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शनिवार, 31 अगस्त 2024

भहराना (Bhaharana by Purwa Bharadwaj)

5 दिनों के आवासीय कोर्स के बाद आज जब घर आई तो सीढ़ी चढ़ना भी मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। यह आवासीय कोर्स दिल्ली में ही आयोजित था, लेकिन मैं सुबह-शाम आना-जाना कर रही थी। हर दिन चुस्ती से बीता और मैं उदासी को पीछे ढकेलने में कामयाब रही। शायद आज अपने आपको बाँधे रखने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई, तभी तो टैक्सी में आते-आते भी मैं निढाल हो गई। गला सूख रहा था। लगा कि ग्लूकोज़ का स्तर घट गया हो, परंतु उसकी आशंका को मैंने परे धकेल दिया। आज दिन के खाने में एक गुलाब जामुन खा चुकी थी। नाश्ता-खाना भी समय पर हुआ था। तब भी पाँव झनझना रहा था। घर घुसते ही मैंने पानी पिया। लेटने जाने के पहले एसी का स्विच जलाने मैं झुकी और दीवार के उस कोने से प्रिंगल की गंध उठी। यह वही कोना था जहाँ उसकी साँस टूटी थी। बिस्तर तक आते आते मैं भहरा गई। 

रुलाई रोके नहीं रुकी। कितनी चीज़ें चक्कर खा रही थीं दिमाग में। 30 तारीख गुज़री है कल जो पापा के घर से विदा होने की तारीख के रूप में दिमाग पर छप चुकी है। दो दिन बाद उनका जन्मदिन है और मैं पटना जा नहीं रही हूँ। उनकी गैरहाज़िरी में माँ के साथ रहने का मन जो करता था अब उसका कोई मतलब नहीं। माँ पापा के पास है, यह मानना चाहती हूँ, लेकिन कमबख्त अपने दिमाग का क्या करूँ जो कहता है कि इस जीवन के बाद कुछ नहीं है। काश दिमाग को ताखे पर रखना मुमकिन होता ! मन की चलती ! माँ-पापा के साथ प्रिंगल होती! उनका दिल बहलता प्रिंगल से और प्रिंगल को उनसे भरपूर दुलार मिलता! 

बेटी दावे से कहती थी कि नानी तो पक्का प्रिंगल को गोद में ले लेगी और वह दुम हिलाते हुए, नाक से टहोका मारकर उनको अपने को प्यार करने पर मज़बूर कर देगी। वह भौंकेगी या झपटेगी, इसका खतरा नहीं था। उसकी भूँक कभी आक्रामक नहीं थी। पहली बार प्रिंगल चंडीगढ़ गई थी और अम्मी की कुर्सी के नीचे जाकर बैठी थी तो अम्मी ने प्यार से कहा कि इसे बिस्कुट दे दो। जबकि हमें लग रहा था कि पूजा-पाठ करनेवाली अम्मी कहीं प्रिंगल की मौजूदगी या उसके स्पर्श से परहेज़ न करें। ऐसी थी प्रिंगल। आज बाबूजी, पीसा बाबू, नन्ना, जेठू-जेठी, मामू-मामी, दादा-भैया लोग ही नहीं, सारे दोस्त और जाननेवाले प्रिंगल को याद कर रहे हैं।    

नाना-नानी से प्रिंगल मिली नहीं है, मगर वीडियो पर नाना-नानी इस नतनी को देखकर निहाल होते रहे हैं। हर बार प्रिंगल का हाल-चाल ज़रूर पूछते। उनको एक-दूसरे से मिलाने की चाह लिए मैं रह गई और वे सब चले गए। माँ-पापा अंतिम बार जुलाई, 2015 में दिल्ली आए थे। यानी प्रिंगल के घर आने से एक महीना पहले। उस समय पापा बीमार थे और गंगाराम अस्पताल में इलाज चला था। नींद न आने के लिए ढेर सारी दवाएँ खाने के वे आदी हो गए थे और उनसे छुटकारा चाहते थे। वैसे पेट की जलन (एसिडिटी) के अलावा उनको कोई बड़ी समस्या न थी।  लिखाई-पढ़ाई की गति में नींद न आने से जो व्यवधान पड़ता जा रहा था, उसने कई सालों में उनकी चिंता को गहरा कर दिया था। नाजुक वे ठहरे शुरू के, लेकिन धीरे धीरे शरीर से कमज़ोर होते जा रहे थे। बावजूद इसके मन की मज़बूती ने उनको भहराने नहीं दिया था। हम सब पापा पर नाराज़ होते थे कि आप बिना मतलब के परेशान रहते हैं। उनकी बेचैनी समझते हुए भी उसकी तीव्रता का हमें अहसास नहीं था। इतना ज़रूर था कि उसे सीधे सीधे वार्धक्य से उपजी चिंता मानकर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता था। 

माँ पापा की बेचैनी समझती थी। उसकी शारीरिक तकलीफ़ें जो दिनोदिन बढ़ती जा रही थीं उनमें निस्संदेह पापा का क्षीणकाय होते जाना एक कारण था। उसकी असुरक्षा मैं महसूस कर रही थी। उसकी बीमारी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी जिस अनुपात में पापा की दुष्चिन्ता। माँ का पाँव जवाब देने लगा था और उस कमज़ोरी ने समय पर बाथरूम तक पहुँच न पाने की असमर्थता को पेशाब पर नियंत्रण खत्म होने की बीमारी में तब्दील कर दिया था। बेटी के घर में अपनी असमर्थता पर काबू पाने की माँ की जद्दोजहद देखते हुए मैं उसको कहती थी कि तुम खुले विचारों की हो तो कब से और क्यों बेटी के घर को पराया मानने लगी। यह है ढाँचा! कोर्स में पितृसत्ता के ढाँचे और जेंडर-जाति आदि के ढाँचे पर तीन दिन पहले ही बात की थी, लेकिन अपने रोज़मर्रापन में, अपनी भावनाओं में उन सबको ठीक-ठीक पहचानने की ज़हमत हम नहीं उठाते। माँ का भहराता मन भी तो उस ढाँचे से ही जुड़ा था।

एक बार फिर गंगाराम अस्पताल के डॉक्टर से माँ का इलाज चला। बारी-बारी से माँ-पापा को अलग अलग डॉक्टर से दिखलाने के प्रयास ने रंग दिखाया। पापा को फ़ायदा हुआ और माँ को भी। हमें थोड़ी राहत मिली और मेरा पापा से झगड़ा भी थोड़ा कमा। वे दिल्ली में रहकर बेटा-बेटा करते थे तो मैं हत्थे से उखड़ जाती थी। असल में उनको चैन नहीं था और मैं उन्हीं पर झल्ला पड़ती थी। मानना होगा कि मैंने अपनी घबराहट माँ-पापा और भैया - सब पर उड़ेली है।  

यह कोई नया नहीं था। शुरू से ऐसा रहा है। जब मैं माँ-पापा पर चिल्लाती थी तो पापा धीरे से कहते थे कि पूरब थक गई है या परेशान है। शादी के बाद शुरू शुरू की बात है। होली थी। अपनी गृहस्थी का नया उत्साह था। खूब पकवान पकाए, मेहमानों का स्वागत किया। रात तक थककर चूर। अकेले इतना सब करने की आदत नहीं थी। अपूर्व साथ देते थे, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था। उसका जेंडर के नज़रिए से अब विश्लेषण भले कर लूँ, पर उस वक्त कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अकबकाहट क्यों हो रही है। सारा गुबार निकला रानीघाट जाकर। यह भहराना ही था। छोटा-मोटा ही सही। मेरे हिसाब से भहराना एक लंबी प्रक्रिया है। उसमें तनाव और थकान का अनुपात तय नहीं होता। इसका अंत कब कैसे और कहाँ किसके सामने होगा, यह दूसरों को ही नहीं, कई बार खुद को चौंका देता है।

