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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

पानी की आवाज़ का सौहार्द ( गौरांग मोहन्ता Gauranga Mohanta)


अँधेरे के शून्य वातावरण में गति का संयमित कंपन मौजूद 
है। चिंताशील पहाड़ियों की कोमलता से मूक चेतना विस्तृत 
हो जाती है। आकाश अनंत ध्वनियो की अदृश्य बाढ़ में डूब 
जाता है। पानी की बेमिसाल आवाज़ का सौहार्द निर्जन घर का 
संकेत देता है। अँधेरे में मैं सुनहरे-कमल को खिलते देखता हूँ;
सबसे लंबा जामदानी अलग-अलग धागों से बुना जाता है। 
आंतरिक दृष्टि का परिवर्तन फिर से उथले पानी को बचाता 
है। रहस्यमय भूमि पर खड़े होने पर मुझे जीवन की अविरत 
उड़ान का अनुभव प्राप्त होता है और रडार के अथक घूर्णन का 
अनुभव होता है। 


बांग्लादेशी कवि - गौरांग मोहन्ता
अनुवाद - उषा बंदे 
प्रकाशन - रुब्रिक प्रकाशन, द्वारका, दिल्ली, 2018 


गौरांग मोहन्ता की किताब आज शाम ही मिली और मैं उस पतली सी किताब को पढ़ गई। उनकी गद्य कविता का स्वाद मुझे थोड़ा त्रिलोचन और शमशेर की याद दिलाता रहा। बांग्लादेश के कवि गौरांग अपनी काया के अनुरूप लिखते भी हैं - नज़ाकत से, सौम्य और संवेदनशील। यों बहुत मुखर नहीं हैं, मगर कविता उनकी भरपूर बोलती है। 

शुक्रवार, 21 जून 2013

भागना (Bhagana by Shankho Ghosh)

भागना है ? भागना ही l भागना 
शहर छोड़, दल छोड़ भागना 
मछली उछली उथले पानी भागना 
मोलतोल घनघोर भागना 
आँख जलेगी, उन आँखों मत ताकना 
लक्ष्मी फेंक गयी हाथों का कँगना 
भाग ना, दौड़कर भागना 
विद्या छोड़, सिद्धि छोड़ भागना l 



कवि - शंख घोष 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987
 

मंगलवार, 18 जून 2013

पीढ़ा (Peedha by Shakti Chattopadhyay)



वहाँ आँगन के कोने में
प्यार ने सजाकर
रखा था एक पीढ़ा

छाया थी
माया थी
छाजन तले उगी थी हरी-हरी घास
और धरती पर खुंदे थे
वर्षा की बूँदों के गिरने के निशान
और ठीक वहीं
आँगन के उस कोने में
प्यार ने सजाकर रखा था एक पीढ़ा
पर आया नहीं वह
जिसे आना था बैठने
आया नहीं जल्दी
आया नहीं धीरे-धीरे
आया नहीं वह
जिसे आना था
बैठने
रात धीरे-धीरे
होती गयी गहरी
रात धीरे-धीरे
होती गयी शेष
वहाँ
आँगन के उस कोने में
उसी तरह पड़ा रहा
खाली पीढ़ा
पर आया नहीं वह
जिसे आना था
बैठने l


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

रविवार, 12 मई 2013

एक्ला चलो (Ekla chalo by Rabindranath Tagore)


यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे
          तबे एक्ला चलो रे l
एक्ला चलो, एक्ला चलो,
             एक्ला चलो रे ll
यदि केउ कथा ना कय –
      (ओरे ओरे ओ अभागा !)
यदि सबाइ थाके मुख फिराये,
      सबाइ करे भय –
             तबे पराण खुले,
ओ तुइ मुख फुटे तोर मनेर कथा,
              एक्ला बलो रे ll
यदि सबाइ फिरे जाय –
       (ओरे ओरे ओ अभागा !)
यदि गहन पथे जाबार काले
       केउ फिरे ना चाय –
              तबे पथेर काँटा
ओ तुइ रक्तमाखा चरण तले
              एक्ला दलो रे ll
यदि आलो ना घरे –
       (ओरे ओरे ओ अभागा !)
यदि झड़ बादले आँधार राते
       दुयार देय घरे –
तबे बज्रानले
आपन बुकेर पांजर ज्वालिये निये
             एक्ला ज्वलो रे ll
यदि तोर डाक शुने कोउ न आसे,
           तबे एक्ला चलो रे l
एक्ला चलो, एक्ला चलो,
              एक्ला चलो रे ll 

"यदि तेरी पुकार सुनकर कोई न आये तो तू अकेला ही चल पड़ l अरे ओ अभागा, यदि तुझसे कोई बात न करे, यदि सभी मुँह फिरा लें, सब (तेरी पुकार से) डर जायें तो तू प्राण खोलकर अपने मन की वाणी अकेला ही बोल l अरे ओ अभागा, यदि सभी लौट जायें, यदि कठिन मार्ग पर चलते समय तेरी ओर कोई फिरकर भी न देखे तो तू अपने रास्ते के काँटों को अपने खून से लथपथ चरणों द्वारा अकेला ही रौंदता हुआ आगे बढ़ l अरे ओ अभागा, यदि तेरी मशाल न जले और आँधी-तूफ़ान और बादलों से भरी रात में (तुझे देखकर) सब लोग दरवाजा बन्द कर लें तो फिर अपने को जलाकर तू अकेला ही ह्रदय-पंजर जला l यदि तेरी पुकार सुनकर कोई तेरे पास न आये तो फिर अकेला ही चलता चल, अकेला ही चलता चल l"

