सुबह सब्जी-मण्डी से गुजरते हुए
बाजार में नए-नए आए
ललछौंह आलुओं को देखा था
सट्टी से सड़क तक उमड़े पड़ रहे थे
नए-नए आए ललछौंह आलू
घर-घर तक फ़ैल जाने को अधीर
डलियों की चौड़ी अंजलियों में भरे लबालब
पेटू झोलों के दन्तहीन मुँह में झाँकते उत्सुक
दिन बिताकर
उधर से लौटते हुए
सँवलाए हुए दिखते हैं बचे हुए आलू
उठ जाने से पहले उठे जाते हुए पैठ के साथ
दिखते हैं मटैले धुमैले
दिन-भर में ही जाने कितनी दुनिया देखे
बाजार के रंग-ढंग
ममतालु किसान-हाथों की मेहनती मजूर उँगलियों से
ज़मीन की रात से उखाड़कर लाए हुए वे
दिखते हैं
रात की ज़मीन को छूते हुए
थकी निदासी देह की कनपटी से
और मैं देखता हूँ. आलुओं की देह के
कार्बोहाइड्रेट में कहाँ से घुलती-मिलती है करुणा
करुणा - जिसे छिलके के साथ छुड़ाकर
शेष कार्बोहाइड्रेट को कतर-कतर
चिप्स में बदलती हैं पैकेटबन्द खाद्यनिर्माता बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ
उन्हें भरतीं पारदर्शी प्लास्टिक-कारागार में
लाभ-लोभ के सर्वग्रासी जबड़ों के बीच लपलपाती जीभ को सौंपने
कवि - ज्ञानेन्द्रपति
संकलन - संशयात्मा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2004