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शनिवार, 19 जुलाई 2025

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर (By Meer Taqi Meer)

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर 

की बात उन ने कोई, सो क्या चबा-चबा कर 


शायद कि मुँह फिरा है, बंदों से कुछ खुदा का 

निकले है काम अपना कोई खुदा-खुदा कर 


कान इस तरफ़ न रक्खे, इस हर्फ़-नाशनो ने 

कहते रहे बहुत हम उसको सुना-सुना कर 


कहते थे हम कि उसको देखा करो न इतना 

दिल खूँ किया न अपना आँखें लड़ा-लड़ा कर 


आगे ही मर रहे हैं, हम इश्क़ में बुताँ के 

तलवार खींचते हो, हमको दिखा-दिखा कर 


वो बे-वफ़ा न आया बाली पे वक़्त-ए-रफ़्तन 

सौ बार हमने देखा सर को उठा-उठा कर 


जलते थे होले होले हम यूँ तो आशिक़ी में 

पर उन ने जी ही मारा आखिर जला-जला कर 


हर्फ़-नाशनो - बात न सुननेवाला 

बुताँ - माशूक़ 

बाली - सिरहाना, तकिया 

वक़्त-ए-रफ़्तन - जाने के वक़्त, मरने के समय 


शायर - मीर तक़ी मीर 

संकलन - चलो टुक मीर को सुनने

संपादन - विपिन गर्ग 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2024  

नुक़्ते की परेशानी के लिए माफ़ी के साथ क्योंकि लाख कोशिश करके भी टाइप में कई जगह नहीं आया।  

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