कल मैंने बिंदी लगाई. कल या परसों कान में झुमके भी पहनने लगूँगी. उम्मीद है कि जीवन धीरे-धीरे सामान्य हो जाएगा. अनुपस्थिति के बावजूद. फिर फिरोज़ी और गुलाबी रंग भी वापस आ जाएगा जो पापा को मुझपर पसंद था. मेरी साड़ी की तारीफ़ वे अब नहीं करेंगे, मगर नई साड़ी भी खरीदी जाएगी. यह सब क्या है ? जीवन का चक्र है ? परिस्थिति के मुताबिक़ ढलना है? समय के साथ आगे बढ़ना है ? या उम्मीद से नाउम्मीद होना है !
जब 9 मई को मैं मुज़फ्फरपुर होते हुए पटना में दाखिल हो रही थी तो लग रहा था कि गाँधी सेतु के बाद का रास्ता गड्डमड्ड हो रहा है. पहली बार लगा कि अपने शहर में नहीं, किसी और जगह से गुज़र रही हूँ. दिमाग पर ज़ोर देते हुए मैंने टैक्सी ड्राइवर को नालंदा मेडिकल कॉलेज, बहादुरपुर गुमटी होते हुए कंकड़बाग की तरफ बढ़ने को कहा. आगे चिडैया टांड़ पुल. फिर स्टेशन और अशोक सिनेमा वाली सड़क पर फ़्लाईओवर से उतर गई. अदालतगंज का वीनूजी का घर गुज़रा तो दम लौटा. तारामंडल पारकर इनकम टैक्स चौराहा आने तक आत्मविश्वास जाग गया. अब बुद्ध कॉलोनी और घर पहुँचने में कोई बाधा नहीं थी. यह भी मालूम था कि अस्पताल करीब ही है. ICU में मिलने का समय ख़त्म हो चुका था, फिर भी उम्मीद थी कि किसी भी तरह पापा से मिलना हो पाएगा. आखिर हम किसी भी सूरत में उम्मीद का दामन छोड़ना नहीं चाहते हैं. वही तो है जो जीवन को गति देता है.
उम्मीद एक बिंदु भर नहीं है. उसका पूरा 'स्पेक्ट्रम' होता है. इंद्रधनुष की तरह. किसी चटक रंग की तरह कोई उम्मीद घटाटोप में चमकती है तो कोई फीके रंग की तरह दबी-दबी रहती है. मगर अस्पताल जाते हुए, अगले तीन दिन सुबह-शाम ICU में पापा से 2-2 मिनट मिलते हुए और 12 मई की दोपहर के बाद हर पल किसी न किसी विशेषज्ञ डॉक्टर से हालचाल पता करते हुए उम्मीद इंद्रधनुषी नहीं रह गई थी. 'ब्लैक होल' की तरफ हम बढ़
रहे थे. इसका भान था. मानसिक रूप से सजग होते हुए भी पापा की क्लिनिकल रिपोर्ट गड़बड़ हो रही थी.
हम अब पुरउम्मीद होने का अभिनय नहीं कर सकते थे. जी हाँ, उम्मीद अभिनय की माँग भी करती है. हर बार नहीं, कई बार ज़रूर. यह अभिनय पूरे मन से, शरीर से किया जाता है ताकि उम्मीद का सिरा छूटे नहीं. अभिनय सायास भी किया जाता है ताकि उम्मीद पर टिका महल न टूटे. केवल मृत्यु के संदर्भ में नहीं या किसी रिश्ते के संदर्भ में नहीं. उम्मीद तो हर छोटी-बड़ी चीज़ को लेकर होती है. भौतिक-भावनात्मक-आध्यात्मिक हर क्षेत्र में. सवाल उठता है कि क्या हम उम्मीद बने रहने को लाभ के रूप में देखें और उम्मीद टूटने को हानि के रूप में ? ऐसे में उम्मीद को बचाए रखने, जिलाए रखने को किया गया अभिनय क्या कहलाएगा?
