सुबह की सैर पर फिर से जाने लगना कुछ वैसा ही है जैसे आपने अपने पर लगाए लॉकडाउन में ढील दे दी हो। तीन दिन पहले जब मैं निकली तो लगा कि ऑक्सीजन तो है, शायद मैंने उसको लेना छोड़ दिया था। तभी मैंने अपने को टोका कि ऑक्सीजन की कमी तो वाकई हुई जिससे कितने लोग पार नहीं पा सके। शायद उनके हिस्से का बचा हुआ ऑक्सीजन अब हम ले रहे हैं! यह कितना बड़ा अपराधबोध है!
तब भी जीवन तो चलता ही है। उसकी गति बढ़ाते हुए सैर पर लौटना सचमुच सुकून लेकर आया। कुत्तों और बंदरों से बचते बचाते वापस सही सलामत लौट आना रणक्षेत्र से वापसी जैसा होते हुए भी। इसमें कोई वीरता का भाव नहीं है क्योंकि कुत्तों और बंदरों की अनजान के प्रति आशंका, उनकी ऊब और खान पान की कमी पर भी ध्यान जाता है। आज जब रामजस कॉलेज के फाटक के सामने 4 कुत्तों के झुंड ने घेरा तो हमारी प्रिंगल डर से गोद में चढ़ने को हुई। दूसरी तरफ एक लड़का हस्की को लेकर जा रहा था। उसने मुझे इशारा किया कि मैं सड़क के उस छोर से जाऊँ। मैंने कदम आगे पीछे करना चाहा तो दो जगह कुत्तों ने भात उगल रखा था और एक जगह टट्टी कर रखी थी। उसे पार करने में मन भिनभिना रहा था। वह लड़का सदाशयता में अपने हस्की का पट्टा थामे रुक गया था, मगर हस्की के करीब से निकलना भी मुझे सुरक्षित नहीं लग रहा था। चार-पाँच मिनट की पैंतरेबाजी के बाद कुत्तों का झुंड ही वापस हो गया। रामजस कॉलेज के हाते में। विद्यार्थियों और शिक्षकों से भले वह हाता सूना हो, मगर सिक्योरिटी गार्ड के साथ कुत्तों ने उसे आबाद कर रखा है। यह सैर से लौटते समय की बात है। जाते समय एकदम सन्नाटा था। इतना कि मास्क उतार देने का मन कर रहा था।
कमला नेहरू रिज मेरी सैर की मंज़िल होती है। उसमें कितने भीतर तक जाना है, किस लैंडमार्क को छूकर लौटना है, कौन से लोग दिखेंगे, कौन राम राम करेगा - यह सब बदलता रहता है। घर से निकलने के समय, फ़ुरसत, पूरे दिन के कामों की सूची और मूड के हिसाब से।अफ़सोस कल पाया कि सरकारी आदेश के अनुसार तालाबंदी कमला नेहरू रिज पर भी है। आज मैंने सोचा कि सिविल लाइंस तक चले चलूँ ताकि 5 किलोमीटर सैर का कोटा पूरा कर लूँ। फिर अलसा गई। मन को तर्क दिया कि धीरे-धीरे दूरी बढ़ाऊँगी।परसों तो सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज की चारदीवारी से थोड़ा ही आगे गई थी। सैर की वापसी क्रमशः होगी, जैसे साँस क्रमशः ही लौटती है।
आज रिज के सामने 6 कुत्ते पसरे हुए थे। एक भी गाड़ी नहीं थी। हाँ, सड़क पर एक महिला जॉगिंग सूट में निष्ठापूर्वक कसरत कर रही थीं। सामने तीन बंदरों की टोली सड़क पर कुछ बीनने में लगी हुई थी। चार-छः लोग आते-जाते दिख रहे थे, मगर भावहीन। उनमें दो लोग हाथ घुमाते हुए अपने जोड़ों को मज़बूत बनाते हुए गुज़रे। एक मास्क की सुरक्षा के साथ तेज़-तेज़ साँस खींच और छोड़ रहे थे। फल की दुकान वाला लपकता हुआ सड़क पार कर रहा था। हमारे वहाँ होने की नोटिस किसी ने न ली। कोई क्यों ले? अभी तो हालत यह है कि किसी भी दूसरे की मौजूदगी आपको डर के घेरे में ले लेती है। मैं तो रिज की चढ़ाई के कारण गति धीमी हो जाने वाले ऑटो के बग़ल से निकलने पर भी थोड़ा और दूरी बना लेती थी। टकराने से अधिक ऑटो सवार की साँसों के माध्यम से कोविड की छूत लगने का भय अधिक है। फ़र्राटे भरती कार से कम भय हो रहा था, जिसकी खिड़कियों के शीशे चढ़े थे। खयाल आया कि कहीं यह वर्ग आधारित पूर्वग्रह का नतीजा तो नहीं है! आख़िर इन दिनों भी 'सुपर स्प्रेडर' हम किसको मानते हैं? मध्यवर्ग ने इस बार अधिक झटका खाया है, इसलिए छुआ छूत भी सबसे अधिक यही कर रहा है। हम भी उसमें शामिल हैं।
