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शनिवार, 20 जून 2020

तृप्ति (Tripti by Purwa Bharadwaj)


इस बार भी पटने से आम आया. दूधिया मालदह. अबकी माँ ने भेजा, पापा ने नहीं. रात को 11 बजे के करीब मैंने एक आम खाया. डायबिटीज़ के बावजूद. आम खाकर तृप्ति हुई. पापा यही पूछते थे कि तृप्ति हुई या नहीं. और उसके बाद उनका अगला सवाल होता था कि आम में डंक है कि नहीं. तो वह डंक नहीं था. फिर भी मैंने नाक डुबाकर खाया. छीलकर, काटकर और तश्तरी में रखकर काँटे से नहीं खाया. 

पहले पापा मुसल्लहपुर हाट जाकर आढ़त से सैंकड़े के हिसाब से आम लाते थे. उसके भी पहले जब बाबा थे तो अपनी गाछी का आम आता था. टोकरी भर-भर कर. जो आम कचगर होता था उसे चौकी के नीचे बोरे से ढँककर रख दिया जाता था. पापा और माँ बड़े जतन से बीच-बीच में देखते रहते थे कि आम तैयार हुआ या नहीं. जो पका होता था वह तुरत बाल्टी में डाल दिया जाता था. घंटों पानी में रहने के बाद बाल्टी भर आम लेकर हमलोग बैठते थे. रानीघाट वाले घर में. आँगन में. ठीक नल और नाली के पास. बीजू आम हुआ तो चूस चूस कर खाया जाता था. लँगड़ा दाँत से छिलका छीलकर. गिनती नहीं होती थी. विराम लगता था तृप्ति होने पर. 

चूड़ा-आम पापा को बहुत पसंद था. उसके लिए खासकर मिठुआ आम लिया जाता था. गाढ़ा लाल-नारंगी गूदा निकालने का काम माँ का था. कभी-कभी ही पापा ने निकाला होगा. माँ फूल के चमचमाते कटोरे में आम का गूदा निकालकर रख देती थी. चूड़े को पानी में फुलाकर और गूदे जितनी ही मात्रा में चीनी डालकर पापा को तृप्ति मिलती थी. खाने में तृप्ति को लेकर वे इतने सचेत थे कि तृप्तिदायक भोजन न होने पर क्षुब्ध हो जाते थे. माँ इसीलिए तृप्ति शब्द से ही चिढ़ जाती थी. कहती थी कि इस तृप्ति का मैं क्या करूँ ! दिन भर घर का कामहम भाई-बहन का काम और ऊपर से बाहर का सारा काम ! उसमें माँ की तृप्ति की परवाह हममें से शायद ही किसी ने की होगी. बावजूद इसके तृप्ति शब्द घर में बहुधा इस्तेमाल किया जाता रहा, अभी तक मेरी ज़ुबान पर है यह. 

