आज सुबह सुबह मुझे छोला बनाना था। सोचा कि प्याज़वाला छोला नहीं बनाऊँगी, बल्कि जिसे पंजाबी छोला कहा जाता है वह बनाऊँगी। मेरी बेटी को भी वही अधिक पसंद है। यह तय करते ही इमली की खोज शुरू हुई। इमली मिल ही नहीं रही थी। अमचूर मिला, नींबू भी घर में आ गया था। टमाटर था ही। लेकिन मुझे तो इमली की खटास चाहिए थी छोले में। मैं अपनी नई मददगार संगीता को समझाने लगी कि खटास खटास में अंतर होता है। वह पहाड़ी है और अभी तक उसकी भाव-भंगिमा को मैं पकड़ नहीं पाई हूँ। पहले तो उसे खटास शब्द ही नहीं समझ में आया। खट्टा कहने पर उसने समझा, मगर मेरी बेचैनी से वह एकदम निर्लिप्त थी। उसने दही का इस्तेमाल करने को सुझाया। मैंने सर हिला दिया। अंत में 'वेनेगर' यानी सिरके की शीशी की तरफ उसने इशारा किया कि इससे काम चला लो। अबकी मैं चिढ़ गई।
आखिर कैसे किसी को समझाऊँ कि मुझे इमली की खटास ही क्यों चाहिए ! बड़ा मुश्किल है भई किसी को अपनी तलब के बारे में समझाना। उसकी शिद्दत को समझाना। शायद अलग संदर्भ से आए व्यक्ति को आप अपने स्वाद और स्वाद में भी ख़ास चीज़ से उपजे स्वाद के बारे में पूरा नहीं समझा सकते। यहाँ आपकी पूरी संस्कृति दूसरी संस्कृति के सामने खड़ी हो जाती है। आपका परिवेश, आपकी परवरिश और आपका खानपान आपस में कितना गुँथा हुआ है, क्या हम कभी सोचते हैं ?
फ़िलहाल इमली की खोज एजेंडे पर सबसे ऊपर थी। घर बदला है हमने, इस वजह से चीज़ों की जगहें न स्थिर हुई हैं और न याद हुई हैं। मैंने सभी संभावित जगहों पर खोज डाला। अंततःयह प्रयास निष्फल नहीं हुआ। इमली मिल गई। कहाँ ? पार्कर कलम के टिन के डिब्बे में। डिब्बा नया था, इसलिए सहेज लिया गया था और सूखा होने के कारण इमली के लिए सुरक्षित था। यह इमली सूखी हुई थी और बिना चाईं के थी। अचानक मुझे ध्यान आया कि ऐसी इमली मैंने दिल्ली आकर ही देखी थी। उस समय बड़ी हैरानी हुई थी कि बड़े बड़े शहरों में क्या क्या मिलता है और लोगों की सुविधा का कितना ख्याल रखा जाता है। वरना इमली को पानी में फुलाकर उससे चाईं (बीज/गुठली?) निकालना एक बोरियत भरा काम होता था। होली में जब थोक भाव से दही बड़ा बना करता था और उसके साथ इमली की चटनी भी भर भर कटोरे बनती थी तब इमली से चाईं निकालने और उसका रेशा निकालने का काम मुझे थमा दिया जाता था। चलो उससे तो छुटकारा मिला !
