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मंगलवार, 20 अगस्त 2024

आखिरी साँस (Last breath by Purwa Bharadwaj)

कल यानी 17 अगस्त, 2024 को हम सपरिवार नेहरू पार्क गए थे - हमदोनों, बेटी और प्रिंगल। प्रिंगल को घर आए 9 साल पूरे हुए थे। 17 अगस्त, 2015 को वह हमारे मौरिस नगर के D 12 वाले घर में आई थी। तब तीन महीने की थी। रानी लुधियाना से आई थी। हम कभी कभी उसे प्रिंगल लुधियानवी कहते। ग्राउंड फ़्लोर के पहलेवाले घर से हम दस दिन बाद ही उसी कॉलोनी में तीन मंज़िल वाले घर में आ गए थे। 

यह मैंने 18 अगस्त की देर रात लिखना शुरू किया था। थकान और बगल में खड़ी प्रिंगल की बेचैनी देखकर लिखने का मन नहीं किया। क्या पता था कि पहले ही वाक्य का यह जो 'था' है वह इतना आसन्न है! अगली ही सुबह प्रिंगल वाकई भूतकाल में बदल गई। 

प्रिंगल के मुँह का ट्यूमर खिसक खिसक कर गले तक आ गया था और कैंसर ने उसका फेफड़ा जकड़ लिया था। डॉ. प्रभाकरन पिछले 10 महीनों से हर महीने उसका पूरा scan करवाते थे। 12 जुलाई के एक्सरे में जाकर दिख गया था कि अब फेफड़ा भी जा रहा है। उसके पहले तक उसके vitals कैंसर की ज़द में नहीं आए थे। पिछले नवंबर में अल्ट्रा साउंड में हल्का सा तिल्ली (spleen) में जो असर दिखा था वह अंत तक उतना ही रहा। फैला नहीं। हम प्रिंगल के साथ चल रहे थे क्योंकि वह पूरी ताकत से कैंसर का मुकाबला कर रही थी।

बीच बीच में प्रिंगल बहुत उत्साह में आकर भौंकती थी तो उसके मुँह से खून आने लगता था। इसने हमारी रुटीन को बदला। मेरी अनियमित सैर तो ठप्प ही हो गई क्योंकि प्रिंगल के बिना सैर पर जाना उससे दगा करना होता। अब प्रिंगल की सैर तभी होती जब डॉक्टर के यहाँ हम जाते। वह भी गाड़ी से। खिड़की से झाँक झाँक कर दुनिया को अपनी नज़रों में कैद करती थी। इधर जब प्रिंगल के मुँह से ज़्यादा खून आने लगा तो डॉक्टर डेढ़ या सवा महीने पर बुलाने लगे। उसकी बाहर जाने की तत्परता बरकरार रही, लेकिन क्लिनिक पहुँच कर अड़ने लगी कि अब जाँच के नाम पर मुझे तंग करने के लिए चौखट के अंदर मत ले जाओ।

हमारी बच्ची को बाहर जाना भला क्यों न पसंद हो ! हम पुराने बदनाम हैं कि घर में पैर टिकता नहीं। जब न देखो तब हम निकल पड़ते थे। प्रिंगल कपड़े सूँघती थी कि मम्मा-बाबा के घर के कपड़े हैं या बाहर के। फिर जाकर वह अपना पट्टा (लीश) खोजती कि मुझे तैयार करो और साथ ले चलो। ऐसा कम होता था कि हम इकट्ठे जाएँ। बीच में हमने सपरिवार नेहरू पार्क के दो चक्कर लगाए थे। उसकी खुशी देखते बनती थी, लेकिन बाबा की पूँछ ऐसी कि उसको मूँगफली लाने जाता देखकर हल्ला मचा दिया था। बेटी उसके साथ दौड़ती रही थी और मैडम कनखी से हमदोनों पर नज़र रखे हुए थीं कि नालायक माँ-बाप खिसक न जाएँ। यह family time वाकई नायाब था और इसके लिए बेटी को जितनी शिकायत हमसे है उतनी ही प्रिंगल को भी रही होगी। आज सोच रही थी कि बेटी ने प्रिंगल को लाकर हमें कितना अनमोल मौका दिया। 

