मैं यही सोच रहा था उसे क्यों हमने दिया दिल
है जो बेमेहरी में कामिल, जिसे आदत है जफ़ा की
जिसे चिढ़ मेहर-ओ-वफ़ा की, जिसे आता नहीं आना, ग़म-ओ-हसरत मिटाना
जो सितम में है यगाना, जिसे कहता है ज़माना
बुत-ए-बेमेहर-ओ-दग़ा बाज़, जफ़ा पेशा फुसुँसाज़,
सितम खाना बरअन्दाज़, ग़ज़ब जिसका हर इक नाज़, नज़र फ़ितना,
मिज़ा तीर, बला ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर, ग़म-ओ-रंज का बानी
क़ल्क़-ओ-दर्द का मूजिद, सितम और जौर का उस्ताद, जफ़ाकारी में माहिर
जो सितमकश-ओ-सितमगर, जो सितमपेशा है
दिलबर, जिसे आती नहीं उल्फ़त, जो समझता नहीं चाहत
जो तसल्ली को न समझे, जो तशफ़्फ़ी को न जाने, जो करे कौल न पूरा
करे हर काम अधूरा, यही दिन-रात
तसव्वुर है कि नाहक़ उसे चाहा, जो आए न बुलाए,
न कभी पास बिठाए, न रूख-ए-साफ़ दिखाए, न कोई बात सुनाए
न लगी दिल की बुझाए, न कली दिल की खिलाए
न ग़म-ओ-रंज घटाए, न रह-ओ-रस्म बढ़ाए, जो कहो कुछ तो खफ़ा हो
कहे शिकवे की ज़रूरत, जो यही है तो न चाहो,
जो न चाहोगे तो क्या है, न निबाहोगे तो क्या है
बहुत इतराओ न दिल दे के, ये किस काम का दिल है
ग़म-ओ-अन्दोह का मारा, अभी चाहूँ तो रख दूँ उसे तलवों से मसलकर
अभी मुँह देखके रह जाओगे,
हैँ, इनको हुआ क्या कि मेरा दिल लेके मेरे हाथ से खोया।
शायर - मुज़्तर खैराबादी (1865-1927)
संकलन - सलमान अख्तर की 'घर का भेदी'
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2024
अपने 'मनमाफ़िक' ब्लॉग के लिए कविताएँ चुनने के लिए पहले मैं खूब किताबें खरीदती थी। धीरे-धीरे मेरे आलस ने व्यस्तता और अनमनेपन की ओट ले ली। इसको दूर करने का प्रयास जारी है। 'घर का भेदी' दिलचस्प किताब है। सलमान अख्तर ने अपने दादा मुज़्तर खैराबादी, वालिद जाँ निसार अख्तर, मामू मजाज़, भाई जावेद अख्तर पर लिखा है। पेशे से डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक सलमान अख्तर खुद भी शायर हैँ। उनका गद्य कमाल का लगा मुझे। उर्दू का प्रवाह तो अप्रतिम है।
(नुक़्ते की गड़बड़ी की माफ़ी क्योंकि बीसियों कोशिश के बाद भी 'ख' और 'फु' में न लगा। अक्सर कोई और शब्द लिखकर- उसमें से काटकर नुक़्ते वाला शब्द निकाल लाती हूँ।)
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