12 मई की सुबह में माँ पापा से मिल आई थी. नर्स ने करवट दिलवाकर उनको पुकारा था. उन्होंने आँख खोली. फिर माँ की ओर हाथ बढ़ाया. उम्मीद के साथ. चाहकर भी वह हाथ नहीं पकड़ पाई. उम्मीद को प्रत्युत्तर न मिले तो कैसा लगता है ? लेकिन पापा संभवतः स्थिति समझ रहे थे. वे निराश नहीं दिखे. उन्होंने माँ से जाने की एक तरह से इजाज़त ली. अपनी आवाज़ अवरुद्ध होने की बात इशारे से कही. माँ ने इस सर्वग्रासी अवरोध को उसी क्षण समझ लिया था. एक-दूसरे को उम्मीद दिलाने का प्रयास किसी ने नहीं किया. हम बिस्तर से दूर थे. उनको घर जल्दी आने को कहकर हम 2 मिनट में ही बाहर आ गए थे ताकि पापा के लिए किसी इन्फेक्शन के वाहक न बनें. यह केवल अस्पताल के सहायक गण का निर्देश ही नहीं था. हमारी चिंता भी इसमें शामिल थी. दिल्ली से आने और कोरोंटाइन होने का ठप्पा लगे होने के कारण मैं किसी भी दिन पापा को छू नहीं पाई थी.
उस दिन शाम में भैया को जब मैं कह रही थी कि जाकर मिल आओ पापा से तो वह तड़प गया. "क्यों भेज रही हो, मानो अंतिम बार पापा को देखने को कह रही हो!" वह लगातार अस्पताल में था और जब से मैं आई थी तो मुलाकात का अपना मौका मुझे दे दे रहा था. [कोविड 19 के भूत ने मुलाकात की अवधि से लेकर मुलाकातियों की संख्या सब पर नियंत्रण कर रखा था.] भैया पापा को अगले दिन भी देखने की उम्मीद लगाए बैठा था. उसे अपनी उम्मीद छूट जाने का डर था. हम जानते हैं कि बहुत बार दिल उम्मीद करे तो दिमाग टोकता है और दिमाग उम्मीद रखे तो दिल उसे पछाड़ देता है. कशमकश, उठापटक चलती है. कभी कभी लंबे समय तक. मगर बहुत जल्दी हमारा दिल-दिमाग एक सतह पर आ गया. भैया अंदर जाकर देख आया पापा को, हालाँकि उस समय उनका कपड़ा बदला जा रहा था. तब भी पर्दे के बीच की फाँक से उसने देखा. लावण्य (भतीजा) व्याकुल होकर कई बार अपने बाबा के पास गया. (स्थिति ठीक नहीं थी तो अब ICU वाले रोक नहीं रहे थे, बल्कि बुला-बुलाकर 'अपडेट' कर रहे थे.) वह डॉक्टर से बात करता रहा. रिपोर्ट पढ़ता रहा. दवा की खुराक का मतलब इंटरनेट पर ढूँढ़ता रहा. वही था जिसकी आँखों में पापा अंतिम बार कैद हुए. मशीन चल रही थी, पापा भी चल रहे थे.
हमने रात साढ़े नौ बजे के आसपास पापा के 'कार्डियक अरेस्ट' की खबर को ICU के बाहर की सीढ़ियों पर सुना. मेरी भाभी बेहाल थी. लावण्य की शादी में पापा के नाचने की इच्छा को वह किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहती थी. नंदन (पापा की देखभाल करनेवाला) को पापा ने कहा था कि मुझे छोड़कर नहीं जाना, सो वह कहने पर भी वापस अपने गाँव (कुल्हड़िया के पास) नहीं गया था और ICU के शीशे के भीतर से पापा के बिस्तर के करीब डॉक्टर-नर्स की भीड़ पर नज़र जमाए हुए था. शरत (मौसेरा भाई) हर बार की तरह इस संकट में भी मुस्तैदी से हाज़िर था और स्थिति सँभाल रहा था. दो मंज़िल की सीढ़ियाँ फलाँगते हुए इमरजेंसी की दवा लाकर लावण्य ICU में पहुँचा आया. अपूर्व और बेटी को मैंने सूचित किया. सब अपनी साँस की आवाज़ को भी दबा देने में जुटे हुए थे. 10 बजकर 3 मिनट पर माँ का फोन आया कि बेटा कब आओगी अस्पताल से. भरसक संयत आवाज़ में मैंने कहा कि आ रहे हैं माँ. उसकी उम्मीद को निर्ममतापूर्वक कैसे तोड़ा जा सकता था!
