Translate

बुधवार, 6 जुलाई 2016

अंदाजी टक्कर (Andaji takkar by Purwa Bharadwaj)

अंदाजी टक्कर। दुरुस्त करके कहूँ  तो अंदाज़ी टक्कर। वैसे अपनी बोली में अंदाजी टक्कर ही जमता है। यह शब्द बड़े दिनों बाद मेरे सामने आया और एक बार नहीं, बार-बार आया। संदर्भ क्या था, पता है ? संदर्भ था फोटो खींचने का। जी हाँ, मैं अपने फोन से तस्वीर ले रही थी। एकदम अंदाजी टक्कर !

एक तो मुझे साफ़ दिखता नहीं है और ऊपर से बाईफोकल चश्मा ! फोन भी रामजी का सँवारा हुआ। उसकी स्क्रीन गिर जाने के कारण कहीं कहीं से चूर हो गई थी। (चकनाचूर नहीं हुई थी। स्क्रीन कामचलाऊ हालत में थी।स्क्रीन गार्ड के कवच में मैं उसी से काम चला रही हूँ।) सोने पर सुहागा यह कि न मुझे फोटोग्राफी के गुर आते हैं, न उनका अभ्यास रहा है। फिर भी मैं तस्वीर खींचने की कोशिश कर रही थी। सौ फीसदी अंदाजी टक्कर !

खींच लेने के बाद जब पहली तस्वीर मैंने देखी तो लगा कि लोगों के सर-पैर अपनी जगह पर हैं, इमारतें सीधी खड़ी नज़र आ रही हैं, पत्तों का रंग भी कैमरे की पकड़ में आ रहा है। इसका मतलब अंदाजी टक्कर कुछ काम किया जा सकता है। अधिक निराश होने की ज़रूरत नहीं है। लिहाज़ा हिम्मत बढ़ गई। यॉर्क शहर का आसमान इतना खूबसूरत था कि आड़े-तिरछे कहीं से भी तस्वीर लो, उसकी अदा का अंदाज़ा हो जाता था। ताबड़तोड़ मैं आसमान को अपने लिए सहेजने में जुट गई। अंदाजी टक्कर ही सही, कोई न कोई कोना तो पकड़ में आ ही जाता था।

वैसे अंदाजी टक्कर कुछ करने में हर्ज़ क्या है ? उसमें देखते तो नतीजा ही हैं। नतीजा ठीक-ठाक रहा, मेल में रहा तो वाह वाह। चुनाव के समय खासकर यह देखने को मिलता है। अंदाज़ी घोड़े दौड़ाए जाते हैं। जिसका अंदाज़ा सही निकला वह अच्छा भविष्यवक्ता निकल गया, वरना आप घर बैठे अंदाज़े लगाते रहिए आपकी बात का कुछ मोल नहीं। है तो यह तुक्केबाज़ी ही। लह गया तो लह गया, नहीं तो गया पानी में।

इसमें संयोग का तत्त्व अनिवार्यतः रहता है। वह सकारात्मक और सुखद शब्द है। उसमें आशा का पुट है, जबकि आम तौर पर अंदाजी टक्कर नकारात्मक और कमतर माना जाता है, जो मेरे हिसाब से ठीक नहीं। इसमें गलती होना और कोशिश करना दोनों शामिल हैं। कल्पना करना, अनुमान लगाना, कल्पना की उड़ान भरना सब इसी के रंग हैं। और ये सब सीखने और आगे बढ़ने की प्रक्रिया के लिए ज़रूरी हैं। हम पढ़ना भी ऐसे ही सीखते हैं। चलना भी। जब पहला कदम बढ़ता है तो हमें पता नहीं होता कि वह कहाँ जा रहा है। चाहे वह बच्चे का पहला कदम हो या आज़ादी की चाह में निकला किशोरी का कदम हो या ऊबी हुई ज़िंदगी से भाग निकलने की छटपटाहट में उठाया कदम हो।

टटोलना है यह। पूरी ज़िंदगी हम यही तो करते रहते हैं। रिश्ते टटोलते रहते हैं, सच टटोलते रहते हैं। अंदाजी टक्कर सब चलता रहता है। इधर एक लड़की अपने आगे आनेवाले दिनों की बात कर रही थी तो मुझे लगा कि वह गारंटी किस चीज़ की चाहती है। नौकरी कैसी मिलेगी और साथी कैसा मिलेगा या कैसा निकलेगा, इसे कैसे तय किया जा सकता है। [अथवा कैसी भी साथी लिखना चाहिए, अनिवार्य विषमलैंगिकता का चश्मा उतार दूँ तो :)]

अनिश्चय से भरी राह है यह, ऐसा नहीं मानना चाहती हूँ। अभी कुछ नई कविताएँ पढ़ रही थी तो लगा कि शायद रचनात्मक प्रयास भी यही कहता है। चलते-चलते कहाँ कविता बन जाएगी, कहाँ कविता ठहर जाएगी, यह कवि को भी नहीं पता होता है। यह रचना प्रक्रिया की सुंदरता है। इसलिए मुझे लगता है किअंदाजी टक्कर में निरंतरता का भाव उसे सार्थकता प्रदान करता है। निर्रथक भी हो तो क्या ? चलायमान है न ? गति में है न ?