आज सोच रही थी कि पहले के मुकाबले मेरा भहराना अब काफ़ी कम हो गया है। काम को आगे करके मैं अपने को समेटने की कोशिश करती हूँ। पापा जब गए थे तो माँ के हिसाब से सबकुछ व्यवस्थित करना हमारी प्राथमिकता थी। लेकिन मुझे 12 वें दिन ही माँ को छोड़कर दिल्ली आना पड़ा था। इसको लेकर मुझे तनाव हो रहा था, मगर मेरे सामने  विकल्प नहीं था। मैं उस तरह भहराई नहीं। भैया-भाभी और लावण्य माँ के आसपास थे। खुद माँ ने मुझे कहा कि तुम जाओ। पापा होते तो वो भी यही कहते। इसके बावजूद उस वक्त माँ के पास नहीं रह पाने का अपराध बोध आज तक गया नहीं है।

इधर दिल्ली में बड़ी हलचल थी। कोविड के आतंक के साये में लॉकडाउन में फँसे मज़दूरों के लिए सामुदायिक रसोई (कम्युनिटी किचेन) चलाने वाली टीम में हम शामिल थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में दिन के कई कई घंटे गुज़रते। प्याज़ छीलने-काटने, अदरक-लहसुन पीसने-कूटने के अलावा कभी कभार घटी-बढ़ी सब्ज़ी खरीदने वाली टोली में हम होते थे। धीरे धीरे यह मज़दूर ढाबा के रूप में पुकारा जाने लगा। उस टोली में भाँति भाँति के लोग थे। जब अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकी, उर्दू-हिंदी के प्रोफ़ेसर, शोध में लगे विद्यार्थी, कॉलेज में कदम रखने वाले नए विद्यार्थी, आंदोलनों से जुड़े लोग, फ़िल्मकार सब इकट्ठे बड़ी-सी देगची या परात के इर्द-गिर्द बैठकर आलू छीलते दिखते और पूरा राजनीतिक विश्लेषण कर रहे होते तो कितना स्वाभाविक लगता था!  

उस सामुदायिक रसोई में दो-तीन रसोइयों के द्वारा खाना तैयार करने के बाद छोटा सा समूह पैकेट बनाने में लगता था। हमारा ज़्यादा समय उसी में जाता। नाप से सब्ज़ी का पैकेट बनता और गिनकर पूड़ी रखी जाती। पोषण और स्वाद को ध्यान में रखकर मिली-जुली दाल, तहरी, आलू-लौकी पुलाव, अचारी पुलाव वगैरह बदल बदल कर बनता। उनके वितरण की योजना बनती, इलाके बँटते। बंद रास्तों से बचते-बचाते गली-कूचों में छोटी गाड़ियों में साथी निकल जाते अलग अलग इलाकों में मज़दूरों को खाना पहुँचाने। रसोइयों को लाने-पहुँचाने की ड्यूटी भी लगती। युवा साथी नेतृत्व में थे, पर प्रौढ़ साथी पीछे नहीं थे। जून में दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर से सामुदायिक रसोई दूसरी जगह चली गई। लॉकडाउन की मियाद बढ़ती जा रही थी और अलग अलग कोनों से ‘फूड पैकेट’ की माँग आने लगी थी। बहुत सारे साथी इस मुहिम को बहुत आगे तक ले गए। काम के विस्तार के साथ मुझे लगा कि हम सब बिखरने लगे थे। मगर यह मेरी नज़र से! निजी तौर पर बिखरने या भहराने को हम जैसे समझते हैं उससे अलग प्रक्रिया होती है किसी समूह या छोटे-बड़े आंदोलन के fragmentation की।

यहाँ तनिक थमूँ। यह बिखरना एकदम समानार्थी है भहराने का या कुछ बारीकियाँ हैं इसमें? शायद बिखरने के ठीक पहले का चरण है भहराना ? नहीं ! कई बार सबकुछ गुँथा हुआ होता है और एक के ऊपर चढ़ा हुआ। शब्दकोश पलटने के लिए मैं उठी, माँ की तरह। काठ की आलमारी के ऊपरी खाने में बृहत् हिन्दी कोश विराजमान है और खूब इस्तेमाल होने के कारण अब उसकी जिल्द टूट रही है। पटना होता तो जिल्दसाज़ कहीं न कहीं मिल ही जाता। पापा खोज निकालते  या माँ किसी न किसी को पकड़ लेती। हमारे घर में स्कूल की किताब, हमारा उपयोगी रजिस्टर, पत्रिका का अंक, पुरानी किताब, नानाजी का लिखा और अब खो चुका ‘चलित हिन्दी व्याकरण’ अनगिनत मढ़ी हुई किताबें थीं। जब किसी का पुट्ठा निकलने लगता, जिल्द भहराने को होती तो पापा जिल्दसाज़ के पास चल पड़ते। किताबों की देखभाल में माँ की उतनी ही भूमिका थी तो वह पहले ही पापा को चेता देती कि फलाना किताब का फ़र्मा ढीला पड़कर जिल्द से खिसकने वाला है और उसकी जुज़बंदी ज़रूरी है। आह ! कितने दिनों बाद इन शब्दों की गलियों से भी गुज़रना हो रहा है। माँ-पापा के साथ कितना कुछ चला गया!  

बहरहाल, शब्दकोश ने भहराने को अरबी भाषा का बताया और लिखा यकबारगी गिरना, टूट पड़ना। यानी भहराने में एक झटका लगता है, कुछ अप्रत्याशित होता है, अनायास। ऐसा ही तो बिखरने में भी होता है, है न ? सहसा बिखर जाता है कुछ (रिश्ता, विश्वास और न जाने क्या क्या...) मगर बिखरना धीरे-धीरे भी हो सकता है और जानी-बूझी प्रक्रिया भी। उसका अंतिम बिंदु है विघटित हो जाना। शायद भहराने में एक संभावना छुपी है कि उसे वापस खड़ा किया जाए। टूटना शायद भहराने का आंशिक पहलू है। वाकई उलझ गई मैं।

सिर्फ़ मानसिक स्तर की प्रक्रिया नहीं है भहराना। ठोस भौतिक-दैहिक रूप है इसका। इस 19 अगस्त की सुबह सुबह अपूर्व की आँखों के सामने जब बेचैन खड़ी प्रिंगल भहराने लगी थी और कमरे के किनारे शायद दीवार के सहारे उसका शरीर नीचे की तरफ़ झुकने लगा था तब उनको लग गया था कि यह भहराना अब फिर कभी नहीं उठने के लिए है। कारण हम सबको पता था – कैंसर। आज उसी कोने से उठी प्रिंगल की गंध ने मुझे भहरा दिया, लेकिन मैं तो दुबारा उठ गई और लिख रही हूँ। प्रिंगल की गंध में माँ-पापा की गंध घुल-मिल गई है।

