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गुरुवार, 15 अगस्त 2024

पुकार (Pukaar by Purwa Bharadwaj)

अपने लिए पुरवैय्या और कभी कभी छौंड़ी सुनना कितना सहज था। पापा ऐसे नहीं बोलते थे, यह माँ ही बोलती थी। पापा का प्रिय संबोधन था पूरब। उसका भी वे एक किस्सा सुनाते थे। मेरे घर में एक जो काम करनेवाली थीं (शायद लगनी ही नाम था। 'शायद' इसलिए कि मुझे ठीक से याद नहीं और माँ है नहीं जो उससे तस्दीक करूँ।) वे मुझे 'पुरुब' बुलाती थीं और मुझे उस पर थोड़ी बालसुलभ आपत्ति थी  - पापा यह सुनाकर खि खि करके हँसते थे। साथ में ताली बजाते हुए और उनकी उँगली में चमकती मून स्टोन की अँगूठी झिलमिलाती थी ऐसे मानो वह भी मुस्कुरा रही है! पापा की वैसी हँसी का हमलोग – माँ और हम दोनों भाई-बहन बाद में खूब आनंद लेते थे। कहाँ लुप्त हो गया सब !

पुकार का नाम यानी डाक नाम (बांग्ला भाषा में और अभी अभी मित्र सुतनु पाणिग्रही ने बताया कि उड़िया भाषा में भी डाक नाम ही कहते हैं) बच्चों के लिए तरह तरह का रखा जाता है। आत्मीयता से भरपूर और अक्सर स्वर वर्णों की मदद से खूब गोल-गोल, दीर्घाकार! कभी कभी किसी शब्द के एक हिस्से को लेकर जोड़-तोड़ करके डाक नाम होता है या ध्वनि साम्य के आधार पर कुछ गढ़ लिया जाता है। घर-परिवार में स्थिति और संस्कृति की झलक तो उससे मिलती ही है। कभी कभी सिर्फ़ दुलार-मलार या विवक्षा यानी कहनेवाले की इच्छा होती है डाक नाम के केंद्र में। स्वाती ‘सुरबत्तो’ हो गई, लीना ‘लीनचू’ हो गई, सुमंद्र मलखान सिंह और उसका भाई रसखान सिंह हो गया – कब कैसे क्यों, पता नहीं। हाँ, एक से अधिक डाक नाम होना प्यार और स्नेह का प्रमाण माना जाता है। सुतनु का ही देखिए – बापी, बापलू, कुनी यानी छोटा भाई। पसंदीदा ध्वनि का दोहराव और ऊटपटाँग होना भी एक तरीका था डाक नाम रखने का। भाषा वैज्ञानिक नियमों के मुताबिक उनका विश्लेषण किया जा सकता है और जेंडर व भाषा के intersection का भी। भाषा के खेल और मस्ती, तुकबंदी और हँसी-मज़ाक का पुट तो उसमें ज़ाहिरा तौर पर होता है। बहुत बार डाक नाम ऐसा ऐसा होता है कि बच्चे शर्माने लगते हैं और दूसरों से छुपाने लगते हैं। खासकर वयस्क होने पर डाक नाम से पीछा छुड़ाने की कोशिश भी होती है। मैंने एक लेख में यह चित्र देखा था –



स्रोत : इंटरनेट https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/voices/whats-in-a-name-forget-shakespeare-just-ask-a-bengali/

बांग्ला भाषा में डाक नाम का उलट होता है भालो नाम। हिन्दी में भी पुकार के नाम के साथ अच्छा नाम पूछा जाता है यानी वह नाम जो आधिकारिक दस्तावेजों (आज के समय में आधार कार्ड मान लीजिए 😊) में है। या असली नाम पूछा जाता है (वैसे में भी डाक नाम असली का विपरीत यानी नकली नाम नहीं होता)। भालो नाम औपचारिक पहचान है। उसके सामने डाक नाम व्यक्ति की अनौपचारिक पहचान है। इसके लिए अंग्रेज़ी में है ‘निकनेम’। ब्रिटेनिका के मुताबिक अंग्रेज़ी भाषा की विकास यात्रा के मध्य में यानी Middle English में ‘eke name’ का शाब्दिक अर्थ था ‘also-name’ और शारीरिक बनावट, रंग-रूप आदि पर ‘निकनेम’ रखे जाते थे। यह अतिरिक्त नाम है या इसे वैकल्पिक नाम कहें। इंसान के अलावा हम जगह, इमारत, टीम, निर्जीव वस्तु आदि के लिए भी पुकार का नाम, डाक नाम रख देते हैं और बहुत बार वह नाम औपचारिक ‘भालो नाम’ से अधिक लोकप्रिय हो जाता है।

मुझे याद है कि बहुत छुटपन में पापा कभी कभी मुझे 'भुटुक' कहते थे या 'भुटकुंइयाँ'। शायद छोटी होने के कारण। जहाँ तक ध्यान है 'भुटकुंइयाँ' एक जंगली फूल हुआ करता था। छोटा, कई दलों वाला, कई रंगों वाला और गंधहीन। उसके पत्ते रुखड़े-से होते थे, काँटेदार नहीं। पटना में रानीघाट मोहल्ले में हमारा घर हुआ करता था। रानीघाट में गंगा किनारे या लॉ कॉलेज और पी. जी. के हॉस्टल के पीछे जाकर गंगा के पास जो चारदीवारी थी उसके पास भुटकुंइयाँ का पौधा दिखा करता था। बाद में भी बहुत जगह दिखा। 

अभी अभी अंजु ने भुला दिए गए भुटकुंइयाँ के फल का ब्योरा दिया – बंबई से। उसका फल भी होता है – गोलमिर्च (कालीमिर्च) की तरह गोल गोल, छोटा छोटा। बस उसमें गोलमिर्च की तरह दरार नहीं होती, बल्कि अंजु के शब्दों में वह मकोय (रसबेरी) की तरह चिकना होता है। शुरू में  भुटकुंइयाँ के फल हरे होते थे और बाद में पककर बैंगनी हो जाते थे। अंजु 5-6 साल की उम्र से उसकी स्पेशलिस्ट थी और खाया करती थी। जब घर में उसकी किसी ने शिकायत की तब पिताजी ने उसके ज़हरीले होने की बात बताकर तंबीह की। आखिरकार अंजु लाल ने उसे खाना छोड़ा, इसलिए नहीं कि भुटकुंइयाँ के ज़हरीला होने के कारण वह डर गई थी, बल्कि उसके पापा को लाड़ली के लिए डर लगा था, इसका खयाल करके। डाक नाम की चर्चा उसे वापस रानीघाट की छूट गई गलियों में, अंकल की स्मृतियों में ले गई। उसके साथ मेरा भी गला रुँध गया।

वैसे मुझे बड़ी होने के बाद भुटुक, भुटकुंइयाँ नाम प्यारा ही लगने लगा था, मगर पहले तो लाज आती थी। वैसे पापा मुझे भुटुक पुकारते नहीं थे, बस कभी कभी नाम लेते थे। भैया को याद हो तो बता सकता है, वरना अब सब किस्सा बन गया है।  

माँ जब मस्ती में होती थी तब मुझे पुरवैय्या बोलती थीपुकारती भी थी कभी कभी।पुरवैय्या का मतलब पूर्व दिशा से चलनेवाली हवा। पुरवैय्या हवा कितनी कष्टदायक है और कैसे पुराने दर्द को हरा कर देती है, जाड़े में हाड़ तोड़ देती है - इस मान्यता पर मैं हँसती थी कि मैं भी वही हूँ। पुरवैय्या से दो हाथ दूर रहना ही शायद फ़ायदेमंद है :)। इस प्रसंग में अपने प्राइमरी स्कूल - रानीघाट के मोड़ पर स्थित बुनियादी अभ्यासशाला के साथियों का  "पूर्वा सुहानी आई रे" कहकर चिढ़ाना कौंध गया। 'पूरब और पश्चिम' (हालाँकि इसके पोस्टर पर अंग्रेज़ी में 'पूरब और पच्छिम' लिखा है) फ़िल्म 1970 में आई थी और एक-दो साल बाद भी मेरे प्राइमरी स्कूल के सालों में यह सुपरहिट गाना सबकी ज़बान पर था। यदा कदा लड़के ही नहीं, लड़कियाँ भी इसे मेरा नाम सुनते ही दुहरा देते थे। वहीं 1967 की फ़िल्म 'मिलन' के मशहूर गाने का यह अंतरा सुनते हुए मैं इठलाती थी - 

रामा गजब ढाए, ये पुरवइया

नइया सम्भालो, कित खोए हो खिवइया

पुरवइया के आगे, चले ना कोई ज़ोर
जियरा रे झूमे ऐसे ...

सावन का महीना पवन करे सोर

उच्चारण भेद से पुरवैय्या लिखिए या पुरवइया, फ़र्क नहीं पड़ता। अन्यथा माँ पूरब ही कहती थी। बाद में करीबी दोस्त भी यही कहने लगे। पटना में लगभग सब यही पुकारते हैं। उनमें से किसी के मुँह से पूर्वा सुनना अटपटा और अजनबी लगता है। बहुत बाद में दिल्ली में भी कुछ दोस्त पूरब कहने लगे और उसमें मुझे संकोच महसूस हुआ। अजीब सा अहसास है यह ! डाक नाम से पुकारने का अधिकार भी हम अपने हाथ में रखना चाहते हैं। 

माँ मुझसे कभी कभार चिढ़े तो उसका 'लड़की' कहना याद है। आम तौर पर वो मुझसे दुखी भले हो जाए, तंग हो जाए, मगर नाराज़ कम होती थी। यह कब हुआ ? किशोरावस्था में मैं माँ के गुस्से और अनुशासनपसंदगी से त्रस्त रहती थी। मेरी कुछ पुरानी चिट्ठियों में यह भाव मिल जाएगा। बचपन में माँ से डरना तो भूलता नहीं है क्योंकि माँ ही थी जो सब पर शासन करती थी। वह भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी और  इसके नाते मौसी-मामू भी अपनी 'बड़की दी' के शासन करने के गवाह रहे। मेरी शादी के बाद हमारा रिश्ता एकदम बदल गया, ऐसा मुझे लगता है। मुझे समझ आ गया था कि माँ और मायका क्या होता है। उस भौतिक अलगाव ने मुझे माँ के करीब ला दिया था। आगे चलकर लड़की की ज़िंदगी पर निगाह जाने लगी, पढ़ाई-लिखाई और दीन-दुनिया के अनुभव ने gendered life की परतों से परिचित कराया। जब बाकायदा जेंडर पर काम करने लगी तब अनुभव को जेंडर लेंस से देखने की सलाहियत आने लगी। 

हमदोनों खूब बात करने लगे थे। उपन्यास की नायिकाओं से लेकर आस-पड़ोस के लोगों के बारे में माँ से गप्प होता था। बाद में टीवी के धारावाहिकों के पात्रों पर भी। उसमें जब उसकी याददाश्त धोखा देने लगी थी और वो धारावाहिकों में काम करनेवाले पुराने ज़माने के अभिनेता-अभिनेत्रियों के नाम भूलने लगी थी तब फ़ोन करके उनको पहचानने में मदद करने को कहती थी। मैं जानती होती थी तब तो फ़ौरन बता देती थी, अन्यथा गूगल करके बताती थी। ऐसे सवाल  वह कई लोगों से करती थी और धीरे-धीरे लोग झल्लाने लगे थे। मैंने उसको कह दिया था कि तुमको जो पूछना हो मुझसे पूछ लो - रात-बिरात कभी भी। 

लेकिन कभी कभी ऐसा होता था कि मैं किसी काम में डूबी हूँ और माँ किसी फ़िल्म में, किसी गाने में या किसी धारावाहिक में पात्रों के नाम पर अटकी है और तब मैं चिल्ला पड़ी उस पर कि माँ, नाम बाद में बताऊँगी। इतना ही नहीं, जब मेरा टीवी देखना छूट गया और फ़िल्म देखना भी कम होता गया तब मैं अभिनेता-अभिनेत्रियों को नहीं पहचान पाती थी। माँ की सुई पुराने ज़माने पर नहीं अटकी हुई थी। उसको नए से नए अभिनेता-अभिनेत्रियों के बारे में भी  जानना होता था। 'जोधा अकबर' में जोधा कौन है, और अकबर जो रजत टोकस है वह किस राज्य का होगा ? ऐसे सवालों के जवाब में बेटू के स्कूल जाने के रास्ते में दिखनेवाले दक्षिणी दिल्ली के टोकस मार्ग के हवाले से मेरा माँ को टोकस उपनाम के बारे में बताना - यह सब क्या था ? कभी कभी एक नगण्य से लगनेवाले पात्र को पहचानने के क्रम में माँ धारावाहिक या फ़िल्म की कहानी सुना जाती थी ताकि मैं उसका नाम पता कर सकूँ। 

माँ खूब पढ़ती थी और उसके बिस्तर पर या सामने के स्टूल पर (मेरे चिल्लाने पर) किताबों का थाक रहने लगा था। पापा जब तक थे बिस्तर पर दवाएँ (अधिकतर होमियोपैथी दवाएँ और थायरायड, ब्लड प्रेशर सहित विटामिन की गोलियाँ भी) रहती थीं, सिंदूर का डिब्बा (बाल में लगानेवाले रंगबिरंगे बैंड, साड़ी पिन, कंघी सहित), पापा को देने के लिए बिस्कुट और छोटी-बड़ी एक-दो डिक्शनरी भी। 

