तारीख 26 मई, 2017. समय सुबह 11.30 बजे. जगह नई दिल्ली का केन्द्रीय
सचिवालय मेट्रो स्टेशन. यानी देश की राजधानी के राजपथ के करीब का इलाका. मामला
नागरिक गरिमा का हनन, अपमान और मानसिक प्रताड़ना का. मुज़रिम दिल्ली पुलिस.
हम तीन लोगों – रिज़वाना
फ़ातिमा, वंदना राग और पूर्वा भारद्वाज को गाँधी पर शोध के सिलसिले में एक संस्थान
में जाना था. हमारा छोटा सा समूह है रसचक्र. हमने उसके माध्यम से अलग अलग किस्म की
रचनाओं की प्रस्तुति शुरू की है. रसचक्र की अगली प्रस्तुति गाँधी पर करने की योजना
है. उसी सिलसिले में आपस में तय हुआ था कि आधी दूरी मेट्रो से नापेंगे और बाकी
गाड़ी से. दिल्ली विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर हम दो लोग - रिज़वाना फ़ातिमा और
पूर्वा भारद्वाज मिले.
केन्द्रीय सचिवालय तक का सफ़र
हमने मेट्रो से तय किया. उसके गेट नंबर 2 से निकलकर हम शास्त्री भवन की सड़क पर आ
गईं. फोन पर वंदना राग से बात हो रही थी ताकि वे हमें वहाँ से अपने साथ ले लें.
जैसा कि अक्सर होता है वही
हुआ - जिस जगह पर आपको मिलना है उसका तालमेल बैठाने में हमलोग दिमाग खपा रहे थे. वंदना
हमसे 5 मिनट की दूरी पर थीं.
इसीलिए हमने गेट नंबर 2 पर ही इंतजार करने का फैसला किया. 3-4 मिनट गुज़रे होंगे कि फोन आया कि वे केंद्रीय सचिवालय पहुँच चुकी हैं और हमारा
इंतजार रेल भवन के पास कर रही हैं.
बात करते करते हमदोनों ने रेल
भवन की तरफ कदम बढ़ाए क्योंकि उधर भी मेट्रो का एक गेट है और हमारे गंतव्य की दिशा
भी वही थी. धूप बहुत तेज़ थी और हमारा रेल भवन के दाहिनी ओर साथी को खोजना
जारी था. गाड़ी
कहीं दिखाई नहीं दे रही थी और हम उस सड़क पर 15-20 कदम दूर तक आगे बढ़ गई थीं. दरअसल हमारी साथी दूसरे कोने पर थीं. उन्होंने कहा कि वे
अपनी गाड़ी से बाहर निकलकर हमलोगों को खोज रही हैं. इतने में
फिर फोन आया कि हम जहाँ हैं वहीं रुक
जाएँ क्योंकि गाड़ी उधर ही
आ रही है. हम कृषि
भवन के सामने मुख्य द्वार के पास खड़ी
हो गईं. पास ही
डी.टी.सी. की दो-तीन बसें लगी
हुई थीं. धूप
से बचने के लिए साये की तलाश
में हम डी.टी.सी. की बस की ओट में आ
गईं.
अभी कृषि भवन के
सामने बस की ओट में खड़े हुए दो-तीन सेकंड ही गुजरे होंगे कि तीन-चार महिला कांस्टेबल हमारी तरफ आती हुई दिखाई दीं. उनमें से एक ने आगे बढ़कर हमसे
कहा कि “आप
दोनों मेरे साथ चलिए.
हमारे सर आपको बुला रहे हैं”.
यह बात एकदम अजीब थी. एक क्षण को
हमें समझ में नहीं आया कि हुआ क्या. हम सड़क के किनारे थीं. हमने ट्रैफिक के किसी
नियम का उल्लंघन नहीं किया था. पैदल थीं, सो गाड़ी की गलत पार्किंग का मसला भी नहीं
हो सकता था. रिज़वाना को यह कौंधा कि शायद वो भलीमानस महिला
कांस्टेबल कुछ पूछने आई हैं.
