मुझे भूख बहुत लगती है। अपने डायबटीज़ के मत्थे इसे डालकर मैं खाने का जुगाड़ करने में भिड़ जाती हूँ। कभी-कभी लगता है कि सचमुच भूख नहीं है, केवल लगना है यह। कमाल की चीज़ है लगना ! कुछ हो न हो बस लगती है। जैसे रात के अँधेरे में आँगन में फैली उजली चादर उड़कर जब पास के पेड़ पर आड़ी-तिरछी टँगी हो तो किसी को भुतहा लगती है। हम सब बुद्धिमानी से दूसरों को समझाते हैं कि देखो वह है नहीं, सिर्फ तुम्हें लगता है। माने कि यह वास्तविकता से थोड़ी दूर की चीज़ है ?
ज़रूरी नहीं। जो चीज़ होती है वह भी लगती है। इसके लिए अवास्तविक होना ज़रूरी नहीं। एक तरह से कहा जा सकता है कि लगना अवास्तविकता और वास्तविकता के बीच का पुल है। जब शाहपुर जाट की गली के मोड़ पर कोई गाड़ी हॉर्न बजाती थी तो मुझे लगता था कि अपनी गाड़ी है। उस लगने में संशय रहता था, मगर मेरी बेटी को लगता नहीं था, बल्कि उसे पता होता था कि अपनी गाड़ी है या नहीं है।
बाबरी मस्जिद ढाह दिए जाने के बाद मुसलमानों को जो लगता है वह क्या है ? औरतों को घर हो या बाहर जो लगता है कि वे सुरक्षित नहीं हैं वह क्या है ? मिज़ो भाषा बोलनेवालों को दिल्ली आने पर जो अजनबी सा लगता है वह क्या है ? क्या सब लगना झूठ है ? या सब लगना अतिरेक है ?
जो भी हो लगना महसूस करना है। अहसास है, आहट है। इसलिए सात समंदर पार ही नहीं, सात लोक पार के व्यक्ति के लिए भी लगता है। दोस्त ही नहीं, दुश्मन के लिए भी लगता है। इस लगने पर कोई बंधन नहीं है, इसकी कोई सीमा नहीं है। हमें कुछ भी किसी भी समय किसी के भी बारे में लग सकता है।
यह संवेदना है। यदि किसी को कुछ नहीं लगता है तो अचरज की बात होती है। उसे दूसरे ग्रह का प्राणी माना जाता है। नहीं तो उसे असंवेदनशील कहा जाता है। शारीरिक या मानसिक बीमारी का शक होता है। बेहिस्स कहकर उसे अपमानित किया जाता है। मानिए तो इंसान होने की पहचान है लगना।
माँ से और पापा से लग कर सोने का सुख याद करती हूँ। दोई (बिल्ली) जब बेटी से लगकर उससे सहलवाती थी तब दोनों का सुख याद करती हूँ। तब तो लगना सटना है, चिपकना है। याद आया कि संस्कृत में धातु है लग्, भ्वादि गण की परस्मैपद की धातु। इसके मूल अर्थों में से एक है स्पर्श। मृच्छकटिकम् का "यथा यथा लगति शीतवातः" का उदाहरण भी याद है। "लग जा गले" से लेकर अनगिनत गाने दिमाग में घूम गए।
लगना लाड़-प्यार और करीबी होने को जताने का तरीका है। मुँहलगा इसी से बना है और दिल्लगी की जड़ में भी यही है। ताज्जुब नहीं कि लगने पर आपत्ति उठाई जाने लगती है। किशोरी का अपने सहपाठी लड़कों से लगकर बैठने पर भौं टेढ़ी होने लगती है। किसी दिन खाप पंचायत इसे मुद्दा बना लेगी, नहीं तो कहीं से फ़तवा आ जाएगा।
लगना में कुछ भी इकहरा नहीं है। आनंद और तकलीफ दोनों है। प्यार और चिढ़ दोनों है। अच्छा और बुरा दोनों है। आराम और चिड़चिड़ाहट दोनों है। नया जूता ज़बरदस्त लगता है। दाँत में ठंडा पानी लगता है। अम्मी (सास) को कोटे की साड़ी लगती है। दूध का बर्तन खखोरो तो उसकी आवाज़ बेटी को कान में लगती है। मुझे प्याज़ काटते समय आँखों से बहुत पानी आता है तो लोग समझाते हुए कहते हैं कि भूरी आँखोंवाले को प्याज़ अधिक लगता ही है। और नज़र लगने का क्या कहना ! सारे टोने-टोटके आजमा लीजिए, लगने को उतरवा लीजिए !
