मैडम,
आप चली गईं
मुझको अकेला छोड़कर।
अब मेरे नास्ते की चिंता कोई नहीं करता।
खाना भी जैसे-तैसे खा लेता हूँ।
दाइयाँ समय से आती हैं
और अपना फर्ज पूरा कर चली जाती हैं।
बस पुस्तकें मेरे एकांत की संगी हैं,
पर कभी-कभी उनसे भी मन उचट जाता है;
मैं देर तक आँखें बंद कर सोचता रहता हूँ।
रवीन्द्रनाथ की पंक्तियाँ रह-रहकर याद आती हैं -
'सम्मुखे शांतिर पारावार,
भासाओ तरणी हे कर्णधार!'
पर मेरे सामने शांति का कोई पारावार नहीं,
न कोई कर्णधार दीखता है।
फिर भी आप चिंतित न होंगी,
मैं यथाशीघ्र आ रहा हूँ आपके पास।
आपका
नवल
कवि - नंदकिशोर नवल
संकलन - नील जल कुछ और भी धुल गया
संपादक - श्याम कश्यप
प्रकाशक - शिल्पायन, दिल्ली, 2012पापा की इस कविता के नीचे लिखा है - पत्नी की मृत्यु की कल्पना करके 15.5.11 को रचित। और मैंने इसे निकाला है जब तारीख होने जा रही है 15.3.24 ... और अनायास मन तारीखों के तार, उनके संयोगों को जोड़ने में उलझ गया है। 15 तारीख यानी माँ को गए एक महीना होने को आया और पापा ने 15 तारीख को ही सपना देखा था। भले वह मई महीने की तारीख थी। अरे मई का महीना ? पापा तो मई में ही गए थे ... तीन दिन पहले 12 मई, 2020 को। मई का महीना माँ-पापा की शादी की सालगिरह का महीना है और वह तारीख थी 22 मई, 1959 - बुद्ध पूर्णिमा।
पापा (नंदकिशोर नवल) ने 2011 में यह कविता माँ (रागिनी शर्मा) की गैरमौजूदगी में व्याकुल होकर लिखी थी और मैं पहुँच गई 2011 में जब माँ को इलाज के लिए दिल्ली लेकर आई थी। अचानक माँ भूलने लगी थी - लोगों के नाम-चेहरे उतना नहीं जितना रिमोट चलाना, फोन चलाना जैसे बुनियादी काम। हमें डर लगा कि माँ कहीं डिमेंशिया की चपेट में तो नहीं आ गई। आनन-फानन में दिल्ली में दिखाना तय हुआ। पापा जो कि माँ पर पूरी तरह निर्भर थे, उन्होंने अकेले रहना स्वीकार कर लिया था क्योंकि उन दिनों वे हवाई यात्रा भी नहीं करते थे और ट्रेन से जाने में वक्त लगाना उनको बेकार लगा। उससे भी ज़्यादा यह था कि बच्चे माँ पर फ़ोकस करें और यह भी कि दिल्ली में एम्स के चक्कर काटना उनसे मुमकिन नहीं था। दिल्ली में भी वे रिक्शे पर ही चल पाते थे या हद से हद ऑटो वाले की सीट पर ही आगे बैठते थे - पेट्रोल की गंध उन्हें बर्दाश्त नहीं थी और motion sickness भी था। खैरियत यह हुई कि एम्स में ब्रेन मैपिंग जैसे टेस्ट के बाद डिमेंशिया का डर खारिज कर दिया गया था। इससे न केवल माँ की सेहतमंदी की उम्मीद जगी, बल्कि वो वाकई सामान्य होने लगी। डॉक्टर ने केवल थायराइड की दवा की खुराक घटाई और पटना के न्यूरो डॉक्टर के नुस्खे पर लिखी 9 की 9 दवाइयों को बंद कर दिया। पापा के पास जल्दी ही माँ लौट आई, चंगी होकर। सबकी जान में जान लौट आई।
पापा माँ को मैडम पुकारने लगे थे और आप भी कहने लगे थे, यह कब से हुआ था और क्यों हुआ था, इसका जवाब दोनों में से किसी के पास नहीं था। लेकिन यह उतना मायने नहीं रखता, जितना इस कविता में व्यक्त पापा की व्याकुलता। वो सपने में कह रहे थे - मैं यथाशीघ्र आ रहा हूँ आपके पास। हुआ उल्टा। पापा पहले गए और हर रोज़ उनसे मिलने की तड़प में माँ ने तीन साल नौ महीने तीन दिन बिताए ... बहुत कष्ट था उसे। शारीरिक कष्ट से अधिक मानसिक कष्ट क्योंकि वो पूरी तरह बिस्तर पर आ गई थी और दूसरों पर निर्भर हो गई थी। परवशता और लाचारगी का अहसास उसके लिए मारक था। करवट दिलाने, उठने-बैठने, नहाने-खाने, खुजलाने-सहलाने सबके लिए उसे मदद की