कवि - रवीन्द्रनाथ ठाकुर 
किताब - हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, खण्ड 8 में संकलित 'मृत्युंजय रवीन्द्र' से 
सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1981

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

अँधेरे में (Andhere mein by Shakti Chattopadhyay)


हाथ पर 
हाथ !
अँधेरे में अचानक 
यह किसने रख दिया 
मेरे हाथ पर हाथ !

कौन है यह ?
बताओ बताओ 

शब्द नहीं 
कोई भी शब्द नहीं 
शब्द नहीं 
कोई भी शब्द नहीं l

कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

रविवार, 9 दिसंबर 2012

तुम (Tum by Shankho Ghosh)


दूर-दूर तक खूब घूमता
दिन-दिन-भर मैं तिरता फिरता
रस्ते-रस्ते
लेकिन घर पर लौट ढूँढ़ती आँखें तुमको
यदि न दिखीं तुम,
तुम !
मन बुझ जाता l 



कवि - शंख घोष 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

रविवार, 25 नवंबर 2012

पुराना दुख, नया दुख (Purana dukh, naya dukh by Shakti Chattopadhyay)



वह जो अपना एक दुख है पुराना 
क्या उससे आज कहूँ कि आओ 
और थोड़ी देर बैठो मेरे पास 

यहाँ मैं हूँ 
वहाँ, मेरी परछाईं 
कितना अच्छा हो कि इसी बीच वह भी आ जाय 
और बैठ जाय मेरी बगल में 

तब मैं अपने नये दुख से कहूँगा 
जाओ 
थोड़ी देर घूम-फिर आओ 
झुलसा दो कहीं कोई और हरियाली 
झकझोर दो किसी और वृक्ष के फूल और पत्ते 
हाँ, जब थक जाना 
तब लौट आना 
पर अभी तो जाओ 
बस थोड़ी-सी जगह दो मेरे पुराने दुख के लिए 
वह आया है न जाने कितने पेड़ों 
और घरों को फलाँगता हुआ 
वह आया है 
और बैठ जाना चाहता है बिल्कुल मुझसे सटकर 

बस उसे कुछ देर सुस्ताने दो 
पाने दो कुछ देर उसे साथ और सुकून 
ओ मेरे नये दुख 
बस थोड़ी-सी जगह दो 
थोड़ा-सा अवकाश 
जाओ 
जाओ 
फिर आ जाना बाद में l 


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

ब्लडप्रेशर (Blood pressure by Vishnu Dey)


इस बीमारी का कोई इलाज नहीं, असाध्य सत्ता की व्याधि में
दवा-दारु बेकार है, सही-सही पथ्य या व्यायाम - किसी से भी
क्या कुछ भी होता है ! अनिद्रा के 
फन्दे में रात कटती है,
रक्त मचल-मचल उठता है, बेदम हो कर नाड़ी छूटने लगती है l
लाल आँखें नीले आकाश पर उदार प्रान्तर पर टिका दो
ऑफ़िस की गोपनीय फ़ाइलों में आँखों का इलाज नहीं है l
अगर खुले मैदान में पेशियों की ज़ंजीर खोल दोगे,
अगर स्नायु नित्य निःस्वार्थ विराट् में मुक्तिस्नान करेंगे,
अगर दिगन्त तक फ़ैली निर्मल हवा में अपने निश्वास छोड़ोगे,
तभी शरीर सुधरेगा, उच्च ताप घटेगा ; इस की दवाई
वैद्यों के हाथ में नहीं है l  इस रोग का नुस्ख़ा है आकाश में,
धरती में, वनस्पति ओषधि में, खेत-मैदान-घास में,
पहाड़ में, नदी में, बाँध में, दृश्य जगत् के अनन्त प्रान्तर में,
प्रकृति में ह्रदय के सहज  स्वस्थ स्वप्न में रूपान्तर में ;
इस की चिकित्सा है लोगों की भीड़ में, गन्दी बस्ती की झोंपड़ियों की
                                                                                   जनता में -
जनता में या धरती में, एक ही बात है, अन्योन्य सत्ता में ll
                                                                                  - 7.3.1959


कवि - विष्णु दे
संकलन - स्मृति सत्ता भविष्यत्

बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - भारतभूषण अग्रवाल 

प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1972

















 

रविवार, 4 नवंबर 2012

घर (Ghar by Shankho Ghosh)



मन-ही-मन 
रहा हूँ खोज घर 
एक, बहुत दिनों से l
जाऊँगा जाने कब 
डूब मैं 
प्रकाश की तरलता में !