भहराने के दूसरे छोर पर है उबरना, समेटना। उसमें जुटे हैं हम सब। बेटी को थोड़ा ज़्यादा वक्त लगेगा। मुझे इसे मनोरोग बनने की हद तक नहीं जाने देना है।

 


मंगलवार, 20 अगस्त 2024

आखिरी साँस (Last breath by Purwa Bharadwaj)

कल यानी 17 अगस्त, 2024 को हम सपरिवार नेहरू पार्क गए थे - हमदोनों, बेटी और प्रिंगल। प्रिंगल को घर आए 9 साल पूरे हुए थे। 17 अगस्त, 2015 को वह हमारे मौरिस नगर के D 12 वाले घर में आई थी। तब तीन महीने की थी। रानी लुधियाना से आई थी। हम कभी कभी उसे प्रिंगल लुधियानवी कहते। ग्राउंड फ़्लोर के पहलेवाले घर से हम दस दिन बाद ही उसी कॉलोनी में तीन मंज़िल वाले घर में आ गए थे। 

यह मैंने 18 अगस्त की देर रात लिखना शुरू किया था। थकान और बगल में खड़ी प्रिंगल की बेचैनी देखकर लिखने का मन नहीं किया। क्या पता था कि पहले ही वाक्य का यह जो 'था' है वह इतना आसन्न है! अगली ही सुबह प्रिंगल वाकई भूतकाल में बदल गई। 

प्रिंगल के मुँह का ट्यूमर खिसक खिसक कर गले तक आ गया था और कैंसर ने उसका फेफड़ा जकड़ लिया था। डॉ. प्रभाकरन पिछले 10 महीनों से हर महीने उसका पूरा scan करवाते थे। 12 जुलाई के एक्सरे में जाकर दिख गया था कि अब फेफड़ा भी जा रहा है। उसके पहले तक उसके vitals कैंसर की ज़द में नहीं आए थे। पिछले नवंबर में अल्ट्रा साउंड में हल्का सा तिल्ली (spleen) में जो असर दिखा था वह अंत तक उतना ही रहा। फैला नहीं। हम प्रिंगल के साथ चल रहे थे क्योंकि वह पूरी ताकत से कैंसर का मुकाबला कर रही थी।

बीच बीच में प्रिंगल बहुत उत्साह में आकर भौंकती थी तो उसके मुँह से खून आने लगता था। इसने हमारी रुटीन को बदला। मेरी अनियमित सैर तो ठप्प ही हो गई क्योंकि प्रिंगल के बिना सैर पर जाना उससे दगा करना होता। अब प्रिंगल की सैर तभी होती जब डॉक्टर के यहाँ हम जाते। वह भी गाड़ी से। खिड़की से झाँक झाँक कर दुनिया को अपनी नज़रों में कैद करती थी। इधर जब प्रिंगल के मुँह से ज़्यादा खून आने लगा तो डॉक्टर डेढ़ या सवा महीने पर बुलाने लगे। उसकी बाहर जाने की तत्परता बरकरार रही, लेकिन क्लिनिक पहुँच कर अड़ने लगी कि अब जाँच के नाम पर मुझे तंग करने के लिए चौखट के अंदर मत ले जाओ।

हमारी बच्ची को बाहर जाना भला क्यों न पसंद हो ! हम पुराने बदनाम हैं कि घर में पैर टिकता नहीं। जब न देखो तब हम निकल पड़ते थे। प्रिंगल कपड़े सूँघती थी कि मम्मा-बाबा के घर के कपड़े हैं या बाहर के। फिर जाकर वह अपना पट्टा (लीश) खोजती कि मुझे तैयार करो और साथ ले चलो। ऐसा कम होता था कि हम इकट्ठे जाएँ। बीच में हमने सपरिवार नेहरू पार्क के दो चक्कर लगाए थे। उसकी खुशी देखते बनती थी, लेकिन बाबा की पूँछ ऐसी कि उसको मूँगफली लाने जाता देखकर हल्ला मचा दिया था। बेटी उसके साथ दौड़ती रही थी और मैडम कनखी से हमदोनों पर नज़र रखे हुए थीं कि नालायक माँ-बाप खिसक न जाएँ। यह family time वाकई नायाब था और इसके लिए बेटी को जितनी शिकायत हमसे है उतनी ही प्रिंगल को भी रही होगी। आज सोच रही थी कि बेटी ने प्रिंगल को लाकर हमें कितना अनमोल मौका दिया। 

बीमारी के बाद एक बार हम चारों सुंदर नर्सरी भी गए थे और उल्टे पाँव वापस आ गए थे। कारण, उस दिन प्रिंगल का उत्साह चरम पर था और अधिक भौंकने के कारण उसका मुँह खून से तरबतर हो गया था। हमें अपराधबोध हुआ कि नाहक उसे लेकर बाहर निकले। वैसे यह समस्या हमारी थी, कुछ ऐसा ही प्रिंगल रानी जतलाती थीं। वह बेपरवाह थी और ऊर्जा से लबरेज़। 

अभी तीन दिन पहले जब हम नेहरू पार्क जाने के लिए तैयार होने लगे तो प्रिंगल चौकन्नी हो गई। अपूर्व जब सीढ़ी के सामने गाड़ी लाने के लिए पहले निकलने लगे (पिछले दिनों प्रिंगल का ट्यूमर उसके खुजला देने के कारण फटकर रिसने लगा था और उसे पट्टा पहनाना मुश्किल हो गया था। ऐसे में अपनी सीढ़ी पर विराजमान प्रिंगल की सजातीय और कॉलोनी के अन्य सजातीयों से उसे बचाने के लिहाज से गाड़ी ठीक सीढ़ी के सामने लाई जाती थी और सीढ़ी उतरकर गाड़ी तक उसे गोद में हम ले जाते थे।) तो दरवाज़े की फाँक में उसने सिर घुसा दिया। धर-पकड़ में हम दो जन लगे तब जाकर उसकी मुंडी भीतर हुई। अगले 5 मिनट में जबतक हम घर की चाभी उठाते, जूता पहनते, तबतक बच्चू खामोश नहीं हुई। फिर मैं दो तल्ले पर गई और बेटी को कहा कि अब प्रिंगल को भेज दो। उसके वेग पर ब्रेक लगाने के लिए मैं बीच सीढ़ी पर थी। उसे थामो नहीं तो हमेशा तीर की तरह छूटती थी। उस रोज़ उस समय कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि यह लड़की इतनी बीमार है, वज़न 5-6 किलो घट गया है और डेढ़ दिन बाद लुप्त हो जाएगी।

इस 17 अगस्त की शाम खुशी खुशी हम नेहरू पार्क के लिए रवाना हुए थे। लगभग 45 मिनट प्रिंगल घूमती रही। एक बार भी थककर बैठी नहीं। दौड़ वाला खेल बेटी ने नहीं खेला ताकि उसको थकान न हो। हम दूरी बनाए रखते हुए घेरा डाले हुए थे ताकि अगल-बगल से कोई बंधु-बांधव न आ जाए। मैडम मिलनसार इतनी थीं और अकड़ फूँ भी इतनी कि बिना हाय-हैलो किए किसी को अपने करीब से गुज़रने नहीं देती थीं। उससे मैंने जाना था कि शांतिप्रिय जीव होने का मतलब बेआवाज़ होना नहीं है। 

