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सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

सन्नाटा (Sannata by Purwa Bharadwaj)

अभी शब्दकोश लेकर बैठी हूँ. सन्नाटा की व्युत्पत्ति क्या है, यह शब्द कैसे बना है - जानना चाहती हूँ. मूल में क्या है और प्रत्यय क्या है?

इसे सुनते ही निस्तब्धता, नीरवता का बोध तो तुरत होता है, लेकिन क्या यह सबसे पहले किसी के अभाव का सूचक है ? जहाँ हरकत न हो, कोई स्वर न हो, कोई चेष्टा न हो, वही है सन्नाटा. यह भयावह स्थिति है और शायद इसलिए सन्नाटा पसरने से घबराहट होती है. अब चाहे दादरी में सन्नाटा हो या दिल्ली में ! 

इस हिसाब से सन्नाटा कब, क्यों और कहाँ छाता है, यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है. मुझे याद है 31 मार्च, 1997 का अगला दिन जब सीवान की सड़कों पर चंद्रशेखर को लेकर जुलूस जा रहा था. तब पूरे शहर में सन्नाटा छाया था. बीच-बीच में कुछ नारे उसे तोड़ते थे, मगर गूँज रहा था सन्नाटा.

मतलब साफ़ है कि सन्नाटे का कारण होता है. कोई ऐसा वैसा नहीं, बल्कि ज़बरदस्त कारण. चाहे वह घर के भीतर का सन्नाटा हो या इंसान के भीतर का या कौम के भीतर का.

सन्नाटे के कारण को खोजने से लोग परहेज़ करते हैं. उनको लगता है कि तब उँगली उठने लगेगी ताकतवर की ओर या तब जो सत्ता में है उसकी शिनाख्त की जाएगी. इससे दिक्कत होती है. खतरा रहता है कि उँगली कभी कहीं आपकी तरफ भी न उठ जाए. इसलिए बेहतर है कि सन्नाटे की कद्र की जाए. हो सके तो उसकी गुरुता, उसकी महिमा का बखान करने में हम सब शामिल हो जाएँ.

हिंसा से सन्नाटे का तार जुड़ता है. वह खुशनुमा की आँखों के सन्नाटे में दिखता है. जी हाँ, वही खुशनुमा जो नोमान की बहन है ! हिमाचल प्रदेश की रहनेवाली खुशनुमा जिसके भाई को लोगों ने गोरक्षा के नाम पर पीट पीटकर मार डाला था. या इरोम शर्मिला की आँखों पर गौर कीजिए ! आपको वहाँ भी सन्नाटा दिखेगा.

सन्नाटा जुड़ जाता है सूनेपन से, रिक्तता से. जब व्यक्ति विशेष के दायरे से निकलकर यह गलियों, चौराहों और शहरों में फैल जाता है तब कैसा लगता है, याद कीजिए. कर्फ्यू का दृश्य भी हो सकता है !

सच पूछिए तो सन्नाटा खतरनाक होता है. इससे डरना चाहिए. इसमें आवाजाही करने की मनाही रहती है. उसका पालन किया जाना चाहिए. यदि नहीं तो नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहिए. मुंबई के शक्ति मिल में जाने का दुस्साहस करनेवाली पत्रकार की ‘दुर्दशा’ आखिर इसीलिए हुई न कि उसने सन्नाटे में जाने का खतरा मोल लिया था !

इससे यह पता चलता है कि सन्नाटा सबके लिए एक सा नहीं होता है. किसी के लिए यह फायदेमंद भी हो सकता है. खासकर अपराध के लिए यह माकूल माहौल प्रस्तुत करता है. मानते हैं कि भूत-प्रेत-जिन्न वगैरह भी इसी में सक्रिय होते हैं.

लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि सन्नाटे का लाभ हमेशा बुरे या असामाजिक तत्त्व ही उठाएँ. नज़र बचाकर मनमर्ज़ी करने का मौका भी यह देता है. किसी को घर से भागने का तो किसी को घर लौटने का !

