27 फरवरी। कोई कोई तारीख कैसे टँगी रह जाती है मन में! यह वर्षगाँठ ही है, लेकिन न जन्मदिन की न शादी की। पापा से रूबरू अंतिम बार मिलने की।
पटना जाना मेरी योजनाओं में हमेशा रहता है और बाकी कामों की तरह यह अक्सर अचानक तय होता है। पिछले साल भी ऐसा ही हुआ था। 20 फरवरी तक एक आवासीय कोर्स के संचालन में लगी हुई थी, 22-23 को अलग अलग ट्रेनिंग में सत्र था, शाहीन बाग के समर्थन में होनेवाले कार्यक्रमों में यदा कदा भागीदारी थी और 28 फरवरी को घर की एक शादी में कटक जाना था। इसी बीच पटना में दो दिन की बैठक का प्रस्ताव आया तो मैंने जाने का निर्णय करने में विलंब नहीं किया। वाया पटना कटक जाना मुश्किल भी न था। माँ-पापा के पास चंद घंटे ही कायदे से रहना होता था, फिर भी घर जाने के आह्लाद से भरी हुई थी मैं।
2020 की 25 फरवरी थी वह। पटना एयरपोर्ट पर उतरते ही माँ का फोन आ गया। पापा खुद कम ही करते थे क्योंकि उनको शुरू से फोन पर ठीक से सुनाई नहीं पड़ता था। माँ उनको भुच्च देहाती कहकर चिढ़ाती थी। खैर, घर पहुँचते पहुँचते 9 बज गया। माँ-पापा से मुख्तसर सी मुलाकात के बाद मैं अपनी बैठक के लिए निकल गई। देर शाम लौटकर चाय-नाश्ता चलता रहा और तब जाकर माँ-पापा से गपशप हुई।
ठंड जाने को थी, लेकिन माँ-पापा के गर्म कपड़े उतरे न थे। दोनों की तबीयत मोटा मोटी ठीक थी। घड़ी देखकर 10 बजे पापा ने खाना खाया और खाने के बाद 10 मिनट बैठकर सोने को चले गए। माँ देर रात तक जगती है और मैं भी निशाचर हूँ, परंतु पिताजी के बत्ती बुझाने का आदेश (आदेश क्या, अनुरोध कहना ही बेहतर होगा) मानना पड़ता था। सो मुझे भी उस कमरे से जाना पड़ा। पापा के लिए नींद अहम थी। शुरू से हमने देखा है कि वे समय के कितने पाबंद थे, चाहे वह पढ़ने का समय हो, खाने का समय हो या सोने का समय हो। उसमें खलल कौन डाले ! विश्वविद्यालय से लौटकर जब रानीघाट वाले मकान में वे ऊपरी मंज़िल पर अपने कमरे में सोने जाते थे तो सबको हिदायत थी कि उनका दरवाज़ा न खटखटाए। माँ कहती थी कि अब किल्ला ठोंका गया है !
पिछले कुछ साल से पापा का बिस्तर माँ के कमरे में ही लगने लगा था। पिछली की पिछली बार अस्पताल से लौटने के बाद वे पढ़ने-लिखने का काम भी अधिकतर वहीं माँ के कमरे में करने लगे। मानो अकेले रहने का उनका आत्मविश्वास हिल गया हो। जबकि बचपन से हमने यही देखा था कि पापा की स्टडी ही उनका सोने का कमरा था। अब वे माँ को 24 घंटे घेरे रहते थे। स्वाभाविक रूप से माँ कभी कभी त्रस्त हो जाती थी। एक तो अपने पैर की तकलीफ के कारण माँ का चलना-फिरना सीमित हो गया था और दूसरे टीवी खोलने, बत्ती जलाने, बालकनी का दरवाजा खोलने, खिड़की का पल्ला बंद करने, पर्दा फैलाने जैसी हर बात पर पापा की पसंद-नापसंद चलने लगी थी। माँ कभी-कभी मौसी के साथ लूडो खेलती थी तो भी सामने की कुर्सी पर पापा विराजमान होते भले ही टोकते-टाकते न हों। एक बार माँ की तरफ से मैंने पापा को कहा कि अब आप वापस अपने कमरे में सोना शुरू कीजिए। माँ का कमरा सँकरा पड़ रहा था और 24 