बीमारी के बाद एक बार हम चारों सुंदर नर्सरी भी गए थे और उल्टे पाँव वापस आ गए थे। कारण, उस दिन प्रिंगल का उत्साह चरम पर था और अधिक भौंकने के कारण उसका मुँह खून से तरबतर हो गया था। हमें अपराधबोध हुआ कि नाहक उसे लेकर बाहर निकले। वैसे यह समस्या हमारी थी, कुछ ऐसा ही प्रिंगल रानी जतलाती थीं। वह बेपरवाह थी और ऊर्जा से लबरेज़। 

अभी तीन दिन पहले जब हम नेहरू पार्क जाने के लिए तैयार होने लगे तो प्रिंगल चौकन्नी हो गई। अपूर्व जब सीढ़ी के सामने गाड़ी लाने के लिए पहले निकलने लगे (पिछले दिनों प्रिंगल का ट्यूमर उसके खुजला देने के कारण फटकर रिसने लगा था और उसे पट्टा पहनाना मुश्किल हो गया था। ऐसे में अपनी सीढ़ी पर विराजमान प्रिंगल की सजातीय और कॉलोनी के अन्य सजातीयों से उसे बचाने के लिहाज से गाड़ी ठीक सीढ़ी के सामने लाई जाती थी और सीढ़ी उतरकर गाड़ी तक उसे गोद में हम ले जाते थे।) तो दरवाज़े की फाँक में उसने सिर घुसा दिया। धर-पकड़ में हम दो जन लगे तब जाकर उसकी मुंडी भीतर हुई। अगले 5 मिनट में जबतक हम घर की चाभी उठाते, जूता पहनते, तबतक बच्चू खामोश नहीं हुई। फिर मैं दो तल्ले पर गई और बेटी को कहा कि अब प्रिंगल को भेज दो। उसके वेग पर ब्रेक लगाने के लिए मैं बीच सीढ़ी पर थी। उसे थामो नहीं तो हमेशा तीर की तरह छूटती थी। उस रोज़ उस समय कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि यह लड़की इतनी बीमार है, वज़न 5-6 किलो घट गया है और डेढ़ दिन बाद लुप्त हो जाएगी।

इस 17 अगस्त की शाम खुशी खुशी हम नेहरू पार्क के लिए रवाना हुए थे। लगभग 45 मिनट प्रिंगल घूमती रही। एक बार भी थककर बैठी नहीं। दौड़ वाला खेल बेटी ने नहीं खेला ताकि उसको थकान न हो। हम दूरी बनाए रखते हुए घेरा डाले हुए थे ताकि अगल-बगल से कोई बंधु-बांधव न आ जाए। मैडम मिलनसार इतनी थीं और अकड़ फूँ भी इतनी कि बिना हाय-हैलो किए किसी को अपने करीब से गुज़रने नहीं देती थीं। उससे मैंने जाना था कि शांतिप्रिय जीव होने का मतलब बेआवाज़ होना नहीं है। 

वापसी में प्रिंगल ने रास्ते में पानी पिया और केवल दो छोटा गाजर वाला बिस्कुट खाया। हम उसके साथ होने का जश्न मना रहे थे क्योंकि वह जाने की राह पर है, इसका हमें बखूबी अंदाजा था। हमने रास्ते में अपने लिए खाना बँधवाया और गाड़ी में ही बैठकर खाया। प्रिंगल ज़रा भी मचली नहीं। इन दिनों उसकी खाने से रुचि घट गई थी और मात्रा भी। घर आकर उसने marie gold बिस्कुट खाया जो वापस हम देने लगे थे। डॉक्टर ने ग्लूटन और चावल पर जो रोक लगाई थी उसे किनारे कर दिया था। कहा था कि अब जो चाहे वह दीजिए क्योंकि हाथ में अब गिनती के दिन बचे हैं।  