परेशानी तब अधिक होती है जब लगना ज़रूरत से ज़्यादा होने लगता है ! जिसे बाते सिरे कुछ न कुछ लग जाता है उस व्यक्ति से लोगों को डर महसूस होता है। उस अर्थ में यह बिसूरना, अखरना, चुभना, दुख देना सब है, बल्कि ये सारे शब्द कम हैं। एक बार बात लग गई तो लग गई ! इसलिए सावधानी बरतिए। यह लगना पेचीदा मामला हो जाता है। यदि आपकी बात-व्यवहार से अनजानते कोई बात लगी है तब भी कोई सफ़ाई काम नहीं आती है। और यदि आपकी बात जाति में बड़े, ओहदे में बड़े, धर्म में बड़े, रिश्ते में बड़े या किसी भी चीज़ में आपसे बड़े को लगी है तब तो खैर नहीं ! जान गँवाने से लेकर थूका हुआ चटवाने की सज़ा मिल सकती है। तात्पर्य यह कि जो जितना बड़ा, उसका लगना उतना बड़ा और भयानक ! यदि आप पायदान पर नीचे हैं तो फिर आपका लगना व्यर्थ है। वह आपका सुकसुकाना है। आपको अपनी पीठ गहरी करनी पड़ेगी।
उसमें सबसे खतरनाक होता है मंशा ढूँढ़ लेना। मंशा साबित हो जाए, छिपाने पर भी प्रकट हो जाए तब क्या होगा कालिया ? यदि किसी ने जान बूझकर कुछ कहा या किया ताकि आपको लग जाए तब तो माफी नहीं है। लगाने के लिए कुछ कहना-करना तो दुष्टता है जो अक्सर लोग करते हैं। "आज मैंने उसे लगा दिया" कहकर कोई बदले की आग ठंडी करता है, कोई झगड़े की शुरुआत करता है, कोई किसी को उसकी औकात बताता है और कोई अपने अस्तित्व का झंडा गाड़ता है। इस तरह उसमें हिंसा छुपी होती है।
वास्तव में पड़ताल का विषय बनता जा रहा है लगना। NCERT की किताब का कार्टून भी लगता है, हुसैन की पेंटिंग लगती है और लड़कियों का पब जाना भी। उस पर हंगामे को हम क्या कहेंगे ? मेरा सीधा जवाब है कि किसको लग रहा है और उस लगने के नाम पर किसको उकसाया जा रहा है या किसकी गोलबंदी की जा रही है, इसे समझिए। बुनियादपरस्त, सांप्रदायिक और वर्चस्वशाली समूह की हिंसक हरकतों को हमें राजनीतिक अर्थ में समझना होगा। लगना किसके एजेंडे पर है, यह जानना होगा।
पापा को जब तीता (तीखा) लगता है तो तुरत हिचकी आने लगती है। यहाँ लगना स्वाद से जुड़ जाता है और वह भी राजनीतिक अखाड़े में आ गया है। खाने-पीने की चीज़ों के अच्छा लगने का अंत नहीं है। इसलिए अब उसपर नियंत्रण की ज़रूरत महसूस होने लगी है। सुना है कि भले आपको मांस-मछली खाना अच्छा लगता हो, मगर अब आपको दिल्ली के कई प्रतिष्ठित संस्थानों में शाकाहारी भोजन ही मिलेगा। मेरी बेटी भी टिफिन में शाकाहारी चीज़ें ले जाने के लिए बाध्य की जा रही है। आपको क्या अच्छा लगता है, इसकी परवाह नहीं है। परवाह इसकी है कि सत्ता में जो है उसे क्या अच्छा लगता है ! यानी लगने लगने में भेद है, विविधता है। ताकतवर के लगने और आपके लगने में अंतर है।