घर क्या मिला तुम्हें ?
घर तो लिया है ढूँढ़ 
बहुत दिन पहले - 
मन-ही-मन,
चाहिए घर - दुनिया के बाहर l


कवि - शंख घोष 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

चिट्ठी नहीं आयी (Chitthee nahin aayee by Shakti Chattopadhyay)


अभी सन्तरे के आने में देर है
वहाँ प्लेट में रखा है छुरी-काँटा
पनीर
मक्खन
सूप
काली मिर्च
और इन सबके साथ
खूब सिंका हुआ लाल टोस्ट 
जब मैं उसे काटता हूँ 
कच्ची लकड़ी की एक अजीब-सी गंध
भर जाती है मेरे नासा-पुटों में

चीनिया केले-सा 
वहाँ बैठा है चौखट पर
एक गुमसुम विडाल
बँगले की खिड़की से आती हुई हवा
ढकेल रही है धूप को
बँगले के बाहर
धूप वहाँ हिल रही है खिड़की पर
जैसे कोई झीना वस्त्र

सुन्दर 
चमकता हुआ स्क्वैश 
रखा है बरामदे में
अभी सन्तरे के आने में देर है
कोई दो हफ्ते बाद 
हल्दी के रंगवाला सुन्दर सन्तरा
शान से पाँव रखेगा
घरों की मेजों पर 

लेकिन अभी !
अभी तो देर है
अभी कोई चिट्ठी आयी नहीं उसकी l


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएं
अनुवाद - केदारनाथ सिंह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987 

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

घास (Ghaas by Jeevananand Das)



नीबू के खिच्चे पत्तों सरीखे नरम आलोक से 
भर उठी है पृथ्वी इस भोर वेला में
कच्चे कागजी नीबू सरीखी हरित सुगंधा घास 
दाँतों से नोच रहे हैं हिरण
मेरा भी मन होता है
चषक भर-भर पी लूँ हरित मदिरा की तरह  
इस घास की यह गंध l
इस घास के तन को दुहकर 
मलूँ अपनी आँखों पर 
समा जाऊँ इस घास के डैनों में पंख बनकर
घास के अन्दर घास बन जन्म लूँ,
किसी निविड़ दूर्वा-माँ के शरीर के 
सुस्वादु तिमिर से उतरकर l


कवि - जीवनानंद दास 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - निर्मल कुमार चक्रवर्ती
संग्रह - वनलता सेन और अन्य कविताएँ  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

हिसाब (Hisab by Taslima Nasreen)



कितना दिया प्रेम,
कितने गुलाब-गुच्छ,
कितना समय, कितना सुमद्र,
कितनी रातें काटीं निद्राहीन मेरे लिए
कितने बहाए अश्रु -
यह सब जिस दिन घनघोर आवेग में 
सुना रहे थे मुझे,
समझाना चाह रहे थे कि कितना
प्रेम करते हो मुझे, उसी दिन
लिया था समझ मैंने कि अब
तुम रत्ती भर प्यार नहीं करते मुझे.
प्रेम ख़त्म होने पर ही मनुष्य बैठता है
करने हिसाब, तुम भी बैठे हो.
प्रेम तभी तक प्रेम है
जब तक वह रहता है अंधा, बधिर,
जब तक वह रहता है बेहिसाब.


कवयित्री - तसलीमा नसरीन 
बाँगला भाषा से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - मुझे देना और प्रेम
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012

शनिवार, 23 जून 2012

किराये का घर (Kiraye ka ghar by Bishnu Dey)



किराये का घर रूखी ज़मीन की तरह है, जड़ें जमाने में 
 बहुतेरी गर्मियाँ, बरसातें और जाड़े लग जाते हैं.
सोच रहा हूँ कविता के हिस्से में कौन सा कमरा आयेगा, 
मन को किधर बिखेरूँगा, पूरब में या पश्चिम में.

यहाँ उत्तर की तरफ खुला है, फिर भी फाल्गुन की रिमझिम में 
मन और हवा गन्ध की बहार से डोल उठते हैं,
झरझराता नीम टुनटुन चिड़िया का महीन गला खोल देता है,
घुग्घू और बुलबुल झुण्डों में 'दाना चुगने आते हैं'

तोते परम सुख से तीती निबौरियाँ ओठों में धर कर
खाते हैं और चुपचाप सोचते रहते हैं 
इन के अलावा शालिक हैं, कौए हैं, कितने ही दुलार से 
और पक्षियों को देखो, ये बराबर चीखते रहेंगे.

किराये का घर है रूखी ज़मीन, ऊसर, भूदान की तरह,
भोगने बसने के योग्य नहीं, पर उसे पाने में भी झंझट,
दलाली सलामी वगैरह की माँगों से परेशान मैं फिलहाल
उत्तर के कमरे में आ जाता हूँ, निर्विकार नीम फूलों से लदा है.

कवि - विष्णु दे 
अनुवादक - डा. भारतभूषण अग्रवाल
संग्रह - स्मृति सत्ता भविष्यत्  
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, 
पहला संस्करण - 1972