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सोमवार, 1 दिसंबर 2014

सुनो कारीगर (Suno karigar by Uday Prakash)


यह कच्ची 
कमज़ोर सूत-सी नींद नहीं 
जो अपने आप टूटती है 

रोज़-रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं 
जो आँखें खोल देती हैं अचानक 

सुनो, बहुत चुपचाप पाँवों से 
चला आता है कोई दुःख 
पलकें छूने के लिए 
सीने के भीतर आनेवाले 
कुछ अकेले दिनों तक 
पैठ जाने के लिए 

मैं एक अकेला 
थका-हारा कवि 
कुछ भी नहीं हूँ अकेला 
मेरी छोड़ी गयीं अधूरी लड़ाइयाँ 
मुझे और थका देंगी 

सुनो, वहीं था मैं 
अपनी थकान, निराशा, क्रोध 
आँसुओं, अकेलेपन और 
एकाध छोटी-मोटी 
खुशियों के साथ 

यहीं नींद मेरी टूटी थी 
कोई दुःख था शायद 
जो अब सिर्फ़ मेरा नहीं था 

अब सिर्फ़ मैं नहीं था अकेला 
अपने जागने में 

चलने के पहले 
एक बार और पुकारो मुझे 

मैं तुम्हारे साथ हूँ 

तुम्हारी पुकार की उँगलियाँ थाम कर 
चलता चला आऊँगा
तुम्हारे पीछे-पीछे 

अपने पिछले अँधेरों को पार करता। 

कवि - उदय प्रकाश 
संकलन - पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012  

गुरुवार, 13 जून 2013

छींक (Chheenk by Uday Prakash)


ज़िल्लेइलाही 
शहंशाह-ए-हिन्दुस्तान 
आफ़ताब-ए-वक़्त 
हुज़ूर-ए-आला !

परवरदिगार 
जहाँपनाह !

क्षमा करें मेरे पाप l 

मगर ये सच है 
मेरी क़िस्मत के आक़ा,
मेरे ख़ून और पसीने के क़तरे-क़तरे
के हक़दार,
ये बिल्कुल सच है 

कि अभी-अभी 
आपको 
बिल्कुल इनसानों जैसी 
छींक आयी l 


कवि - उदय प्रकाश  
किताब - उदय प्रकाश : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012

शुक्रवार, 17 मई 2013

एक द्युति भर (Ek dyuti bhar by Uday Prakash)


उत्तर में अभी तक था ध्रुव 
क्षितिज में खिंची नहीं थी ज़ाफ़रान की लकीर 

त्वचा को छू रही थी अँधेरे में घुली शीत 
रक्त को हवा में अदृश्य तिरती ओस 

अँधेरा था अभी बाक़ी 
पितर विदा नहीं हुए थे नींद से 
उनके असबाब रखे हुए थे स्वप्न में डूबे पेड़ों के नीचे यहाँ-वहाँ 

एक छोर रात का अंतिम 
अटका रह गया था,
पल-भर को 

एक अंतिम पत्ता किसी अकेले पेड़ का 
नलके की वह आख़िरी बूँद 

ठीक इसी पल 
विहान के तट पर 
अँधेरे में डूबी किरणों की नदी के मुहाने के ठीक पूर्व 
उसने मुझे देखा 

फ़क़त एक पल 
एक निमिष 
सेकेंड के सहस्रांश भर वह कौंध 
एक विद्युत् ...
...द्युति ...एक 

उसने देखा बस एक आँख भर 
जैसा वही देख सकती थी 
मेरी आँख के भीतर 
मेरी आत्मा के पार 
आर-पार 
...मेरे अतल तक 

मैं हार बैठा हूँ अपना जीवन ...
जो पहले से ही एक हारा-थका जीवन था 
अपनी वंचनाओं में चुपचाप ...




कवि - उदय प्रकाश 
संकलन - एक भाषा हुआ करती है 
प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2009 

सोमवार, 12 नवंबर 2012

राजधानी में बैल (Rajdhani mein bail by Uday Prakash)


सूर्य सबसे पहले बैल के सींग पर उतरा 
फिर टिका कुछ देर चमकता हुआ 
हल की नोक पर 

घास के नीचे की मिट्टी पलटता हुआ सूर्य 
बार-बार दिख जाता था 
झलक के साथ 
जब-जब फाल ऊपर उठते थे 

इस फ़सल के अन्न में 
होगा 
धूप जैसा आटा 
बादल जैसा भात 

हमारे घर के कुठिला में 
इस साल 
कभी न होगी रात l 


कवि - उदय प्रकाश 
संकलन - एक भाषा हुआ करती है 
प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2009