कितनी भी तकलीफदेह हो यह प्रक्रिया, लेकिन उम्मीद को तोड़ना पड़ता है. डॉक्टर जब वस्तुस्थिति से अवगत कराते हैं तब वे यही कर रहे होते हैं. यह राजनीतिक काम है. सूचना का अधिकार तभी तो राजनीतिक अधिकार है. यह तथ्य और उम्मीद को अलग अलग कर देता है. इस उम्मीद में भुलावा भी रहता है, जिसकी परत को हम प्याज़ के छिलके की तरह अलग कर देना चाहते हैं. छल-कपट के अलावा बाज़ार की भी भूमिका होती है. जब तंत्र से जुड़ा होता है तथ्य तो उस तक पहुँचना आसान नहीं होता. फिर तथ्य और सत्य भी एकरंगा या एकआयामी नहीं होता. उसमें इतने कारक काम करते हैं ! यहाँ तथ्य एक था, सत्य एक था. उससे उम्मीद को पृथक् कर दिया गया था. माँ का फोन आने के बाद शायद लावण्य खबर लेकर आया. क्रम ठीक से याद नहीं. इतना साफ़ था कि उम्मीद का तार धीरे-धीरे टूटता जा रहा था. किसी की न मंशा पर संदेह था, न किसी पर दोषारोपण था और न पापा पर हिम्मत छोड़ने का आरोप था.
भैया ICU में था. हम एक एक करके भीतर गए. नर्स और अन्य कर्मचारियों की इस हिदायत के साथ कि भीतर कोई शोर नहीं होगा. पापा ख़ामोश थे और हम ख़ामोशी बनाए रखने को बाध्य थे. नाउम्मीदी यों भी बेआवाज़ कर देती है. फिर भी भैया का वह वाक्य कौंध रहा था कि "माँ कहती है कि सब चनपुरिया (हमारे गाँव का नाम चाँदपुरा है) खूब गरज़ता है...गलत कहती है. इच्छा हो रही है कि पापा को कहूँ एक बार गरज कर दिखाइए न!" पापा कभी कभी सप्तम सुर में बोलते थे वह सबको अखरता था, लेकिन अभी हम सब बेतहाशा वह स्वर सुनने की उम्मीद कर रहे थे. अच्छे-बुरे, सही-गलत से परे होती है उम्मीद. होने की संभावना उसे अर्थ देती है. परंतु अब वह निरर्थक थी.
इसका यह मतलब नहीं है कि उम्मीद केवल यथार्थ और वर्तमान से जुड़ी होती है. जब समानार्थी शब्द आशा का इस्तेमाल करते हैं तो कल्पना उसका अंग होती है और वह भविष्योन्मुखी होती है. अपेक्षा भी सहचरी होती है. लेकिन नाउम्मीदी में क्या होता है ? वर्तमान और भविष्य दोनों एकमेक हो जाते हैं और उनपर काला पर्दा पड़ जाता है. तब भी इंसान निश्चेष्ट नहीं होता और उसे चीरकर आगे बढ़ जाता है. हम बाहोश थे और माँ को बताने के अलावा पापा को घर लाने की तैयारी में लग गए थे.
रात भर पापा घर में थे. चेहरा शांत. दाहिने हाथ की गौरवर्ण उँगलियाँ इस मुद्रा में थीं मानो कुछ उठाएँगे. थोड़ा-थोड़ा वैसे जैसे कौर उठानेवाले हों. बायाँ हाथ बगल में था. पैर एकदम सीधे थे जो अस्वाभाविक होने के कारण खटक रहा था. मेंहदी रंग का कुर्ता-पाजामा आयरन किया हुआ था, लेकिन हमको तो पापा के उठने-बैठने से पड़ी सिलवटों की तलाश थी. पूरी रात सारी बत्तियाँ जली थीं. काश पापा हमेशा की तरह कहते कि बत्ती बुझा दो, आँखों में रोशनी चुभ रही है. भैया, भाभी, लावण्य, नंदन, सोनू, गुड़िया चारों तरफ थे. माँ व्हील चेयर से झुककर उनका चेहरा और सर सहलाना चाह रही थी तो उसे पापा की ऊष्मा वापस आने की झूठी उम्मीद भी नहीं थी. दोस्त-पड़ोसी जा चुके थे. बेबी मौसी को भी आग्रह करके हमने भेजा था क्योंकि भोर में माँ के साथ और कौन रहता! दिन-रात का साथ देनेवाले पापा तो अब नहीं थे. यह सच्चाई थी, नाउम्मीदी नहीं.
