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शनिवार, 23 अगस्त 2025

बहर-ए-तवील (Bahar-e-taveel by Muztar Khairabadi)

मैं यही सोच रहा था उसे क्यों हमने दिया दिल 

है जो बेमेहरी में कामिल, जिसे आदत है जफ़ा की 

जिसे चिढ़ मेहर-ओ-वफ़ा की, जिसे आता नहीं आना, ग़म-ओ-हसरत मिटाना 

जो सितम में है यगाना, जिसे कहता है ज़माना 

बुत-ए-बेमेहर-ओ-दग़ा बाज़, जफ़ा पेशा फुसुँसाज़,

सितम खाना बरअन्दाज़, ग़ज़ब जिसका हर इक नाज़, नज़र फ़ितना,

मिज़ा तीर, बला ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर, ग़म-ओ-रंज का बानी 

क़ल्क़-ओ-दर्द का मूजिद, सितम और जौर का उस्ताद, जफ़ाकारी में माहिर 

जो सितमकश-ओ-सितमगर, जो सितमपेशा है 

दिलबर, जिसे आती नहीं उल्फ़त, जो समझता नहीं चाहत 

जो तसल्ली को न समझे, जो तशफ़्फ़ी को न जाने, जो करे कौल न पूरा 

करे हर काम अधूरा, यही दिन-रात 

तसव्वुर है कि नाहक़ उसे चाहा, जो आए न बुलाए,

न कभी पास बिठाए, न रूख-ए-साफ़ दिखाए, न कोई बात सुनाए 

न लगी दिल की बुझाए, न कली दिल की खिलाए 

न ग़म-ओ-रंज घटाए, न रह-ओ-रस्म बढ़ाए, जो कहो कुछ तो खफ़ा हो 

कहे शिकवे की ज़रूरत, जो यही है तो न चाहो,

जो न चाहोगे तो क्या है, न निबाहोगे तो क्या है 

बहुत इतराओ न दिल दे के, ये किस काम का दिल है 

ग़म-ओ-अन्दोह का मारा, अभी चाहूँ तो रख दूँ उसे तलवों से मसलकर 

अभी मुँह देखके रह जाओगे,

हैँ, इनको हुआ क्या कि मेरा दिल लेके मेरे हाथ से खोया।   


शायर - मुज़्तर खैराबादी (1865-1927)

संकलन - सलमान अख्तर की 'घर का भेदी'

प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2024 

अपने 'मनमाफ़िक' ब्लॉग के लिए कविताएँ चुनने के लिए पहले मैं खूब किताबें खरीदती थी। धीरे-धीरे मेरे आलस ने व्यस्तता और अनमनेपन की ओट ले ली। इसको दूर करने का प्रयास जारी है। 'घर का भेदी' दिलचस्प किताब है। सलमान अख्तर ने अपने दादा मुज़्तर खैराबादी, वालिद जाँ निसार अख्तर, मामू मजाज़, भाई जावेद अख्तर पर लिखा है। पेशे से डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक सलमान अख्तर खुद भी शायर हैँ। उनका गद्य कमाल का लगा मुझे। उर्दू का प्रवाह तो अप्रतिम है। 

(नुक़्ते की गड़बड़ी की माफ़ी क्योंकि बीसियों कोशिश के बाद भी 'ख' और 'फु' में न लगा। अक्सर कोई और शब्द लिखकर- उसमें से काटकर नुक़्ते वाला शब्द निकाल लाती हूँ।)



सोमवार, 11 अगस्त 2025

कोई दीप जलाओ (Koi deep jalaao by Faiz Ahmed 'Faiz')

बुझ गया चंदा, लुट गया घरवा, बाती बुझ गई रे 

दैया राह दिखाओ 

मोरी बाती बुझ गई रे, कोई दीप जलाओ 

रोने से कब रात कटेगी, हठ न करो, मन जाओ 

मनवा कोई दीप जलाओ 

काली रात से ज्योति लाओ 

अपने दुख का दीप बनाओ 

            हठ न करो, मन जाओ 

            मनवा कोई दीप जलाओ 


शायर : फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

संकलन : प्रतिनिधि कविताएँ 

प्रकाशन : राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पाँचवीं आवृत्ति, 2012 

