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बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे (Haji lok Makke nun jande by Bulleh shah)

हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे,
           मेरा राँझण माही मक्का,
           नी मैं कमली आँ l
मैं ते मंग राँझे दी होई आँ, मेरा बाबल करदा धक्का,
           नी मैं कमली आँ l
हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे, मेरे घर विच्च नौ सौ मक्का,
           नी मैं कमली आँ l
विच्चे हाजी विच्चे गाज़ी, विच्चे चोर उचक्का,
           नी मैं कमली आँ l
हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे, असाँ जाणा तख़त हज़ारे,
           नी मैं कमली आँ l
जित वल्ल यार उते वल्ल काअबा, भावें फोल किताबाँ चारे,
           नी मैं कमली आँ l

धक्का - ज़बरदस्ती                 गाज़ी - धर्म की खातिर लड़ने वाला
किताबाँ चार - चार धार्मिक ग्रन्थ (तौरेत, ज़ंबूर, अंजील एवं कुरान)


रचनाकार - बुल्ले शाह
संकलन - बुल्लेशाह की काफियां
संपादक - डा. नामवर सिंह 
श्रृंखला संपादक - डा. मोहिन्द्र सिंह 
प्रकाशक - नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज़ के सहयोग से 
अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, 2003  

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी (Bhainan main kattadi kattadi hutti by Bulleh Shah)



                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l
पीहड़ी पिच्छे पिछावाड़े रहि गई,
हत्थ विच्च रहि गई जुट्टी l
अग्गे चरखा पिच्छे पीहड़ा 
मेरे हत्थों तन्द तरूटी l
                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l
दाज जवाहर असाँ की करना,
जिस प्रेम कटवाई मुट्ठी l
उहो चोर मेरा पकड़ मँगाओ 
जिस मेरी जिन्द कुट्ठी l
                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l
भला होया मेरा चरखा टुट्टा,
मेरी जिन्द अजाबों छुट्टी l
बुल्ला सहु ने नाच नचाए,
ओत्थे धुम्म कड़ कुट्टी l
                 भैणाँ मैं कत्तदी कत्तदी हुट्टी l

हुट्टी = थक गई ;   तरूटी = टूटी ;   कुट्टी = डंके की चोट 

रचनाकार - बुल्ले शाह
संकलन - बुल्लेशाह की काफियां
संपादक - डा. नामवर सिंह 
श्रृंखला संपादक - डा. मोहिन्द्र सिंह 
प्रकाशक - नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज़ के सहयोग से 
अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, 2003   

शनिवार, 18 अगस्त 2012

पाया है किछु पाया है (Paya hai kichhu paya hai by Bulleh Shah)



पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.
कहूँ वैर पड़ा कहूँ बेली हो,
कहूँ मजनूँ हो कहूँ लेली हो,
कहूँ आप गुरु कहूँ चेली हो,
आप आप का पन्थ बताया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.

कहूँ मस्जिद का वरतारा है,
कहूँ बणिया ठाकुरद्वारा है,
कहूँ बैरागी जटधारा है,
कहूँ शेख नबी बण आया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.

कहूँ तुर्क हो कलमा पढ़ते हो,
कहूँ भगत हिन्दू जप करते हो,
कहूँ घोर गुफा में पड़ते हो,
कहूँ घर घर लाड लडाया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.

बुल्ला मैं थीं बेमुहताज होया,
महाराज मिलिआ मेरा काज होया,
दरस पीआ का मुझहे इलाज होया,
आपे आप मैं आपु समाया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.


रचनाकार - बुल्ले शाह
संकलन - बुल्लेशाह की काफियां
संपादक - डा. नामवर सिंह 
श्रृंखला संपादक - डा. मोहिन्द्र सिंह 
प्रकाशक - नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज़ के सहयोग से 
अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, 2003   
  

पंजाबी सूफी शायर बुल्ले शाह (1680–1757) कादरिया सिलसिले से जुड़े हुए थे. 'बुल्लेशाह की काफियां' किताब के परिचय में कुलजीत शैली ने लिखा है, अपने रब और अपने मुर्शिद (गुरु) शाह इनायत कादरी के प्रति इश्क के भावात्मक वेग ने उनकी शायरी को नई भंगिमा दी. इस "शायरी के वस्त्र देसी काफियों के हों या विदेशी सिहरफियों के, यह दोहड़ों, गाँठों, बारहमासों के रूप में लिखी जाए या अठवारे के रूप में, उसकी वाणी मानवता की मुक्ति के लिए है." इसकी मस्ती और शोख अंदाज़ के कायल तो हम सभी हैं ही.