लेकिन इसके न जाने कितने आयाम नज़र आ रहे हैं अब. तृप्ति का रिश्ता आस्वाद, प्राचुर्य, संतोष, आनंद और शांति से है. मनपसंद भोजन की पापा की सूची में महँगे व्यंजन नहीं होते थे. छप्पन प्रकार के व्यंजन अवश्य होते थे. ‘महँगे’ शब्द से फ़ौरन दिमाग में आया महँगू होटल. मछुआ टोली के पास का छोटा सा होटल जहाँ छात्र जीवन में पापा अक्सर खाना खाया करते थे और मन भर खाते थे. उनकी तृप्ति के सामान में कभी पटना कॉलेज से आगे बढ़कर हरिहर की लस्सी होती थी, महेन्दू मोहल्ले के बंसी साव की जिलेबी होती थी या मौलवी साहब की दुकान के सामने से अखबार के टुकड़े में लिपटा उबला अंडा होता था, कभी दिल्ली के बेर सराय स्थित घर में श्याम कश्यप अंकल की पत्नी गीता शर्मा के हाथ की छाछ होती थी, कभी दिल्ली से लौटते हुए इलाहाबाद प्लेटफॉर्म से खरीदा अमरुद होता था, कभी कलकत्ता के भारतीय भाषा परिषद् के कार्यक्रम में ठहरने की जगह से जाकर मारवाड़ी बासा में खाई गई थाली होती थी. एक ज़माने में मेरी माँ (जोकि शुद्ध शाकाहारी है और मेरे दिल्ली के घर की रसोई का खाना तो दूर मेरे फ्रिज का पानी तक नहीं पीती) के हाथ की सरसों के मसाले में बनी मछली तो उन्हें बेहद पसंद थी. किस किस चीज़ को याद करूँ? हर जगह और हर व्यक्ति से उनकी तृप्ति की डोर बँधी हुई थी. उसमें निष्पक्ष थे वे. मेरी नानी और परनानी के हाथ के खाने की बड़ाई करते वे थकते न थे. अपनी ईया (मेरी मामा यानी दादी) से अधिक अपनी चाची (हमारी बड़की मामा) के हाथ की डाढ़ी (बुंदे की कड़ाही में औंटाए गए दूध की खुरचन) से तृप्त होते थे.

स्रोत क्या होगा तृप्ति का, यह किसी का भी तय नहीं रहता. यह बदलता रहता है. उसमें नई-नई चीज़ों शामिल होती रहती हैं और पुरानी चीज़ें छूटती रहती हैं. मीठे के शौकीन मेरे पापा ने हाल के वर्षों में सबकुछ छोड़ दिया था. दही-चीनी तो सबसे पहले छूटा जो कि खाने के बाद का नियम था. फ्रिज में उनकी पसंदीदा मिठाइयाँ (जैसे कोज़ी का कलाकंद, सोडा फाउंटेन का रसगुल्ला, बाढ़ और हाजीपुर की लाई या बक्सर के तरफ की बेलग्रामी कुछ भी) पड़ी रहें तो भी उनका जी नहीं जाता था. इस होली में मैंने कहा कि पापा कम से कम एक पुआ तो खा लीजिए तो वे केवल हँस कर रह गए. फिलहाल वे घिउरा (नेनुआ), कद्दू, परवल की सब्ज़ी और पतली-पतली तीन-चार रोटियों पर टिके हुए थे. फल-सलाद सबसे उन्हें कुछ न कुछ तकलीफ होने लगी थी. मुझे लगता था कि उनका वहम है सब. डायबिटीज़ प्रायः नियंत्रण में था और एसिडिटी के नाम पर उनका सबको तिलांजलि दे देना, मेरी निगाह में सनक थी. मुझे समझ में नहीं आता था कि जिन चीज़ों से वे तृप्त होते थे उनसे कैसे विमुख हो गए! लेकिन यह स्वाद से उदासीनता नहीं थी. उन्होंने केवल अपने लिए हानिकारक चीज़ों की फेहरिस्त बना ली थी. शायद अपने आपको उन ख़ास ख़ास चीज़ों के स्वाद की स्मृति से ही तृप्त करते थे पापा. बाकी सबको वे आग्रह करके तृप्ति भर सबकुछ खिलाते थे. भैया-भाभी जब कभी सुबह में राजस्थान होटल से माँ के लिए पूड़ी-जिलेबी लाते थे तो पापा माँ को चाव से खाते हुए खूब खुश होकर निहारते थे और उसी में तृप्त होते थे.

नयापन और तलाश दो महत्त्वपूर्ण शब्द हैं. दोनों अलग अलग तृप्ति से जुड़ते हैं. मैं इसे नएपन की तलाश भर नहीं कह रही हूँ. सिर्फ पापा के संदर्भ में ही नहीं, बाकियों के भी. तभी बदलाव होता है. यह पहले का निषेध नहीं है, उससे उचटना नहीं है. अभी थोड़ी देर पहले मैं जेंडर और यौनिकता आधारित पहचान पर तैयार की गई एक कॉमिक्स के अनुवाद का संपादन कर रही थी तो एकाएक मुझे लगा कि मामला तो संबंधों के चयन और उसमें तृप्ति का ही है न. दुनिया को इसमें क्यों परेशानी होती है ? एक की तृप्ति दूसरे को ज़हरीली क्यों लगती है? 