माजरा समझ में नहीं आ रहा था.
पुलिस को आखिर हमसे क्या काम हो सकता है? हमने एक-दूसरे की ओर देखा. हमारा पहला सवाल था कि ‘क्यों आपके साथ चलें ? किस
सिलसिले में आपको हमसे
बात करनी है?” लेकिन
महिला कांस्टेबल तो हुक्मी बंदी थी और उन्हें
हमारी किसी बात का जवाब देना नहीं था. अब सामूहिक रूप से उनका एक यही कहना था कि “चलिए, आपलोग चलिए.” हमारे बार बार कारण पूछने पर एक दूसरा पुलिस अधिकारी
वहाँ आया जिसके साथ दो-तीन और महिला
पुलिसकर्मी थीं. उस अधिकारी ने आते ही हमसे कहा कि “आपलोग गाड़ी में बैठिए.”
“गाड़ी
में बैठिए” का मतलब हमें मालूम था.
छात्र आंदोलनों के अलावा लोकतांत्रिक अधिकारों के अनेकानेक आंदोलनों में शिरकत रही
है, इसलिए हमें इतना तो समझ में आ गया कि पुलिस हमें थाने ले जाकर बैठा देगी.
हमारा सवाल एक ही था –
“आखिर किस जुर्म में?” हम तो आम नागरिक की तरह अपने काम से उधर से बस गुज़र रही थीं. अपने
साथी का इंतजार करने के सिलसिले में ही हम उस वक्त वहाँ थीं. इन सबको अनसुना करते हुए एक महिला कांस्टेबल ने कहा “जो कहना है पुलिस थाने चलकर
कहिएगा” और उसने अपने साथियों से कहा कि “इनको गाड़ी में बैठाओ.”
हमने पूरा दम
लगाकर कहा कि कुछ भी हो जाए हम आपके साथ नहीं जाएँगी. इसी बीच एक महिला
कांस्टेबल ने आरोप लगाने के अंदाज़ में
पूछा, “जे.एन.यू से हैं आपलोग?”
हमारे सामने अब साफ़ होने लगा कि जे.एन.यू के नाम
पर शिकंजा कसा जा रहा है. जे.एन.यू. प्रकरण से पूरी तरह वाकिफ़ होने के कारण हमें
अंदाजा हो गया कि यह राज्य के डर का मामला
है. साल बीत जाने के बाद भी राज्य पर जे.एन.यू का भूत सवार है. उसी के डर से पुलिस
हर आते-जाते को पकड़ रही थी.
हमारी खोजी निगाहें, फोन पर
किसी संदेश (या निर्देश ?) का लेना-देना, वेशभूषा से शहरी और पढ़ने-पढ़ानेवाली लगना
या कहना चाहिए कि भटकनेवाली लगना (इसमें झोला, चश्मा, कटे बाल, झुमका, प्लाज़ो
वगैरह का भी योगदान रहा होगा) और चिलचिलाती धूप में किसी मकसद से निकलना – इन सबने
शायद हमारी छवि ‘जे.एन.यू’ वाली बना दी थी. मतलब दुस्साहसी, षडयंत्रकारी और
देशद्रोही की. पुलिस के लिए यह वैध वजह थी.