शनिवार, 19 जुलाई 2025

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर (By Meer Taqi Meer)

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर 

की बात उन ने कोई, सो क्या चबा-चबा कर 


शायद कि मुँह फिरा है, बंदों से कुछ खुदा का 

निकले है काम अपना कोई खुदा-खुदा कर 


कान इस तरफ़ न रक्खे, इस हर्फ़-नाशनो ने 

कहते रहे बहुत हम उसको सुना-सुना कर 


कहते थे हम कि उसको देखा करो न इतना 

दिल खूँ किया न अपना आँखें लड़ा-लड़ा कर 


आगे ही मर रहे हैं, हम इश्क़ में बुताँ के 

तलवार खींचते हो, हमको दिखा-दिखा कर 


वो बे-वफ़ा न आया बाली पे वक़्त-ए-रफ़्तन 

सौ बार हमने देखा सर को उठा-उठा कर 


जलते थे होले होले हम यूँ तो आशिक़ी में 

पर उन ने जी ही मारा आखिर जला-जला कर 


हर्फ़-नाशनो - बात न सुननेवाला 

बुताँ - माशूक़ 

बाली - सिरहाना, तकिया 

वक़्त-ए-रफ़्तन - जाने के वक़्त, मरने के समय 


शायर - मीर तक़ी मीर 

संकलन - चलो टुक मीर को सुनने

संपादन - विपिन गर्ग 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2024  

नुक़्ते की परेशानी के लिए माफ़ी के साथ क्योंकि लाख कोशिश करके भी टाइप में कई जगह नहीं आया।  

बुधवार, 31 अगस्त 2022

ढलती हुई आधी रात (Dhalati hui aadhi raat by Firaq Gorakhpuri)


ये कैफ़ो-रंगे-नज़ारा, ये बिजलियों की लपक 
कि जैसे कृष्ण से राधा की आंख इशारे करे 
वो शोख इशारे कि रब्बानियत भी जाये झपक 
जमाल सर से क़दम तक तमाम शोअला है 
सुकूनो-जुंबिशो-रम तक तमाम शोअला है 
मगर वो शोअला कि आंखों में डाल दे ठंडक 


कैफ़ो-रंगे-नज़ारा - दृश्य की मादकता और रंग 
रब्बानियत - परमात्मा 
जमाल - सौंदर्य 
सुकूनो-जुंबिशो-रम - निश्चलता, गति और भाग-दौड़ 


शायर - फ़िराक़ गोरखपुरी
संकलन - उर्दू के लोकप्रिय शायर : फ़िराक़ गोरखपुरी
संपादक - प्रकाश पंडित
प्रकाशक - हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली, नवीन संस्करण 1994 

शुक्रवार, 24 जून 2022

गवाची लकीर (Sara Shagufta translated in Hindi)

 सारी चीज़ें खो गई हैं 

आसमान के पास भी काँटा तक नहीं रहा 

जभी तो मिट्टी में बोलने वाले बोलते नहीं 

गूँज भी गूँगी हो गई है

रब भी नहीं बोलता  

सारी चीज़ें खो गई हैं 

मेरे बर्तन 

मेरी हँसी  

मेरे आँसू 

मेरे मक्र 

सारी चीज़ें खाली हैं और खो गई हैं 

बच्चों के खिलौने 

और मेरे श्टापू का कोयला वक़्त लकीर गया है 

आँखों में कोई शक्ल नहीं रह गई है 

सारी चीज़ें खो गई हैं 

मेरे चेहरे 

मेरे रंग 

मेरे इन्साफ़ 

जाने कहाँ खो गए हैं 

दिल का चेहरा आँख हुआ जाता है 


मज़ाक पुराने हो गए हैं 

हँसी चारपाई कस रही है 

चाँद की रूनुमाई के लिए सूरज आया है 

तो आसमान खो गया है 

सुलूक भी खो गए हैं 

वो भी कभी नहीं आए 

जिनके लिए आँखें रखी थीं 

और दिल खत्म किए थे 

आँखों को रसूल  कहा था 

और दिल को रब कहा था 

सारी चीज़ें खो गई हैं 


मक्र = छल, बहाना 

रूनुमाई = मुँहदिखाई 


पाकिस्तानी शायरा - सारा शगुफ़्ता 

संग्रह - नींद का रंग 

लिप्यंतरण और संपादन - अर्जुमंद आरा 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2022  