"लगे रहो मुन्ना भाई" के लोकप्रिय होते ही लगना व्यक्ति से लेकर देश के विकास का रास्ता बन गया है। यह जुट जाना है, सम्मिलित होना है, समर्पण करना है। शादी के अर्थ में लगन के मूल में यही है -जुड़ना। इस सबके लिए धीरज चाहिए। धीरज नहीं, भरोसा नहीं तो इसका अर्थ होगा कि आप ठीक से लगे नहीं। आपकी पात्रता की जाँच इस आधार पर हो जाएगी। और तब आपसे लगने की अपील की जाएगी - बाँध निर्माण व पोलियो अभियान से लेकर मंदिर-मस्जिद सहित देश निर्माण तक में। इसलिए अटकिए नहीं, भटकिए नहीं, लगिए और बस लगे रहिए।
ध्यान लगना और मन लगना कितना भारी काम है ! पढ़ाई की छोड़िए, घूमने-फिरने, बातचीत करने में भी कई बार मन नहीं लगता है। तब लगने की जगह लगाने में सब जुट जाते हैं। लेकिन लगना-लगाना सिर्फ भारी भरकम नहीं होता है। सोचिए राह चलते जूते-चप्पल में कुछ लग जाए तब कैसा लगता है ? धूल-मिट्टी से बहुत फर्क नहीं पड़ता है। गोबर या टट्टी लग जाए तो घिन लगती है और उससे भी ज़्यादा शर्म आती है। पैर धुलवाए बिना काम नहीं चलता था। वह संभव नहीं हुआ तो कम से कम चलते-चलते घास-मिट्टी में उसे पोंछ लेने के बाद ही इत्मीनान लगता था ! अरे फिर आ गया यह लगना ? हिंदी की मुख्य क्रिया है या सहायक क्रिया या क्या ?
ज़रूरी नहीं। जो चीज़ होती है वह भी लगती है। इसके लिए अवास्तविक होना ज़रूरी नहीं। एक तरह से कहा जा सकता है कि लगना अवास्तविकता और वास्तविकता के बीच का पुल है। जब शाहपुर जाट की गली के मोड़ पर कोई गाड़ी हॉर्न बजाती थी तो मुझे लगता था कि अपनी गाड़ी है। उस लगने में संशय रहता था, मगर मेरी बेटी को लगता नहीं था, बल्कि उसे पता होता था कि अपनी गाड़ी है या नहीं है।
बाबरी मस्जिद ढाह दिए जाने के बाद मुसलमानों को जो लगता है वह क्या है ? औरतों को घर हो या बाहर जो लगता है कि वे सुरक्षित नहीं हैं वह क्या है ? मिज़ो भाषा बोलनेवालों को दिल्ली आने पर जो अजनबी सा लगता है वह क्या है ? क्या सब लगना झूठ है ? या सब लगना अतिरेक है ?