गिनती क्या होती है ? क्या सचमुच इसको हम जानते हैं और किसी प्राणी की ज़िंदगी की गिनती, साँसों की गिनती क्या है ? हमको क्या पता था countdown शुरू हो चुका है। अगली सुबह यानी 18 अगस्त अजीब थी। पूरे घर में सुबह सुबह प्रिंगल की खोजाई शुरू हुई। हमने सारे कोने छान मारे, बिस्तर के नीचे, मेज़ के नीचे, सोफ़े के पीछे, स्टडी में – कहीं नहीं थी। सदर दरवाज़ा बंद था और उसके बाहर बाँस का बना छोटा फाटक भी। फिर गई कहाँ ? पाया कि प्रिंगल जाकर बाथरूम में गीली ज़मीन पर बैठी है। मैंने उसे नहलाया-धुलाया। अंतिम बार। दोपहर में खाना-पीना कम हुआ, मगर हुआ। शाम को कई बार उसने marie gold बिस्कुट खाया। अंडा भी खाया। लेकिन उसकी साँस अधिक तेज़ चल रही थी। वह इधर से उधर छटपट कर रही थी। रात को सोने गई, लेकिन बार-बार खड़ी हो जाए। मैंने 9 का घंटा जाने दिया जो उसके खाने का नियत समय था। साढ़े दस बजे वह रसोई के पास आई, माने कि भूख लगी उसे। हल्दी डालकर मुर्गा उबला हुआ था। उसका लगभग सवा दो टुकड़ा उसने खाया। शुरू में मुँह फेर लिया था, मगर फिर चाव से खा गई। बेटी ने भी खुश होकर देखा कि कैसे वह मेरे हाथ पर लपक रही थी। मैं संतोष से भरी हुई थी। 

रात भारी रही। कभी प्रिंगल बैठने की कोशिश करे, कभी टहले, कभी एक जगह खड़ी रहे। मैंने देखा कि मेरे सिरहाने लैम्प के पास आकर वह लेटी। तार हिला तो लैम्प भकभुक करने लगा। मैंने सोचा कि उसका तार दूसरे सॉकेट में लगा दूँ, पर प्रिंगल को छेड़ने का मन नहीं हुआ। एक्रेलिक फ़ाइबर शीट से ढँके फ़र्श से चार अंगुल ऊपर जो दीवार का उभार है वह प्रिंगल को सिर टिकाने का मौका देता था। कई बार हमने उसके लिए कुशन जैसा रखने की कोशिश की थी, मगर मैडम के लिए अपने बिस्तर का किनारा, कुर्सी के नीचे का डंडा या अपूर्व की चप्पल या पैर अधिक आरामदेह रहता था। कभी सिर टिकाती तो कभी ठुड्डी। अनमनापन और उदासी या नाराज़गी दिखानी हो तो उसकी यह मुद्रा हमारे लिए संकेत थी। वैसे इत्मीनान और आराम फरमाने के लिए भी ऐसे लेटती थी। हमारी देह पर अपना सिर या पैर रखे तो हम निहाल हो जाते थे। कृतज्ञता और नाज़ के भाव से ओत-प्रोत! ज़रा कभी अपूर्व से पूछिए, प्रिंगल के बारे में बात करते समय उनका स्वर कितना स्निग्ध हो जाता है! बेटी से प्रतियोगिता सी भी चलती रहती थी क्योंकि उससे प्रिंगल का जो रिश्ता था हम उसके पासंग नहीं थे।