सुरक्षा की तलाश में हमारा दुखी मन सारे टोटके कर रहा है। कोविड प्रोटोकॉल के नाम पर मैं भी हरिशरण माली, राजकुमार सब्ज़ी वाले, अनिल दूध वाले, सुभाष बिजली वाले, सोनाली पार्लर वाली सबसे कैसे पेश आ रही हूँ! जूते-चप्पल उतारना, पाँच सीढ़ी नीचे से बात करना, सैनिटाइज़र लेकर तैनात होना, डिस्पोज़ेबल ग्लास में पानी देना, लगातार एक्झौस्ट पंखा चलाते रहना, बीमारी फैलने के कारण संबंधी नवीनतम शोधों को किनारे रखकर केवल मन के डर को मानना - ग्लानि होने लगती है। यह सब उतना ही हानिकारक है जितना अपने मन से दवाई खाना या व्हाट्सऐप पर घूमते डॉक्टरी नुस्ख़े के मुताबिक़ चलना। फिर अपने को तसल्ली देती हूँ कि सावधानी हटी, दुर्घटना घटी! अपने डायबिटीज और दमे के नाम पर खुद को माफ़ कर देती हूँ। ख़ैर, आशा है कि सुबह की सैर से धीरे धीरे टोटका भी कम होगा।
दौलत राम कॉलेज और रामजस कॉलेज की लाल बत्ती हमारी कॉलोनी का पता बताती है। कल रामजस के कोने में जो छोटी सी दुकान है, उसके सामने बारिश का अच्छा ख़ासा पानी जमा हुआ था। गटर का ढक्कन कल खुला नहीं था। कई बार खुला रहता है और उसमें ख़तरे के संकेत के तौर पर कोई कपड़ा लहराता रहता है। मतलब इधर के लॉकडाउन में सफ़ाई कर्मचारी काम कर रहे थे। बारिश के पानी और गटर के पानी का संगम नहीं हुआ था, फिर भी दुकानदार उस पानी में पैर डालने में हिचकिचा रहा था। मेरी निगाह पड़ी तो वह मध्य वय का आदमी सकुचा गया। अपनी हिचकिचाहट को कोई देखे-समझे यह किसी को पसंद नहीं। उसने वैसे पैर बढ़ाए मानो ख़ाली सड़क पर चल रहा हो। बारिश के पानी के रोमांस से रहित था वह चलना। वह उसके दुकान की तरफ़, रोज़गार की तरफ़ वापसी का कदम था।
मेरे कदमों की दिशा वही थी, इसलिए पैर तो नहीं आँख मोड़ ली मैंने। बस स्टैंड पार करके मैं फुटपाथ पर आ गई। एक अधेड़ व्यक्ति ब्रेड और रोटी के टुकड़े दीवार के पास, कॉलोनी की दीवार के ऊपर चिड़ियों के लिए डाल रहे थे। मैंने सुरक्षित दूरी बनाते हुए उनको देखा। देखना ज़रूरी लगा। कौन हैं वे? पहले कभी नहीं दिखे थे। क्या कोविड में अकेले रह गए? या अभी डॉक्टर की सलाह पर सैर को निकलने लगे हैं और उसी में यह पुण्य का काम कर रहे हैं? वे कपड़ों से बहुत संपन्न नहीं लगे, चेहरे के भाव में भी अतिशय उदारता या गर्व का निशान नहीं था। निर्विकार सा चेहरा लिए वे रुक-रुक कर खाना डालते हुए चल रहे थे। सोचा कि बात करूँ, कुछ पूछूँ, लेकिन ...
आज भी वे सज्जन दिखे। एक दिन ज़रूर उनको टोकूँगी। शायद प्रिंगल ही पहल कर दे। आते-जाते इंसान से, पशु-पक्षी से वह हैलो करते हुए चलती है। उसके स्वर में बाज़ दफ़ा ऐतराज़ होता है, ग़ुस्सा होता है, झिड़की भी, मगर परिचय का आमंत्रण भी होता है। आज ही संत कृपाल सिंह मार्ग पर जो गाय बैठी थी उसको देखकर भी प्रिंगल भौंकी। वह निरुपाय सी बैठी रही, प्रिंगल उछलती रही, मैं उसे क़ाबू में करने के लिए खींचती रही। संत कृपाल सिंह मार्ग की ही दूसरी तरफ़ एक और कुत्ता था, गली का। वह गाय और प्रिंगल को बारी-बारी से देखता रहा। चुपचाप। शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को मानते हुए। बेहतर होगा यह कहना कि वह इत्मीनान से बैठा रहा, इतने बड़े बड़े और वह भी बेमानी शब्द तो इंसानी दुनिया के हैं जो हम बाक़ी जीव जगत् पर भी थोपते रहते हैं।
प्रिंगल के साथ सैर जारी रहेगी, यह निश्चय करते हुए मैं आज लौटी हूँ। देखूँ कब तक?
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