रहता है. पिछले 15 दिनों से वह बहुत परेशान है. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के अंतिम साल में है. लेकिन अभी लॉकडाउन में ऑनलाइन पढ़ाई या परीक्षा उसके दिमाग में नहीं है. वह रोज़ाना आते जा रहे गाड़ी के चालान से त्रस्त है. 15 दिन में 12 चालान धड़ाधड़ आए. कभी 60 की जगह 64 की गति पर वह पकड़ा गया (एक बार 75 की स्पीड की गलती वह खुद मान रहा है), तो कभी ज़ेबरा क्रॉसिंग की ठीक पीछेवाली रेखा पर होने के बारे में उसे नोटिस आई. मध्यवर्गीय कार दौड़ानेवाले बच्चों से ज़रा अलग है वह जिनकी मर्दानगी सड़कों पर चिनगारियाँ छोड़ती रहती है.

माँ अंग्रेज़ी माध्यम के बड़े प्राइवेट स्कूल में जूनियर सेक्शन की हेड मिस्ट्रेस हैं. सारे विषय पढ़ाती हैं. उन्होंने एम. ए.किया है हिन्दी में. दिखने में हिन्दीवाली कतई नहीं हैं. पंजाबी मन-मिजाज़ का हिन्दीकरण नहीं हुआ है. इन दिनों ऑनलाइन पढ़ने-पढ़ाने में व्यस्त हैं. प्रबंधन में भी. साथ ही घर के काम में. उसमें भी रसोई में ज़्यादा वक्त जा रहा है जो कि पहले उतना नहीं जाता था. सहयोगिनी बालिका छुट्टी करके उड़ीसा के गाँव जा चुकी थी और प्लेसमेंट एजेंसी ने नई लड़की को अभी तक बहाल नहीं किया था. अब मितुल के लिए, उसके पापा के लिए, अपने लिए खाना तो बनाना ही है. पिता-पुत्र भी भरसक मदद करते हैं. वैसे मदद और जिम्मेदारी के बीच का अंतर उन सबको मालूम है.  

फिलहाल मितुल के परिवार को रेस्टोरेंट और ढाबे से खाना उपलब्ध नहीं है. अपने किराये के घर की ‘एग्जॉस्ट फैन’ और चार बर्नर वाले गैस चूल्हे से सज्जित आधुनिक रसोई में मितुल की माँ लॉकडाउन का शुक्र मनाती हुई जब तब जुटी रहती हैं. यह शुक्र मनाना शायद जान है तो जहान है, यह सोचकर ही मुमकिन है. वरना रसोई से छुट्टी स्कूल की छुट्टी से अधिक मायने रखती है. उनकी रसोई में चिमनी वाला चूल्हा नहीं है और पुराने चूल्हे का पेंट भी उखड़ने पर है. इन दिनों कभी कभी सब्ज़ी छौंकते हुए उनके मन में कौंधता है कि उनके खाते से दो-दो कार का EMI जाना है. कैसे क्या होगा ? इस महीने उनको 30% ही तनख्वाह मिली है. तनख्वाह 30% कटी नहीं है, मिली है. संपन्न, प्रतिष्ठित स्कूल के पास तर्क है कि बच्चों से फीस नहीं आ रही. अब प्रबंधन से कौन कहे कि अपने मुनाफे में से शिक्षकों को भी दे, केवल तृतीय-चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को नहीं. कोई माने या न माने श्रेणियाँ कहाँ और क्यों बनती हैं, इसका तीखा अहसास इस तबके को हो रहा है. फिर भी ‘शिष्टता’ ने रोक रखा है कुछ भी बोलने से.