अगली बार मैं दिल्ली से माँ के लिए भी बिना चाईं वाली सूखी इमली का प्लास्टिकबंद पैकेट ले गई थी। यह गृहिणी की तरफ से गृहिणी के लिए तोहफा था ! इमली की चाईं रसोइए का काम बढ़ाती थी तो खेल की चीज़ भी थी। मनकों की तरह उनका खेल में खूब इस्तेमाल हमलोग करते थे। सूख जाने पर चाईं एकदम हल्की हो जाती थी। गाढ़े कत्थई रंग की चाईं चमकती थी, फिसलती थी। एक बार मेरे भाई ने खेल खेल में उसको अपने कान में डाल लिया था। कितनी मुश्किल हुई थी उसे निकालने में ! माँ ने बड़ी मेहनत के बाद हेयरपिन की मदद से चाईं को कान से निकाला था।
जगह जगह का अंतर देखिए। पटना में जो पकी हुई इमली बाज़ार से आती थी वह गीली रहती थी। बहुत नफ़ासतवाली जगह से लो तो कभी कभार दोने में मिल जाती थी, नहीं तो अक्सरहा अखबार के टुकड़े में लपेटकर मिलती थी। उसका नतीजा होता था कि हमेशा कागज़ इमली में चिपक जाता था। कभी-कभी हमलोग उस कागज़ को भी चूस लेते थे जिसमें इमली की खटास आ जाती थी। कागज़ उतनी देर तक ही चूसते थे जब तक उसमें इमली का स्वाद आए। फिर भी इमली का लालच इतना होता था कि अक्सर कागज़ की सिट्ठी बन जाने तक हम उसे मुँह से निकालते नहीं थे। जब इमली का आभास पूरी तरह मिट जाता था और कागज़ का स्वाद हावी होने लगता था तब हारकर हमलोग उसे फेंकते थे। सही मायने में यह पूरा प्रकरण पटना-दिल्ली के अंतर के अलावा उम्र और औकात के अंतर से भी जुड़ा था।
आज मुझे जो इमली मिली वह मोटे अच्छे किस्म के प्लास्टिक में लिपटी हुई थी। इमली मात्रा में कम थी, लेकिन पुष्ट थी। मेरे छोले के लिए पर्याप्त थी। मैंने उसे धोकर कटोरी में पानी में भिगोकर रख दिया। तब तक हुआ यह कि मैंने पंजाबी छोले का इरादा तर्क कर दिया।प्याज-टमाटर कटा हुआ था तो जल्दी से चलता-फिरता छोला बना दिया। भीगी हुई इमली पड़ी रह गई। मुझे अहसास हुआ कि मैंने उसके साथ नाइंसाफ़ी की है। इसलिए कोंहड़े की सब्ज़ी में डालकर उसके साथ न्याय करने की कोशिश की।
दिन गुज़र गया। शाम को एक दोस्त से व्हाट्सऐप पर गपियाते हुए अपनी अपनी दिनचर्या पर हम आ गए। इमली और इमली की खटास का मुद्दा फिर दिमाग में आया, लेकिन नेटवर्क गड़बड़ हो जाने से वह गपशप का विषय बनते बनते रह गया। इस बार मुझे इमली की खटास से अधिक इमली का वह पेड़ याद आया जिसके नीचे खड़े होकर हमदोनों स्कूल बस का इंतज़ार करते थे। हमीं नहीं, कई लड़कियाँ थीं। वह दरअसल एक कब्रिस्तान था। उसमें कब्रें थीं। ऊपर नीचे, अगल बगल। हमारे लिए वह ऊबड़ खाबड़ दिलचस्प जगह थी। वह सुनसान नहीं था। एक दो गैराज था वहाँ। इधर उधर पुराने टायर पड़े रहते थे। आते जाते समय पानी के टब में गाड़ी का टायर डालने पर बुलबुले उठते हुए देखने में मज़ा आता था हमें। बगल में साइकिल पंक्चर बनानेवाला भी बैठता था। उस कब्रिस्तान को गुलज़ार बनाते थे इमली के पेड़। एक नहीं, कई पेड़ थे वहाँ।
हमने कच्ची हरी हरी इमली खूब खाई थी वहाँ। इमली की छोटी छोटी हरी पत्तियाँ भी चबाई थीं। कभी कभी वह इमली इतनी बतिया होती थी कि एकदम कसैली लगती थी। उसमें खटास का दूर दूर तक नामो निशाँ नहीं था। भूले भटके उसमें सड़ी हुई, कीड़ों के छेदवाली इमली मुँह में चली जाती थी तो पूरा मज़ा किरकिरा हो जाता था। जब अधपक्की इमली मिल जाती थी तो दोस्तों को चिढ़ा-चिढ़ाकर हमलोग खाते थे। (आज सोचकर ही अजीब लगता है कि हमने कब्रिस्तान के पेड़ से इमली तोड़कर चटखारे ले लेकर खाई है। इतना ही नहीं, किसी धार्मिक का ध्यान इधर गया तो हंगामा ही खड़ा कर दे सकता है। यह तो विधर्मीवाला आचरण हो गया न ?)
