आटे के वास्ते हैं हविस मुल्क-ओ-माल की
आटा जो पालकी है तो है दाल नाल की
आटे ही दाल से है दुरुस्ती ये हाल की
इसे ही सबकी ख़ूबी जो है हाल क़ाल की
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की
इस आटे-दाल ही का जो आलम में है ज़हूर
इससे ही मुँहप नूर है और पेट में सरूर
इससे ही आके चढ़ता है चेहरे पे सबके नूर
शाह-ओ-गदा अमीर इसी के हैं सब मजूर
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की
क़ुमरी ने क्या हुआ जो कहा "हक़्क़े-सर्रहू"
और फ़ाख़्ता भी बैठके कहती है "क़हक़हू"
वो खेल खेलो जिससे हो तुम जग में सुर्ख़रू
सुनते हो ए अज़ीज़ो इसी से है आबरू
सब छोड़ो बात तूति-ओ-पिदड़ी व लाल की
यारो कुछ अपनी फ़िक्र करो आटे-दाल की …
शायर - नज़ीर अकबराबादी
संकलन - नज़ीर की बानी
संपादक - फ़िराक़ गोरखपुरी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1999
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति, गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाये।
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