कुछ रोज़ पहले मैंने भोपाल की यात्रा में इस किताब को उठाया। शीर्षक ने ही अपनी तरफ ध्यान खींचा था। तब तक मुझे सारा शगुफ़्ता के बारे में कुछ खास मालूम नहीं था। अर्जुमंद आरा ने जो परिचय दिया है उसने काफी उत्सुकता जगा दी। "पाकिस्तान में नारीवादी उर्दू शायरी की एक उत्कृष्ट लेकिन बहिष्कृत सारा शगुफ़्ता" यह पहला ही वाक्य पर्याप्त था संग्रह को पढ़ जाने के लिए। ईमानदारी की बात है कि एक साँस में यह छोटा-सा संग्रह नहीं पढ़ पाई। साँस टूटती रही कविताओं में से झाँकती सारा शगुफ़्ता की ज़िंदगी का अंदाजा लगाकर। भाषा की दिक्कत भी बीच बीच में आड़े आई। यात्रा से लौटकर हिन्दी और उर्दू के शब्दकोशों को पलटा तो भी कुछ अर्थ हाथ न आए, जैसे 'गवाची' या 'श्टापू' का। सारा खुद बहुत जगह उखड़ी उखड़ी नज़र आती हैं तो तारतम्यता खोजने का मेरा प्रयास भी व्यर्थ जा रहा था। बातों का सिरा कई बार पकड़ में नहीं आया मेरे, फिर भी जो कशिश है उनमें वह दूसरी शायरी से जुदा है। बानगी के तौर पर यह ! हाँ, एक बात जो बड़ी देर तक मेरे मन में चक्कर काटती रही, वह है आँखों को लेकर सारा शगुफ़्ता के प्रयोग। उनकी फ़ेहरिस्त बनाने का मन किया। वैसे अनोखे और अजीबोगरीब वाक्य देखकर सारा की तड़प ही नहीं, ताकत का भी पता चलता है। 

शुक्रवार, 17 जून 2022

अजनबी (Ajnabi by Noman Shauq)

 क्यों बोयी गयी है 

हमारे खमीर में इतनी वहशत 

कि हम इन्तजार भी नहीं कर सकते 

फलसफों के पकने का 


यहाँ क्यों उगती है 

सिर्फ शक की नागफनी ही 

दिलों के दरमियां


कौन बो देता है  

हमारी जरखेज मिट्टी में 

रोज एक नया जहर !


यकीन के अलबेले मौसम 

तू मेरे शहर में क्यों नहीं आता !



संकलन : रात और विषकन्या 

प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 

                 दूसरा संस्करण , 2010 

इस संकलन में कवि के नाम को छोड़कर शायद ही कहीं नुक़्ता लगाया गया है। 

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

ख़लिश भी आज तो कुछ कम है (Khalish bhi aaj to kuchh kam hai by Gulam Rabbani Taban)

ख़लिश भी आज तो कुछ कम है दर्द भी कम है 
चराग़ तेज़ करो हाय रौशनी कम है 

उदास उदास है महफ़िल तही हैं पैमाने 
शराब कम है अज़ीज़ो कि तश्नगी कम है 

हमारे साथ चलें आज कू-ए-क़ातिल तक 
वो बुलहवस जो समझते हैं ज़िंदगी कम है 

अभी तो दोश तक आई है ज़ुल्फ़े-आवारा 
अभी जहाने-तमन्ना में बरहमी कम है 

चराग़े-गुल न जले कोई आशियां ही जले 
जुनूं की राहगुज़ारों में रौशनी कम है 

बस और क्या कहें अहबाबे-तंज़-फ़र्मा को 
शऊर कम है, नज़र कम है, आगही कम है 

रहे है मह्व, सनम को ख़ुदा बनाए हुए 
सुना है इन दिनों 'ताबां' की गुमरही कम है 



ख़लिश = कसक 
तही = ख़ाली 
तश्नगी = प्यास 
 कू-ए-क़ातिल = क़ातिल (प्रिय) के कूचे तक 
बुलहवस = विलासी 
दोश = कंधे 
जहाने-तमन्ना = अभिलाषाओं का संसार 
बरहमी = आक्रोश, उन्माद 
अहबाबे-तंज़-फ़र्मा = कटाक्ष करनेवालों को 
शऊर = चेतना 
आगही = ज्ञान 
मह्व = डूबा रहता है, तन्मय 
सनम = बुत 