उस रात तीन बजे भोर में बेटी ने सिरदर्द के लिए क्रॉसिन दवा माँगी। मैं नींद में उठी और यह बताकर ढह गई कि दवा की टोकरी में देख लो। अगले दिन बेटी ने बताया कि प्रिंगल दरवाज़े के पास खड़ी थी तो उसे लगा कि शायद प्रिंगल को पेशाब करने ऊपर जाना है। हमारी छत के सामने वाली खाली पड़ी विशालकाय छत प्रिंगल का शौचालय था जिसकी हम नियमित सफ़ाई कराते हैं। सीढ़ी चढ़ने में कठिनाई देखकर बेटी ने प्रिंगल को गोद में ले जाने की सोची, मगर वह धीरे-धीरे खुद ऊपर गई और फ़ारिग होकर जल्दी से वापस आ गई। फिर हमारे कमरे में आ गई।

अपूर्व के भोर की साथी है प्रिंगल। दोनों बिना दखलंदाजी के एक-दूसरे के साथ घंटों बैठते हैं। पहले प्रिंगल को भोर में रोटी-ब्रेड चलता था और आजकल बिस्कुट। 19 अगस्त को हस्बेमामूल उसने दो बिस्कुट खाया। लेकिन बेचैन रही। इधर से उधर करती रही। मैं देर से सात बजे के करीब उठी तो वही बेचैनी देखी। हालाँकि जब अपूर्व मुझे जगाकर थायरायड की गोली खिलाने आए थे तब वह बिस्तर के नीचे मेरी तरफ़ लेटी हुई थी। नींद पूरी खुली तो बाहर आकर प्रिंगल का हाल-चाल पूछा। सामने पूँछ हिलाती वह मौजूद थी, मगर तनिक  ज़्यादा अस्थिर थी। समझ में नहीं आया। थोड़ी देर में वह फिर बाथरूम में जाकर खड़ी हो गई। मैं गोद में उठाकर लाई। उसको दुलार-मलार किया, मगर गोद में उसे अनकुस लग रहा था। मैंने उतार दिया। गले के घाव की ड्रेसिंग की। वह मेरे पास खिसककर आई। और करीब बुलाया तो भली बच्ची की तरह बात मानकर और करीब आई। ड्रेसिंग के दौरान ठुड्डी उठाई, दवा लगवाई। फिर पास बैठ गई। पिछले कुछ महीनों से शायद grip नहीं बनता था तो पीछे पीछे खिसकने लगती थी। डॉक्टर ने कहा कि डर भी एक वजह हो सकती है। इसका उपाय प्रिंगल ने निकाला था कि तब वह लेट जाती थी। आज उसे उसमें भी आराम नहीं मिल रहा था।

ड्रेसिंग के बाद मैं ड्राइंग रूम में मोढ़े से उठकर सोफ़े की कुर्सी पर आ गई तो प्रिंगल उसके नीचे आ गई। अपनी पसंदीदा जगहों में से एक। लेकिन अब तो बमुश्किल 10-15 मिनट बचे थे उसके पास। वह बेटी के कमरे तक गई। उसका कई चक्कर लगाया। क्या पता था कि उसे दीदी से मिलना था! हमें लगा कि तकलीफ़ तो है ही, सो अपने को व्यस्त रख रही है। अपूर्व 10 मिनट का nap लेने गए तो हमारे सोने वाले कमरे में गई। फिर उन्होंने पुकारा कि देखो प्रिंगल बाहर जाना चाहती है। मैं थोड़ा अलसा गई थी। पिछले हफ़्ते सरोज (मेरी मददगार) के भाई की मृत्यु हुई थी तो उसके बारे में उससे बात करने लगी थी। मैंने अपनी दूसरी मददगार सुनीता को कहा कि ज़रा प्रिंगल को देख लो। अब इसके लिए अपने को कोस रही हूँ कि मैं क्यों नहीं उठी। 