वापसी में प्रिंगल ने रास्ते में पानी पिया और केवल दो छोटा गाजर वाला बिस्कुट खाया। हम उसके साथ होने का जश्न मना रहे थे क्योंकि वह जाने की राह पर है, इसका हमें बखूबी अंदाजा था। हमने रास्ते में अपने लिए खाना बँधवाया और गाड़ी में ही बैठकर खाया। प्रिंगल ज़रा भी मचली नहीं। इन दिनों उसकी खाने से रुचि घट गई थी और मात्रा भी। घर आकर उसने marie gold बिस्कुट खाया जो वापस हम देने लगे थे। डॉक्टर ने ग्लूटन और चावल पर जो रोक लगाई थी उसे किनारे कर दिया था। कहा था कि अब जो चाहे वह दीजिए क्योंकि हाथ में अब गिनती के दिन बचे हैं।  

गिनती क्या होती है ? क्या सचमुच इसको हम जानते हैं और किसी प्राणी की ज़िंदगी की गिनती, साँसों की गिनती क्या है ? हमको क्या पता था countdown शुरू हो चुका है। अगली सुबह यानी 18 अगस्त अजीब थी। पूरे घर में सुबह सुबह प्रिंगल की खोजाई शुरू हुई। हमने सारे कोने छान मारे, बिस्तर के नीचे, मेज़ के नीचे, सोफ़े के पीछे, स्टडी में – कहीं नहीं थी। सदर दरवाज़ा बंद था और उसके बाहर बाँस का बना छोटा फाटक भी। फिर गई कहाँ ? पाया कि प्रिंगल जाकर बाथरूम में गीली ज़मीन पर बैठी है। मैंने उसे नहलाया-धुलाया। अंतिम बार। दोपहर में खाना-पीना कम हुआ, मगर हुआ। शाम को कई बार उसने marie gold बिस्कुट खाया। अंडा भी खाया। लेकिन उसकी साँस अधिक तेज़ चल रही थी। वह इधर से उधर छटपट कर रही थी। रात को सोने गई, लेकिन बार-बार खड़ी हो जाए। मैंने 9 का घंटा जाने दिया जो उसके खाने का नियत समय था। साढ़े दस बजे वह रसोई के पास आई, माने कि भूख लगी उसे। हल्दी डालकर मुर्गा उबला हुआ था। उसका लगभग सवा दो टुकड़ा उसने खाया। शुरू में मुँह फेर लिया था, मगर फिर चाव से खा गई। बेटी ने भी खुश होकर देखा कि कैसे वह मेरे हाथ पर लपक रही थी। मैं संतोष से भरी हुई थी। 

रात भारी रही। कभी प्रिंगल बैठने की कोशिश करे, कभी टहले, कभी एक जगह खड़ी रहे। मैंने देखा कि मेरे सिरहाने लैम्प के पास आकर वह लेटी। तार हिला तो लैम्प भकभुक करने लगा। मैंने सोचा कि उसका तार दूसरे सॉकेट में लगा दूँ, पर प्रिंगल को छेड़ने का मन नहीं हुआ। एक्रेलिक फ़ाइबर शीट से ढँके फ़र्श से चार अंगुल ऊपर जो दीवार का उभार है वह प्रिंगल को सिर टिकाने का मौका देता था। कई बार हमने उसके लिए कुशन जैसा रखने की कोशिश की थी, मगर मैडम के लिए अपने बिस्तर का किनारा, कुर्सी के नीचे का डंडा या अपूर्व की चप्पल या पैर अधिक आरामदेह रहता था। कभी सिर टिकाती तो कभी ठुड्डी। अनमनापन और उदासी या नाराज़गी दिखानी हो तो उसकी यह मुद्रा हमारे लिए संकेत थी। वैसे इत्मीनान और आराम फरमाने के लिए भी ऐसे लेटती थी। हमारी देह पर अपना सिर या पैर रखे तो हम निहाल हो जाते थे। कृतज्ञता और नाज़ के भाव से ओत-प्रोत! ज़रा कभी अपूर्व से पूछिए, प्रिंगल के बारे में बात करते समय उनका स्वर कितना स्निग्ध हो जाता है! बेटी से प्रतियोगिता सी भी चलती रहती थी क्योंकि उससे प्रिंगल का जो रिश्ता था हम उसके पासंग नहीं थे।

उस रात तीन बजे भोर में बेटी ने सिरदर्द के लिए क्रॉसिन दवा माँगी। मैं नींद में उठी और यह बताकर ढह गई कि दवा की टोकरी में देख लो। अगले दिन बेटी ने बताया कि प्रिंगल दरवाज़े के पास खड़ी थी तो उसे लगा कि शायद प्रिंगल को पेशाब करने ऊपर जाना है। हमारी छत के सामने वाली खाली पड़ी विशालकाय छत प्रिंगल का शौचालय था जिसकी हम नियमित सफ़ाई कराते हैं। सीढ़ी चढ़ने में कठिनाई देखकर बेटी ने प्रिंगल को गोद में ले जाने की सोची, मगर वह धीरे-धीरे खुद ऊपर गई और फ़ारिग होकर जल्दी से वापस आ गई। फिर हमारे कमरे में आ गई।

अपूर्व के भोर की साथी है प्रिंगल। दोनों बिना दखलंदाजी के एक-दूसरे के साथ घंटों बैठते हैं। पहले प्रिंगल को भोर में रोटी-ब्रेड चलता था और आजकल बिस्कुट। 19 अगस्त को हस्बेमामूल उसने दो बिस्कुट खाया। लेकिन बेचैन रही। इधर से उधर करती रही। मैं देर से सात बजे के करीब उठी तो वही बेचैनी देखी। हालाँकि जब अपूर्व मुझे जगाकर थायरायड की गोली खिलाने आए थे तब वह बिस्तर के नीचे मेरी तरफ़ लेटी हुई थी। नींद पूरी खुली तो बाहर आकर प्रिंगल का हाल-चाल पूछा। सामने पूँछ हिलाती वह मौजूद थी, मगर तनिक  ज़्यादा अस्थिर थी। समझ में नहीं आया। थोड़ी देर में वह फिर बाथरूम में जाकर खड़ी हो गई। मैं गोद में उठाकर लाई। उसको दुलार-मलार किया, मगर गोद में उसे अनकुस लग रहा था। मैंने उतार दिया। गले के घाव की ड्रेसिंग की। वह मेरे पास खिसककर आई। और करीब बुलाया तो भली बच्ची की तरह बात मानकर और करीब आई। ड्रेसिंग के दौरान ठुड्डी उठाई, दवा लगवाई। फिर पास बैठ गई। पिछले कुछ महीनों से शायद grip नहीं बनता था तो पीछे पीछे खिसकने लगती थी। डॉक्टर ने कहा कि डर भी एक वजह हो सकती है। इसका उपाय प्रिंगल ने निकाला था कि तब वह लेट जाती थी। आज उसे उसमें भी आराम नहीं मिल रहा था।

