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शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

दीये सब बुझ चुके हैं (Deeye sab bujh chuke hain By Ashok Vajpeyi)

एक-एक कर 

दीये सब बुझ चुके हैं

एक मोमबत्ती कहीं बची थी 

जो अब ढूँढ़े नहीं मिल रही है। 


अँधेरा अपनी लम्बी असमाप्य गाथा का 

एक और पृष्ठ पलट रहा है 

जिसमें बुझे हुए दीयों का कोई ज़िक्र नहीं है। 


जब रोशनी थी, हम उसे दर्ज करना भूल गये 

और उसकी याद 

थोड़ी-सी उजास ला देती है 

जिसे अँधेरा फ़ौरन ही निगल जाता है। 

खिड़की से बाहर दिखाई नहीं देती 

पर हो सकता है 

भोर हो रही हो। 


हमारे हिस्से रोशनी भी आयी 

बहुत सारे अँधेरों के साथ-साथ 

और लग रहा है 

कि अँधेरा ही बचेगा आखिर में 

सारी रोशनियाँ बुझ जाएँगी। 


कवि - अशोक वाजपेयी 

संकलन - अपना समय नहीं 

प्रकाशन - सेतु प्रकाशन, नोएडा (उत्तर प्रदेश), 2023   

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