मेरे सहचर मित्र
ज़िन्दगी के फूटे घुटनों से बहती
रक्तधार का ज़िक्र न कर,
क्यों चढ़ा स्वयं के कन्धों पर
यों खड़ा किया
नभ को छूने, मुझको तुमने।
अपने से दुगुना बड़ा किया
मुझको क्योंकर ?
गम्भीर तुम्हारे वक्षस्थल में
अनुभव-हिम-कन्या
गंगा-यमुना के जल की
पावन शक्तिमान् लहरें पी लेने दो।
ओ मित्र, तुम्हारे वक्षस्थल के भीतर के
अन्तस्तल का पूरा विप्लव जी लेने दो।
उस विप्लव के निष्कर्षों के
धागों से अब
अपनी विदीर्ण जीवन-चादर सी लेने दो। ...
कवि - मुक्तिबोध
संकलन - चाँद का मुँह टेढ़ा है
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2001
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