मन कड़वा होता है। खट्टा होता है। यह सच्चाई है। (यकीनन मीठा भी होता है, लेकिन अभी उसका भाव पटल पर नहीं है।) कितना भी यह समझाओ अपने आप को कि यह क्षणिक है, आवेग है, आवेश है, समय के साथ तकलीफ चली जाएगी, तो भी मन में फाँस रह जाती है। अक्सर करीबी या परिचित के संदर्भ में यह अटक रह जाती है।
सबसे ज़्यादा चुभता है नकली व्यवहार। जब आपको पता चले कि अगले ने हमेशा अपने को केंद्र में रखकर ही व्यवहार किया है तो मन दुखता है। ऐसे में स्वाभाविक सदाशयता, सामान्य व्यवहार को भी हम शक के घेरे में ला खड़ा करते हैं। हर अच्छी बात से भरोसा उठने लगता है। अपने छले जाने, बेवकूफ बनाए जाने का अहसास इतना प्रबल हो जाता है कि इंसान क्षुद्र तरीके से सोचने लगता है। मैं इस क्षुद्रता से लड़ने की कोशिश करती हूँ। अपने को टोकती हूँ, अगले की सीमाओं और उसके संदर्भों को समझने की भरसक कोशिश करती हूँ, फिर भी कई बार अपनी सहजता लौटा नहीं पाती हूँ। व्यवहार के अनुपात का हिसाब-किताब बेमानी हो जाता है।
बात नफा-नुकसान की नहीं है। हैरानी होती है कि आप कैसे किसी को समझ नहीं पाते हैं। आज मैंने किसी दूसरे के लिए किसी तीसरे की ऐसी गलाज़त भरी ज़बान सुनी कि दंग रह गई। कोई शिक्षित होने का दावा करनेवाला इंसान कैसे यह ज़बान बोल सकता है ! 'पीड़ित' या 'पीड़िता' होने के बावजूद किसी को गलाज़त पर उतरने का लाइसेंस तो नहीं मिल जाता है। हिंसा के चक्र को झेलनेवाले और उसकी शुरुआत करनेवाले सबकी मनोवैज्ञानिक स्थिति का लाख विश्लेषण किया जा सकता है, लेकिन फौरी और सबसे अहम सवाल रहता है कि इन सबको झेला कैसे जाए ! मुझे याद है कि आज से तकरीबन बारह साल पहले एक प्रेम संबंध को लहूलुहान होते हुए मैंने देखा था। बरसों उस बंदे के सामने खड़े रहना तक मुझे गवारा नहीं था। लेकिन अपनी चोट पर मेरी परिचिता ने मरहम पट्टी कर ली और धीरे-धीरे मैंने भी 'शिष्टाचार' के लिए अपने को तैयार कर लिया। उसको लेकर शर्म आती है।
जेंडर, यौनिकता, विवाह, हिंसा, कानून, परिवार, दायित्व-कर्त्तव्य, भागीदारी, अधिकार, संपत्ति में हिस्सा, ससुराल-नैहर के द्वैत, रिश्तों की परत, स्वार्थ-चतुराई, पारंपरिकता-आधुनिकता, शिक्षा की भूमिका वगैरह की बहसों को मन ही मन दोहराती हूँ। तरह तरह की सत्ता के लाभ की स्थिति में रहकर विश्लेषण करते हुए 'स्टैंडप्वाइंट' यानी दृष्टिबिन्दु सिद्धांत को याद करती हूँ। जब सिद्धांत और जीवन की खाई और चौड़ी दिखने लगती है तो घबराहट होती है। संतुलन कैसे बैठाऊँ ! अपूर्व की उस बात में इत्मीनान खोजना चाहती हूँ जब वे कहते हैं कि धोखा खा जाना धोखा देने से बेहतर है। खुद को अरक्षित छोड़ देना चाहिए, लेकिन हम अपनी किलेबंदी करना कहाँ और कितना छोड़ पाते हैं !
