कभी-कभी मुझे लगता है कि ज़िन्दगी और कुछ नहीं धुँधलापन है और उसको साफ़ करते रहने की जद्दोजहद है. आज फिर कुछ पुरानी तस्वीरें हाथ लग गईं. उनमें से कुछ धुँधली ज़रूर हो गई हैं, लेकिन खुशी है कि याददाश्त धुँधली नहीं हुई है. फिर धुँधलेपन से घबराना क्यों ? यह भी तो द्वैध में, binary में चीज़ों को देखना ही है ! या तो एकदम शीशे की तरह साफ़ हो या एकदम ओट में हो, काला हो या सफ़ेद हो ? रिश्तों में भी हम यही करते हैं. या तो एकदम दिल मिले हुए हों या एकदम दिल से निकाल बाहर फेंको. ऐसा होता तो नहीं है ! बहुत लोग ज़ेहन में, दिलो दिमाग में रहते हैं और वास्तव में वे वहाँ होते नहीं हैं. इसी तरह बहुतों के बारे में यह लगता है कि वे छूट गए हैं या भुला दिए गए हैं, फिर भी वे किसी कोने में दुबके रहते हैं. बहुत लोग उस धुँधली सी जगह में रहते हैं जिससे हम भी बेखबर रहते हैं. कुछ ऐसा ही लगा मुजीब रिजवी साहब के अंतिम संस्कार के समय.
दिल्ली को गाली देनेवालों की कमी नहीं है और मैंने गाली भले नहीं दी, मगर लंबे समय तक उसको अपनी जगह मानने से भागती रही. पटना को भूल पाना, उसकी मंडली से बिछड़ जाना आसान नहीं था. लेकिन मुजीब साहब जैसे आत्मीय लोगों के व्यवहार से मुझे यह लगने लगा कि दिल्ली उतनी भी बेदिल नहीं जितना लोग कहते हैं. मेरे पापा की उम्र के रहे होंगे मुजीब साहब. अपूर्व ने महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय में उनके साथ दो-तीन साल करीब रहकर काम किया था. जब ईद आई तो पटना में न रहना और चुभने लगा था. दिल्ली की हमारी दूसरी ईद रही होगी जब हम सपरिवार मुजीब साहब के यहाँ गए. मैं चूँकि ताबां साहब की कविताओं की प्रशंसक थी और प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों और सम्मेलन के दौरान उनसे मिल भी चुकी थी, इसलिए मैंने मुजीब साहब को उनके दामाद के रूप में देखा. पहली ही बार में मुझे लग गया कि मेरी ईद तो हो गई. तरह-तरह की सेवइयों से नहीं, मुजीब साहब के दुलार और ख़ुलूस से ! अज़रा जी से मुलाकात हुई, सहबा से भी. मेरी बेटी छत पर जाकर घर के बच्चों के साथ खेलने भी लगी. हमलोग खुश-खुश घर लौटे. त्यौहार में कई साल उनके यहाँ जाते रहे. लेकिन जैसा कि होता है धीरे-धीरे संपर्क छूट गया. कई-कई साल बीत गए और हम ईद में दूसरी जगह जाने लगे. ज़ाकिर नगर की भीड़भाड़ वाली जगह का बहाना हमें दूर करता गया. धुँधलापन तारी होता गया.
बीच-बीच में मन कचोटता था. ग्लानिवश हम एक-दो बार बिना त्यौहार के भी उधर गए. सुखदेव विहार में पिछले साल दो बार गए थे. एक बार बहुत बीमार थे मुजीब साहब. हमें अपने पर गुस्सा आया कि जिनका स्नेह हम नहीं भूल पाते हैं उनको भी क्यों भुला देते हैं. फिर यह भी लगता था कि उनसे बहुत नज़दीकी तो रही नहीं कभी. अपूर्व काम के सिलसिले में या बैठकों में जहाँ-तहाँ मिल भी लेते थे, मगर मेरा गाहे-बगाहे ही मिलना हुआ था. तब भी ताज्जुब है कि मुजीब साहब बहुत अच्छे लगते थे और अपने लगते थे. बाद के दिनों में महमूद से दो-चार बार उनका हालचाल लिया था, मगर इधर कोई खबर नहीं थी. क्या स्मृति में धुँधलेपन ने जड़ जमा लिया था ? लेकिन यही तो सच्चाई है जीवन की !