महीने भर बाद मैं दूर दिल्ली में बैठी सोच रही हूँ कि अब किस बात की उम्मीद करूँ. उम्मीद करने की पात्रता से वंचित हूँ.
जब 9 मई को मैं मुज़फ्फरपुर होते हुए पटना में दाखिल हो रही थी तो लग रहा था कि गाँधी सेतु के बाद का रास्ता गड्डमड्ड हो रहा है. पहली बार लगा कि अपने शहर में नहीं, किसी और जगह से गुज़र रही हूँ. दिमाग पर ज़ोर देते हुए मैंने टैक्सी ड्राइवर को नालंदा मेडिकल कॉलेज, बहादुरपुर गुमटी होते हुए कंकड़बाग की तरफ बढ़ने को कहा. आगे चिडैया टांड़ पुल. फिर स्टेशन और अशोक सिनेमा वाली सड़क पर फ़्लाईओवर से उतर गई. अदालतगंज का वीनूजी का घर गुज़रा तो दम लौटा. तारामंडल पारकर इनकम टैक्स चौराहा आने तक आत्मविश्वास जाग गया. अब बुद्ध कॉलोनी और घर पहुँचने में कोई बाधा नहीं थी. यह भी मालूम था कि अस्पताल करीब ही है. ICU में मिलने का समय ख़त्म हो चुका था, फिर भी उम्मीद थी कि किसी भी तरह पापा से मिलना हो पाएगा. आखिर हम किसी भी सूरत में उम्मीद का दामन छोड़ना नहीं चाहते हैं. वही तो है जो जीवन को गति देता है.
उम्मीद एक बिंदु भर नहीं है. उसका पूरा 'स्पेक्ट्रम' होता है. इंद्रधनुष की तरह. किसी चटक रंग की तरह कोई उम्मीद घटाटोप में चमकती है तो कोई फीके रंग की तरह दबी-दबी रहती है. मगर अस्पताल जाते हुए, अगले तीन दिन सुबह-शाम ICU में पापा से 2-2 मिनट मिलते हुए और 12 मई की दोपहर के बाद हर पल किसी न किसी विशेषज्ञ डॉक्टर से हालचाल पता करते हुए उम्मीद इंद्रधनुषी नहीं रह गई थी. 'ब्लैक होल' की तरफ हम बढ़
रहे थे. इसका भान था. मानसिक रूप से सजग होते हुए भी पापा की क्लिनिकल रिपोर्ट गड़बड़ हो रही थी.
हम अब पुरउम्मीद होने का अभिनय नहीं कर सकते थे. जी हाँ, उम्मीद अभिनय की माँग भी करती है. हर बार नहीं, कई बार ज़रूर. यह अभिनय पूरे मन से, शरीर से किया जाता है ताकि उम्मीद का सिरा छूटे नहीं. अभिनय सायास भी किया जाता है ताकि उम्मीद पर टिका महल न टूटे. केवल मृत्यु के संदर्भ में नहीं या किसी रिश्ते के संदर्भ में नहीं. उम्मीद तो हर छोटी-बड़ी चीज़ को लेकर होती है. भौतिक-भावनात्मक-आध्यात्मिक हर क्षेत्र में. सवाल उठता है कि क्या हम उम्मीद बने रहने को लाभ के रूप में देखें और उम्मीद टूटने को हानि के रूप में ? ऐसे में उम्मीद को बचाए रखने, जिलाए रखने को किया गया अभिनय क्या कहलाएगा?
12 मई की सुबह में माँ पापा से मिल आई थी. नर्स ने करवट दिलवाकर उनको पुकारा था. उन्होंने आँख खोली. फिर माँ की ओर हाथ बढ़ाया. उम्मीद के साथ. चाहकर भी वह हाथ नहीं पकड़ पाई. उम्मीद को प्रत्युत्तर न मिले तो कैसा लगता है ? लेकिन पापा संभवतः स्थिति समझ रहे थे. वे निराश नहीं दिखे. उन्होंने माँ से जाने की एक तरह से इजाज़त ली. अपनी आवाज़ अवरुद्ध होने की बात इशारे से कही. माँ ने इस सर्वग्रासी अवरोध को उसी क्षण समझ लिया था. एक-दूसरे को उम्मीद दिलाने का प्रयास किसी ने नहीं किया. हम बिस्तर से दूर थे. उनको घर जल्दी आने को कहकर हम 2 मिनट में ही बाहर आ गए थे ताकि पापा के लिए किसी इन्फेक्शन के वाहक न बनें. यह केवल अस्पताल के सहायक गण का निर्देश ही नहीं था. हमारी चिंता भी इसमें शामिल थी. दिल्ली से आने और कोरोंटाइन होने का ठप्पा लगे होने के कारण मैं किसी भी दिन पापा को छू नहीं पाई थी.