ड्रेसिंग के बाद मैं ड्राइंग रूम में मोढ़े से उठकर सोफ़े की कुर्सी पर आ गई तो प्रिंगल उसके नीचे आ गई। अपनी पसंदीदा जगहों में से एक। लेकिन अब तो बमुश्किल 10-15 मिनट बचे थे उसके पास। वह बेटी के कमरे तक गई। उसका कई चक्कर लगाया। क्या पता था कि उसे दीदी से मिलना था! हमें लगा कि तकलीफ़ तो है ही, सो अपने को व्यस्त रख रही है। अपूर्व 10 मिनट का nap लेने गए तो हमारे सोने वाले कमरे में गई। फिर उन्होंने पुकारा कि देखो प्रिंगल बाहर जाना चाहती है। मैं थोड़ा अलसा गई थी। पिछले हफ़्ते सरोज (मेरी मददगार) के भाई की मृत्यु हुई थी तो उसके बारे में उससे बात करने लगी थी। मैंने अपनी दूसरी मददगार सुनीता को कहा कि ज़रा प्रिंगल को देख लो। अब इसके लिए अपने को कोस रही हूँ कि मैं क्यों नहीं उठी। 

आखिरी बार प्रिंगल कमरे से निकलकर फिर बाथरूम के दरवाज़े पर खड़ी हो गई थी जो मेरी नज़र से ओझल था। मैं ड्राइंग रूम के दूसरी तरफ़ बैठी थी जहाँ से बाथरूम का दरवाज़ा ओट में था। अब अपना सिर धुन रही हूँ कि मैं उस तरफ़ क्यों नहीं बैठी जहाँ से प्रिंगल दिखती। मैंने दरवाज़ा बंद रखने की हिदायत दे रखी थी। सुनीता ने उसे वापस कमरे में भेज दिया। ज़रा भी यह बात दिमाग में नहीं आई कि dogs अक्सर अपनी तकलीफ़ के क्षण में एकांत खोजते हैं। यह पढ़ा था और प्रिंगल की हरकतों से इस प्रवृत्ति का जब तब मिलान भी करती थी। लेकिन यह बाथरूम में बार-बार जाना उसके आखिरी क्षणों की घंटी है, यह खयाल ही नहीं आया।   

इस बीच मैं नामुराद फ़ोन बैंकिंग के एक कॉल में लग गई। 5 मिनट भी न गया होगा कि अपूर्व ने उठकर मुझे आवाज़ दी। मैं फ़ौरन उठी, हालाँकि प्रिंगल को लेकर कोई दुष्चिन्ता नहीं थी। अपूर्व ने कहा कि “she is going”। अवाक् थे सब। आवाज़ के साथ उल्टी साँस चल रही थी। फिर शांत। लपककर अपूर्व ने बेटी को बुलाया। एक मिनट भी नहीं गया होगा। बेटी के आने पर प्रिंगल ने आखिरी दो साँस ली। दीदी को विदा कहे बिना उसकी monkey कैसे जाती ! मेरी दोस्त अंजु ने ठीक कहा कि उसे दीदी के बिना नहीं जाना था। तब भी दौड़कर शहद लेकर आई क्योंकि जून में चंडीगढ़ में निश्चेष्ट हुई थी तो डॉक्टर ने शहद चटाने को कहा था। मामला डिहाइड्रेशन का तो था नहीं। शहद जिस तरह उसके मुँह में डाला वह काफ़ी था यह बताने के लिए वह अब नहीं है। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई हरकत नहीं। 

फिर सिलसिला शुरू हुआ विदाई का। प्रिंगल को उसकी चादर में लपेटकर पिता-पुत्री ड्राइंग रूम में ले आए। सुनीता और सरोज को मैंने कमरा सँभालने और पोंछने को कहा तो उन्होंने पूरा धो ही दिया। इधर घर के लोगों और प्रिंगल के प्रिय जनों को हमने सूचित करना शुरू किया। उसको प्यार करनेवाले बहुत लोग थे। हमारा फ़र्ज़ था कि उनको प्रिंगल के जाने के बारे में बता दें। जैसा कि पहले सोचा था, इलेक्ट्रिक क्रेमोटोरियम तय करके हम छतरपुर के Paws to heaven गए। बेटी ने ही गाड़ी चलाई। उसका दोस्त फ़ौरन आ गया था। हमारी गाड़ी के साथ साथ टैक्सी से वह प्रिंगल के साथ चला। छतरपुर भाभी और माणिक भी पहुँचे। पूरे परिवार के सामने प्रिंगल को कर्मचारियों को सौंप दिया गया। गंगाजल और अगरबत्ती के बाद स्टील के दाह बॉक्स में। हम खाली हाथ लौट आए। खाली घर में। खाली मन लेकर।     

यह सब घटा कल। आज सुबह मैंने प्रिंगल का बिस्तर वगैरह छत पर रखवाया। जान रही थी कि वह खाली जगह और सवाल करेगी हमसे, मगर यह करना ही था। लेकिन कहाँ कहाँ से और क्या क्या हटाऊँ ? कहीं कान बाँधने की चोटी पड़ी है, कहीं खिलौना लुढ़का पड़ा है। कल सुबह का तौलिया बालकनी में बारिश से गीला हो गया है। पीने के बर्तन में लबालब पानी भरा है ताकि उसे सहूलियत हो। गहरे बर्तन में मुँह नहीं डाल पाती थी अब क्योंकि ट्यूमर आड़े आता था। खाने के बर्तन पर भी एक स्टील की तश्तरी रख दी थी मैंने। कई बार पानी और खाने को बदलना पड़ता था क्योंकि खून मुँह और गले से टपक पड़ता था।  बहुत बार हाथ से खिलाती थी, हथेली में रखकर।   

बेटी ने प्रिंगल का सारा सरअंजाम किया था – खाने का बर्तन, स्टैंड, डिजाइनदार स्वेटर, शैम्पू, सुंदर लीश, हेयर ब्रश, नेलकटर, आरामदेह बिस्तर, खिलौने, गाड़ी की सीट के लिए शीट और न जाने क्या क्या। हमने तो उसके बताने पर ही ब्रांड जाना या pet के रहन-सहन के बारे में जानकारी ली। Cocker Spaniel नस्ल की खासियतों, उनकी बारीकियों, उसमें भी English Cocker Spaniel के मन-मिजाज़ के बारे में जाना। कैंसर के निदान के लिए जब डॉक्टर ने प्रिंगल का ग्लूटन बंद किया तो जो स्नैक्स आता था उसकी कीमत देखकर मैं कुनमुनाऊँ तो बेटी इसपर चकित हो जाती थी कि मैं कैसी माँ हूँ। बच्चे के खर्च पर मेरा ध्यान देना या उसका ज़िक्र कर देना बेटी के गले नहीं उतरता था। और कहना न होगा कि मैं भी शर्मिंदा हो जाती थी।  

प्रिंगल को कष्ट से मुक्ति मिली, यही सोच रही हूँ। जैसे माँ को जाना ही था, पापा को जाना ही था, वैसे ही प्रिंगल को रोकना उसके लिए और कष्टदायक होता। बच्ची हिम्मतवर थी, खुशमिजाज़ थी और चलते-फिरते गई। ट्यूमर के बढ़ते आकार ने उसे पस्त किया था, मगर उसकी जिजीविषा को पछाड़ा नहीं था। खूँ आलूदा वह हुई, मगर गंदगी में लिथड़ी नहीं। एक वक्त आया था जब डॉक्टर और प्रियजन हमें कह रहे थे कि कष्ट से मुक्ति का उपाय है सूई लगवा देना। हम लाचार होकर एक क्षण के लिए तैयार हो गए थे। 16 जुलाई को जब उसके ट्यूमर से तेज़ी से खून रिसने लगा था तो उस रात ढले डॉक्टर की सलाह पर 18 जुलाई को तिथि निश्चित हुई थी। मैंने डॉक्टर के कहे मुताबिक घर के लोगों को msg कर दिया था कि 18 की सुबह शायद vet के पास जाएँगे। दिक्कत यह भी थी कि अगली सुबह 17 जुलाई को मुझे देहरादून जाना था। महीनों पहले से यह कार्यक्रम तय था। कई दिनों का काम था, लेकिन मैं भोर में निकलकर देहरादून में दिन भर ट्रेनिंग करके उसी रात दिल्ली लौट आई। दरवाज़े पर मेरे स्वागत में प्रिंगल आई, लेकिन सिर झुकाए हुए। उसकी चहक गायब थी, लेकिन हम सब खुश थे एक-दूसरे का साथ पाकर।  