पुलिस अधिकारी का प्रश्न बदला. हमसे पूछा गया कि “कहाँ से आई हो तुमलोग?” हमने जवाब दिया कि हम दिल्ली
विश्वविद्यालय से आए हैं. रिज़वाना को ‘आई कार्ड’ दिखाने के लिए कहा गया. उसके मन में आया कि कहे कि क्या अब सड़क पर चलने के लिए आई. कार्ड साथ रखना होगा ! खैर, उसने अपने बैग से आई कार्ड निकाला और बढ़ा
दिया. पुलिस
अधिकारी ने आई कार्ड देखा और एक बार फिर रिज़वाना
पर निगाह डालते हुए पूछा, “रिज़वाना फ़ातिमा, स्टूडेंट हो ?” तुरत
उत्तर मिला – “जी”. कार्ड दिल्ली विश्वविद्यालय का था, यह साफ़ था, मगर छात्र बिरादरी का होना गुनाह को ख़त्म
नहीं करता था, कम भले कर दे. अगला आदेश दिया गया, “तब तो बैठाओ इन्हें गाड़ी में और
अगर न जाएँ तो ज़बरदस्ती करो.”
अब तक तीन-चार महिला कॉन्स्टेबल जो रिज़वाना के पास खड़ी थीं उन्होंने उसका हाथ पकड़ा और खींचना शुरू किया. रिज़वाना ने झटके से यह कहते हुए
अपना हाथ छुड़ा लिया कि “मैं
कोई गुनहगार नहीं हूँ, मैं कहीं नहीं जाऊंगी.” तब दूर
खड़ी पाँच-छः महिला पुलिसकर्मी वहाँ पहुँच गईं. कुल लगभग दस से बारह पुलिसकर्मियों ने
हमें चारों तरफ से घेर लिया था. धक्का-मुक्की और खींचतान करते हुए
उन पुलिसकर्मियों ने रिज़वाना को थोड़ी दूर खड़ी बस में चढ़ा दिया.
रिज़वाना ने
ठान लिया था कि बेवजह पुलिस की बंदिश में नहीं रहेगी. अपनी हिम्मत और अपनी कद-काठी
का फायदा उठाकर वह उनकी गिरफ्त से छूटकर बस से उतर गई. (गिरफ़्त ज़ाहिरा तौर पर और
इरादतन मज़बूत नहीं थी) इधर बस के दरवाज़े के सामने लाकर मुझे लगातार सामूहिक स्वर
में कहा जा रहा था कि “आप बस में चढ़िए.” उस वक्त तक रिज़वाना सहित मैं भी चीखने-चिल्लाने
लगी थी. हमें किसी भी हालत में पुलिस की इस हरकत का विरोध
करना था.
शोर-शराबे के बीच किनारे खड़े ACP के पास हमदोनों को लाया गया. पीछे से एक
पुलिसकर्मी की आवाज आई, “आपको मालूम नहीं है क्या कि यहाँ धारा 144 लगी हुई है. आप इस तरह सड़क पर नहीं घूम सकते.” उस सड़क पर किसी प्रदर्शनकारी का न तो कोई नामोनिशान था और न ही वहाँ प्रदर्शन जैसा माहौल दिखाई दे
रहा था. तब भला हमें यह कैसे मालूम होता कि वहाँ धारा 144 लगी हुई है !
खैर, ACP द्वारा संक्षिप्त पूछताछ
हुई - हम कहाँ से आए हैं, क्या
करते हैं? एक बार फिर रिज़वाना ने अपना दिल्ली
विश्वविद्यालय का पहचान
पत्र दिखाया. मेरे पास पैन कार्ड के अलावा कोई
पहचान का सबूत न था. मैंने उसे ही दिखा दिया.
अगला सवाल ACP का वही था कि हम जे.एन.यू. से तो नहीं हैं ? बगल में
खड़े एक और अधिकारी ने पूछा, “क्या आपको नहीं मालूम कि यहाँ जे.एन.यू. का
‘डिमोन्सट्रेशन’ होनेवाला है ?” अव्वल तो हमें कुछ मालूम नहीं था और यह
सवाल सुनकर हम एकदम से भड़क उठीं. हमने
कहा, “अच्छा, मान लीजिए हम दिल्ली विश्वविद्यालय की जगह जे.एन.यू. से ही होते
तो क्या करते आप ? हमें यदि विरोध प्रदर्शन करना होता तो हम करते, वो हमारा
लोकतांत्रिक अधिकार है. वैसे फिलहाल हम किसी और काम से आई हैं और अपनी साथी से
मिलने के लिए यहाँ रुकी हैं. आप इस तरह का बर्ताव आम नागरिक के साथ नहीं कर सकते
हैं. और इसे हम बर्दाश्त नहीं करेंगे.”