आखिरी बार प्रिंगल कमरे से निकलकर फिर बाथरूम के दरवाज़े पर खड़ी हो गई थी जो मेरी नज़र से ओझल था। मैं ड्राइंग रूम के दूसरी तरफ़ बैठी थी जहाँ से बाथरूम का दरवाज़ा ओट में था। अब अपना सिर धुन रही हूँ कि मैं उस तरफ़ क्यों नहीं बैठी जहाँ से प्रिंगल दिखती। मैंने दरवाज़ा बंद रखने की हिदायत दे रखी थी। सुनीता ने उसे वापस कमरे में भेज दिया। ज़रा भी यह बात दिमाग में नहीं आई कि dogs अक्सर अपनी तकलीफ़ के क्षण में एकांत खोजते हैं। यह पढ़ा था और प्रिंगल की हरकतों से इस प्रवृत्ति का जब तब मिलान भी करती थी। लेकिन यह बाथरूम में बार-बार जाना उसके आखिरी क्षणों की घंटी है, यह खयाल ही नहीं आया।   

इस बीच मैं नामुराद फ़ोन बैंकिंग के एक कॉल में लग गई। 5 मिनट भी न गया होगा कि अपूर्व ने उठकर मुझे आवाज़ दी। मैं फ़ौरन उठी, हालाँकि प्रिंगल को लेकर कोई दुष्चिन्ता नहीं थी। अपूर्व ने कहा कि “she is going”। अवाक् थे सब। आवाज़ के साथ उल्टी साँस चल रही थी। फिर शांत। लपककर अपूर्व ने बेटी को बुलाया। एक मिनट भी नहीं गया होगा। बेटी के आने पर प्रिंगल ने आखिरी दो साँस ली। दीदी को विदा कहे बिना उसकी monkey कैसे जाती ! मेरी दोस्त अंजु ने ठीक कहा कि उसे दीदी के बिना नहीं जाना था। तब भी दौड़कर शहद लेकर आई क्योंकि जून में चंडीगढ़ में निश्चेष्ट हुई थी तो डॉक्टर ने शहद चटाने को कहा था। मामला डिहाइड्रेशन का तो था नहीं। शहद जिस तरह उसके मुँह में डाला वह काफ़ी था यह बताने के लिए वह अब नहीं है। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई हरकत नहीं। 

फिर सिलसिला शुरू हुआ विदाई का। प्रिंगल को उसकी चादर में लपेटकर पिता-पुत्री ड्राइंग रूम में ले आए। सुनीता और सरोज को मैंने कमरा सँभालने और पोंछने को कहा तो उन्होंने पूरा धो ही दिया। इधर घर के लोगों और प्रिंगल के प्रिय जनों को हमने सूचित करना शुरू किया। उसको प्यार करनेवाले बहुत लोग थे। हमारा फ़र्ज़ था कि उनको प्रिंगल के जाने के बारे में बता दें। जैसा कि पहले सोचा था, इलेक्ट्रिक क्रेमोटोरियम तय करके हम छतरपुर के Paws to heaven गए। बेटी ने ही गाड़ी चलाई। उसका दोस्त फ़ौरन आ गया था। हमारी गाड़ी के साथ साथ टैक्सी से वह प्रिंगल के साथ चला। छतरपुर भाभी और माणिक भी पहुँचे। पूरे परिवार के सामने प्रिंगल को कर्मचारियों को सौंप दिया गया। गंगाजल और अगरबत्ती के बाद स्टील के दाह बॉक्स में। हम खाली हाथ लौट आए। खाली घर में। खाली मन लेकर।     

यह सब घटा कल। आज सुबह मैंने प्रिंगल का बिस्तर वगैरह छत पर रखवाया। जान रही थी कि वह खाली जगह और सवाल करेगी हमसे, मगर यह करना ही था। लेकिन कहाँ कहाँ से और क्या क्या हटाऊँ ? कहीं कान बाँधने की चोटी पड़ी है, कहीं खिलौना लुढ़का पड़ा है। कल सुबह का तौलिया बालकनी में बारिश से गीला हो गया है। पीने के बर्तन में लबालब पानी भरा है ताकि उसे सहूलियत हो। गहरे बर्तन में मुँह नहीं डाल पाती थी अब क्योंकि ट्यूमर आड़े आता था। खाने के बर्तन पर भी एक स्टील की तश्तरी रख दी थी मैंने। कई बार पानी और खाने को बदलना पड़ता था क्योंकि खून मुँह और गले से टपक पड़ता था।  बहुत बार हाथ से खिलाती थी, हथेली में रखकर।   