मुझे एकमात्र उपाय उदासीनता में दिखता है। न उधो का लेना न माधो का देना। मन कड़वा हो तो निरपेक्ष होने की कोशिश करो। रिश्तों में निवेश करना मत छोड़ो, निराशावादी मत बनो। दूसरों में धँसो नहीं। थोड़ी दूरी बनाए रखो। खुद से भी। ताकि अपनी सीमाओं और गलतियों को जान सको। गहराई में जाओ, मगर 'फेस वैल्यू' पर चीज़ों को लेना एकदम मत छोड़ दो। वरना जीना कठिन हो जाएगा। दूसरे से पारदर्शी और ईमानदार और सुसंगत होने की अपेक्षा छोड़ दो। जितना हो सके खुद को पारदर्शी बनाओ। गीता के वचन पर फिस्स से हँसो नहीं, नास्तिक की दूसरे किस्म की आस्तिकता होती है।
सबसे ज़्यादा चुभता है नकली व्यवहार। जब आपको पता चले कि अगले ने हमेशा अपने को केंद्र में रखकर ही व्यवहार किया है तो मन दुखता है। ऐसे में स्वाभाविक सदाशयता, सामान्य व्यवहार को भी हम शक के घेरे में ला खड़ा करते हैं। हर अच्छी बात से भरोसा उठने लगता है। अपने छले जाने, बेवकूफ बनाए जाने का अहसास इतना प्रबल हो जाता है कि इंसान क्षुद्र तरीके से सोचने लगता है। मैं इस क्षुद्रता से लड़ने की कोशिश करती हूँ। अपने को टोकती हूँ, अगले की सीमाओं और उसके संदर्भों को समझने की भरसक कोशिश करती हूँ, फिर भी कई बार अपनी सहजता लौटा नहीं पाती हूँ। व्यवहार के अनुपात का हिसाब-किताब बेमानी हो जाता है।
बात नफा-नुकसान की नहीं है। हैरानी होती है कि आप कैसे किसी को समझ नहीं पाते हैं। आज मैंने किसी दूसरे के लिए किसी तीसरे की ऐसी गलाज़त भरी ज़बान सुनी कि दंग रह गई। कोई शिक्षित होने का दावा करनेवाला इंसान कैसे यह ज़बान बोल सकता है ! 'पीड़ित' या 'पीड़िता' होने के बावजूद किसी को गलाज़त पर उतरने का लाइसेंस तो नहीं मिल जाता है। हिंसा के चक्र को झेलनेवाले और उसकी शुरुआत करनेवाले सबकी मनोवैज्ञानिक स्थिति का लाख विश्लेषण किया जा सकता है, लेकिन फौरी और सबसे अहम सवाल रहता है कि इन सबको झेला कैसे जाए ! मुझे याद है कि आज से तकरीबन बारह साल पहले एक प्रेम संबंध को लहूलुहान होते हुए मैंने देखा था। बरसों उस बंदे के सामने खड़े रहना तक मुझे गवारा नहीं था। लेकिन अपनी चोट पर मेरी परिचिता ने मरहम पट्टी कर ली और धीरे-धीरे मैंने भी 'शिष्टाचार' के लिए अपने को तैयार कर लिया। उसको लेकर शर्म आती है।
जेंडर, यौनिकता, विवाह, हिंसा, कानून, परिवार, दायित्व-कर्त्तव्य, भागीदारी, अधिकार, संपत्ति में हिस्सा, ससुराल-नैहर के द्वैत, रिश्तों की परत, स्वार्थ-चतुराई, पारंपरिकता-आधुनिकता, शिक्षा की भूमिका वगैरह की बहसों को मन ही मन दोहराती हूँ। तरह तरह की सत्ता के लाभ की स्थिति में रहकर विश्लेषण करते हुए 'स्टैंडप्वाइंट' यानी दृष्टिबिन्दु सिद्धांत को याद करती हूँ। जब सिद्धांत और जीवन की खाई और चौड़ी दिखने लगती है तो घबराहट होती है। संतुलन कैसे बैठाऊँ ! अपूर्व की उस बात में इत्मीनान खोजना चाहती हूँ जब वे कहते हैं कि धोखा खा जाना धोखा देने से बेहतर है। खुद को अरक्षित छोड़ देना चाहिए, लेकिन हम अपनी किलेबंदी करना कहाँ और कितना छोड़ पाते हैं !
मुझे एकमात्र उपाय उदासीनता में दिखता है। न उधो का लेना न माधो का देना। मन कड़वा हो तो निरपेक्ष होने की कोशिश करो। रिश्तों में निवेश करना मत छोड़ो, निराशावादी मत बनो। दूसरों में धँसो नहीं। थोड़ी दूरी बनाए रखो। खुद से भी। ताकि अपनी सीमाओं और गलतियों को जान सको। गहराई में जाओ, मगर 'फेस वैल्यू' पर चीज़ों को लेना एकदम मत छोड़ दो। वरना जीना कठिन हो जाएगा। दूसरे से पारदर्शी और ईमानदार और सुसंगत होने की अपेक्षा छोड़ दो। जितना हो सके खुद को पारदर्शी बनाओ। गीता के वचन पर फिस्स से हँसो नहीं, नास्तिक की दूसरे किस्म की आस्तिकता होती है।
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