शायर - ग़ुलाम रब्बानी ताबां 
संकलन = जिधर से गुज़रा हूँ 
संपादक = दुर्गा प्रसाद गुप्त 
प्रकाशक = शिल्पायन, दिल्ली, 2014 

मेरे कॉलेज के दिनों की किसी कॉपी में लिखी यह रचना आज दशकों बाद ताबां साहब के नए संकलन में मिली है. उन दिनों भी मुझे ताबां साहब पसंद थे और आज भी पसंद हैं. 

सोमवार, 9 मार्च 2015

जी देखा है, मर देखा है (Jee dekha hai, mar dekha hai by Habeeb 'Jalib')

जी देखा है, मर देखा है
हमने सब कुछ कर देखा है

बर्गे-आवारा की सूरत 
रेंज-ख़ुश्को-तर देखा है

ठंडी आहें भरनेवालों 
ठंडी आहें भर देखा है

तिरी ज़ुल्फ़ों का अफ़साना 
रात के होंटों पर देखा है

अपने दीवानों का आलम 
तुमने कब आकर देखा है !

अंजुम की ख़ामोश फ़िज़ा में 
मैंने तुम्हें अकसर देखा है

हमने बस्ती में 'जालिब'
झूठ का ऊँचा सर देखा है। 



शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'
संपादक - नरेश नदीम 
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010 

रविवार, 25 जनवरी 2015

आटे-दाल का भाव (Aate-daal ka bhaav by Nazeer Akabarabadi)


आटे के वास्ते हैं हविस मुल्क-ओ-माल की 
आटा जो पालकी है तो है दाल नाल की 
आटे ही दाल से है दुरुस्ती ये हाल की 
इसे ही सबकी ख़ूबी जो है हाल क़ाल की 
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की 
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की 

इस आटे-दाल ही का जो आलम में है ज़हूर 
इससे ही मुँहप नूर है और पेट में सरूर 
इससे ही आके चढ़ता है चेहरे पे सबके नूर 
शाह-ओ-गदा अमीर इसी के हैं सब मजूर 
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की 
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की 

क़ुमरी ने क्या हुआ जो कहा "हक़्क़े-सर्रहू"
और फ़ाख़्ता भी बैठके कहती है "क़हक़हू"
वो खेल खेलो जिससे हो तुम जग में सुर्ख़रू 
सुनते हो ए अज़ीज़ो इसी से है आबरू 
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की 
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की … 




शायर - नज़ीर अकबराबादी 
संकलन - नज़ीर की बानी 
संपादक - फ़िराक़ गोरखपुरी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1999

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

अब क्या देखें राह तुम्हारी (Ab ky dekhein raah tumhari by Faiz Ahmad Faiz)

अब  क्या देखें राह तुम्हारी 
बीत चली है रात 
छोड़ो 
छोड़ो ग़म की बात 
थम गये आँसू 
थक गईं अँखियाँ 
गुज़र गई बरसात 
बीत चली है रात 

छोड़ो 
छोड़ो ग़म की बात 
कब से आस लगी दर्शन की 
कोई न जाने बात 
बीत चली है रात 
छोड़ो ग़म की बात 

तुम आओ तो मन में उतरे 
फूलों की बारात 
बीत चली है रात 
अब  क्या देखें राह तुम्हारी 
बीत चली है रात 


शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1984 



मंगलवार, 25 नवंबर 2014

इंतज़ार की रात (Intazar ki raat by Ibne Insha)

उमड़ते आते हैं शाम के साये 
दम-ब-दम बढ़ रही है तारीकी 
एक दुनिया उदास है लेकिन 
कुछ से कुछ सोचकर दिले-वहशी 
मुस्कराने लगा है - जाने क्यों ?
वो चला कारवाँ सितारों का 
झूमता नाचता सूए-मंज़िल 
वो उफ़क़ की जबीं दमक उट्ठी 
वो फ़ज़ा मुस्कराई, लेकिन दिल 
डूबता जा रहा है - जाने क्यों ?