बेटी ने प्रिंगल का सारा सरअंजाम किया था – खाने का बर्तन, स्टैंड, डिजाइनदार स्वेटर, शैम्पू, सुंदर लीश, हेयर ब्रश, नेलकटर, आरामदेह बिस्तर, खिलौने, गाड़ी की सीट के लिए शीट और न जाने क्या क्या। हमने तो उसके बताने पर ही ब्रांड जाना या pet के रहन-सहन के बारे में जानकारी ली। Cocker Spaniel नस्ल की खासियतों, उनकी बारीकियों, उसमें भी English Cocker Spaniel के मन-मिजाज़ के बारे में जाना। कैंसर के निदान के लिए जब डॉक्टर ने प्रिंगल का ग्लूटन बंद किया तो जो स्नैक्स आता था उसकी कीमत देखकर मैं कुनमुनाऊँ तो बेटी इसपर चकित हो जाती थी कि मैं कैसी माँ हूँ। बच्चे के खर्च पर मेरा ध्यान देना या उसका ज़िक्र कर देना बेटी के गले नहीं उतरता था। और कहना न होगा कि मैं भी शर्मिंदा हो जाती थी।  

प्रिंगल को कष्ट से मुक्ति मिली, यही सोच रही हूँ। जैसे माँ को जाना ही था, पापा को जाना ही था, वैसे ही प्रिंगल को रोकना उसके लिए और कष्टदायक होता। बच्ची हिम्मतवर थी, खुशमिजाज़ थी और चलते-फिरते गई। ट्यूमर के बढ़ते आकार ने उसे पस्त किया था, मगर उसकी जिजीविषा को पछाड़ा नहीं था। खूँ आलूदा वह हुई, मगर गंदगी में लिथड़ी नहीं। एक वक्त आया था जब डॉक्टर और प्रियजन हमें कह रहे थे कि कष्ट से मुक्ति का उपाय है सूई लगवा देना। हम लाचार होकर एक क्षण के लिए तैयार हो गए थे। 16 जुलाई को जब उसके ट्यूमर से तेज़ी से खून रिसने लगा था तो उस रात ढले डॉक्टर की सलाह पर 18 जुलाई को तिथि निश्चित हुई थी। मैंने डॉक्टर के कहे मुताबिक घर के लोगों को msg कर दिया था कि 18 की सुबह शायद vet के पास जाएँगे। दिक्कत यह भी थी कि अगली सुबह 17 जुलाई को मुझे देहरादून जाना था। महीनों पहले से यह कार्यक्रम तय था। कई दिनों का काम था, लेकिन मैं भोर में निकलकर देहरादून में दिन भर ट्रेनिंग करके उसी रात दिल्ली लौट आई। दरवाज़े पर मेरे स्वागत में प्रिंगल आई, लेकिन सिर झुकाए हुए। उसकी चहक गायब थी, लेकिन हम सब खुश थे एक-दूसरे का साथ पाकर।  

17 जुलाई की वह रात आँखों में कटी। अगली सुबह फिर बेटी ने एक दिन की मोहलत माँगी। अपूर्व ने कहा कि वह फिर से थोड़ा खा-पी रही है, उसकी हरकतें बढ़ी हैं तो हम यह निर्णय नहीं ले सकते। मेरा दिल तो यों भी धुकधुक कर रहा था। मेरा भैया, भाभी, भतीजा सब इसके खिलाफ़ थे। माँ-पापा रहते तो यह खयाल भी मन में लाने के लिए मुझे फटकारते। नैतिक दुविधा थी, मगर उससे उबारा प्रिंगल ने ही। उसकी जिजीविषा के आगे हम कौन होते थे फ़ैसला लेनेवाले।