ज़रूरत पड़ने लगी थी। अंतिम समय में फोन तक खुद से नहीं लगा पाती थी। उसका पढ़ना छूटता जा रहा था जबकि महीने-दो महीने पहले तक आधी-आधी रात को उपन्यास पढ़ती रहती थी, घंटों टीवी देखती थी और खूब गपशप करती थी। कभी कभी सहायिका सामने अखबार का पन्ना खोलकर दिखाती तो वह लेटे लेटे खबरों की सुर्खियाँ पढ़ती। दूसरी आँख में मोतियाबिंद उतर आया था और उसका ऑपरेशन बाकी था। उसे इंतज़ार था कि जल्दी से आँख बेहतर हो ताकि वह पढ़ पाए। पापा के बाद उसका सहारा था पढ़ना, जो कि घटता जा रहा था।
माँ चाहने लगी थी जाना। सुजाता जी और लिली मौसी दोनों ने ठीक कहा कि एक तरह से इच्छामृत्यु है यह। लेकिन हम क्या करें ? माँ को और कष्ट में हम नहीं देखना चाहते थे, मगर उसकी अनुपस्थिति से कैसे निबटें ? 14 फ़रवरी की रात घर में माँ की अंतिम रात थी। उसके पास भैया-भाभी थे। मैं दूर दिल्ली में थी। 15 की देर रात भैया माँ को अस्पताल से घर ले आया। वहीं ड्राइंग रूम में उसका बिस्तर लगा, ज़मीन पर, जहाँ पापा लेटे थे। पापा की ही तरह माँ का चेहरा शांत था। उसकी बेचैनी, उसके दर्द की छाप चेहरे पर नहीं थी। सब कह रहे थे कि उसे मुक्ति मिल गई। हम भी मान रहे थे, मगर सच पूछो तो नहीं भी मान रहे थे ...
वो बात रह रहकर कानों में गूँज रही है कि माँ कह रही थी कि इस बार पटना आओगी तो खाली हाथ जाओगी, मुझको नहीं पाओगी। मैंने उसे झिड़क दिया था कि फालतू बात मत करो। 15 की सुबह से वह निढाल थी, होशो हवास जैसे न हो। लगातार पटना बात हो रही थी, मगर माँ से नहीं, भैया से, भाभी से, सोनू से, मौसी से, डॉक्टर से... और मैं माने बैठी थी कि पिछले सितंबर-अक्टूबर की तरह वह bounce back करेगी। भैया ने जब बताया कि माँ critical है तब भी शायद मुझे समझ में नहीं आया। या समझकर भी नहीं समझा। अपराध बोध से भरी हुई हूँ - जब अपूर्व कह रहे थे मुझे कि पटना जाओ तब मैं तत्काल क्यों नहीं गई। जाने के लिए खुद को तैयार भी कर रही थी, लेकिन निर्णय नहीं कर पा रही थी। शायद भाग रही थी ... अपने से, आसन्न घड़ी से। मन कह रहा था कि यह घड़ी टल जाएगी, अभी माँ के पास समय है। लेकिन उसने समय नहीं दिया।
निर्मल जी (निर्मल चक्रवर्ती) को भी अंदाजा नहीं था इसका। वे माँ की हर छोटी-बड़ी बीमारी जानते थे। उसकी असहायता समझते थे, इसलिए कभी खीझे नहीं। माँ की छोटी सी छोटी तकलीफ के लिए हम उनको कलकत्ता में परेशान करते रहते थे कि कोई दवा बता दीजिए। माँ भी उनको जब तब फोन करती रहती थी। उसे उम्मीद रहती थी कि निर्मल जी की कोई न कोई दवा लग जाएगी और उसे फौरी ही सही, मगर राहत मिलेगी। मिलती भी थी और माँ उन दवाओं का नाम, उनकी खुराक याद करती रहती थी। इन दिनों माँ होमियोपैथी की किताब (जो कि नानाजी की थी और माँ-पापा दोनों के लिए धर्मग्रंथ का दर्जा रखती थी) पलट कर खुद से नहीं देख पाती थी। नहीं तो निर्मल जी से चर्चा भी करती थी कि फलाना दवा तो अतिसार में चलती है क्या खुजली के लिए कारगर है या 200 पोटेंसी तो रामबाण है, मगर कॉस्टिकम 30 घर में है तो काम चलेगा या नहीं। होमियोपैथी दवा का भंडार है माँ के पास। भैया, अब उन दवाओं के लिए कोई सुपात्र खोज रहा है।
