तू हतविक्रम श्रमहीन दीन
निज तन के आलस से मलीन
माना यह कुंठा है युगीन
पर तेरा कोई धर्म नहीं ?
यह रिक्त-अर्थ उन्मुक्त छंद
संस्मरणहीन जैसे सुगंध,
यह तेरे मन का कुप्रबंध —
यह तो जीवन का मर्म नहीं ।
कवि - रघुवीर सहाय
किताब - रघुवीर सहाय
रचनावली
संपादक - सुरेश शर्मा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
बहुत खूब
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