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मंगलवार, 17 सितंबर 2013

प्राणों के पाहुन (Pranon ke pahun by Balkrishn Sharma 'Naveen')


प्राणों के पाहुन आए औ' चले गए इक क्षण में
हम उनकी परछाईं ही से छले गए इक क्षण में l

कुछ गीला-सा, कुछ सीला-सा अतिथि-भवन जर्जर-सा
आँगन में पतझर के सूखे पत्तों का मर्मर-सा,
आतिथेय के रुद्ध कंठ में स्वागत का घर्घर-सा,
यह स्थिति लखकर अकुलाहट हो क्यों न अतिथि के मन में ?
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

शून्य अतिथिशाळा यह हमने रच-पच क्यों न बनाई ?
जंग को अपनी शिल्प-चातुरी हमने क्यों न जनाई ?
उनके चरणागमन-स्मरण में हमने उमर गँवाई ;
अर्घ्य-दान कर कीच मचा दी हमने अतिथि-सदन में ;
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट पड़े इक क्षण में l 

वे यदि रंच पूछते : क्यों है अतिथि-कक्ष यह सीला ?
वे यदि तनिक पूछते : क्यों है स्फुरित वक्ष यह गीला ?
तो हो जाता ज्ञात उन्हें : है यह उनकी ही लीला ;
है पंकिलता आज हमारी माटी के कण-कण में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

अतिथि निहारें आज हमारी रीती पतझड़-बेला,
आज दृगों में निपट दुर्दिनों का है जमघट-मेला ;
झड़ी और पतझड़ से ताड़ित जीवन निपट अकेला ;
हम खोए-से खड़े हुए हैं एकाकी आँगन में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l
                                              - 6 मई, 1948


कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संकलन - आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : 'नवीन'
संपादक - भवानीप्रसाद मिश्र 
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली

शनिवार, 1 जून 2013

हम अनिकेतन (Hum aniketan by Balkrishn Sharma 'Naveen')


हम अनिकेतन, हम अनिकेतन 
हम तो रमते राम हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन ?

अब तक इतनी योंही काटी, अब क्या सीखें नव परिपाटी 
कौन बनाये आज घरौंदा हाथों चुन-चुन कंकड़-माटी 
ठाठ फकीराना है अपना बाघाम्बर सोहे अपने तन ?

देखे महल, झोंपड़े देखे, देखे हास-विलास मज़े के 
संग्रह के सब विग्रह देखे, जँचे नहीं कुछ अपने लेखे 
लालच लगा कभी पर हिय में मच न सका शोणित-उद्वेलन !

हम जो भटके अब तक दर-दर, अब क्या खाक बनायेंगे घर 
हमने देखा सदन बने हैं लोगों का अपनापन लेकर 
हम क्यों सने ईंट-गारे में हम क्यों बने व्यर्थ में बेमन ?

ठहरे अगर किसीके दर पर कुछ शरमाकर कुछ सकुचाकर 
तो दरबान कह उठा, बाबा, आगे जा देखो कोई घर 
हम रमता बनकर बिचरे पर हमें भिक्षु समझे जग के जन !
हम अनिकेतन !
                                                           - 1 अप्रैल, 1940


कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संकलन - आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : 'नवीन'
संपादक - भवानीप्रसाद मिश्र 
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली 

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

मनोरथ (Manorath by Balkrishn Sharma 'Naveen')

अलमस्त हुई मन झूम उठा, चिड़ियाँ चहकीं डरियाँ डरियाँ 
चुन ली सुकुमार कली बिखरी मृदु गूँथ उठीं लरियाँ लरियाँ 
किसकी प्रतिमा हिय में रखिके नव आर्ति करूँ थरियाँ थरियाँ  
किस ग्रीवा में डार ये डालूँ सखी, अँसुआन ढरूँ झरियाँ झरियाँ  

सुकुमार पधार खिलो टुक तो इस दीन गरीबिन के अँगना 
हँस दो, कस दो रस की की रसरी, खनका दो अजी कर के अँगना 
तुम भूल गये कल से हलकी चुनरी गहरे रँग में रँगना 
कर में कर थाम लिये चल दो रँग में रँग के अपने सँग - ना ?

निज ग्रीव में माल-सी डाल तनिक कृतकृत्य करौ शिथिला बहियाँ 
हिय में चमके मृदु लोचन वे, कुछ दूर हटे दुख की बहियाँ 
इस साँस की फाँस निकाल सखे, बरसा दो सरस रस की फुहियाँ 
हरखे हिय रास रसे जियरा, खिल जायें मनोरथ की जुहियाँ l 


कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संकलन - आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : 'नवीन'
संपादक - भवानीप्रसाद मिश्र 
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली 

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

संभाषण (Sambhashan by Balkrishn Sharma 'Naveen')



आज चाँद ने खुश-खुश झाँका,
काल-कोठरी के जँगले से ;
गोया मुझसे पूछा हँसकर
कैसे बैठे हो पगले-से ?

कैसे ? बैठा हूँ मैं ऐसे -
कि मैं बंद हूँ गगन-विहारी ;
पागल-सा हूँ ? तो फिर ? यह तो
कह कर हारी दुनिया बेचारी ;

मियाँ चाँद, गर मैं पागल हूँ -
तो तू है पगलों का राजा ;
मेरी तेरी खूब छनेगी,
आ जँगले के भीतर आ जा ;

लेकिन तू भी यार फँसा है -
इस चक्कर के गन्नाटे में ;
इसीलिए तू मारा-मारा -
फिरता है इस सन्नाटे में ;

अमाँ, चकरघिन्नी फिरने का -
यह भी है कोई मौजूँ छिन ?
गर मंजूर घूमना ही है,
तो तू जरा निकलने दे दिन ;

यह सुन वह आदाब बजाता -
खिसक गया डंडे के नीचे ;
और कोठरी में 'नवीन' जी
लगे सोचने आँखें मीचे.
                       - 1933

कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संग्रह - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006