17 जुलाई की वह रात आँखों में कटी। अगली सुबह फिर बेटी ने एक दिन की मोहलत माँगी। अपूर्व ने कहा कि वह फिर से थोड़ा खा-पी रही है, उसकी हरकतें बढ़ी हैं तो हम यह निर्णय नहीं ले सकते। मेरा दिल तो यों भी धुकधुक कर रहा था। मेरा भैया, भाभी, भतीजा सब इसके खिलाफ़ थे। माँ-पापा रहते तो यह खयाल भी मन में लाने के लिए मुझे फटकारते। नैतिक दुविधा थी, मगर उससे उबारा प्रिंगल ने ही। उसकी जिजीविषा के आगे हम कौन होते थे फ़ैसला लेनेवाले।

अगला एक महीना डर में कटा। मैं चंडीगढ़ गई, गुजरात गई, उत्तराखंड गई। उन कामों को टालना मुमकिन नहीं था। फ्रीलांस काम का अपना व्याकरण है। डरते-डरते अपूर्व एक दिन के लिए कलकत्ता गए। प्रिंगल और बेटी - दोनों बच्चे अकेले थे और चिंतित भी। राम-राम करके हमारी यात्राएँ सकुशल संपन्न हो गईं। प्रिंगल के आसपास ही हम थे। और आखिर अंतिम घड़ी आ गई। 19 अगस्त की रात अभी तक नानाजी के जाने की तारीख थी। अब वह सुबह प्रिंगल से जुड़ गई।     

समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें। रुटीन प्रिंगल के इर्द गिर्द थी। धीरे धीरे उसकी अनुपस्थिति के भी हम अभ्यस्त हो जाएँगे, लेकिन जो खालीपन है वह ताउम्र रहेगा। मित्र तरुण गुहा नियोगी ने सही कहा कि एक रिक्तता दूसरी रिक्तताओं को भी जगा देती है। हमें बेटी की चिंता सता रही है। बाबूजी और झुमकी दी बार बार बेटी का हाल पूछ रहे हैं। उसकी तो हर वक्त की साथी थी प्रिंगल। उसने खूब तस्वीरें सहेजी हैं। प्रिंगल की तस्वीर और वीडियो देखकर हम सब पुराने दिन की खुशी को याद कर रहे हैं। लेकिन खुशी की याद तो खुशी नहीं है न !

सच पूछो तो अब मैं सारे बंदोबस्त को नए सिरे से करने से रही। मुझे प्रिंगल की चुनींदा चीज़ें सजाकर या मढ़वाकर भी नहीं रखनी हैं। बस प्रिंगल का जहाँ जो है रहेगा। उसका खाने का बर्तन एकदम सामने है। दवाई और बैंडेज की टोकरी बगल में। वाशिंग मशीन के ऊपर टिशू पेपर का बड़ा गोला और ताख पर दर्दनिवारक cbd oil की नन्हीं शीशी है। मोडम जहाँ रखा है उसकी बगल में ओकोक्सीन (रक्त प्रवाह रोकने के लिए) और सरबोलिन (भूख जगाने के लिए) की बोतल रखी है। सुनीता ने उनपर धूल पड़ने नहीं दी है। तब भी मन लरज़ रहा है यह सोचकर कि शायद ऐसा समय आएगा कि घर के ताखो, दराजों, कोनों से धीरे धीरे उसका सामान हट जाए या धूल खाने लगे। इतना तय है कि उसकी स्मृति हमेशा ताज़ा रहेगी। 

सिर्फ़ हम नहीं, हर वह व्यक्ति जिससे प्रिंगल की मुलाकात हुई वह ग़मज़दा है। अभी अविनाश ने बताया कि एक बार उसकी बहन और भांजी भी प्रिंगल से मिले हैं और उनको उसका मिलनसार स्वभाव आजतक याद है। भैया को 2016 मार्च में घर आने पर अपने स्वागत में प्रिंगल का घूमर नृत्य याद है। फिरकी की तरह नाचने लगी थी वह। तब बच्ची भी थी। मगर उम्र ने उसकी खुशमिजाज़ी को कम नहीं किया था। भारतेन्दु बाबू, गोल्डी सब उसकी ज़िंदादिली को याद कर रहे हैं। शोक संवादनाओं का ताँता लगा हुआ है। अंजु से रोज़ बात हो रही है। अलका, पूर्णिमा, स्वाती, लीना, दिप्ता, वीनू जी, जया, सिम्मी, डेज़ी सबको मैं प्रिंगल के आखिरी पल का ब्योरा दे रही हूँ। क्यों ? मालूम नहीं। क्यों लिख रही हूँ ? मालूम नहीं।  

 


चार साल पहले प्रिंगल पर जो लिखा था उसे दुबारा पढ़ते समय लगा कि वर्तमान से अतीत की दूरी कितनी मारक है  https://www.satyahindi.com/opinion/relations-love-lifestyle-amid-coronavirus-lockdown-quarantine-109684.html


गुरुवार, 15 अगस्त 2024

पुकार (Pukaar by Purwa Bharadwaj)

अपने लिए पुरवैय्या और कभी कभी छौंड़ी सुनना कितना सहज था। पापा ऐसे नहीं बोलते थे, यह माँ ही बोलती थी। पापा का प्रिय संबोधन था पूरब। उसका भी वे एक किस्सा सुनाते थे। मेरे घर में एक जो काम करनेवाली थीं (शायद लगनी ही नाम था। 'शायद' इसलिए कि मुझे ठीक से याद नहीं और माँ है नहीं जो उससे तस्दीक करूँ।) वे मुझे 'पुरुब' बुलाती थीं और मुझे उस पर थोड़ी बालसुलभ आपत्ति थी  - पापा यह सुनाकर खि खि करके हँसते थे। साथ में ताली बजाते हुए और उनकी उँगली में चमकती मून स्टोन की अँगूठी झिलमिलाती थी ऐसे मानो वह भी मुस्कुरा रही है! पापा की वैसी हँसी का हमलोग – माँ और हम दोनों भाई-बहन बाद में खूब आनंद लेते थे। कहाँ लुप्त हो गया सब !

पुकार का नाम यानी डाक नाम (बांग्ला भाषा में और अभी अभी मित्र सुतनु पाणिग्रही ने बताया कि उड़िया भाषा में भी डाक नाम ही कहते हैं) बच्चों के लिए तरह तरह का रखा जाता है। आत्मीयता से भरपूर और अक्सर स्वर वर्णों की मदद से खूब गोल-गोल, दीर्घाकार! कभी कभी किसी शब्द के एक हिस्से को लेकर जोड़-तोड़ करके डाक नाम होता है या ध्वनि साम्य के आधार पर कुछ गढ़ लिया जाता है। घर-परिवार में स्थिति और संस्कृति की झलक तो उससे मिलती ही है। कभी कभी सिर्फ़ दुलार-मलार या विवक्षा यानी कहनेवाले की इच्छा होती है डाक नाम के केंद्र में। स्वाती ‘सुरबत्तो’ हो गई, लीना ‘लीनचू’ हो गई, सुमंद्र मलखान सिंह और उसका भाई रसखान सिंह हो गया – कब कैसे क्यों, पता नहीं। हाँ, एक से अधिक डाक नाम होना प्यार और स्नेह का प्रमाण माना जाता है। सुतनु का ही देखिए – बापी, बापलू, कुनी यानी छोटा भाई। पसंदीदा ध्वनि का दोहराव और ऊटपटाँग होना भी एक तरीका था डाक नाम रखने का। भाषा वैज्ञानिक नियमों के मुताबिक उनका विश्लेषण किया जा सकता है और जेंडर व भाषा के intersection का भी। भाषा के खेल और मस्ती, तुकबंदी और हँसी-मज़ाक का पुट तो उसमें ज़ाहिरा तौर पर होता है। बहुत बार डाक नाम ऐसा ऐसा होता है कि बच्चे शर्माने लगते हैं और दूसरों से छुपाने लगते हैं। खासकर वयस्क होने पर डाक नाम से पीछा छुड़ाने की कोशिश भी होती है। मैंने एक लेख में यह चित्र देखा था –



स्रोत : इंटरनेट https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/voices/whats-in-a-name-forget-shakespeare-just-ask-a-bengali/

बांग्ला भाषा में डाक नाम का उलट होता है भालो नाम। हिन्दी में भी पुकार के नाम के साथ अच्छा नाम पूछा जाता है यानी वह नाम जो आधिकारिक दस्तावेजों (आज के समय में आधार कार्ड मान लीजिए 😊) में है। या असली नाम पूछा जाता है (वैसे में भी डाक नाम असली का विपरीत यानी नकली नाम नहीं होता)। भालो नाम औपचारिक पहचान है। उसके सामने डाक नाम व्यक्ति की अनौपचारिक पहचान है। इसके लिए अंग्रेज़ी में है ‘निकनेम’। ब्रिटेनिका के मुताबिक अंग्रेज़ी भाषा की विकास यात्रा के मध्य में यानी Middle English में ‘eke name’ का शाब्दिक अर्थ था ‘also-name’ और शारीरिक बनावट, रंग-रूप आदि पर ‘निकनेम’ रखे जाते थे। यह अतिरिक्त नाम है या इसे वैकल्पिक नाम कहें। इंसान के अलावा हम जगह, इमारत, टीम, निर्जीव वस्तु आदि के लिए भी पुकार का नाम, डाक नाम रख देते हैं और बहुत बार वह नाम औपचारिक ‘भालो नाम’ से अधिक लोकप्रिय हो जाता है।

मुझे याद है कि बहुत छुटपन में पापा कभी कभी मुझे 'भुटुक' कहते थे या 'भुटकुंइयाँ'। शायद छोटी होने के कारण। जहाँ तक ध्यान है 'भुटकुंइयाँ' एक जंगली फूल हुआ करता था। छोटा, कई दलों वाला, कई रंगों वाला और गंधहीन। उसके पत्ते रुखड़े-से होते थे, काँटेदार नहीं। पटना में रानीघाट मोहल्ले में हमारा घर हुआ करता था। रानीघाट में गंगा किनारे या लॉ कॉलेज और पी. जी. के हॉस्टल के पीछे जाकर गंगा के पास जो चारदीवारी थी उसके पास भुटकुंइयाँ का पौधा दिखा करता था। बाद में भी बहुत जगह दिखा। 

अभी अभी अंजु ने भुला दिए गए भुटकुंइयाँ के फल का ब्योरा दिया – बंबई से। उसका फल भी होता है – गोलमिर्च (कालीमिर्च) की तरह गोल गोल, छोटा छोटा। बस उसमें गोलमिर्च की तरह दरार नहीं होती, बल्कि अंजु के शब्दों में वह मकोय (रसबेरी) की तरह चिकना होता है। शुरू में  भुटकुंइयाँ के फल हरे होते थे और बाद में पककर बैंगनी हो जाते थे। अंजु 5-6 साल की उम्र से उसकी स्पेशलिस्ट थी और खाया करती थी। जब घर में उसकी किसी ने शिकायत की तब पिताजी ने उसके ज़हरीले होने की बात बताकर तंबीह की। आखिरकार अंजु लाल ने उसे खाना छोड़ा, इसलिए नहीं कि भुटकुंइयाँ के ज़हरीला होने के कारण वह डर गई थी, बल्कि उसके पापा को लाड़ली के लिए डर लगा था, इसका खयाल करके। डाक नाम की चर्चा उसे वापस रानीघाट की छूट गई गलियों में, अंकल की स्मृतियों में ले गई। उसके साथ मेरा भी गला रुँध गया।

वैसे मुझे बड़ी होने के बाद भुटुक, भुटकुंइयाँ नाम प्यारा ही लगने लगा था, मगर पहले तो लाज आती थी। वैसे पापा मुझे भुटुक पुकारते नहीं थे, बस कभी कभी नाम लेते थे। भैया को याद हो तो बता सकता है, वरना अब सब किस्सा बन गया है।  

माँ जब मस्ती में होती थी तब मुझे पुरवैय्या बोलती थीपुकारती भी थी कभी कभी।पुरवैय्या का मतलब पूर्व दिशा से चलनेवाली हवा। पुरवैय्या हवा कितनी कष्टदायक है और कैसे पुराने दर्द को हरा कर देती है, जाड़े में हाड़ तोड़ देती है - इस मान्यता पर मैं हँसती थी कि मैं भी वही हूँ। पुरवैय्या से दो हाथ दूर रहना ही शायद फ़ायदेमंद है :)। इस प्रसंग में अपने प्राइमरी स्कूल - रानीघाट के मोड़ पर स्थित बुनियादी अभ्यासशाला के साथियों का  "पूर्वा सुहानी आई रे" कहकर चिढ़ाना कौंध गया। 'पूरब और पश्चिम' (हालाँकि इसके पोस्टर पर अंग्रेज़ी में 'पूरब और पच्छिम' लिखा है) फ़िल्म 1970 में आई थी और एक-दो साल बाद भी मेरे प्राइमरी स्कूल के सालों में यह सुपरहिट गाना सबकी ज़बान पर था। यदा कदा लड़के ही नहीं, लड़कियाँ भी इसे मेरा नाम सुनते ही दुहरा देते थे। वहीं 1967 की फ़िल्म 'मिलन' के मशहूर गाने का यह अंतरा सुनते हुए मैं इठलाती थी - 

रामा गजब ढाए, ये पुरवइया

नइया सम्भालो, कित खोए हो खिवइया

पुरवइया के आगे, चले ना कोई ज़ोर
जियरा रे झूमे ऐसे ...

