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रविवार, 17 अगस्त 2014

शांति दो मुझे (Shanti do mujhe by Andrei Voznesensky)

शांति दो मुझे, मुझे शांति दो …
लगता है मैं थककर चूर हो चुका हूँ,
मुझे शांति दो …

                                     गुजरने दो धीरे-धीरे
सिर से पैर तक, छेड़ती, सहलाती 
पीठ को, यह लम्बी छाया इस चीड़ की। 
शांति दो हमें … 

भाषा नहीं रही। 
क्यों करना चाहती हो तुम भौंहों का इंद्रधनुष 
शब्दों में व्यक्त। डोलती रहो केवल मौन में। 
शांति दो। 

धीमी है रोशनी से ध्वनि की रफ्तार :
आओ हम अपनी वाणी को विश्रांति दें 
तय है कि जो भी जरूरी है, वह बेनाम है,
क्यों न हम सहारा लें अनुभव और रंग का। 

प्रिये, ये त्वचा की भी अपनी अनुभूतियाँ हैं,
उसमें भी है जान,
अंगुली का स्पर्श त्वचा का संगीत है 
जैसे कानों के लिए बुलबुल का गान। 

कब तक करोगे घर बैठे बकवास ?
कब तक चिल्लाओगे बेमतलब खून ?
कब तक उठाओगे सर पर आसमान ?
छोड़ दो अकेला हमें … 

… हम अपने में तल्लीन हैं 
लीन हैं प्रकृति की रहस्यमय दुनिया में,
धुएँ की कड़ुवाती गंध से भाँपते हैं हम 
गड़रिये पहाड़ से वापस आ गये हैं। 

सांझ का झुटपुटा ब्यालू की तैयारी, धूम्रपान,
छायालिपियाँ हैं वे,
लाइटर की लौ की तरह 
पालतू कुत्ते की जीभ लपलपाती है। 


कवि - आन्द्रे वोज्नेसेंस्की 
संग्रह - फैसले का दिन 
अनुवाद - श्रीकांत वर्मा 
प्रकाशक - संभावना प्रकाशन, हापुड़, द्वितीय संस्करण, 1982 

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

आभास (Aabhas by Shrikant Verma)


दूर उस अंधेरे में कुछ है, जो बजता है 
शायद वह पीपल है l 

वहां नदी-घाटों पर थक कोई सोता है 
शायद वह यात्रा है l 

दीप बाल कोई, रतजगा यहां करता है 
शायद वह निष्ठा है l 



कवि - श्रीकांत वर्मा 
संग्रह - भटका मेघ
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1983

रविवार, 24 नवंबर 2013

मणिसर्प (Manisarp by Shrikant Verma)

मेरी बांबी से तुम ले गये 
मेरी मणि हर कर l 
मेरी - 
अनुभूति खो गयी है
अनुभूति खो गयी है 
अनुभूति खो गयी है !
अर्थहीन मन्त्रों-सा पथ पर मैं फिरता हूं 
अंधियारे की झाड़ी झुरमुट में 
लटक,
अटक,
पत्थर पर फण पटक 
रहता हूं l 
मणि के बिना मैं अंधा, अपाहिज सांप हूं l 
मेरी - 
अनुभूति खो गयी है !
अनुभूति खो गयी है !!
शब्द मर गये हैं, आवाज़ मर गयी है l 
डोल रहे शब्दहीन गीत हवा में जैसे 
वंशी की बिछुड़पन में    
प्राणों की राधा की लाज मर गयी है l 
मेरी -
अनुभूति खो गयी है ! 

मणि बिन मैं अंधा हूं l
मणि बिन मैं गूंगा हूं 
मणि बिन मैं सांप नहीं l 
मणि बिन मैं मुर्दा हूं l 

ठहरो, ठहरो, ठहरो,
मेरी बांबी मत रौंदो अपने पांवों से l 
मुझमें अब भी विष है l 
मेरा विष ही मणि बन मुझे पथ दिखायेगा l 
मेरे विष की थैली 
रत्ना, मणिगर्भा है l 
मणि लेकर मुझसे, मुझ पर मत कौड़ी फेंको l
दूध का कटोरा मत मेरे आगे रक्खो l 
विष को लग जाएगा दूध 
ज़हर मेरा मर जाएगा l 

मेरे फुफकारों की लहू की त्रिवेणी में 
डूबेंगे तीर्थ सभी 
चर्बी के पंडों के l 

मेरे दंशन से ये सोने की मुंडेरें नीली पड़ जाएंगी -
तुमने मेरी मणि को 
उल्लू की आंख बना रक्खा है l 
लेकिन मेरे विष को कैसे पी पाओगे ?
मेरी ही केंचुल से मुझी को डराओगे ?