उफ़क़ = क्षितिज     जबीं = मस्तक 

शायर - इब्ने इंशा 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1990 

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

आओ (Aao by Makhdoom Mohiuddin)

उसी अदा से उसी बाँकपन के साथ आओ। 
फिर एक बार उसी अन्जुमन के साथ आओ। 
हम अपने एक दिल -ए बेख़ता के साथ आएँ। 
तुम अपने महशरे दारो रसन के साथ आओ। 


महशरे  - प्रलय 


शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004 


रविवार, 24 अगस्त 2014

तिफ़्ली का ख़्वाब (Tifli ka khwab by Majaz Lakhnawi)

तिफ़्ली में आरज़ू थी किसी दिल में हम भी हों  
इक रोज़ सोज़ो-साज़ की महफ़िल में हम भी हों  
तिफ़्ली = बचपन 

दिल हो असीर गेसू-ए-अंबरसरिश्त में 
उलझे उन्हीं हसीन सलासिल में हम भी हों 
असीर = क़ैदी          सलासिल = ज़ंजीरों  
गेसू-ए-अंबरसरिश्त = ख़ुशबू भरी ज़ुल्फ़ों 


छेड़ा है साज़ हज़रते-सादी ने जिस जगह 
उस बोस्ताँ के शोख़ अनादिल में हम भी हों  
बोस्ताँ = उपवन   अनादिल = बुलबुलों 

गाएँ तराने दोशे-सुरैया पे रख के सर 
तारों से छेड़ हो, महे-कामिल में हम भी हों  
दोशे-सुरैया = तारासमूहों के कंधों  
महे-कामिल = पूर्णिमा का चाँद 

आज़ाद होक कश्मकशे-इल्म से कभी 
आशुफ़्तगाने-इश्क़ की मंज़िल में हम भी हों  
आशुफ़्तगाने-इश्क़ = इश्क़ के दीवानों 

दीवानावार हम भी फिरें कोहो-दश्त में 
दिलदारगाने-शोल-ए-महमिल में हम भी हों  
कोहो-दश्त = पहाड़ व रेगिस्तान 
दिलदारगाने-शोल-ए-महमिल = ऊँट की पीठ पर औरतों के लिए 
किए जानेवाले पर्दे (महमिल) की सुंदरियों (शोलों) के दीवानों  

दिल को हो शाहज़ादि-ए-मक़सद की धुन लगी 
हैराँ सुरागे-ज़ाद-ए-मंज़िल में हम भी हों  
सुरागे-ज़ाद-ए-मंज़िल = मंज़िल की राह का सुराग़ पाने 

सेहरा हो, ख़ारज़ार हो, वादी हो, आग हो 
इक दिन उन्हीं महीब मनाज़िल में हम भी हों  
सेहरा = रेगिस्तान    ख़ारज़ार = काँटों भरी धरती 
महीब = भयानक      मनाज़िल = मंज़िलों 

दरिया-ए-हश्रख़ेज़ की मौजों को चीरकर 
किश्ती समेत दामने-साहिल में हम भी हों  
दरिया-ए-हश्रख़ेज़ = क़यामत ढानेवाला दरिया 
दामने-साहिल = किनारे का दामन 

इक लश्करे-अज़ीम हो मसरूफ़े-कारज़ार 
लश्कर के पेश-पेश मुक़ाबिल में हम भी हों 
लश्करे-अज़ीम = भारी फ़ौज    मसरूफ़े-कारज़ार = युद्धरत 
पेश-पेश = आगे-आगे  

चमके हमारे हाथ में भी तेग़े-आबदार 
हंगामे-जंग नर्ग-ए-बातिल में हम भी हों 
नर्ग-ए-बातिल = पापियों के घेरे  

क़दमों पे जिनके ताज हैं अक़्लीमे-दहर के 
उन चंद कुश्तगाने-ग़मे-दिल में हम भी हों  
अक़्लीमे-दहर = दुनिया के देशों 
कुश्तगाने-ग़मे-दिल = दिल के ग़मों के मारे हुओं 