इमली खाने के साथ उसको तोड़ने का भी अपना आनंद था। उसके लिए खूब ढेला चलता था। इमली के अलावा आम का पेड़ भी था जिसपर टिकोले के लिए निशानेबाज़ी होती थी। बगल में था इंजीनियरिंग कॉलेज का हॉस्टल जिसकी खिड़कियाँ उस कब्रिस्तान की तरफ खुलती थीं। मेरी दोस्त ने इमली और टिकोले के चक्कर में हॉस्टल की खिड़कियों के शीशों को भी नहीं बख्शा था। अभी उस दृश्य को याद करके हँसी आ रही है। ढेला चलाती किशोरी, उससे शहीद हुए शीशे और न जाने क्या क्या …
अब इमली की मिठास घुलने लगी है मन में। जी हाँ, केवल इमली में खटास नहीं होती है। मिठास भी होती है। यह मामला 50-50 है या क्या, मालूम नहीं। उसका एक साथ खट्टा मीठा होना उसे जनप्रिय बनाने का कारण है, यह तय है। इन दिनों मैं सिर्फ इमली लेकर चुभला नहीं पाती हूँ। इमली की खटास छोले में या सब्ज़ी में या चटनी में तो चल जाती है, मगर खाली इमली की खटास बर्दाश्त नहीं होती है। खाने के पहले केवल सोचकर ही दाँत कोथ होने लगते हैं। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी दिन आएगा जब मैं इमली खा नहीं पाऊँगी - न कच्ची न पक्की।
आखिर कैसे किसी को समझाऊँ कि मुझे इमली की खटास ही क्यों चाहिए ! बड़ा मुश्किल है भई किसी को अपनी तलब के बारे में समझाना। उसकी शिद्दत को समझाना। शायद अलग संदर्भ से आए व्यक्ति को आप अपने स्वाद और स्वाद में भी ख़ास चीज़ से उपजे स्वाद के बारे में पूरा नहीं समझा सकते। यहाँ आपकी पूरी संस्कृति दूसरी संस्कृति के सामने खड़ी हो जाती है। आपका परिवेश, आपकी परवरिश और आपका खानपान आपस में कितना गुँथा हुआ है, क्या हम कभी सोचते हैं ?
फ़िलहाल इमली की खोज एजेंडे पर सबसे ऊपर थी। घर बदला है हमने, इस वजह से चीज़ों की जगहें न स्थिर हुई हैं और न याद हुई हैं। मैंने सभी संभावित जगहों पर खोज डाला। अंततःयह प्रयास निष्फल नहीं हुआ। इमली मिल गई। कहाँ ? पार्कर कलम के टिन के डिब्बे में। डिब्बा नया था, इसलिए सहेज लिया गया था और सूखा होने के कारण इमली के लिए सुरक्षित था। यह इमली सूखी हुई थी और बिना चाईं के थी। अचानक मुझे ध्यान आया कि ऐसी इमली मैंने दिल्ली आकर ही देखी थी। उस समय बड़ी हैरानी हुई थी कि बड़े बड़े शहरों में क्या क्या मिलता है और लोगों की सुविधा का कितना ख्याल रखा जाता है। वरना इमली को पानी में फुलाकर उससे चाईं (बीज/गुठली?) निकालना एक बोरियत भरा काम होता था। होली में जब थोक भाव से दही बड़ा बना करता था और उसके साथ इमली की चटनी भी भर भर कटोरे बनती थी तब इमली से चाईं निकालने और उसका रेशा निकालने का काम मुझे थमा दिया जाता था। चलो उससे तो छुटकारा मिला !
अगली बार मैं दिल्ली से माँ के लिए भी बिना चाईं वाली सूखी इमली का प्लास्टिकबंद पैकेट ले गई थी। यह गृहिणी की तरफ से गृहिणी के लिए तोहफा था ! इमली की चाईं रसोइए का काम बढ़ाती थी तो खेल की चीज़ भी थी। मनकों की तरह उनका खेल में खूब इस्तेमाल हमलोग करते थे। सूख जाने पर चाईं एकदम हल्की हो जाती थी। गाढ़े कत्थई रंग की चाईं चमकती थी, फिसलती थी। एक बार मेरे भाई ने खेल खेल में उसको अपने कान में डाल लिया था। कितनी मुश्किल हुई थी उसे निकालने में ! माँ ने बड़ी मेहनत के बाद हेयरपिन की मदद से चाईं को कान से निकाला था।
जगह जगह का अंतर देखिए। पटना में जो पकी हुई इमली बाज़ार से आती थी वह गीली रहती थी। बहुत नफ़ासतवाली जगह से लो तो कभी कभार दोने में मिल जाती थी, नहीं तो अक्सरहा अखबार के टुकड़े में लपेटकर मिलती थी। उसका नतीजा होता था कि हमेशा कागज़ इमली में चिपक जाता था। कभी-कभी हमलोग उस कागज़ को भी चूस लेते थे जिसमें इमली की खटास आ जाती थी। कागज़ उतनी देर तक ही चूसते थे जब तक उसमें इमली का स्वाद आए। फिर भी इमली का लालच इतना होता था कि अक्सर कागज़ की सिट्ठी बन जाने तक हम उसे मुँह से निकालते नहीं थे। जब इमली का आभास पूरी तरह मिट जाता था और कागज़ का स्वाद हावी होने लगता था तब हारकर हमलोग उसे फेंकते थे। सही मायने में यह पूरा प्रकरण पटना-दिल्ली के अंतर के अलावा उम्र और औकात के अंतर से भी जुड़ा था।
