मैंने फूल को सराहा
:
‘देखो, कितना सुन्दर
है, हँसता है !’
तुमने उसे तोड़ा
और जूड़े में खोंस
लिया l
मैंने बौर को सराहा
:
‘देखो, कैसी भीनी
गन्ध है !’
तुमने उसे पीसा
और चटनी बना डाली l
मैंने कोयल को
सराहा :
‘देखो, कैसा मीठा
गाती है !’
तुमने उसे पकड़ा
और पिंजरे में डाल
दिया l
एक युग पहले की
बातें ये
आज याद आतीं नहीं
क्या तुम्हें ?
क्या तुम्हारे बुझे
मन, हत-प्राण का है यही भेद नहीं :
हँसी, गन्ध, गीत जो
तुम्हारे थे
वे किसी ने तोड़ लिए,
पीस दिए, कैद किए ?
मुक्त करो !
मुक्त करो ! –
जन्म-भर की यह यातना
भी
इस ज्ञान के समक्ष
तुच्छ है :
हँसी फूल में नहीं,
गन्ध बौर में नहीं,
गीत कंठ में नहीं,
हँसी, गन्ध, गीत –
सब मुक्ति में हैं
मुक्ति ही सौन्दर्य
का अन्तिम प्रमाण है !
- 24.6.1958
कवि – भारतभूषण
अग्रवाल
संकलन – भारतभूषण
अग्रवाल : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक – अशोक
वाजपेयी
प्रकाशक – राजकमल
पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2004
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