जो भी हो लगना महसूस करना है। अहसास है, आहट है। इसलिए सात समंदर पार ही नहीं, सात लोक पार के व्यक्ति के लिए भी लगता है। दोस्त ही नहीं, दुश्मन के लिए भी लगता है। इस लगने पर कोई बंधन नहीं है, इसकी कोई सीमा नहीं है। हमें कुछ भी किसी भी समय किसी के भी बारे में लग सकता है।
यह संवेदना है। यदि किसी को कुछ नहीं लगता है तो अचरज की बात होती है। उसे दूसरे ग्रह का प्राणी माना जाता है। नहीं तो उसे असंवेदनशील कहा जाता है। शारीरिक या मानसिक बीमारी का शक होता है। बेहिस्स कहकर उसे अपमानित किया जाता है। मानिए तो इंसान होने की पहचान है लगना।
माँ से और पापा से लग कर सोने का सुख याद करती हूँ। दोई (बिल्ली) जब बेटी से लगकर उससे सहलवाती थी तब दोनों का सुख याद करती हूँ। तब तो लगना सटना है, चिपकना है। याद आया कि संस्कृत में धातु है लग्, भ्वादि गण की परस्मैपद की धातु। इसके मूल अर्थों में से एक है स्पर्श। मृच्छकटिकम् का "यथा यथा लगति शीतवातः" का उदाहरण भी याद है। "लग जा गले" से लेकर अनगिनत गाने दिमाग में घूम गए।
लगना लाड़-प्यार और करीबी होने को जताने का तरीका है। मुँहलगा इसी से बना है और दिल्लगी की जड़ में भी यही है। ताज्जुब नहीं कि लगने पर आपत्ति उठाई जाने लगती है। किशोरी का अपने सहपाठी लड़कों से लगकर बैठने पर भौं टेढ़ी होने लगती है। किसी दिन खाप पंचायत इसे मुद्दा बना लेगी, नहीं तो कहीं से फ़तवा आ जाएगा।
लगना में कुछ भी इकहरा नहीं है। आनंद और तकलीफ दोनों है। प्यार और चिढ़ दोनों है। अच्छा और बुरा दोनों है। आराम और चिड़चिड़ाहट दोनों है। नया जूता ज़बरदस्त लगता है। दाँत में ठंडा पानी लगता है। अम्मी (सास) को कोटे की साड़ी लगती है। दूध का बर्तन खखोरो तो उसकी आवाज़ बेटी को कान में लगती है। मुझे प्याज़ काटते समय आँखों से बहुत पानी आता है तो लोग समझाते हुए कहते हैं कि भूरी आँखोंवाले को प्याज़ अधिक लगता ही है। और नज़र लगने का क्या कहना ! सारे टोने-टोटके आजमा लीजिए, लगने को उतरवा लीजिए !
परेशानी तब अधिक होती है जब लगना ज़रूरत से ज़्यादा होने लगता है ! जिसे बाते सिरे कुछ न कुछ लग जाता है उस व्यक्ति से लोगों को डर महसूस होता है। उस अर्थ में यह बिसूरना, अखरना, चुभना, दुख देना सब है, बल्कि ये सारे शब्द कम हैं। एक बार बात लग गई तो लग गई ! इसलिए सावधानी बरतिए। यह लगना पेचीदा मामला हो जाता है। यदि आपकी बात-व्यवहार से अनजानते कोई बात लगी है तब भी कोई सफ़ाई काम नहीं आती है। और यदि आपकी बात जाति में बड़े, ओहदे में बड़े, धर्म में बड़े, रिश्ते में बड़े या किसी भी चीज़ में आपसे बड़े को लगी है तब तो खैर नहीं ! जान गँवाने से लेकर थूका हुआ चटवाने की सज़ा मिल सकती है। तात्पर्य यह कि जो जितना बड़ा, उसका लगना उतना बड़ा और भयानक ! यदि आप पायदान पर नीचे हैं तो फिर आपका लगना व्यर्थ है। वह आपका सुकसुकाना है। आपको अपनी पीठ गहरी करनी पड़ेगी।