सावन का महीना पवन करे सोर

उच्चारण भेद से पुरवैय्या लिखिए या पुरवइया, फ़र्क नहीं पड़ता। अन्यथा माँ पूरब ही कहती थी। बाद में करीबी दोस्त भी यही कहने लगे। पटना में लगभग सब यही पुकारते हैं। उनमें से किसी के मुँह से पूर्वा सुनना अटपटा और अजनबी लगता है। बहुत बाद में दिल्ली में भी कुछ दोस्त पूरब कहने लगे और उसमें मुझे संकोच महसूस हुआ। अजीब सा अहसास है यह ! डाक नाम से पुकारने का अधिकार भी हम अपने हाथ में रखना चाहते हैं। 

माँ मुझसे कभी कभार चिढ़े तो उसका 'लड़की' कहना याद है। आम तौर पर वो मुझसे दुखी भले हो जाए, तंग हो जाए, मगर नाराज़ कम होती थी। यह कब हुआ ? किशोरावस्था में मैं माँ के गुस्से और अनुशासनपसंदगी से त्रस्त रहती थी। मेरी कुछ पुरानी चिट्ठियों में यह भाव मिल जाएगा। बचपन में माँ से डरना तो भूलता नहीं है क्योंकि माँ ही थी जो सब पर शासन करती थी। वह भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी और  इसके नाते मौसी-मामू भी अपनी 'बड़की दी' के शासन करने के गवाह रहे। मेरी शादी के बाद हमारा रिश्ता एकदम बदल गया, ऐसा मुझे लगता है। मुझे समझ आ गया था कि माँ और मायका क्या होता है। उस भौतिक अलगाव ने मुझे माँ के करीब ला दिया था। आगे चलकर लड़की की ज़िंदगी पर निगाह जाने लगी, पढ़ाई-लिखाई और दीन-दुनिया के अनुभव ने gendered life की परतों से परिचित कराया। जब बाकायदा जेंडर पर काम करने लगी तब अनुभव को जेंडर लेंस से देखने की सलाहियत आने लगी। 

हमदोनों खूब बात करने लगे थे। उपन्यास की नायिकाओं से लेकर आस-पड़ोस के लोगों के बारे में माँ से गप्प होता था। बाद में टीवी के धारावाहिकों के पात्रों पर भी। उसमें जब उसकी याददाश्त धोखा देने लगी थी और वो धारावाहिकों में काम करनेवाले पुराने ज़माने के अभिनेता-अभिनेत्रियों के नाम भूलने लगी थी तब फ़ोन करके उनको पहचानने में मदद करने को कहती थी। मैं जानती होती थी तब तो फ़ौरन बता देती थी, अन्यथा गूगल करके बताती थी। ऐसे सवाल  वह कई लोगों से करती थी और धीरे-धीरे लोग झल्लाने लगे थे। मैंने उसको कह दिया था कि तुमको जो पूछना हो मुझसे पूछ लो - रात-बिरात कभी भी। 

लेकिन कभी कभी ऐसा होता था कि मैं किसी काम में डूबी हूँ और माँ किसी फ़िल्म में, किसी गाने में या किसी धारावाहिक में पात्रों के नाम पर अटकी है और तब मैं चिल्ला पड़ी उस पर कि माँ, नाम बाद में बताऊँगी। इतना ही नहीं, जब मेरा टीवी देखना छूट गया और फ़िल्म देखना भी कम होता गया तब मैं अभिनेता-अभिनेत्रियों को नहीं पहचान पाती थी। माँ की सुई पुराने ज़माने पर नहीं अटकी हुई थी। उसको नए से नए अभिनेता-अभिनेत्रियों के बारे में भी  जानना होता था। 'जोधा अकबर' में जोधा कौन है, और अकबर जो रजत टोकस है वह किस राज्य का होगा ? ऐसे सवालों के जवाब में बेटू के स्कूल जाने के रास्ते में दिखनेवाले दक्षिणी दिल्ली के टोकस मार्ग के हवाले से मेरा माँ को टोकस उपनाम के बारे में बताना - यह सब क्या था ? कभी कभी एक नगण्य से लगनेवाले पात्र को पहचानने के क्रम में माँ धारावाहिक या फ़िल्म की कहानी सुना जाती थी ताकि मैं उसका नाम पता कर सकूँ। 

माँ खूब पढ़ती थी और उसके बिस्तर पर या सामने के स्टूल पर (मेरे चिल्लाने पर) किताबों का थाक रहने लगा था। पापा जब तक थे बिस्तर पर दवाएँ (अधिकतर होमियोपैथी दवाएँ और थायरायड, ब्लड प्रेशर सहित विटामिन की गोलियाँ भी) रहती थीं, सिंदूर का डिब्बा (बाल में लगानेवाले रंगबिरंगे बैंड, साड़ी पिन, कंघी सहित), पापा को देने के लिए बिस्कुट और छोटी-बड़ी एक-दो डिक्शनरी भी। 

अंजु बरसों बाद जब दो-तीन साल पहले माँ से मिलने गई थी तो स्टूल पर रखी किताबों और माँ के हाथ में ‘रेत समाधि’ ने उसे अपनी किशोरावस्था की याद दिला दी थी। जब हम हाई स्कूल में थे और पड़ोस में रहते थे तो हमारा एक-दूसरे के घर खूब आना-जाना होता था। उस वक्त माँ की जो छवि उसके मन पर अंकित हुई थी, वह बरकरार रही। दशकों बाद उम्र और असमर्थता की चोट ने माँ का किताबों के प्रति चाव खत्म नहीं किया था, बल्कि ज्यों का त्यों बनाए रखा था। उसने अभी बताया कि लिखना-पढ़ना आंटी (माँ) का व्यक्तित्व था या यह कहना बेहतर होगा कि वह उनके जीने का संबल था। वह उनका विश्वास था, जैसे किसी का भगवान पर होता है, वैसे ही उनका पढ़ने-लिखने पर विश्वास था। वही उनकी सच्चाई थी, चट्टान की तरह ठोस और अडिग।

माँ के बिस्तर पर खाने-पीने के सामान देखकर या उसी कमरे में सबकुछ रखा देखकर मैं कितना नाराज़ होती थी, यह माँ-पापा को पता है या मुझे। गुड़िया, मीरा, गौरी और सोनू भी जानते थे जो माँ की तीमारदारी में रहते थे। चलने में असमर्थ होते जाने के कारण उपजी माँ की असुरक्षा की भावना से अनजान नहीं थी मैं, मगर उसको इतना लाचार देखना और कमरे को अस्त व्यस्त देखना माँ की गरिमा के अनुरूप नहीं था। जब माँ के कमरे से मैंने पापा का दीवान हटवाकर बगल के कमरे में रखवाने पर ज़ोर दिया था तब जानती हूँ कि वह कितना घुट रही थी। मैंने ब्रह्मास्त्र चलाया था कि तुम्हारे पास भैया, सुनीता, लावण्य आते हैं तो बैठने की जगह नहीं होती। उसका व्हील चेयर भी दीवान की वजह से आ-जा नहीं सकता था। माँ बेबस थी और मान गई। मैंने जानते-समझते ज़्यादती की, लेकिन मुझे लगा कि थोड़ी तो व्यवस्था बदले। माँ ने पापा के बाद अस्पताल जाने के सिवा कभी उस कमरे को नहीं छोड़ा। उसने ठान लिया था कि कहीं नहीं जाना है। उसको मन बदलने के लिए दिल्ली चलने को कहना भी मैंने छोड़ दिया था। अंतिम दिनों में माँ के साथ मैंने भी हार मान ली थी। 

आज माँ को गए पाँच महीने हो गए हैं और मन अटका है उसकी पुकार पर।