तलाश असल चीज़ है। मुझमें जान भरती है यह। अब मुझे लगता है कि मूलतः मैं शोधार्थी हूँ। मेरा सबसे अधिक मन उसी में लगता है। दिशा और विषय तय हों, यह ज़रूरी नहीं। शोध का विषय अनंत है और मैं कुछ चुनने के लिए हाथ-पैर मारती हूँ। पुरानेपन से वितृष्णा नहीं है, लेकिन नई राह की तलाश है। चलती रहती हूँ। पुरसुकून न सही, पर पुरउम्मीद।

एक किस्म की बेचैनी है इस अंदाजी टक्कर चलते रहने में। जैसे साइकिल चलाना सीखते समय हैंडल पर काबू पाने की बेचैनी होती है या तनी हुई रस्सी पर चलते हुए नट-नटनी को देखते समय संतुलन बनाए रखने की। लेकिन जिसने यंत्र-तंत्र के कल-बल को समझ लिया हो, जो अभ्यासी हो, जिसने देह और मन को साध लिया हो, उसके लिए यह सब सामान्य हो जाता है। यह करतब नहीं रह जाता है। हमारे जैसों के लिए भले हो ! मतलब अंदाजी टक्कर चलना अनाड़ियों का मामला है क्या ?

एक वरिष्ठ साथी ने याद दिलाया कि उनके ज़माने में किस तरह मेडिकल निकलने का 'क्रेज़' था और उसके इम्तहान में multiple choice वाले सवाल आते थे तो कैसे किसी चॉइस पर बाज़ तालिबे इल्म (जिन्होंने पढ़ाई नहीं की, मगर परीक्षा कक्ष में हाज़िर हो गए) अंदाजी टक्कर लगाते थे। आज भी सूरत बदली नहीं है, बल्कि यही है। मुमकिन है कि अंदाजी टक्कर मारकर परीक्षा पास करनेवालों की तादाद बढ़ी ही हो। मेरी नज़र में यह चिंता का कारण नहीं है।

मुझे चिंता है कि इस MCQ को कितने हल्के ढंग से लिया जाता है। लोग आरोप लगाते हैं कि इस MCQ ने एक तरह से परीक्षा प्रणाली को ही उलट-पुलट कर रख दिया है। ज्ञान की जगह सूचना ने ली है और अंदाजी टक्कर मार-मारकर नाकाबिल बच्चे भी पास हो जाते हैं। गंभीर शिक्षाविदों को महसूस होता है कि अंदाजी टक्कर मारना खेल की तरह हो गया है और इस आदत ने ज्ञान के वज़न को घटाया है। परीक्षा व्यवस्था को कसते हुए इन दिनों वस्तुनिष्ठ सवालों में सूचना आधारित सवाल के साथ अवबोध के सवाल भी रखे जा रहे हैं ताकि परीक्षार्थी अंदाजी टक्कर न मारें। सूचना का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, इसलिए सूचनापरक सवाल अंदाजी टक्कर हल कर लिए जाएँगे, मगर अवबोध (समझ) के सवाल में अंदाजी टक्कर की गुंजाइश नहीं है। इस घेरेबंदी पर मुझे हँसी आती है। अवबोध ज़रूरी है और सही मायने में शिक्षा उसी पर टिकी है, मगर उसका अंदाजी टक्करवाले रास्ते से कोई सीधा विरोध नहीं है। उसे हम सीढ़ी की तरह भी तो मान सकते हैं।

निष्काम कर्म की तरह क्यों न मानें इसे ? फल की चिंता किए बगैर चलना श्रेयस्कर है तो यह क्यों नहीं ? मान लीजिए अर्जुन का निशाना मछली की आँख पर नहीं लगता तो ? क्या होता यदि अंदाजी टक्कर तीर चलता तो ? बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ी का उसूल है क्या कोई ? छक्का-चौका न लगे तो असफलता  का ठप्पा तुरत लग जाता है। क्या यह न्याय है ? हमारी दार्शनिकता यहाँ काम नहीं करती क्या ? संस्कृत के सुभाषितों और सूक्तियों से भरे हमारे महान सांस्कृतिक जीवन में अंदाजी टक्कर की क्या जगह है ?
  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें