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रविवार, 7 सितंबर 2025

पीड़ित नं. 48 ((Mahmoud Darwish translated into Hindi)


वह मरा पड़ा था एक पत्थर पर।

उन्हें उसके सीने में मिला चाँद और एक गुलाबी लालटेन।

उन्हें उसकी जेब में मिले सिक्के।

एक माचिस की डिबिया और एक ट्रैवल परमिट।

उसकी बाँहों पर गुदने थे।

 

उसका भाई बड़ा हुआ

और शहर गया काम खोजने।

उसे जेल में डाल दिया गया

क्योंकि उसके पास ट्रैवल परमिट नहीं था।

वह सड़क पर एक डस्टबिन

और बक्से ले जा रहा था।

 

मेरे देश के बच्चो,

इस तरह चाँद की मौत हुई।



फ़िलिस्तीनी कवि : महमूद दरवेश 

अरबी से अंग्रेज़ी:  अब्दुल्लाह अल-उज़री 

हिंदी अनुवाद :  अशोक वाजपेयी

स्रोत : मॉडर्न पोइट्री ऑफ़ द अरब वर्ल्ड, पेंगुइन बुक्स, 1986 

संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं
प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023




शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

दीये सब बुझ चुके हैं (Deeye sab bujh chuke hain By Ashok Vajpeyi)

एक-एक कर 

दीये सब बुझ चुके हैं

एक मोमबत्ती कहीं बची थी 

जो अब ढूँढ़े नहीं मिल रही है। 


अँधेरा अपनी लम्बी असमाप्य गाथा का 

एक और पृष्ठ पलट रहा है 

जिसमें बुझे हुए दीयों का कोई ज़िक्र नहीं है। 


जब रोशनी थी, हम उसे दर्ज करना भूल गये 

और उसकी याद 

थोड़ी-सी उजास ला देती है 

जिसे अँधेरा फ़ौरन ही निगल जाता है। 

खिड़की से बाहर दिखाई नहीं देती 

पर हो सकता है 

भोर हो रही हो। 


हमारे हिस्से रोशनी भी आयी 

बहुत सारे अँधेरों के साथ-साथ 

और लग रहा है 

कि अँधेरा ही बचेगा आखिर में 

सारी रोशनियाँ बुझ जाएँगी। 


कवि - अशोक वाजपेयी 

संकलन - अपना समय नहीं 

प्रकाशन - सेतु प्रकाशन, नोएडा (उत्तर प्रदेश), 2023   

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

भजन (Mahmoud Darwish translated into Hindi)


जिस दिन मेरी कविताएँ मिट्टी से बनी थीं  

मैं अनाज का दोस्त था।


जब मेरी कविताएँ शहद हो गईं 

मक्खियाँ बस गईं 

मेरे होठों पर।



 

फ़िलिस्तीनी कवि : महमूद दरवेश

अरबी से अंग्रेज़ी:  अब्दुल्लाह अल-उज़री 

हिंदी अनुवाद  :  अशोक वाजपेयी

संकलन : 'कविता का काम आँसू पोंछना नहीं' में मूल मॉडर्न पोइट्री ऑफ़ द अरब वर्ल्ड, पेंगुइन बुक्स, 1986 से

प्रकाशन - जिल्द बुक्स, 2023


सोमवार, 21 जुलाई 2014

छाता (Chaataa by Ashok Vajpeyi)

छाते के बाहर ढेर सारी धूप थी 
छाता - भर धूप सिर पर आने से बच गई थी l 
तेज़ हवा को छाता 
अपने भर रोक पाता था l 
बारिश में इतने सारे छाते थे
कि लगता था कि लोग घर पर बैठे हैं 
और छाते ही सड़क पर चल रहे हैं l 
अगर धूप तेज़ हवा और बारिश न हो 
तो किसी को याद नहीं रहता 
कि छाता कहाँ दुबका पड़ा है l 
                      - 28. 7. 2010



कवि - अशोक वाजपेयी   
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा   
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013

बुधवार, 12 मार्च 2014

टोकनी (Tokanee by Ashok Vajpeyi)


यकायक पता चला कि टोकनी नहीं है l 
पहले होती थी 
जिसमें कई दुख और हरी-भरी सब्ज़ियाँ रखा करते थे,
अब नहीं है -
दुख रखने की जगहें धीरे-धीरे कम हो रही हैं l 
                                      - 28 जुलाई, 2010



कवि - अशोक वाजपेयी 
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा   
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

धूप (Dhoop by Ashok Vajpeyi)

धूप  में इतनी खिलखिलाती हरियाली 
चिड़ियों की ऐसी चहचहाहट
क्या धूप ऐसे ही गाती है 
जब थोड़ा-सा अलसाकर 
वापस आती है !
(नान्त, 2 जून, 2012)


कवि - अशोक वाजपेयी   
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा   
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013

शनिवार, 28 सितंबर 2013

आने दो (Aane do by Ashok Vajpeyi)

आने दो
जितनी हवा 
एक थोड़ी-सी खुली खिड़की से आ सकती है 
उतनी हवा। 

आने दो 
जितना पानी 
एक नन्ही सी रमझिरिया से रिस सकता है 
उतना पानी। 

आने दो  
उतनी आग 
एक सिकुड़ते हृदय की कामाग्नि से छिटक सकती है 
उतनी आग। 

आने दो 
कविताओं में र्च न हो पाएँ
उतने शब्द। 

इतना सब अगर आ गया 
तो दुनिया भरपूर रहेगी 
और कविता भी,
उतनी दुनिया, उतनी कविता !
                                - 26.5.2012


कवि - अशोक वाजपेयी 
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013
                               - 

रविवार, 21 अप्रैल 2013

चिड़ियाँ आएँगी

 
चिड़ियाँ आएँगी  
हमारा बचपन 
धूप की तरह अपने पंखों पर 
लिये हुए l 
 
किसी प्राचीन शताब्दी के 
अँधेरे सघन वन से 
उड़कर चिड़ियाँ आएँगी,
और साये की तरह 
हम पर पड़े अजब वक़्त के तिनके 
बीनकर बनाएँगी घोंसले l 
 
चिड़ियाँ लाएँगी   
पीछे छूट गए सपने,
पुरखों के क़िस्से,
भूले-बिसरे छन्द,
और सब कुछ 
हमारे बरामदे में छोड़कर 
उड़ जाएँगी l 
 
चिड़ियाँ न जाने कहाँ से आएँगी   
चिड़ियाँ न जाने कहाँ जाएँगी l 
नीम और अमरूद के वृक्षों की शाखाओं पर 
हरी पत्तियों, निबौलियों और गदराते फलों के बीच 
चिड़ियाँ समवेत गान की तरह 
हमारा बचपन हमारा जीवन 
हमारी मृत्यु 
सब एक साथ 
गाएँगी l 
 
चिड़ियाँ अनन्त हैं 
अनन्त से आएँगी 
अनन्त में जाएँगी l    
 
 
कवि - अशोक वाजपेयी (2003)
संग्रह - विवक्षा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

बुधवार, 16 जनवरी 2013

हृदय(Poems by Antonio Porchia)


हृदय को घायल करना उसे रचना है l

*  *  *

एक बड़ा हृदय बहुत थोड़े से भरा जा सकता है l

*  *  *

एक भरे हुए हृदय में सब चीज़ों के लिए जगह होती है और एक खाली हृदय में किसी चीज़ के लिए जगह नहीं होती। कौन समझता है ?


अर्जेंटीनी कवि - अन्तोनियो पोर्किया (1885-1968)
स्पैनिश भाषा का मूल काव्य संकलन 'बोसेज़' (आवाज़ें) 
स्पैनिश से अंग्रेज़ी अनुवाद - डब्ल्यू. एस. मर्विन 
अंग्रेज़ी से हिन्दी रूपांतर - अशोक वाजपेयी 
हिन्दी संकलन - हम छाया तक नहीं 
प्रकाशक - यात्रा बुक्स, दिल्ली, 2013

पोर्किया की कविताएँ कुल एक या दो पंक्तियों की हैं। उनकी खासियत बताते हुए अशोक वाजपेयी कहते हैं, "एक बेहद बड़बोले समय में ऐसी शांत कविता अप्रत्याशित उपहार की तरह है ...उसकी ईमानदारी, विनय और पारदर्शिता बेहद उजला और कुछ हमें भी उजला करता उपहार है।"

शनिवार, 29 सितंबर 2012

गिनती में दुख (Gintee mein dukh by Ashok Vajpeyi)



जब भी मैं कोई गिनती करता हूँ
दुख उसमें पता नहीं कैसे और कहाँ से जुड़ जाता है l
अपनी बस्ती में गिनता हूँ नीम के चार पेड़ तो पाँचवाँ पेड़ दुख का l
रखता हूँ कुँजड़े द्वारा तीन-चार थैलों में भर कर दी गईं चार-पाँच सब्ज़ियाँ
और पाता हूँ कि उसमें अतकारी हरी धनिया की तरह 
उसने अपना दुख भी रख दिया है l
मुझे कुछ घबराहट हुई
जब मैं गिन रहा था
अपने पोते की गुल्लक में भरे सिक्के :
मैंने उन्हें गिनना शुरू किया
- वह मुझे जल्दी गिनती पूरी करने के लिए तंग सा कर रहा था -
और पाया कि उन सिक्कों में से कुछ पर
घिसने के बावजूद दुख की चमक थी
जिसे मैं अपने पोते से छिपा गया l
मैं अपनी लायब्रेरी से उठाता हूँ 
अपने प्रिय फ़िलीस्तीनी कवि का नया संग्रह
और देखता हूँ कि उसमें बुकमार्क की तरह
रखा हुआ है पुराना बिसर गया दुख l

पानी के गिलास में धोने के बावजूद लगी रह गई राख सा दुख,
दाल में कंकड़ सा किरकिराता दुख,
रोटी पर हल्की घी की चुपड़न के नीचे कत्थई चिट्टे सा उभरा दुख,
पुरानी चप्पलों में एड़ियों में धीरे-धीरे गड़ता दुख,
खिड़की पर धूप में कीड़े की तरह रेंगता दुख l
कहानी में बताये जाते हैं सात कमरे -
जिनमें से आख़िरी को खोलना मना है ;
कोई नहीं बताता कि आठवाँ कमरा दुख का है
अदृश्य पर हमेशा खुला हुआ
बल्कि थोड़ा-थोड़ा हर कमरे में बसा हुआ l
मैं नहीं जानता था
कि हमारे समय में जीने के 
गणित और व्याकरण दोनों
दुख को जोड़े बिना संभव नहीं हैं,
जैसे कविता भी नहीं l


कवि - अशोक वाजपेयी (2003)
संग्रह - विवक्षा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006