सम्हलो ! जिन सांपों को दूध पिलाया तुमने 
मैं उनसे भिन्न हूं-
मैं अपनी मणि वापिस लेने को आया हूं l 

मैं मणि का स्वामी हूं l 
मैं मणि का  स्रष्टा हूं l 
मैं मणि का रक्षक हूं l 
तक्षक हूं, तक्षक हूं l  

कवि - श्रीकांत वर्मा 
संग्रह - भटका मेघ
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1983

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

निष्फल (Nishfal by Shrikant Verma)


किसी भी उजाले के छोटे से गड्ढे में 
जाकर मुँह धोने की 
खोज - 
रोज़-रोज़ !
किसी भी सड़क पर जा भीड़ या कि पतझर में 
अपने कुछ होने की 
खोज - 
रोज़-रोज़ ! 
अपने ज़माने की एक अप्रिय दुनिया में
अपने प्रिय कोने की 
खोज - 
रोज़-रोज़ !


कवि - श्रीकांत वर्मा
किताब - श्रीकांत वर्मा रचनावली में मायादर्पण से संकलित 
संपादक - अरविंद त्रिपाठी
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1995

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

संख्या के बच्चे (Sankhya ke bachche by Shrikant Verma)



सच है ये शून्य हैं -
और तुम एक हो l
बड़े शक्तिशाली हो,
क्योंकि शून्य के पहले 
उसके दुर्भाग्य-से खड़े हो l
अपनी आकांक्षा के क़ुतुब बने सांख्य !
मत भूलो -
तुम भी आंकड़े हो l

मत भूलो -
तुम केवल एक हो
शून्य ही दहाई हैं, शून्य ही असंख्य हैं l
शून्य नहीं धब्बे हैं,
आंसू की बूंदों-से,
लोहू के कतरों-से, शून्य ये सच्चे हैं l
संख्या के बच्चे हैं l

शून्यों से मुंह फेर खड़े होने वाले !
शून्य अगर हट जाएं
ठूठे की अंगुली से केवल रह जाओगे l
मत भूलो -
शून्य शक्ति है, शून्य प्रजा है l


कवि - श्रीकांत वर्मा 
संग्रह - भटका मेघ
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1983

शनिवार, 7 जुलाई 2012

कोई एक स्त्री को पीट रहा है (Koi ek stri ko peet raha hai by Andrei Voznesensky)


कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
कार में, जिसमें एकदम अँधेरा और गर्मी है
केवल उसकी आँखों की पुतलियाँ चमकती हैं ;
वह फेंकती है ऊपर की तरफ अपने पैर
जैसे हमले की रौशनी झपटती हो.

कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
किसी तरह, वह खोलती है द्वार
और मारती है छलाँग-सड़क पर.

ब्रेक रिरियाते हैं.
कोई उसकी ओर लपकता है,
उसे मारता है, औंधे मुँह,
खिंची हुई घास में घसीटता है.
टुच्चा ! कैसे सलीके से उस स्त्री को पीटता है.
शोहदा, हरामी, यौधेय,
गड़ती है उस स्त्री की पसली में
उस आदमी के भड़कीले जूते की नोक.

ऐसा ही होता है दुश्मन के सैनिक के सुखों का लोक,
काश्तकारों की क्रूर आत्म तृप्तियाँ.
चाँदनी में बिछी हुई घास को कुचलते हुए पैर से
कोई एक स्त्री को पीट रहा है.

कोई एक स्त्री को पीट रहा है
सदी-दर-सदी, कोई अंत नहीं ;
पिटती है वह जो जवान है . डूबकर
गहरे अवसाद में, घंटियाँ विवाह की
बदलती हैं खतरे के प्रतीक में
कोई एक स्त्री को पीट रहा है.
और वह क्या है, वह, लौ जैसा चिन्ह, जो
उछल आया है, उनके सुलग रहे गालों पर ?
ज़िन्दगी. तुमने कहा ! क्या यह
तुमने मुझसे कहा?
कोई एक स्त्री को पीट रहा है.

- मगर उसकी रोशनी बिलकुल निष्कम्प,
एक अनंत संसार है
न कोई धर्म है,
            न कोई सत्य,
केवल स्त्रियाँ हैं.

पानी की तरह निर्वर्ण उसकी आँखें
आँसुओं में डूबी और थिर
जंगल में गहराती छाया जितनी भी
उन पर नहीं, उसका अधिकार.

और तारे ? बजते हैं नीले आकाश में,
जैसे स्याह शीशे पर
वर्षा की बूँद,
गिर-गिर कर, टूट-टूट कर उसके लोक में
वे उसके शोक-तप्त माथे को
शीतल करते हैं.


                       कवि - आन्द्रे वोज्नेसेंस्की (1960 ) 
                       संग्रह - फैसले का दिन
                       अनुवाद - श्रीकांत वर्मा
                       प्रकाशक - संभावना प्रकाशन, हापुड़, द्वितीय संस्करण - 1982