मैं भूल गई थी कि कब्रिस्तान में आम तौर पर औरतें नहीं जाती हैं. अली जावेद साहब साथ थे, परंतु वे ठहरे कम्युनिस्ट आदमी ! उन्होंने मुझे टोका नहीं. मैं जामिया की मस्जिद के मैदान में जनाज़े की नमाज़ पढ़नेवालों की कतार से थोड़ी दूर एक पेड़ की छाँह में खड़ी थी. मुजीब साहब दूर में थे, मगर आँखों से ओझल ! ख़ामोशी थी और मुझे मुजीब साहब का ठहाका याद आ रहा था. जल्दी ही पास के कब्रिस्तान की तरफ़ लोग बढ़े. मैं हिचकते हुए वहाँ भी गई. हालाँकि किसी ने मुझे अजीब निगाह से नहीं देखा. मुजीब साहब की जमात थी यानी प्रगतिशीलों की. हिंदीवाले कुछ लोग थे जिनको मैं पहचानती थी. बाकी रिश्तेदार और जामिया के लोग लगे. धीरे-धीरे मिट्टी डालकर लोग छितराने लगे. मेरा मन किया कि मैं भी जाऊँ, लेकिन कैसे जाती ! एक और औरत वहाँ दिखी, मगर कोई रस्म में शरीक होने को कहता तब न ! मैं सोचने लगी कि रस्में मुझे पसंद नहीं हैं, फिर यह इच्छा क्यों हुई ! क्या मेरी 'Politics' में धुँधलापन है ?
श्मशान घाट पर बहुत बार गई हूँ, परंतु कब्रिस्तान में जाने का यह पहला मौका था. अपूर्व को यह जानकार हैरानी हुई. उन्होंने पूछा कि मेहर आंटी (मेरी दोस्त अफ्शां की माँ) के समय तुम कब्रिस्तान नहीं गई थी. मैंने इनकार में सिर हिलाया और सोचा कि इतने दिनों तक तो यह सवाल तक मेरे मन में नहीं उठा था. वैसे कब्रिस्तान में मुझे अटपटा नहीं लगा. यह अवश्य सोच रही थी कि क्या मेरे भी मुसलमान दोस्त-अज़ीज़ कम हैं ! मैं कितना कम जानती हूँ इन रस्मो रिवाज को और क्यों कम जानती हूँ ! क्या सिर्फ ईद-बकरीद मनाने के लिए दोस्त-अज़ीज़ हैं ? या दंगों और सांप्रदायिक तनाव पर चर्चा करने के लिए हैं ? फिर हम अपने रस्ते और वे अपने रस्ते. रस्ते मिलते क्यों नहीं हैं ? नज़र धुँधलाने की हद पर दूर जाकर भी वे मिलते हुए नहीं दिखते हैं !
दफ़न संस्कार चल रहा था. आफ़ताब साहब उधर से आए और बोले कि आते हैं, अम्मां यहीं हैं. एक क्षण के लिए मैं गड़बड़ा गई. समझ में कुछ नहीं आया. तुरत ध्यान गया कि आफ़ताब साहब की अम्मां उसी कब्रिस्तान में हैं. आफ़ताब साहब को मैंने दूर से चुपचाप खड़े देखा. मेरा मन कैसा-कैसा हो गया. अम्मां याद आ गईं. वही जो ख़ूब पढ़ती थीं, खुदाबख्श लाइब्रेरी जाया करती थीं, पूरे घर पर राज करती थीं. पटना का राजेंद्रनगर का 11 डी का मकान आँखों में तिर गया जहाँ से मैंने गृहस्थी की शुरुआत की थी. कहने को हमारी मकान मालकिन, लेकिन हम सबके लिए भी अम्मां थीं. उनका कमरा मेरे डाइनिंग हॉल से सटा हुआ था, लेकिन दोनों तरफ की चिटखनी चढ़ी रहती थी. ख़ास ख़ास मौकों पर वह खुलती भी थी, लेकिन अम्मां का रुआब इतना था कि हम यदि जाते भी तो दबे पाँव और बोलते भी तो दबे गले से. खासकर मैं. अम्मां बहुत दुबली-पतली छोटे कद की थीं. उसमें उनका ऊँचा व्यक्तित्व सामनेवाले को खासा प्रभावित करता था. जब वे लोग राजेंद्रनगरवाले घर से चले गए थे तो कभी-कभी त्यौहार में सपरिवार वहाँ आते थे. एक दिवाली की बात है. मेरे घर के ऊपरवाले हिस्से में नए किरायेदार आ गए थे. अम्मां आईं. हमारे घर आईं. बगल में नीरा भाभी के यहाँ बैठीं. मैंने पूछा कि अम्मां ऊपर भी जाइएगा क्या. उन्होंने कहा कि पुराने रिश्ते चल जाएँ अब यही बहुत है और यही कोशिश है. कितनी मार्के की बात है ! मैं उनकी यह बात कभी नहीं भूलती हूँ. लौटते में आफ़ताब साहब के साथ हमदोनों भी अम्मां के पास गए. कब्र पर अम्मां की तरह ही सादे ढंग से लिखा था सादिया आलम. मेरी नज़र धुँधलाने लगी...