शायर - मजाज़ लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मजाज़ लखनवी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2001

शनिवार, 26 जुलाई 2014

बगिया लहूलुहान (Bagiya lahuluhan by Habeeb 'Jalib)


हरियाली  को  आँखें  तरसें,  बगिया  लहूलुहान 
प्यार के गीत  सुनाऊँ किसको, शहर हुए वीरान 
                                           बगिया लहूलुहान 

डसती  हैं  सूरज  की  किरनें,  चाँद  जलाए जान 
पग-पग मौत के गहरे साये, जीवन मौत समान 
चारों  ओर  हवा  फिरती  है लेकर  तीर - कमान 
                                           बगिया लहूलुहान 

छलनी हैं कलियों के सीने, ख़ून में लतपत पात 
और न  जाने कब तक होगी  अश्कों की बरसात 
दुनियावालो  कब  बीतेंगे  दुख  के ये दिन - रात 
ख़ून  से  होली  खेल   रहे  हैं  धरती  के  बलवान 
                                           बगिया लहूलुहान 




शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'
संपादक - नरेश नदीम 
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010 

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

कबित (Kabit by Ibne Insha)

 जले तो जलाओ गोरी, पीत का अलाव गोरी 
                 अभी न बुझाओ गोरी, अभी से बुझाओ ना। 
पीत में बिजोग भी है, कामना का सोग भी है। 
                  पीत बुरा रोग भी है, लगे तो लगाओ ना। 
गेसुओं की नागिनों से, बैरिनों अभागिनों से 
                  जोगिनों बिरागिनों से, खेलती ही जाओ ना। 
आशिक़ों का हाल पूछो, करो तो ख़याल - पूछो 
                  एक-दो सवाल पूछो, बात तो बढ़ाओ ना। 


रात को उदास देखें, चाँद का निरास देखें 
                  तुम्हें न जो पास देखें, आओ पास आओ ना। 
रूप-रंग मान दे दें, जी का ये मकान दे दें 
                  कहो तुम्हें जान दे दें, माँग लो लजाओ ना। 
और भी हज़ार होंगे, जो कि दावेदार होंगे 
                  आप पे निसार होंगे, कभी आज़माओ ना। 
शे'र में 'नज़ीर' ठहरे, जोग में 'कबीर' ठहरे 
                  कोई ये फ़क़ीर ठहरे, और जी लगाओ ना। 


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978)
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1990 

इस कबित (कवित्त) को नैय्यरा नूर ने कमाल का गाया है ! 


रविवार, 6 जुलाई 2014

चांद (Chand by Parveen Shakir)

पूरा दुख और आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद

दिन में वहशत बदल गयी थी
रात हुई और निकला चांद

किस मक़तल से गुज़रा होगा
इतना सहमा सहमा चांद

यादों की आबाद गली में
घूम रहा है तन्हा चांद

मेरी करवट पर जाग उठे
नींद का कितना कच्चा चांद

मेरे मुंह को किस हैरत से
देख रहा है भोला चांद

इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चांद

आंसू रोके नूर नहाए
दिल दरिया, तन सहरा चांद

इतने रौशन चेहरे पर भी
सूरज का है साया चांद

जब पानी में चेहरा देखा
तूने किसको सोचा चांद

बरगद की एक शाख़ हटा कर 
जाने किसको झांका चांद

बादल के रेशम झूले में 
भोर समय तक सोया चांद

रात के शानों पर सर रक्खे 
देख रहा है सपना चांद

सूखे पत्तों के झुरमुट में 
शबनम थी या नन्हां चांद

हाथ हिला कर रुख़सत होगा 
उसकी सूरत हिज्र का चांद

सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चांद

रात को शायद एक बजे हैं 
सोता होगा मेरा चांद !