अंजु बरसों बाद जब दो-तीन साल पहले माँ से मिलने गई थी तो स्टूल पर रखी किताबों और माँ के हाथ में ‘रेत समाधि’ ने उसे अपनी किशोरावस्था की याद दिला दी थी। जब हम हाई स्कूल में थे और पड़ोस में रहते थे तो हमारा एक-दूसरे के घर खूब आना-जाना होता था। उस वक्त माँ की जो छवि उसके मन पर अंकित हुई थी, वह बरकरार रही। दशकों बाद उम्र और असमर्थता की चोट ने माँ का किताबों के प्रति चाव खत्म नहीं किया था, बल्कि ज्यों का त्यों बनाए रखा था। उसने अभी बताया कि लिखना-पढ़ना आंटी (माँ) का व्यक्तित्व था या यह कहना बेहतर होगा कि वह उनके जीने का संबल था। वह उनका विश्वास था, जैसे किसी का भगवान पर होता है, वैसे ही उनका पढ़ने-लिखने पर विश्वास था। वही उनकी सच्चाई थी, चट्टान की तरह ठोस और अडिग।

माँ के बिस्तर पर खाने-पीने के सामान देखकर या उसी कमरे में सबकुछ रखा देखकर मैं कितना नाराज़ होती थी, यह माँ-पापा को पता है या मुझे। गुड़िया, मीरा, गौरी और सोनू भी जानते थे जो माँ की तीमारदारी में रहते थे। चलने में असमर्थ होते जाने के कारण उपजी माँ की असुरक्षा की भावना से अनजान नहीं थी मैं, मगर उसको इतना लाचार देखना और कमरे को अस्त व्यस्त देखना माँ की गरिमा के अनुरूप नहीं था। जब माँ के कमरे से मैंने पापा का दीवान हटवाकर बगल के कमरे में रखवाने पर ज़ोर दिया था तब जानती हूँ कि वह कितना घुट रही थी। मैंने ब्रह्मास्त्र चलाया था कि तुम्हारे पास भैया, सुनीता, लावण्य आते हैं तो बैठने की जगह नहीं होती। उसका व्हील चेयर भी दीवान की वजह से आ-जा नहीं सकता था। माँ बेबस थी और मान गई। मैंने जानते-समझते ज़्यादती की, लेकिन मुझे लगा कि थोड़ी तो व्यवस्था बदले। माँ ने पापा के बाद अस्पताल जाने के सिवा कभी उस कमरे को नहीं छोड़ा। उसने ठान लिया था कि कहीं नहीं जाना है। उसको मन बदलने के लिए दिल्ली चलने को कहना भी मैंने छोड़ दिया था। अंतिम दिनों में माँ के साथ मैंने भी हार मान ली थी। 

आज माँ को गए पाँच महीने हो गए हैं और मन अटका है उसकी पुकार पर।

 


6 टिप्‍पणियां:

  1. डाक नाम से इब्तिदा होने वाली कहानी या निबंध में माँ और बाबू जी की यादों गूथा ये मज़मून बहुत पियारा है ।

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  2. हमारे यहां भटकुइयां को "भटकैया" कहते हैं। ऊसर बांगड़ कहीं भी उग आता है। फूल पीले, हल्के और गोलाकर होते हैं, लेकिन लता कांटेदार होती है।

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  3. जैसे अभी बरसा पानी आंगन में जमा हो और उसमें छपाछप करने जैसी आत्मीय अनुभूति होती रही पढ़ते हुए।

    पुरवैया मुझे बहुत प्रिय है। मीठा दर्द जगाती हुई। ज्यादा जागृत करती हुई। पर आपका नन्हा सा नाम और ज्यादा प्रिय है,पूर्वा❤️
    स्वाती पक्की सुरबत्ती है। उसपर जंचता है यह नाम।
    आनंद आता रहा। अब तो आपको और पढ़ना है,पूरब।
    आपकी मां और मेरी रागिनी फुआ मां वाली रवानी है आपमें।
    और 'उकनिये' खुद को। बहुत कुछ दबा पड़ा होगा।

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  4. बहुत हीं जीवंत एवं मार्मिक संस्मरण... एक अछूते विषय 'डाक नाम' के माध्यम से 👌💓
    मुझे भी वर्षों तक ममतामई माता & स्नेहिल नवल जी का सुखद सानिध्य - स्नेह का सौभाग्य मिला 😌🌹🙏

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  5. आंखो में आंसू आ गए। मेरे पितास्वरूप काका मुझे खेपी यानी पगली बुलाते थे। मेरा भी मन उस पर लगा रहता है कई बार

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  6. अद्भुत पूर्वा जी । आपके इस पहलू से अब तक अपरिचित था ।

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