उस दिन माँ की टकटकी लगी थी पापा की फोटो की तरफ। तब सुनीता (भाभी) ने फोटो उतार कर उसके हाथ में दे दी। माँ ने निहारा और मानो पापा से इजाज़त लेकर उसने आँखें मूँद लीं। शायद दोपहर-तिपहर की बात है। उसके बाद से ही उसने नज़र नहीं उठाई। साँस चल रही थी, पर उसे जाना था। लय टूटी तकरीबन सवा ग्यारह बजे रात को, लगभग पापा की तरह ही उसके जाने की प्रक्रिया थी। याद आया कि पापा ने अपने जानेवाले दिन अस्पताल में माँ को देखा था और एक तरह से जाने की अनुमति लेकर गए थे। व्हील चेयर पर बैठी माँ की की तरफ उन्होंने हाथ बढ़ाया था , मगर कोविड के इन्फेक्शन की आशंका से मैंने रोक दिया था। नर्स की निगरानी भरी आँखें और अपने मन का चोर क्योंकि दिल्ली से आने के कारण मेरे हाथ में कोरोंटाइन होने का ठप्पा लगा था जो कुर्ते की बाजू में छिपा था। हालाँकि न पापा को कोविड था, न हमें, मगर उसके खौफ़ ने वह अनमोल क्षण हमसे छीन लिया। माँ पापा का उठा हुआ हाथ भूल नहीं पाई। उसने मुझे दोष नहीं दिया, पर मैं आज तक अपने को कोसती हूँ। पापा को चार दिन वेंटिलेटर लगा था और माँ को भी अंतिम चार घंटे में वेंटिलेटर लगाना पड़ा था। दोनों के शरीर के अंग एक एक करके विदा लेते गए लगभग एक ही तरीके से।
हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि लंबे समय तक प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यू प्रेशर, फिजियोथेरेपी वगैरह और आजीवन होमियोपैथी व संयमित खान-पान के कारण अपने vitals के सही सलामत रहने का दावा करने और गुमान करनेवाले माँ-पापा दोनों आखिर में गए multiple organ failure से। लाचारीवश एलोपैथी इलाज भी भरपूर हुआ और अंतिम दिनों में दवा फाँकना उनकी मजबूरी हो गई थी। एक तरह से मानसिक शांति मिलती थी यदि कोई दवा खिला दी जाए तो। अगले चंद घंटे इस इंतज़ार में कटते थे कि दवा असर करेगी। सुबह दोपहर शाम यह सिलसिला चलता रहता था। माँ-पापा दोनों डॉक्टर तो डॉक्टर, मुझसे भी ऐसे दवा के बारे में पूछते थे मानो मैं ही उनका नुस्खा लिखती हूँ। धीरे-धीरे हमें सोडियम घटने पर नमक भरा कैप्सूल देना , घरघराहट होने पर नेबुलाइज़र लगाना -जैसे काम का प्रशिक्षण मिल गया था। इमरजेंसी को टालने के लिए यह पर्याप्त था। लेकिन इस बार इमरजेंसी नहीं टली।
लावण्य (भतीजा) बेचैन रहता है कि इस जीवन के आगे क्या है, उसके मामा-बाबा कहाँ हैं, क्या कर रहे होंगे। इस बार वह माँ को विदा करने बंबई से आया। पापा के समय तो उनके पास ही था। लॉकडाउन के चलते कचनार (बेटी) पिछली बार नहीं आ पाई थी और न ही अपूर्व आ पाए थे। इस बार विदाई के समय सब पहुँच गए थे। माँ को जाना था गुलबीघाट जहाँ से पापा विदा हुए थे। तरुण जी, योगेश, मीरा, गौरी सबने माँ की इच्छा को दोहराया। माँ वहीं गई। नहीं, उसे ले जाया गया। रास्ता थोड़ा अलग था। गुलबीघाट की अपनी लखनचंद कोठी (किराये का हमारा घर) वाले रास्ते से नहीं, अपने पुराने रानीघाट वाले रास्ते से हम सब गए। उधर जिधर से कभी माँ दूध लाने जाती थी या थायराइड और ब्लड प्रेशर की बीमारी के लिए डॉक्टर अरुण तिवारी को दिखाने जाती थी। पैदल ही जाती थी। बहुत बाद में जाकर रिक्शे से जाने लगी थी। एकाध बार भैया माँ को संभवतः गाड़ी से घुमाने ले गया होगा। मुझे याद है कि वह माँ को कभी कभार डॉक्टर के यहाँ से लौटते समय गाड़ी से चक्कर लगवा देता था - गर्दनीबाग का, रानीघाट का। घूमने की शौकीन माँ निहाल हो जाया करती थी।
और अभी माँ-पापा के साथ ही मुझे याद आ रहे हैं श्याप कश्यप अंकल भी जिन्होंने ज़िद करके पापा का यह काव्य संकलन तैयार किया था। वो चले गए, गीता आंटी चली गईं। काश अपनी बारी भी जल्दी आए... पापा की तरह माँ से कहना चाहती हूँ - मैं यथाशीघ्र आ रही हूँ तुम्हारे पास।