दिल्ली को गाली देनेवालों की कमी नहीं है और मैंने गाली भले नहीं दी, मगर लंबे समय तक उसको अपनी जगह मानने से भागती रही. पटना को भूल पाना, उसकी मंडली से बिछड़ जाना आसान नहीं था. लेकिन मुजीब साहब जैसे आत्मीय लोगों के व्यवहार से मुझे यह लगने लगा कि दिल्ली उतनी भी बेदिल नहीं जितना लोग कहते हैं. मेरे पापा की उम्र के रहे होंगे मुजीब साहब. अपूर्व ने महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय में उनके साथ दो-तीन साल करीब रहकर काम किया था. जब ईद आई तो पटना में न रहना और चुभने लगा था. दिल्ली की हमारी दूसरी ईद रही होगी जब हम सपरिवार मुजीब साहब के यहाँ गए. मैं चूँकि ताबां साहब की कविताओं की प्रशंसक थी और प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों और सम्मेलन के दौरान उनसे मिल भी चुकी थी, इसलिए मैंने मुजीब साहब को उनके दामाद के रूप में देखा. पहली ही बार में मुझे लग गया कि मेरी ईद तो हो गई. तरह-तरह की सेवइयों से नहीं, मुजीब साहब के दुलार और ख़ुलूस से ! अज़रा जी से मुलाकात हुई, सहबा से भी. मेरी बेटी छत पर जाकर घर के बच्चों के साथ खेलने भी लगी. हमलोग खुश-खुश घर लौटे. त्यौहार में कई साल उनके यहाँ जाते रहे. लेकिन जैसा कि होता है धीरे-धीरे संपर्क छूट गया. कई-कई साल बीत गए और हम ईद में दूसरी जगह जाने लगे. ज़ाकिर नगर की भीड़भाड़ वाली जगह का बहाना हमें दूर करता गया. धुँधलापन तारी होता गया.
बीच-बीच में मन कचोटता था. ग्लानिवश हम एक-दो बार बिना त्यौहार के भी उधर गए. सुखदेव विहार में पिछले साल दो बार गए थे. एक बार बहुत बीमार थे मुजीब साहब. हमें अपने पर गुस्सा आया कि जिनका स्नेह हम नहीं भूल पाते हैं उनको भी क्यों भुला देते हैं. फिर यह भी लगता था कि उनसे बहुत नज़दीकी तो रही नहीं कभी. अपूर्व काम के सिलसिले में या बैठकों में जहाँ-तहाँ मिल भी लेते थे, मगर मेरा गाहे-बगाहे ही मिलना हुआ था. तब भी ताज्जुब है कि मुजीब साहब बहुत अच्छे लगते थे और अपने लगते थे. बाद के दिनों में महमूद से दो-चार बार उनका हालचाल लिया था, मगर इधर कोई खबर नहीं थी. क्या स्मृति में धुँधलेपन ने जड़ जमा लिया था ? लेकिन यही तो सच्चाई है जीवन की !
मैं भूल गई थी कि कब्रिस्तान में आम तौर पर औरतें नहीं जाती हैं. अली जावेद साहब साथ थे, परंतु वे ठहरे कम्युनिस्ट आदमी ! उन्होंने मुझे टोका नहीं. मैं जामिया की मस्जिद के मैदान में जनाज़े की नमाज़ पढ़नेवालों की कतार से थोड़ी दूर एक पेड़ की छाँह में खड़ी थी. मुजीब साहब दूर में थे, मगर आँखों से ओझल ! ख़ामोशी थी और मुझे मुजीब साहब का ठहाका याद आ रहा था. जल्दी ही पास के कब्रिस्तान की तरफ़ लोग बढ़े. मैं हिचकते हुए वहाँ भी गई. हालाँकि किसी ने मुझे अजीब निगाह से नहीं देखा. मुजीब साहब की जमात थी यानी प्रगतिशीलों की. हिंदीवाले कुछ लोग थे जिनको मैं पहचानती थी. बाकी रिश्तेदार और जामिया के लोग लगे. धीरे-धीरे मिट्टी डालकर लोग छितराने लगे. मेरा मन किया कि मैं भी जाऊँ, लेकिन कैसे जाती ! एक और औरत वहाँ दिखी, मगर कोई रस्म में शरीक होने को कहता तब न ! मैं सोचने लगी कि रस्में मुझे पसंद नहीं हैं, फिर यह इच्छा क्यों हुई ! क्या मेरी 'Politics' में धुँधलापन है ?
