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रविवार, 13 अप्रैल 2014

सच रेडीमेड नहीं मिलता (Sach readymade nahin milta by Anamika)


सच रेडीमेड नहीं मिलता,
सबको बुनना पड़ता है 
अपने-अपने नाप का !
कभी किसी पिछले जनम में 
सच एक ऊनी दुशाला था 
कबीर के ताने-बाने से बुना हुआ !
एक साथ सब उसमें 
गुड़ी-मुड़ी हो बैठ जाते 
और तापते सिगरी किस्सों की !
बाबा बाहर जाते तो तहाते उसको 
ऐसे कौशल से कंधे पर कि 
चिप्पियाँ दिखाई नहीं देतीं,
अम्मा ताकीद लगातार किया करतीं 
कि पाँव उतने पसारिए 
जितनी लंबी सौर हो !
सपनों के पाँव मगर हरदम ही 
सच की चदरी के बाहर झाँक जाते !
स्कूल के रास्ते में बाजार पड़ता !
रोज हमें दीखते 
लाल-हरे-नीले लेसों से सजे 
झीने-झीने झूठ झमकदार 
कचकाड़े की औरतों पर सजे !
कचकाड़े की औरतें 
शीशे के शो-केसों में बंद 
हरदम मुस्कातीं,
वे 'विचित्र किंतु सत्य' शृंखला का सच थीं !
थोड़ा-सा वे हमें डरातीं !
ठंड में ठिठुरते हुए हम आगे बढ़ते,
पूरी नहीं पड़ती हमको चमड़ी हमारी !
एक दिन हमने पड़ोसिन से सीखा 
एक बमपिलार ऊन के गोले से 
बुनना कैसे चाहिए 
ब्लाउज भर सच 
अपने नाप का !
और मुझे उसने सिखाया बड़े मन से 
कैसे उलटे फँदों में डालते हैं सीधा फँदा 
कैसे घटता और कटता है सच का गला,
कैसे घटती हैं और कटती है 
दो बाजुएँ सच की -
आपकी फिटिंग का हो जाने तक !
तब से लगातार बुन रही हूँ मैं 
सपनों में स्मृतियाँ !
गिरे जा रहे हैं 'घर'
'काँटों में फँसे हुए !'
घर गिर रहे हैं धीरे-धीरे 
और एक घाटी-सी उभर रही है 
मेरे स्वेटर पर !
अच्छा है, सच रेडीमेड नहीं मिलता 
सबको बुनना पड़ता है अपने-अपने नाप का !


कवयित्री - अनामिका  किताब - अनामिका : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 2012

रविवार, 10 नवंबर 2013

घुमन्तू टेलीफोन (Ghumantu telephone by Anamika)


हद्द चलै सो मानवा, बेहद चलै सो साध,
लेकिन न हद, न ही बेहद -
एक बन्द मुट्ठी मेरी सरहद !

जा तो कहीं भी सकती हूँ -
लेकिन इस आदमी की जेब में l 

तार जोड़ सकती हूँ 
अपने दिमाग का कहीं से -
लेकिन इसके अँगूठे के नीचे l 

जब यह सो भी जाएगा
तकिए के नीचे दबाएगा मुझको !
टिक्-टिक्-टिक् सुनती हुई 
इसकी कलाई-घड़ी की -
चुपचाप मैं दर्ज करती रहूँगी 
अपने सीने में इसकी खातिर 
एस.एम.एस. l 
जगह-जगह से आएँगे ये सारी रात,
दहकेंगे ये गुपचुप सन्देश 
भर-रात मेरे अँधेरों में 
सपनों-स्मृतियों की बिल्ली-आँखें बनकर :
अम्मा की हारी-बीमारी,
मौला की कोर्ट-कचहरी,
ऑफिस के सब रगड़े-झगड़े !
अफरा-तफरी के वे 
कितने अधूरे-से उत्तप्त चुम्बन !
कितनी घुटी-सी पुकारें !
हल्की रुलाई की 
अवरुद्ध, बेचैन कई सिहरनें 
करती रहेंगी मुझमें छटपट भर-रात l 
घायल कबूतर के पंख भरे हैं मुझमें 
जो बेखयाली में 
एक-एक कर नोंच फेंकेगा 
यह कल तक :
कहीं-कहीं कुछ रोएँ सहलाता 
कभी बीच में रुक भी जाएगा !

कितनी भी आधुनिक हो दुनिया -
प्राचीन रहती हैं अभिव्यक्तियाँ
प्यार की, नफरत की !
अमरीकी महाध्वंस के पहले 
होती थीं जैसी बगदाद की सड़कें :
हूँ मैं कुछ-कुछ वैसी
अधुनातन बाजारों के ही समानान्तर 
सजे हुए हैं मुझमें 
हाट पुराने - मीना बाजार,
जैसे कि भग्नावशेष पुरातात्त्विक 
महानगर की छाती पर l





कवयित्री - अनामिका 
किताब - अनामिका : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 2012

सोमवार, 23 सितंबर 2013

चुटपुटिया बटन (Chutputiya button by Anamika)


मेरा भाई मुझे समझाकर कहता था – ‘जानती है, पूनम –
तारे हैं चुटपुटिया बटन
रात के अँगरखे में टंके हुए !’
मेरी तरफ ‘प्रेस’ बटन को
चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
क्योंकि ‘चुट’ से केवल एक बार ‘पुट’ बजकर
एक-दूसरे में समा जाते थे वे l

वे तभी तक होते थे काम के
जब तक उनका साथी
चारों खूँटों से बराबर
उनके बिलकुल सामने रहे टंका हुआ !

ऊँच-नीच के दर्शन में उनका कोई विश्वास नहीं था !
बराबरी के वे कायल थे !
फँसते थे, न फँसाते थे-चुपचाप सट जाते थे l
मेरी तरफ प्रेस-बटन को चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
लेकिन मेरी तरफ से लोग खुद भी थे
चुटपुटिया बटन
‘चुट’ से ‘पुट’ बजकर सट जाने वाले l

इस शहर में लेकिन ‘चुटपुटिया’ नजर ही नहीं आते –
सतपुतिया झिगुनी की तरह यहाँ एक सिरे से गायब हैं
चुटपुटिया जन और बटन l
ब्लाउज में भी दर्जी देते हैं टाँक यहाँ हुक ही हुक
हर हुक के आगे विराजमान होता है फँदा,
फँदे में फँसे हुए आपस में कितना सटेंगे –
कितना भी कीजिए जतन –
चुट से पुट नहीं ही बजेंगे !


कवयित्री - अनामिका
किताब - अनामिका : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 2012