घंटे का साथ कितना भी प्रेम हो पति-पत्नी को चिढ़ाने के लिए काफी है। लेकिन यह क्या ? पापा रोने लगे। उन्होंने हाथ जोड़कर मुझसे कहा कि मुझको माँ से अलग मत करो। मैंने कहा कि क्या नाटक है यह और फिर उनको समझाती रही कि इस व्यवस्था से आप दोनों को आपसी खिटपिट से छुट्टी मिलेगी। पापा ने माँ का दामन छोड़ने से सीधा इनकार कर दिया। इधर माँ भी पसीज गई। बोली कि रहने दो, आँख के सामने रहते हैं तो मन निश्चिंत रहता है।
पापा की रुटीन निर्धारित थी (हालाँकि नहाने, खाने-पीने, पढ़ने, सोने का समय कुछ मिनट आगे-पीछे खिसकता रहता था) और उसी के मुताबिक उनसे बात करने का मौका निकालना पड़ता था। मेरी 26 फरवरी पिछले दिन की तरह निकल गई। आई 27 फरवरी। क्या पता था कि यह दिमाग में 'फ्रीज़' हो जाएगा ! इसके पहले यह तारीख छोटे चाचा की शादी की वर्षगाँठ के रूप में यादगार थी। या 26 फरवरी को मेरे एक मौसी की शादी की सालगिरह के बाद का दिन था। कुछ सालों से गोधरा कांड के पहलेवाला दिन बनकर आमने आने लगा था।
मुझे 27 की शाम को कटक निकलना था ताकि 28 की शादी में शामिल हो पाऊँ। आज बैठक न थी। उसकी जगह गाँधी मैदान में जो CAA विरोधी रैली थी उसमें जाना था। बहन से मिलना था। उससे मुलाकात हुई सुबह 10 बजे के करीब इनकम टैक्स गोलंबर पर। उसके पहले का वक्त रुटीन की तरह गुज़रा। पापा 9 बजे के करीब उठे। उनकी देखभाल के लिए नंदन आ जाता था तबतक। उठते ही पानी पीकर वे नहाने-धोने के व्यापार में लग गए। मुझसे कुछ खास बात नहीं हुई। माँ मेरे जाने के ख्याल से विचलित होने लगी थी। मैं सफ़र पर जाने के पहले घर लौटने का कहकर निकल गई। गाँधी मैदान में बहुत लोग मिले। कूद-कूदकर, दौड़-दौड़कर किसी के गले मिली, किसी को प्रणाम किया, किसी से खैरियत पूछी तो किसी से हाथ हिलाकर ही दुआ-सलाम हुआ। कब्बू से फ़ोटो भी खिंचवा ली। फिर निकल गई पटना विश्वविद्यालय।
मेरी एक दोस्त की विदेश में रहनेवाली बहन को 25-27 साल पहले के अपने संस्कृत में एम. ए. के सर्टिफ़िकेट के अलावा उसका सिलेबस चाहिए था। खोजते हुए मैं पहले लाइब्रेरी फिर कहाँ कहाँ गई। साथ में बहन को भी दौड़ाया। सीनेट हाल के बगल के एक नए भवन में एक सज्जन मिले जो पापा को जानते थे और जिनके पास कुछ सूचना थी। उन्होंने संस्कृत विभाग के शिक्षक प्रो. रामगुलाम मिश्र और विभाग के कर्मी मिश्रा जी से बात कराई। सब सेवानिवृत्त, मगर परिचय का पुराना तार मुझे झंकृत कर गया ! हड़बड़ी में मिश्र जी और मिश्रा जी से बात करने में उल्टा हो गया और अपने शिक्षक रहे मिश्र जी से बात करने के दौरान मैंने शायद समुचित जवाब नहीं दिए। शायद ! इसलिए कि समय की कमी के कारण मैं जल्दी जल्दी बात कर रही थी। चूक दुरुस्त करते हुए मैंने दोनों से दुबारा बात की और खुशी की बात यह कि उन दोनों की तरफ से मुझे सही सूचना कुछ दिन बाद मिल गई जिसे मैंने अपनी दोस्त की बहन तक पहुँचा दिया।