शायरा - परवीन शाकिर
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1994

सोमवार, 9 जून 2014

पास रहो (Paas raho by Faiz Ahmad Faiz)

तुम मेरे पास रहो 
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो 
जिस घड़ी रात चले 
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले 
मर्हम-ए-मुश्क लिये नश्तर-ए-अल्मास लिये 
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले 
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले 
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल 
आस्तीनों में निहाँ हाथों की रह तकने लगे 
आस लिये 
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलक़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासूदगी मचले तो मनाये न: मने 
जब कोई बात बनाये न: बने 
जब न कोई बात चले 
जिस घड़ी रात चले 
जिस घड़ी मातमी सुनसान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
 
              मर्हम-ए-मुश्क = सुगंध का मरहम  
              नश्तर-ए-अल्मास = हीरे का नश्तर 
              निहाँ = छिपे हुए 
              क़ुलक़ुल-ए-मय = शराब ढलने का स्वर 
              बहर-ए-नासूदगी = निराशा के कारण 
  
शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1984

सोमवार, 26 मई 2014

तलाशे-हयात (Talashe-hayat by Firaq Gorakhpuri)


यमन-यमन अदन-अदन
कली-कली चमन-चमन 
बसोज़े-इश्क़े-शोला-ज़न 
बसाज़े-हुस्न गुल-बदन 
ब मश्क़े -आहू-ए-ख़तन 
ब गेसू-ए-शिकन-शिकन 
ब शीरीं-ओ-ब कोहकन 
ब दास्ताने-नल-दमन 
ब नरगिसे-पियाला-ज़न 
ब रू-ए-सायक़ा-फ़िगन 
ब हर नफ़सो-हर सुखन 
ब हाए-ओ-हू-ए-मा दमन 
ज़मीं-ज़मीं ज़मन-ज़मन 
सफ़र-सफ़र वतन-वतन 
ब दैर-साज़ो-बुत-शिकन 
ब ज़ौक़े-शेखो-बिरहमन 
ब हक़ ब क़ुफ़्रे-शोला-ज़न 
ब हर ख़ुदा-ओ-अहरमन 
हयात ढूँढ़ते चलो, हयात ढूँढ़ते चलो 

शायर - फ़िराक़ गोरखपुरी 
संकलन - मन आनम 
('नुक़ूश' के संपादक मुहम्मद तुफ़ैल के पत्र)
लिप्यंतरण - प्रदीप 'साहिल'
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001



रविवार, 11 मई 2014

जब सब दुनिया सो जाती है (Jab sab duniya so jati hai by Meeraji)


जब सब दुनिया सो जाती है, मैं अपने घर से निकलता हूँ
बस्ती से दूर पहुँचता हूँ, सूने रस्तों पर चलता हूँ। 

और दिल में सोचता जाता हूँ क्या काम मिरा इस जंगल में !
क्या बात मुझे ले आई है इस ख़ामोशी के मंडल मैं !

ये जंगल, ये मंडल जिसमें चुपचाप का राजा रहता है 
ये रस्ता भूले मुसाफ़िर के कानों में कुछ कहता है :

सुन सदियाँ बीतीं, इस जंगल में एक मुसाफ़िर आया था 
और अपने साथ इक मनमोहन, सुन्दर प्रीतम को लाया था 

और अन्धी जवानी का जो नशा उन दोनों के दिल पर छाया था 
दोनों ही नादाँ थे, मूरख, दोनोँ ने धोका खाया था। 

वो जंगल, वो मंडल जिसमें चुपचाप का राजा रहता है
जब अपनी गूँगी बोली में ऐसी ही बातें कहता है 

मेरा दिल घबरा जाता है, मैं अपने घर लौट आता हूँ 
सब दुनिया नींद में होती है, और फिर मैं भी सो जाता हूँ।


शायर - मीराजी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मीराजी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

ख़्वाहिशें (Khwahishein by Makhdoom Mohiuddin)


ख़्वाहिशें 
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर 
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं 
जाग उठी दिल की इन्दर सभा 
दिल की नीलम परी, जाग उठी 
दिल की पुखराज 
लेती है अंगड़ाइयाँ जाम में 
जाम में तेरे माथे का साया गिरा 
घुल गया 
चाँदनी घुल गई 
तेरे होठों की लाली 
तेरी नरमियाँ घुल गईं 
रात की, अनकही, अनसुनी दास्तां 
घुल गई जाम में 
ख़्वाहिशें 
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर 
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं l 

 
शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004