अगला एक महीना डर में कटा। मैं चंडीगढ़ गई, गुजरात गई, उत्तराखंड गई। उन कामों को टालना मुमकिन नहीं था। फ्रीलांस काम का अपना व्याकरण है। डरते-डरते अपूर्व एक दिन के लिए कलकत्ता गए। प्रिंगल और बेटी - दोनों बच्चे अकेले थे और चिंतित भी। राम-राम करके हमारी यात्राएँ सकुशल संपन्न हो गईं। प्रिंगल के आसपास ही हम थे। और आखिर अंतिम घड़ी आ गई। 19 अगस्त की रात अभी तक नानाजी के जाने की तारीख थी। अब वह सुबह प्रिंगल से जुड़ गई।     

समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें। रुटीन प्रिंगल के इर्द गिर्द थी। धीरे धीरे उसकी अनुपस्थिति के भी हम अभ्यस्त हो जाएँगे, लेकिन जो खालीपन है वह ताउम्र रहेगा। मित्र तरुण गुहा नियोगी ने सही कहा कि एक रिक्तता दूसरी रिक्तताओं को भी जगा देती है। हमें बेटी की चिंता सता रही है। बाबूजी और झुमकी दी बार बार बेटी का हाल पूछ रहे हैं। उसकी तो हर वक्त की साथी थी प्रिंगल। उसने खूब तस्वीरें सहेजी हैं। प्रिंगल की तस्वीर और वीडियो देखकर हम सब पुराने दिन की खुशी को याद कर रहे हैं। लेकिन खुशी की याद तो खुशी नहीं है न !

सच पूछो तो अब मैं सारे बंदोबस्त को नए सिरे से करने से रही। मुझे प्रिंगल की चुनींदा चीज़ें सजाकर या मढ़वाकर भी नहीं रखनी हैं। बस प्रिंगल का जहाँ जो है रहेगा। उसका खाने का बर्तन एकदम सामने है। दवाई और बैंडेज की टोकरी बगल में। वाशिंग मशीन के ऊपर टिशू पेपर का बड़ा गोला और ताख पर दर्दनिवारक cbd oil की नन्हीं शीशी है। मोडम जहाँ रखा है उसकी बगल में ओकोक्सीन (रक्त प्रवाह रोकने के लिए) और सरबोलिन (भूख जगाने के लिए) की बोतल रखी है। सुनीता ने उनपर धूल पड़ने नहीं दी है। तब भी मन लरज़ रहा है यह सोचकर कि शायद ऐसा समय आएगा कि घर के ताखो, दराजों, कोनों से धीरे धीरे उसका सामान हट जाए या धूल खाने लगे। इतना तय है कि उसकी स्मृति हमेशा ताज़ा रहेगी। 

सिर्फ़ हम नहीं, हर वह व्यक्ति जिससे प्रिंगल की मुलाकात हुई वह ग़मज़दा है। अभी अविनाश ने बताया कि एक बार उसकी बहन और भांजी भी प्रिंगल से मिले हैं और उनको उसका मिलनसार स्वभाव आजतक याद है। भैया को 2016 मार्च में घर आने पर अपने स्वागत में प्रिंगल का घूमर नृत्य याद है। फिरकी की तरह नाचने लगी थी वह। तब बच्ची भी थी। मगर उम्र ने उसकी खुशमिजाज़ी को कम नहीं किया था। भारतेन्दु बाबू, गोल्डी सब उसकी ज़िंदादिली को याद कर रहे हैं। शोक संवादनाओं का ताँता लगा हुआ है। अंजु से रोज़ बात हो रही है। अलका, पूर्णिमा, स्वाती, लीना, दिप्ता, वीनू जी, जया, सिम्मी, डेज़ी सबको मैं प्रिंगल के आखिरी पल का ब्योरा दे रही हूँ। क्यों ? मालूम नहीं। क्यों लिख रही हूँ ? मालूम नहीं।  