इस बीच पिछले दिन की बैठक की कार्यवाही पर दस्तखत करना था। उस सज्जन के साथ पटना विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में मिलना तय किया जो कि उनके लिए ट्रैफिक जाम के कारण मुमकिन न हुआ। पटना कॉलेज का गेट बताया तो फिर समय का तालमेल न हुआ। आखिरकार वे एयरपोर्ट पर आकर दस्तखत ले गए। मुझे शर्म आ रही थी कि ऐसी भी क्या व्यस्तता, लेकिन पटना तो मुझे ऐसा बाँधता है कि मैं वहाँ जाकर पचास काम कर लेना चाहती हूँ, सबसे मिल लेना चाहती हूँ। माँ-पापा के पास कम समय ठहरने का मलाल रहता है, मगर संतोष भी रहता है कि कम से कम मिल तो पाई। बहरहाल, पटना विश्वविद्यालय से बुद्ध कॉलोनी वापस जाने का साधन खोजने लगी। रैली की वजह से टैक्सी नहीं मिल रही थी। रिक्शा या ऑटो लेकर (भूल गई कि क्या साधन मिला था) भागी भागी हम दो बहनें घर पहुँचीं। माँ-पापा से थोड़ी बात हुई। खाया-पीया मैंने और याद से दो-तीन फ़ोटो खिंचवाई साथ में। मुहर की तरह यह मेरी हर पटना यात्रा के लिए जरूरी हो गया था। बमुश्किल आधे-पौन घंटे रुककर मैं घर से निकलने को तैयार थी।
माँ को गले लगाया, अपना सूटकेस उठाया और दरवाज़े तक आकर पापा को प्रणाम किया। मना करने के बावजूद पापा लिफ्ट तक जरूर आते थे। पहले तीसरी मंज़िल से नीचे तक आते थे। उसके भी पहले कभी कभी स्टेशन आते थे। इधर वे इतना विह्वल हो जाते थे कि मेरे जाते समय माँ उनको देखकर अपनी आकुलता छिपा लेती थी। पापा लिफ्ट के पास आए तो रोने लगे मानो मुझसे फिर भेंट न होगी। पिछले कुछ सालों से यह होता चला आ रहा था और मैं जल्दी आऊँगी कहकर अपने को और उनको बहला लेती थी। उन्होंने मेरा माथा चूमा, अंतिम बार !
बुद्ध कॉलोनी में ही मेरे बचपन की दोस्त की अम्मां रहती हैं। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। मेरी दोस्त बेचैन थी। इसलिए मैं 5 मिनट के लिए घर से निकलकर उनसे मिलने चली गई। अम्मां बहुत खुश हुईं। दोस्त के भतीजा-भतीजी से मेरी पहली मुलाकात थी वह, लेकिन इस आत्मीय माहौल ने मुझे खुशी दी। मेरी बहन ने उस क्षण को भी दर्ज किया। वह तस्वीर जब मेरी दोस्त के पास सात समंदर पहुँची तो वह भावुक हो गई।
5 तो नहीं 20 मिनट में वहाँ से निकलीं हम दो बहनें। हड़बड़ी में इस बार अपना एक बैग छोड़ आई अम्मां के घर। पलटकर गई तो देखा कि बच्चा लेकर आ रहा है। अब मुझे जाना था मौसी के पास। मौसा-मौसी, छोटे भाई की पत्नी से दशकों से भेंट नहीं हुई थी। भतीजी को तो देखा तक न था। उत्सुकता और उछाह से वहाँ सबसे मिली। चूड़े का चॉप खाया। गपशप के बाद मौसा के बगीचे के फूलों की रंगत को सराहते हुए मैं बहन के घर पहुँची। वहाँ से एयरपोर्ट, फिर भुवनेश्वर और देर रात कटक पहुँची। माँ-पापा को फोन से सुरक्षित कटक पहुँच जाने की सूचना दे दी मैंने। इधर दिल्ली की चिंताजनक खबरें आने लगी थीं। कटक के रास्ते में टैक्सी में जब मैं अपूर्व से बात कर रही थी तो दिल्ली ही दिल्ली दिमाग में था। पटना बिसर गया था। तारीख भी बदलने जा रही थी।
मुझे आज माँ के पास होना था, लेकिन मैं नहीं हूँ। बहन की ली गई तस्वीरें हैं, इसके सहारे दिन कट जाएगा।
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