उस दिन शाम में भैया को जब मैं कह रही थी कि जाकर मिल आओ पापा से तो वह तड़प गया. "क्यों भेज रही हो, मानो अंतिम बार पापा को देखने को कह रही हो!" वह लगातार अस्पताल में था और जब से मैं आई थी तो मुलाकात का अपना मौका मुझे दे दे रहा था. [कोविड 19 के भूत ने मुलाकात की अवधि से लेकर मुलाकातियों की संख्या सब पर नियंत्रण कर रखा था.] भैया पापा को अगले दिन भी देखने की उम्मीद लगाए बैठा था. उसे अपनी उम्मीद छूट जाने का डर था. हम जानते हैं कि बहुत बार दिल उम्मीद करे तो दिमाग टोकता है और दिमाग उम्मीद रखे तो दिल उसे पछाड़ देता है. कशमकश, उठापटक चलती है. कभी कभी लंबे समय तक. मगर बहुत जल्दी हमारा दिल-दिमाग एक सतह पर आ गया. भैया अंदर जाकर देख आया पापा को, हालाँकि उस समय उनका कपड़ा बदला जा रहा था. तब भी पर्दे के बीच की फाँक से उसने देखा. लावण्य (भतीजा) व्याकुल होकर कई बार अपने बाबा के पास गया. (स्थिति ठीक नहीं थी तो अब ICU वाले रोक नहीं रहे थे, बल्कि बुला-बुलाकर 'अपडेट' कर रहे थे.) वह डॉक्टर से बात करता रहा. रिपोर्ट पढ़ता रहा. दवा की खुराक का मतलब इंटरनेट पर ढूँढ़ता रहा. वही था जिसकी आँखों में पापा अंतिम बार कैद हुए. मशीन चल रही थी, पापा भी चल रहे थे.
हमने रात साढ़े नौ बजे के आसपास पापा के 'कार्डियक अरेस्ट' की खबर को ICU के बाहर की सीढ़ियों पर सुना. मेरी भाभी बेहाल थी. लावण्य की शादी में पापा के नाचने की इच्छा को वह किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहती थी. नंदन (पापा की देखभाल करनेवाला) को पापा ने कहा था कि मुझे छोड़कर नहीं जाना, सो वह कहने पर भी वापस अपने गाँव (कुल्हड़िया के पास) नहीं गया था और ICU के शीशे के भीतर से पापा के बिस्तर के करीब डॉक्टर-नर्स की भीड़ पर नज़र जमाए हुए था. शरत (मौसेरा भाई) हर बार की तरह इस संकट में भी मुस्तैदी से हाज़िर था और स्थिति सँभाल रहा था. दो मंज़िल की सीढ़ियाँ फलाँगते हुए इमरजेंसी की दवा लाकर लावण्य ICU में पहुँचा आया. अपूर्व और बेटी को मैंने सूचित किया. सब अपनी साँस की आवाज़ को भी दबा देने में जुटे हुए थे. 10 बजकर 3 मिनट पर माँ का फोन आया कि बेटा कब आओगी अस्पताल से. भरसक संयत आवाज़ में मैंने कहा कि आ रहे हैं माँ. उसकी उम्मीद को निर्ममतापूर्वक कैसे तोड़ा जा सकता था!