कल एक अच्छी फिल्म बेटी ने दिखाई Axone – एखोनी. यह नागालैंड का एक ख़ास व्यंजन है. पूरी फिल्म दिल्ली में रहनेवाले उत्तर-पूर्व के युवाओं के प्रति लोगों के व्यवहार और उसमें छिपे पूर्वाग्रह एवं भेदभावपूर्ण हिंसा को रेखांकित करती है. उत्तर-पूर्व के दोस्तों का समूह (उसमें केवल प्रदेश की ही विविधता नहीं है, बल्कि नेपाल की भी एक दोस्त है) अपनी एक दोस्त की शादी (जो कि वास्तव में दूर प्रदेश में हो रही है और दुल्हन वीडियो के माध्यम से उसमें शामिल है) के मौके पर एखोनी बनाने की जद्दोजहद करता है. उसकी गंध दिल्लीवालों के गले नहीं उतरती है, फिर भी एखोनी पकाना इतना अहम है कि सभी तरह तरह का जुगाड़ करते हैं. आखिर संस्कृति से जुड़ा है तृप्ति का मामला. और यह पहचान और अधिकार के साथ-साथ हाशियाकरण और हिंसा का आधार बन जाता है.

सांस्कृतिक जो है वो ज़ाहिरा तौर पर सामाजिक और आर्थिक भी है. राजनीतिक तो एकदम है. इसलिए तृप्ति को हल्के में न लीजिए. यह व्यक्ति विशेष की खालिस पसंद भर नहीं है. बहुत कुछ समाया हुआ है इसमें. पापा के बारे में पलटकर सोच रही हूँ तो कितना कुछ अब समझ में आ रहा है.   

खाना-पीना कोई गौण पक्ष नहीं है, मगर पापा की असल दुनिया थी साहित्य की. उसमें पैठने के लिए उन्होंने जो मेहनत की है, वह उनकी किताबों से झलकती है. उन्होंने अपने को खूब मथा. भग्गन चाचा ठीक कहते हैं कि उन्होंने अपने को एकदम निचोड़ दिया था काम में. सूर-तुलसी एक तरफ थे तो मैथिलीशरण गुप्त, निराला, दिनकर और मुक्तिबोध दूसरी तरफ. कालिदास को पढ़ते थे तो ग्राम्शी और लुकाच को भी. ऐसा नहीं था कि वे अपने लेखन से संतुष्ट नहीं थे, बस उन्हें अधिक से अधिक पढ़ने-लिखने की प्यास थी. और जितनी प्यास होती है उसी अनुपात में तृप्ति होती है. संभवतः इसीलिए वे योजनाबद्ध तरीके से काम करते जाते थे और एक एक अध्याय बंद करते जाते थे.

संतोष था पापा को कि अपने जानते जो चाहा वो पढ़ा-लिखा. अपूर्व लातिन अमरीकी कवि हेम्नेज़ की बात याद दिलाते हैं कि अपनी सारी इंद्रियों से यथासंभव जो भी किया जा सकता था वह उन्होंने किया. मतलब उन्होंने आँखों से जितना पढ़ा जा सकता था उतना पढ़ा, कानों से जितना सुना जा सकता था सुना, उँगलियों से जितने पन्ने पलटे जा सकते थे पलटे, दिमाग जितना खपाया जा सकता था उतना खपाया. अपने हिस्से का काम उन्होंने किया और तृप्ति हासिल की. अपने लिखे-बोले के मूल्यांकन की परवाह के बिना.

तब भी मैं किसकी तलाश में हूँ ?   

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