रोज शाम को मन थकान से भर जाता है !!
बस मरु ही मरु, आँख जहाँ तक जाए :
कोई छाँव नहीं कि जहाँ सुस्ताए :
उड़ता ही रह जाता है जो पंछी,
क्या लेकर अपने खोंते में आए !
रोज शाम को मन उफान से भर जाता है !!
रोज-रोज एक ही बात होती है -
रोज पाँख से आँख मात होती है!
लेकिन, इतनी दूर निकल जाता हूँ -
आते-आते साँझ रात होती है !
रोज शाम को मन उड़ान से भर जाता है !
- 1955
किताब - रुद्र समग्र
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991
नानाजी के जन्मदिन पर उनको याद करते हुए उनकी कविताएँ पढ़ रही हूँ। लगभग 70-100 साल पुरानी रचनाओं के मूड को देखकर लग रहा है कि अभी का मूड है।