आज मुझे जो इमली मिली वह मोटे अच्छे किस्म के प्लास्टिक में लिपटी हुई थी। इमली मात्रा में कम थी, लेकिन पुष्ट थी। मेरे छोले के लिए पर्याप्त थी। मैंने उसे धोकर कटोरी में पानी में भिगोकर रख दिया। तब तक हुआ यह कि मैंने पंजाबी छोले का इरादा तर्क कर दिया।प्याज-टमाटर कटा हुआ था तो जल्दी से चलता-फिरता छोला बना दिया। भीगी हुई इमली पड़ी रह गई। मुझे अहसास हुआ कि मैंने उसके साथ नाइंसाफ़ी की है। इसलिए कोंहड़े की सब्ज़ी में डालकर उसके साथ न्याय करने की कोशिश की।
दिन गुज़र गया। शाम को एक दोस्त से व्हाट्सऐप पर गपियाते हुए अपनी अपनी दिनचर्या पर हम आ गए। इमली और इमली की खटास का मुद्दा फिर दिमाग में आया, लेकिन नेटवर्क गड़बड़ हो जाने से वह गपशप का विषय बनते बनते रह गया। इस बार मुझे इमली की खटास से अधिक इमली का वह पेड़ याद आया जिसके नीचे खड़े होकर हमदोनों स्कूल बस का इंतज़ार करते थे। हमीं नहीं, कई लड़कियाँ थीं। वह दरअसल एक कब्रिस्तान था। उसमें कब्रें थीं। ऊपर नीचे, अगल बगल। हमारे लिए वह ऊबड़ खाबड़ दिलचस्प जगह थी। वह सुनसान नहीं था। एक दो गैराज था वहाँ। इधर उधर पुराने टायर पड़े रहते थे। आते जाते समय पानी के टब में गाड़ी का टायर डालने पर बुलबुले उठते हुए देखने में मज़ा आता था हमें। बगल में साइकिल पंक्चर बनानेवाला भी बैठता था। उस कब्रिस्तान को गुलज़ार बनाते थे इमली के पेड़। एक नहीं, कई पेड़ थे वहाँ।
हमने कच्ची हरी हरी इमली खूब खाई थी वहाँ। इमली की छोटी छोटी हरी पत्तियाँ भी चबाई थीं। कभी कभी वह इमली इतनी बतिया होती थी कि एकदम कसैली लगती थी। उसमें खटास का दूर दूर तक नामो निशाँ नहीं था। भूले भटके उसमें सड़ी हुई, कीड़ों के छेदवाली इमली मुँह में चली जाती थी तो पूरा मज़ा किरकिरा हो जाता था। जब अधपक्की इमली मिल जाती थी तो दोस्तों को चिढ़ा-चिढ़ाकर हमलोग खाते थे। (आज सोचकर ही अजीब लगता है कि हमने कब्रिस्तान के पेड़ से इमली तोड़कर चटखारे ले लेकर खाई है। इतना ही नहीं, किसी धार्मिक का ध्यान इधर गया तो हंगामा ही खड़ा कर दे सकता है। यह तो विधर्मीवाला आचरण हो गया न ?)
इमली खाने के साथ उसको तोड़ने का भी अपना आनंद था। उसके लिए खूब ढेला चलता था। इमली के अलावा आम का पेड़ भी था जिसपर टिकोले के लिए निशानेबाज़ी होती थी। बगल में था इंजीनियरिंग कॉलेज का हॉस्टल जिसकी खिड़कियाँ उस कब्रिस्तान की तरफ खुलती थीं। मेरी दोस्त ने इमली और टिकोले के चक्कर में हॉस्टल की खिड़कियों के शीशों को भी नहीं बख्शा था। अभी उस दृश्य को याद करके हँसी आ रही है। ढेला चलाती किशोरी, उससे शहीद हुए शीशे और न जाने क्या क्या …
अब इमली की मिठास घुलने लगी है मन में। जी हाँ, केवल इमली में खटास नहीं होती है। मिठास भी होती है। यह मामला 50-50 है या क्या, मालूम नहीं। उसका एक साथ खट्टा मीठा होना उसे जनप्रिय बनाने का कारण है, यह तय है। इन दिनों मैं सिर्फ इमली लेकर चुभला नहीं पाती हूँ। इमली की खटास छोले में या सब्ज़ी में या चटनी में तो चल जाती है, मगर खाली इमली की खटास बर्दाश्त नहीं होती है। खाने के पहले केवल सोचकर ही दाँत कोथ होने लगते हैं। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी दिन आएगा जब मैं इमली खा नहीं पाऊँगी - न कच्ची न पक्की।
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