जो भी हो लोगों की नज़र में रहता है सन्नाटा. वे लगातार इस पर सोचते हैं, बात करते हैं. उसे परिभाषित करने की कोशिश करते हैं. अभी मुझे मुक्तिबोध याद आ रहे हैं. वही क्यों, ब्रेख्त, महमूद दरवेश और अनगिनत रचनाकार याद आ रहे हैं. चित्रकार याद आ रहे हैं जो सन्नाटे को अलग अलग रंग देते हैं और अलग अलग रेखाओं व आकृतियों से उसे घेरने का प्रयत्न करते हैं.

मणि कौल की फिल्म भी याद आ रही है जिसके सन्नाटे को देखकर बचपन में हम भाई-बहन घबरा जाते थे. दरअसल यह घबराहट ऊब के कारण होती थी. सन्नाटे से सचमुच ऊब होती है. उसे तोड़ने का मन करता है. कम से कम जब तक हम बच्चे थे हमें सन्नाटा एकदम पसंद नहीं था.

बड़े होते जाने के साथ हम सीखने लगते हैं कि सन्नाटे से नज़र चुराकर निकल जाओ. कहीं और बस जाओ ताकि उससे छुटकारा मिल जाए. हम शोरगुल में रहने में इत्मीनान महसूस करते हैं. हम सोचते हैं कि हमारे आसपास सन्नाटा नहीं है तो इसका मतलब है कि सबकुछ सामान्य है. हमें क्या, सबको लगता है कि सन्नाटे में हमारी हिस्सेदारी नहीं है, इसलिए इससे बचना मुमकिन है.

धीरे-धीरे यह अहसास होता है कि सन्नाटा मारक होता है. एक बिंदु आता है जब यह स्थिति असह्य होने लगती है. हमें दूसरी जगह पर छानेवाला सन्नाटा भी खलने लगता है. हम चाहने लगते हैं कि सन्नाटा टूटे, कोई न कोई चीखे. कोई न कोई प्रतिरोध करे.

फिर भी न चाहते हुए भी ज़्यादातर बार सन्नाटा लंबा खिंच जाता है. कभी कभी तो साल क्या, शताब्दियाँ गुज़र जाती हैं. बहुत सी बातें ऐसी हैं, बहुत से पहलू ऐसे हैं कि अभी तक उन पर सन्नाटा छाया हुआ है. उनकी निशानदेही ही नहीं हुई है तो भला सन्नाटा टूटेगा कैसे

अहम सवाल होता है कि पहल कौन करेगा. सन्नाटे में पहला पत्थर कौन उठाएगा ? अंकुर फिल्म का अंतिम दृश्य याद आता है. जब एक बच्चा पत्थर फेंकता है तो अधिकांश (कम से कम सुधी दर्शकों में से 60%) राहत महसूस करते हैं. उनको लगता है कि उनका प्रतिनिधित्व हो गया. वे तब आराम से घर लौटकर अपने अपने सन्नाटे से आँख चुरा लेते हैं.

सबसे अधिक सुविधाजनक है कि खूब शोर करो. इतना चिल्ल पों मचाओ कि सन्नाटे का पता ही न चले. कोई उसको सूँघ न ले, किसी के दिल में उसका अहसास न हो. 

जिनको सन्नाटा चुभता है, वे दरअसल खतरनाक लोग होते हैं. वे राजनीतिक होते हैं. वे किसी न किसी साजिश की टोह लेते रहते हैं. या कहिए कि वे दिग्भ्रमित लोग हैं. उनकी स्मृति ख़राब होती है क्योंकि वे बहुत पहले की बात याद रखते हैं और एक एक सन्नाटे की कड़ी जोड़ते चलते हैं.

सन्नाटे का जाल होता है. मकड़ी के जाल की तरह उसकी बनावट पारदर्शी होती है. उसी की तरह वह अक्सर आँखों से ओझल होता है. वह जाल भँवर की तरह दबोचता है और अपने में गर्क कर लेता है. उसमें कुछ खुद फँसते हैं, कुछ फँसा दिया जाते हैं. कुछ को इसका बोध होता है और कुछ अपनी अबोधावस्था को चरम सुख मानते हैं.

एक सवाल यह भी है कि चुप्पी और खामोशी अर्थ लेने पर क्या सन्नाटे का वही अर्थ द्योतित होता है ? शायद नहीं.   


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