श्मशान घाट पर बहुत बार गई हूँ, परंतु कब्रिस्तान में जाने का यह पहला मौका था. अपूर्व को यह जानकार हैरानी हुई. उन्होंने पूछा कि मेहर आंटी (मेरी दोस्त अफ्शां की माँ) के समय तुम कब्रिस्तान नहीं गई थी. मैंने इनकार में सिर हिलाया और सोचा कि इतने दिनों तक तो यह सवाल तक मेरे मन में नहीं उठा था. वैसे कब्रिस्तान में मुझे अटपटा नहीं लगा. यह अवश्य सोच रही थी कि क्या मेरे भी मुसलमान दोस्त-अज़ीज़ कम हैं ! मैं कितना कम जानती हूँ इन रस्मो रिवाज को और क्यों कम जानती हूँ ! क्या सिर्फ ईद-बकरीद मनाने के लिए दोस्त-अज़ीज़ हैं ? या दंगों और सांप्रदायिक तनाव पर चर्चा करने के लिए हैं ? फिर हम अपने रस्ते और वे अपने रस्ते. रस्ते मिलते क्यों नहीं हैं ? नज़र धुँधलाने की हद पर दूर जाकर भी वे मिलते हुए नहीं दिखते हैं !
दफ़न संस्कार चल रहा था. आफ़ताब साहब उधर से आए और बोले कि आते हैं, अम्मां यहीं हैं. एक क्षण के लिए मैं गड़बड़ा गई. समझ में कुछ नहीं आया. तुरत ध्यान गया कि आफ़ताब साहब की अम्मां उसी कब्रिस्तान में हैं. आफ़ताब साहब को मैंने दूर से चुपचाप खड़े देखा. मेरा मन कैसा-कैसा हो गया. अम्मां याद आ गईं. वही जो ख़ूब पढ़ती थीं, खुदाबख्श लाइब्रेरी जाया करती थीं, पूरे घर पर राज करती थीं. पटना का राजेंद्रनगर का 11 डी का मकान आँखों में तिर गया जहाँ से मैंने गृहस्थी की शुरुआत की थी. कहने को हमारी मकान मालकिन, लेकिन हम सबके लिए भी अम्मां थीं. उनका कमरा मेरे डाइनिंग हॉल से सटा हुआ था, लेकिन दोनों तरफ की चिटखनी चढ़ी रहती थी. ख़ास ख़ास मौकों पर वह खुलती भी थी, लेकिन अम्मां का रुआब इतना था कि हम यदि जाते भी तो दबे पाँव और बोलते भी तो दबे गले से. खासकर मैं. अम्मां बहुत दुबली-पतली छोटे कद की थीं. उसमें उनका ऊँचा व्यक्तित्व सामनेवाले को खासा प्रभावित करता था. जब वे लोग राजेंद्रनगरवाले घर से चले गए थे तो कभी-कभी त्यौहार में सपरिवार वहाँ आते थे. एक दिवाली की बात है. मेरे घर के ऊपरवाले हिस्से में नए किरायेदार आ गए थे. अम्मां आईं. हमारे घर आईं. बगल में नीरा भाभी के यहाँ बैठीं. मैंने पूछा कि अम्मां ऊपर भी जाइएगा क्या. उन्होंने कहा कि पुराने रिश्ते चल जाएँ अब यही बहुत है और यही कोशिश है. कितनी मार्के की बात है ! मैं उनकी यह बात कभी नहीं भूलती हूँ. लौटते में आफ़ताब साहब के साथ हमदोनों भी अम्मां के पास गए. कब्र पर अम्मां की तरह ही सादे ढंग से लिखा था सादिया आलम. मेरी नज़र धुँधलाने लगी...
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