उसमें सबसे खतरनाक होता है मंशा ढूँढ़ लेना। मंशा साबित हो जाए, छिपाने पर भी प्रकट हो जाए तब क्या होगा कालिया ? यदि किसी ने जान बूझकर कुछ कहा या किया ताकि आपको लग जाए तब तो माफी नहीं है। लगाने के लिए कुछ कहना-करना तो दुष्टता है जो अक्सर लोग करते हैं। "आज मैंने उसे लगा दिया" कहकर कोई बदले की आग ठंडी करता है, कोई झगड़े की शुरुआत करता है, कोई किसी को उसकी औकात बताता है और कोई अपने अस्तित्व का झंडा गाड़ता है। इस तरह उसमें हिंसा छुपी होती है।
वास्तव में पड़ताल का विषय बनता जा रहा है लगना। NCERT की किताब का कार्टून भी लगता है, हुसैन की पेंटिंग लगती है और लड़कियों का पब जाना भी। उस पर हंगामे को हम क्या कहेंगे ? मेरा सीधा जवाब है कि किसको लग रहा है और उस लगने के नाम पर किसको उकसाया जा रहा है या किसकी गोलबंदी की जा रही है, इसे समझिए। बुनियादपरस्त, सांप्रदायिक और वर्चस्वशाली समूह की हिंसक हरकतों को हमें राजनीतिक अर्थ में समझना होगा। लगना किसके एजेंडे पर है, यह जानना होगा।
पापा को जब तीता (तीखा) लगता है तो तुरत हिचकी आने लगती है। यहाँ लगना स्वाद से जुड़ जाता है और वह भी राजनीतिक अखाड़े में आ गया है। खाने-पीने की चीज़ों के अच्छा लगने का अंत नहीं है। इसलिए अब उसपर नियंत्रण की ज़रूरत महसूस होने लगी है। सुना है कि भले आपको मांस-मछली खाना अच्छा लगता हो, मगर अब आपको दिल्ली के कई प्रतिष्ठित संस्थानों में शाकाहारी भोजन ही मिलेगा। मेरी बेटी भी टिफिन में शाकाहारी चीज़ें ले जाने के लिए बाध्य की जा रही है। आपको क्या अच्छा लगता है, इसकी परवाह नहीं है। परवाह इसकी है कि सत्ता में जो है उसे क्या अच्छा लगता है ! यानी लगने लगने में भेद है, विविधता है। ताकतवर के लगने और आपके लगने में अंतर है।
"लगे रहो मुन्ना भाई" के लोकप्रिय होते ही लगना व्यक्ति से लेकर देश के विकास का रास्ता बन गया है। यह जुट जाना है, सम्मिलित होना है, समर्पण करना है। शादी के अर्थ में लगन के मूल में यही है -जुड़ना। इस सबके लिए धीरज चाहिए। धीरज नहीं, भरोसा नहीं तो इसका अर्थ होगा कि आप ठीक से लगे नहीं। आपकी पात्रता की जाँच इस आधार पर हो जाएगी। और तब आपसे लगने की अपील की जाएगी - बाँध निर्माण व पोलियो अभियान से लेकर मंदिर-मस्जिद सहित देश निर्माण तक में। इसलिए अटकिए नहीं, भटकिए नहीं, लगिए और बस लगे रहिए।
ध्यान लगना और मन लगना कितना भारी काम है ! पढ़ाई की छोड़िए, घूमने-फिरने, बातचीत करने में भी कई बार मन नहीं लगता है। तब लगने की जगह लगाने में सब जुट जाते हैं। लेकिन लगना-लगाना सिर्फ भारी भरकम नहीं होता है। सोचिए राह चलते जूते-चप्पल में कुछ लग जाए तब कैसा लगता है ? धूल-मिट्टी से बहुत फर्क नहीं पड़ता है। गोबर या टट्टी लग जाए तो घिन लगती है और उससे भी ज़्यादा शर्म आती है। पैर धुलवाए बिना काम नहीं चलता था। वह संभव नहीं हुआ तो कम से कम चलते-चलते घास-मिट्टी में उसे पोंछ लेने के बाद ही इत्मीनान लगता था ! अरे फिर आ गया यह लगना ? हिंदी की मुख्य क्रिया है या सहायक क्रिया या क्या ?
अच्छा है
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