 


चार साल पहले प्रिंगल पर जो लिखा था उसे दुबारा पढ़ते समय लगा कि वर्तमान से अतीत की दूरी कितनी मारक है  https://www.satyahindi.com/opinion/relations-love-lifestyle-amid-coronavirus-lockdown-quarantine-109684.html


10 टिप्‍पणियां:

  1. इसे पढ़कर बस रो रहा हूँ। शब्द कितने कम पड़ जाते हैं कई बार। पर शब्दों के सिवा हमारे पास बचता भी क्या है कहने को। आप तीनों किसी तरह हिम्मत रखियेगा।

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  2. प्रिंगल बहुत प्यारी, मिलनसार, उत्सुक और जिंदादिल लड़की थी जिससे एक बार मिलकर भुला नहीं जा सकता है। प्रिंगल के साथ बिताए कुछ लम्हे हमारी भी सुखद स्मृतियों में रहेगी।

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  3. Bahut dukh hua di....aur aapne jis tarha se likha hai usko padhkar Dil aur ghamgeen hua....maine bhi usko bachpan me dekha tha.jab wo aapke ghar nai nai aayi thi.

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  4. प्रिंगल कितनी खूबसूरत और प्यारी थी इसका अंदाज़ा मुझे भी रहा है!
    उसका उठ जाना घर का, जीवन की रूटीन का बहुत ख़ाली हो जाना भी है।

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  5. पढ़कर मन बहुत ही उदास हो गया। पढ़ते-पढ़ते कई बार आँखों में आँसू आ गए। ऐसा लग रहा था जैसे मैं परिवार की किसी बेटी के न रहने का दुख पढ़ रही हूँ। आप सभी की अत्यधिक चिंता है, खासकर कचनार की। आप सभी को सब्र और हौसला मिले।

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  6. अर्चना त्रिपाठी22 अगस्त 2024 को 7:13 am बजे

    किसी का भी जाना बहुत ही दुखद होता है। हम बस महसूस ही कर सकते हैं। तकलीफ़ को वयां करने में शब्द भी कम पड़ते हैं। महबूबा अपने साथ ले ही जाती है

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  7. एक एक शब्द प्रिंगल को स्देव जीवित रखता है। प्यारी यादें जो हमेशा साथ रहेंगी।

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  8. हमें अपूर्वा (बेशक अपूर्व लेकिन अपूर्वा के लिए क्षमा)से प्रेम है। उन्हीं से आप सब को जाना है।
    आपको और आपकी बेटी को एवं नंदकिशोर नवल जी को । अपूर्वा के एक वार्तालाप के विडियो में एक बार भौंकने
    की आवाज़ आती है। इससे और एक फ़ोटो में जो कि स्पष्ट रूप से आपके घर का ही है; पता चला कि आप के पास एक दोस्त है। नाम आज जाना। अपूर्वा की चप्पल या पैर पर सिर रखना। हाय रे! वो स्पर्श और उसकी याद।
    प्रथम आर्य सत्य।

    ऐसे आ सकते हो जैसे कोई ख़ुशबू आए
    और जाने को घुटन छोड़ के जा सकते हो
    अम्मार इक़बाल

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  9. मै अक्सर आपकी रसचक्र की छत वाली कक्षा मे करती थी। प्रिंगल एक विचारक की भांति हम विद्यार्थियो के इर्द- गिर्द ही घूमती रहती और जब चाहे , जिससे टेक लगाकर बैठ जाती। जब आपकी मार्मिक अभिव्यक्ति से गुजर रही थी तो अपनी बेटी के जाने का मंजर आंखों के आगे तैरने लगा। दोनों ने ही खूब तकलीफ़ दी।🙏🙏🙏

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