कितनी भी तकलीफदेह हो यह प्रक्रिया, लेकिन उम्मीद को तोड़ना पड़ता है. डॉक्टर जब वस्तुस्थिति से अवगत कराते हैं तब वे यही कर रहे होते हैं. यह राजनीतिक काम है. सूचना का अधिकार तभी तो राजनीतिक अधिकार है. यह तथ्य और उम्मीद को अलग अलग कर देता है. इस उम्मीद में भुलावा भी रहता है, जिसकी परत को हम प्याज़ के छिलके की तरह अलग कर देना चाहते हैं. छल-कपट के अलावा बाज़ार की भी भूमिका होती है. जब तंत्र से जुड़ा होता है तथ्य तो उस तक पहुँचना आसान नहीं होता. फिर तथ्य और सत्य भी एकरंगा या एकआयामी नहीं होता. उसमें इतने कारक काम करते हैं ! यहाँ तथ्य एक था, सत्य एक था. उससे उम्मीद को पृथक् कर दिया गया था. माँ का फोन आने के बाद शायद लावण्य खबर लेकर आया. क्रम ठीक से याद नहीं. इतना साफ़ था कि उम्मीद का तार धीरे-धीरे टूटता जा रहा था. किसी की न मंशा पर संदेह था, न किसी पर दोषारोपण था और न पापा पर हिम्मत छोड़ने का आरोप था.
भैया ICU में था. हम एक एक करके भीतर गए. नर्स और अन्य कर्मचारियों की इस हिदायत के साथ कि भीतर कोई शोर नहीं होगा. पापा ख़ामोश थे और हम ख़ामोशी बनाए रखने को बाध्य थे. नाउम्मीदी यों भी बेआवाज़ कर देती है. फिर भी भैया का वह वाक्य कौंध रहा था कि "माँ कहती है कि सब चनपुरिया (हमारे गाँव का नाम चाँदपुरा है) खूब गरज़ता है...गलत कहती है. इच्छा हो रही है कि पापा को कहूँ एक बार गरज कर दिखाइए न!" पापा कभी कभी सप्तम सुर में बोलते थे वह सबको अखरता था, लेकिन अभी हम सब बेतहाशा वह स्वर सुनने की उम्मीद कर रहे थे. अच्छे-बुरे, सही-गलत से परे होती है उम्मीद. होने की संभावना उसे अर्थ देती है. परंतु अब वह निरर्थक थी.
इसका यह मतलब नहीं है कि उम्मीद केवल यथार्थ और वर्तमान से जुड़ी होती है. जब समानार्थी शब्द आशा का इस्तेमाल करते हैं तो कल्पना उसका अंग होती है और वह भविष्योन्मुखी होती है. अपेक्षा भी सहचरी होती है. लेकिन नाउम्मीदी में क्या होता है ? वर्तमान और भविष्य दोनों एकमेक हो जाते हैं और उनपर काला पर्दा पड़ जाता है. तब भी इंसान निश्चेष्ट नहीं होता और उसे चीरकर आगे बढ़ जाता है. हम बाहोश थे और माँ को बताने के अलावा पापा को घर लाने की तैयारी में लग गए थे.
रात भर पापा घर में थे. चेहरा शांत. दाहिने हाथ की गौरवर्ण उँगलियाँ इस मुद्रा में थीं मानो कुछ उठाएँगे. थोड़ा-थोड़ा वैसे जैसे कौर उठानेवाले हों. बायाँ हाथ बगल में था. पैर एकदम सीधे थे जो अस्वाभाविक होने के कारण खटक रहा था. मेंहदी रंग का कुर्ता-पाजामा आयरन किया हुआ था, लेकिन हमको तो पापा के उठने-बैठने से पड़ी सिलवटों की तलाश थी. पूरी रात सारी बत्तियाँ जली थीं. काश पापा हमेशा की तरह कहते कि बत्ती बुझा दो, आँखों में रोशनी चुभ रही है. भैया, भाभी, लावण्य, नंदन, सोनू, गुड़िया चारों तरफ थे. माँ व्हील चेयर से झुककर उनका चेहरा और सर सहलाना चाह रही थी तो उसे पापा की ऊष्मा वापस आने की झूठी उम्मीद भी नहीं थी. दोस्त-पड़ोसी जा चुके थे. बेबी मौसी को भी आग्रह करके हमने भेजा था क्योंकि भोर में माँ के साथ और कौन रहता! दिन-रात का साथ देनेवाले पापा तो अब नहीं थे. यह सच्चाई थी, नाउम्मीदी नहीं.
महीने भर बाद मैं दूर दिल्ली में बैठी सोच रही हूँ कि अब किस बात की उम्मीद करूँ. उम्मीद करने की पात्रता से वंचित हूँ.
क्या कहूँ, दीदी? सिर्फ यही कह सकता हूँ कि अच्छा किया, लिख दिया।
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