अब तक ACP मुतमईन हो चुका था कि हम जे.एन.यू. जमात के
नहीं हैं तो उसने उलझने और जवाब देने की जगह कहा कि “जाइए, हमने आपको छोड़ दिया.”
इतना कहना भर था कि हमें लगा कि किसी ने जले पर नमक रगड़ दिया है. “छोड़ दिया” का
क्या मतलब था ? क्या पुलिस ने हम पर अहसान किया? हमने कड़ा ऐतराज़ जताया. उसी वक्त
हमने ACP के नाम का बिल्ला पढ़ा - ACP वेद प्रकाश
(वैसे वेद तो पक्का याद है, मगर उत्तेजना में शायद उपनाम में गड़बड़ कर रही
हूँ). हमने कहा कि इस बर्ताव को हम यों ही नहीं छोड़ेंगे.
इस पर भड़कने की बारी ACP की
थी. हमें सुनने को मिला, “अब ले ही जाओ इनको यहाँ से.” स्वर
में अवहेलना भरी हुई थी जो
हमारे लिए असह्य थी. और यह सीधे सीधे धमकी
थी. पुलिस के इस अन्यायपूर्ण और अपमानजनक व्यवहार को बर्दाश्त कैसे किया जाए ? हम
एकदम तमतमाकर बहस में उलझी हुई थीं कि दो-चार महिला पुलिसकर्मी फिर तत्पर हुईं
हमें पकड़ने को. उस क्षण हमें लगा कि इस फंदे से निकल लेने में ही बुद्धिमानी है.
इस बीच वंदना राग का फोन
लगातार आ रहा था. हमने फोन उठाया और उनकी दिशा में हम ख़वातीन चल पड़ीं. अपनी हताशा
पर काबू पाने की असफल कोशिश करती हुईं.
ख़यालों का बवंडर थम नहीं रहा
था. आखिर कैसे लोकतंत्र में हम हैं ? क्या ‘जे.एन.यू’ की पूरी ‘ब्रांडिंग’ हो गई
है ? क्या देश की राजधानी दिल्ली में सामान्य आवाजाही पर भी प्रतिबंध लगेगा ? क्या यह वही दिल्ली
है जहाँ महिलाओं के सबसे अधिक सुरक्षित होने का दावा किया
जाता है ? और जब सरे आम दिल्ली में यह
हो सकता है तो छोटी जगहों में किस तरह धर-पकड़ होती होगी ? धारा
144 में भी क्या सड़क
चलते आम नागरिक के साथ पुलिसकर्मियों का यह
बर्ताव उचित था ? क्या रिज़वाना के साथ मेरा नाम भी कुछ और होता तो खतरा और बढ़ जाता
? क्या गाँधी पर शोध के सिलसिले में जाने का हमने ज़िक्र किया होता तो हम और संदेह
के घेरे में आ जाते ? शारीरिक चोट नहीं हमें नहीं आई, लेकिन मानसिक यंत्रणा का
क्या ? क्या इसका शुक्र मनाएँ कि हम इतने में ही छूट गए ? क्या महिला होने का हमें
‘फायदा’ मिला ? क्या हमारी जगह लड़के होते तो उनपर पुलिस का लाठी-डंडा चल जाता ? या
उन्हें किसी दूसरे-तीसरे आरोप में फँसा दिया जाता ?
-
पूर्वा भारद्वाज और रिज़वाना फ़ातिमा, रसचक्र,
दिल्ली
- http://thewirehindi.com/9982/delhi-police-jnu-and-citizens-rights/
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