आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर
की बात उन ने कोई, सो क्या चबा-चबा कर
शायद कि मुँह फिरा है, बंदों से कुछ खुदा का
निकले है काम अपना कोई खुदा-खुदा कर
कान इस तरफ़ न रक्खे, इस हर्फ़-नाशनो ने
कहते रहे बहुत हम उसको सुना-सुना कर
कहते थे हम कि उसको देखा करो न इतना
दिल खूँ किया न अपना आँखें लड़ा-लड़ा कर
आगे ही मर रहे हैं, हम इश्क़ में बुताँ के
तलवार खींचते हो, हमको दिखा-दिखा कर
वो बे-वफ़ा न आया बाली पे वक़्त-ए-रफ़्तन
सौ बार हमने देखा सर को उठा-उठा कर
जलते थे होले होले हम यूँ तो आशिक़ी में
पर उन ने जी ही मारा आखिर जला-जला कर
हर्फ़-नाशनो - बात न सुननेवाला
बुताँ - माशूक़
बाली - सिरहाना, तकिया
वक़्त-ए-रफ़्तन - जाने के वक़्त, मरने के समय
शायर - मीर तक़ी मीर
संकलन - चलो टुक मीर को सुनने
संपादन - विपिन गर्ग
प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2024
नुक़्ते की परेशानी के लिए माफ़ी के साथ क्योंकि लाख कोशिश करके भी टाइप में कई जगह नहीं आया।
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